|| हरे माधव दयाल की दया ||

वाणी संत सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी

।। सतगुरु पुरुख हरि हर अनाम है, जनम मरण न आवहि।।
।। सो अगम अगाध, सतगुरु अलख अपार।।
।। सतगुरू जब प्रगटै सतदया सेव, अमृत भेद सब खोले।।

पारब्रम्ह हरिराया सतगुरु की शरण ओट में बैठी प्यारी साधसंगत जीओ, हरे माधव। आप सभी को आज के पावन दिवस, सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के प्रकाशोत्सव की अनंत-अनंत बधाइयाँ जी।

साधसंगत जीओ! हरिराया सतगुरु पुरुख उस अगम अगाध अलख अपार साहिब प्रभु में एकोमय होते हैं। वे अपनी ख्वाहिश या इच्छा से इस काल मन माया के देश में नहीं आते, अपितु प्रभु परमात्मा, गाॅड, हरे माधव अकह पुरूख के द्वारा नियुक्त होकर धरा पर अवतरित होते हैं जिनका एको उद्देश्य सर्व सांझी रूहों को तत्व नाम का भेद दे, मन के लुभावने रेशों से निकाल हरिराया के निर्मल देश ले जाना है। आज के सत्संग की रब्बी वाणी सतगुरू दयाल सांई नारायणशाह साहिब जी द्वारा फरमाई हुई, जो परम रोशनी की ओर इशारा कर रही है-

सतगुरु पुरुख हरि हर अनाम है, जनम मरण न आवहि
सो अगम अगाध, सतगुरु अलख अपार

शहंशाह सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी का अवतरण सन् 1912, माह जेठ, खुम्भ के शुभदिन पर हुआ। बाल्यकाल में आप गुरु साहिबान जी का नाम भाई प्रभा, आपकी माताजी का नाम पूज्य गुरुमाता गंगादेवी जी, जब आप गुरूता गद्दी पर आसीन हुए, तो ममता स्नेह-सा दुलार माता पारूअ माँ से मिला, जिनसे आप बालकों की तरह अनन्द-विनोद रूहानी मनमोहक लीलाऐं करते और उन्हें ममता माता का रूप भी कहते। आपजी के पिताश्री का नाम पूज्य गुरुपिता आसनदासजी।

आप साहिबान जी की दो बहिनें हूरबाई एवं खथीबाई। आपजी सतगुरू शरण में आने से पहले दीन दुखियों की सेवा, वैराग्य प्रेम में मस्त रहते पर सदैव खोज होती ऐसे मौलाई जीवन मुक्त, विदेही मुक्त पूरण सतगुरू की, जो शबद नाम के पार की पहुँच रखने वाला पूर्ण पुरूख हो।

जब आपजी, विदेही मुक्त सतगुरू बाबा माधवशाह साहिब जी से रूबरू हुए, तब आपकी खोज पूरी हुई। सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी बेपरवाह बेधड़क, अलस्ती मौज में वर्तण करते। आप सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी से गुरुघर में रहने की, पावन श्रीचरण कमलों की सेवा, बंदगी, शरण संगति में रहने की इजाज़त मांगते क्योंकि आपका दिल हर दुनियवी कामकाज से पूरी तरह ऊब चुका था। सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी ने वचन फरमाए, ‘‘भाई प्रभा! हमारे साथ चलो।’’ आपजी उसी समय बाबाजी के साथ चल पड़े और श्री चरणों में प्रेम की लौ रमायी। सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी अक्सर आपजी की कड़ी परिक्षायंे लेते पर आप साहिबान जी का प्रेमामय समर्पण सतगुरु श्रीचरणों में अडिग रहा, अटल विश्वास, प्रीत निह का नाता गहरा जुड़ा रहता। एक दफा जब भाई प्रभा जी ने विनती की, शहंशाह! हमें सेवा बंदगी का बल बक्शें, तो बाबाजी फरमाए, जाओ कस्बे के बाहर जो नदी का पुल है, वहीं से जाकर नीचे कूद जाओ। भाई प्रभा जी गुरु वचनों को शिरोधार्य कर, बिना सोच विचार किए, सीधे पुल पर चढ़ गए, और अंतर में सतगुरु का ध्यान कर कूद गए, पर हरिराया सतगुरु का रक्षात्मक हाथ आपजी पर बना रहा जिससे पचास फुट ऊँचे पुल से नीचे कूदने पर भी तन पर कोई खरांेच तक न आयी। आपजी नियमित रूप से सतगुरु श्रीचरणों की निष्काम सेवा में रमे रहे, हर पल, हर क्षण, स्वासों स्वांस नाम-सिमरन से तार जुड़ी रहती। आपजी के मुख पर सदा नूरे जलाल झलकता रहता, आपका व्यक्तित्व गुलाब के फूल ज्यों सदा महकता, आपका जीवन चंद्रमा के समान शीतल, सूर्य के समान तेजवान, आपका हृदय गंगाजल जैसा निर्मल और आपका समर्पण और भक्ति हिमालय जैसी अडिग रहती। आप साहिबान जी, विदेही मुक्त पारब्रम्ह सतगुरु की सेवा भजन बंदगी कर स्व पारब्रम्ह रूप ही हो गए।

आप सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी 5 अक्टूबर 1960 के दिन गुरुता गद्दी पर आसीन हुए। आपजी ने सर्वप्रथम जीव जगत को अमृत नाम से जुड़कर घट अंतर में उस साहिब प्रभु को पाने की सच्ची राह बतलाई, जीवों को भ्रमों-वहमों, बाहरी कर्मकाण्डों से निकाल निज मंदिर में एकस की ज्योत जगाने का होका दिया, जो कि आपजी के परम वचन आए-

अंतरमुखी सदा सुखी, बाहरमुखी सदा दुखी

इस अंतरमुखी मार्ग में भजन सिमरन के भंडारी सतगुरू की मौज-खुशी से ही जीव के अंदर अमृत आनन्द बरस पाता है, प्रभु करतार का नूर जग पाता है। जब गुरूमुख शिष्य सतगुरू की मौज में चलकर, उनके प्रेम सेवा में भीगकर संसार के तानों-बानों को सहते हुए, नित्य सिमरन, ध्यान में अपनी रूह को लगाते हैं तब उस अडोल साहिब में मिल पाते हैं।

सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने अनेक लीलाओं के द्वारा जीवात्माओं का उद्धार किया। आपजी की प्रत्येक लीला में त्याग, वैराग्य, निर्भवता, परमत्व का गहबी नूर झलकता। आप वैराग्य निजता की खुमारी में घनघोर बीयाबान जंगलों में भयावह हिंसक जानवरों के मध्य निर्भय होकर विचरण करते और आतम आनन्द में मस्त रहते। रिद्धियां-सिद्धियां तो आपकी चरण चेरी थीं, पर आप सिद्ध शक्ति का उपयोग करना भक्ति के विरूद्ध समझते किंतु प्यारों! समुद्र भरा है, कभी-कभार आनन्द विनोद के खेल भी खुद-ब-खुद होते हैं। आपका हृदय आकाश सा विराट, समुद्र सा परम गंभीर, संकीर्णता से कोसों दूर रहता। आपजी सभी को डांटते, झिड़प देते पर तह में प्रेम ही प्रेम अथाह भरा होता, खिन्न में आप खूब डांटते, खूब फटकारते, फिर दूसरे ही क्षण अथाह प्रेम के मधुर प्याले भी पिला लेते। आपजी सदैव नम्रता, सरलता धारण किये रहते, सदा शान्त परमतत्व भाव में स्थित रहते।

आप साहिबान जी तो परमार्थ, भक्ति, आतम-ज्ञान के सर्वगुण मालिक हैं, जनम-मरण से परे समत्व में स्थित, माधवे करतार के रूप में है, आपजी की महिमा अवर्णनीय, अवर्चनीय है। इस वास्ते वाणी में आया-

सतगुरु पुरुख हरि हर अनाम है, जनम मरण न आवहि
सो अगम अगाध, सतगुरु अलख अपार

ऐ रब के अंशों! हरिराया सतगुरु प्रेमी शिष्यों को अहंकार, खुदी, मनमत से किनारा कराकर सेवा, सिमरन का सलीका, साटिक में टिकने का बल देते हैं, अंतर छिपे अमृत को पाने की सहज राह देते हैं-

सतगुरू जब प्रगटै सतदया सेव, अमृत भेद सब खोले

सो शिष्यों-भगतों का भी फर्ज़ है कि वे आज्ञाकारी बन इस राह पर चलें।

आप सतगुरु सच्चे पातशाह जी समझाते हैं, सबसे पहले सतगुरू, शिष्य से प्रेम करता है, उस शिष्य का सतगुरु के लिए प्यार तो केवल एक प्रतिक्रिया मात्र है। हरिराया सतगुरू हर पल शिष्य को याद करता है, हर घड़ी उसी का भला चाहता है।

हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी हरे माधव यथार्थ संतमत वचन 59 में फरमाते हैं, जैसे माँ अपने बच्चों की खातिर सुख के साधन त्याग देती है, ऐसे ही हरिराया सतगुरू भी रूहों को रूहानी दीक्षा दे उन पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं। अगर बच्चा उग्रवादी या शरारती हो जाए, तो भी माँ उसका ख्याल करती है, मन में यही विचार करती है, कि मेरे बच्चा कहीं भूखा तो नहीं है, बीमार तो नहीं है, उसी तरह शिष्य चाहे सतगुरू को छोड़ जाए, बिगड़ जाए या विमुख हो जाए, पर पूर्ण सतगुरू अपने शिष्य को नहीं छोड़ते, वे हमेशा उसकी सार-सम्भाल करते रहते हैं।

प्यारे मुरीदों! याद रखना, पूरे सतगुरू देहधारी, शरीरधारी जरूर हैं लेकिन वे नाशवान शरीर नहीं हैं, वे तो परम पुरूख प्रभु सत्ता धारी हैं, वे हर किसी में बसे रमे हैं क्योंकि वह परिपूर्ण उसी में आ चुके हैं। संत कबीर जी कहते हैं-

गुरू तो ऐसा चाहिए, शिष्य सों कछु न ले।
शिष्य तो ऐसा चाहिए, गुरू को सब कुछ दे।।

शिष्य को सदैव सतगुरू रूप का ध्यान करना चाहिए। संतजी समझा रहे हैं सतगुरू और शिष्य का रिश्ता गंभीर विषय है, यह सामान्य जग के सोचने का विषय नहीं है। आप हम सबने देखा है, अनुभव किया है और कर रहे हैं कि पूरन सतगुरू हमारे लिए क्या-क्या नहीं करते, चाहे हम अंतरमुखी हों या बाहरमुखी हों, तब भी वे सदा दया, मेहर करते रहते हैं। आपजी उन रूहों को चेतावनी दे रहे हैं, जो अभी परमार्थ के राज़ नहीं जानते, ऐ बन्दों! हमारा मुख, गुरू सतगुरू की तरफ होना चाहिए, बाहरी भ्रमों-वहमों व्यर्थ के बातों, ख्यालों से हटकर अंतरमुखी बने रहें, तभी हम अपनी आंतरिक आँखों से वह रूहानी जलवा, वह लीला देख सकते हैं।

हरे माधव यथार्थ संतमत वचन 152 में आया, ऐ इन्सान! अगर तुझे जिन्दगी में जीवित देहधारी हाज़िर पूरण सतगुरु का संग मिले, और तू उनकी बताई युक्ति को अपना ले तो यह मान लेना, तेरे सारे लेखे, कुलेखे मिटाकर वे अपनी दया, मेहर से तुझसे सेवा, सिमरन, ध्यान करवाकर हरे माधव लोक में पहुँचा देंगे।

कंचन काई न लगे, लोहा घुण नहीं खाए
बुरा भला जो गुरू भगत, कबहु नर्क न जाए

शिष्य चाहे भला हो या बुरा हो, प्रत्यक्ष सतगुरु की शरण में टिकने से आज नहीं तो कल उसका निबेरा ज़रूर होता है पर जिन्हें प्रत्यक्ष हरिराया सतगुरु का संग नसीब ही नहीं हुआ, उन्हें सतगुरु महिमा का क्या बोध होगा, हे बन्धु! लोहे पर कितना भी जंग लगा हो लेकिन उस पर लकड़ी की तरह घुन, दीमक नहीं लग सकता।

जब भी ऐसे महान सतपुरुख संसार में अवतरित होते हैं, वे साधसंगत की सेवा कर, हक हलाल की कमाई कर, ऊँचा आदर्श स्थापित करते हैं, वे किसी पर बोझ नहीं बनते और मर्यादा का पालन करना सिखाते हैं। आप सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी अक्सर यह हिदायत देते कि ‘‘कमाई का दसवां हिस्सा परमार्थ के कार्यों में लगाओ, जिससे माया, मन पर हावी न हो।’’ साधसंगत जी! जीव का मन, धन की सेवा में तरह-तरह के कच्चे विचार पैदा करता है पर करुणावान सतगुरु भिन्न-भिन्न युक्तियों द्वारा, तन, मन, धन की सेवा करवा शिष्य के पेचीदा कर्मों को हल्का कर देते हैं।

शहंशाह सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने सेवा की ऊँची, अनुपम मिसाल कायम की। जिन हाथों से आपजी ने अपने सतगुरु मालिकों की निष्काम सेवा की, समय आने पर उन्हीं पावन कर कमलों से आपजी ने बेशुमार रिद्धियां-सिद्धियां लुटाईं, उन्हीं हाथों की मार से अनगिनत जीवों के अनगिनत असाध्य रोग दूर हो गए। पर उन पावन हाथों की मार को जिन्होंने नकारा, फिर तो उन्हें किस्मत और परमात्मा ने भी धिक्कारा, इसका जीता जागता प्रमाण, हम सभी खुले आकाश की तरह देख रहे हैं। इसीलिए पूरे सतगुरु की सेवा, जो भी हमें मिले, उसे प्रेम, प्यार, प्रतीत से निष्काम, निहकामी होकर, एकचित होकर करनी चाहिए, फिर सतगुरु की कृपा, दया-मेहर से हररिाया में हम एकोमय हो सकते हैं। सत्संग शबद वाणी में आया, जी आगे-

।। जो कोई संत को मर मुए कहत हैं, सो पड़ै जम के जग जागा ।।
।। कहे नारायणशाह सुनो संतों, मोरो रूप अनन्तो, न जन्मू न मरूं ।।
।। मैं सदा निज रूप रहूँ, मैं सदा निज रूप रहूँ ।।

आपजी फरमाते हैं, जो खुद जन्म-मरण के पार की बात सुनाता है, वह स्वयं जन्म-मरण से परे होगा, जो सतगुरू सत पद का भेद देता है, वह खुद उस पद में अडोल होगा।

कोई मुझे योगी ज्ञानी या आम पाठी जान रहा है, कोई मुझे सिद्ध चमत्कारी मान रहा है, कोई मुझे विद्वान आलिम-फाज़िल मान रहा है, लेकिन ऐ दुनियावालों मेरा कोई जन्म-मरण नहीं है, तुम जिस स्तर में जीते हो, उसी स्तर से आँखों में चश्मा पहनकर मुझे देख रहे हो, कहते हो कि मैं कोई बहत्तर-तेहत्तर साल इस देह को ओढ़ कर रहा, प्यारों! मैं तो आज भी हूँ, ‘‘मैं सदा निज रूप रहूँ’’।

शहंशाह पारब्रम्ह पुरुखमय अलस्ती मौज के भंडारी सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी, सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के अलौकिक वचन फरमान कि आगे चलकर हमारी भजन सिमरन की भंडारी ज्योत प्रगट होगी, वह पातशाही अपने इल्लाही मुख से हमारी हर एक जीवन मुक्त लीलाओं को, बेहिसाब दिव्य कौतुक को प्रकाशमय करेंगे। आज शरण में रहने वाले जीव हमारी रूहानी पूर्णता, बेदाग प्रकाश का भेद नहीं जान पा रहे पर आगे भजन सिमरन की वह ताकत प्रगट होकर हर एक शिष्य का उद्धार करेगी, भक्ति वालों को भक्ति, नाम बंदगी वालों को नाम बंदगी का पथ देगी; अपने अचल अनुभव मस्ती में हमारे रूपों को धारण कर अंतरमुखी दिव्य सुख का मक्खन, गुरु सिखी, गुरु भक्ति, यथार्थ संतमत का विराट स्तंभ निर्भय होकर स्थापित करेगी।

हरिराया प्रभु की अंशी आत्माओं! यह परम सत्य वचन, सत्य सत्य सत्यमय हैं, जब से हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी ने प्रभुवरों के हुकुम से भजन सिमरन का प्रकाश प्रगट किया, हर एक शिष्य हामी भरते हैं, आज जब आप हुजूर मालिकां जी सतगुरु पातशाहियों की साखियां उठाते हैं, तो बुजुर्ग जन व अम्ड़ियां जो उस समय के हैं, उनके नैन भर आते हैं कि पहले हमें शरण में प्रतीत ही न थी, उस वक्त बस रीत को पकड़कर आते थे पर आज दिल में भाव प्रीत भक्ति भर-भर आती है।

हाज़िरां हुजूर भजन सिमरन के भण्डारी सतगुरु साहिबानों के लिए, सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने जो वचन कौल कहे थे कि, भजन सिमरन की भण्डारी ज्योत प्रगट होगी। अपने भजन दिव्य दृष्टि से हमारी प्रकाशी मनोहर लीलाओं को और परम दयाल की ताकत ले प्रगट होंगी, वचन कालखण्ड में सतगुरु पातशाहियों के, कुल दयालों के वे वचन सत्य सत्य सत्य हैं।

हरे माधव भांगां तीसरा, साखी अमृत वचन प्रकाश में ज़िक्र आता है, 29 नवंबर 2018 को शहडोल, मध्यप्रदेश में सत्संग दीवान में आप हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी सत्संग वचन फरमा रहे कि सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने पूरन गुरुभगति को रग-रग में बिठा लिया, आपजी पारब्रम्ह अकह पुरुख बनकर जगत में विचरण करते, आपजी अपने हाथों से सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी की सेवा में कभी बलगम, कभी मलमूत्र अपने हाथों से उठाते, सच्चे सतगुरु की शरण, अनन्य सेवा, गुरुभगति का प्रताप ऐसा कि फिर उन्हीं हाथों से, आपजी ने कालखण्ड में दुखी आत्माओं को, रिद्धियाँ-सिद्धियाँ, दुनियावी सुख, साजो-सामान का भण्डार दिया और शाश्वत मुक्ति का प्रसाद भी बक्शा।

सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के समय, सन 1982-83 में शहडोल शहर का एक परिवार माधवनगर आया, साथ में एक छोटा बालक भी, लगभग 4-5 साल का जो जन्मजात से गूंगा था। उन्होंने सुना था कि सतगुरु बाबा नारायण शाह साहिब जी पारब्रम्ह सिद्ध पुरुख हैं, अलस्ती आतम मौज के शहंशाह मालिक हैं और यह भी कि आपजी शिष्यों को कभी आसीस वाली मार, आसीस वाले मुक्के मारकर भी गहबी ब्रम्ह सिद्ध प्रकाश बरसाते। जो जीव मेहर से ले जाते वो संवर जाते और जो अभाव से लेते वे अपने लिए कहर बना लेते।

दोपहर का समय था, सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी तखत पर पारब्रम्ह खुमारी में विराजमान, आप साहिबान जी के पावन श्रीचरणों में शहडोल से आए परिवार ने अदब से हुजूरों के दर्शन किये पर श्रीदर्शन का तेज प्रताप देख किसी के मुख से कुछ शब्द ही न निकल पा रहे। कमाई वाले पुरुख पूर्ण तेजोमय जलाल से भरे होते हैं पर वे परिपूरण भण्डारी संसार में खुद को छुपाके चलते हैं कि जीव उनकी परम खुमारी को भंग न करें।

शहंशाह सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने कहा, छाजे करे आया आह्यो? छालै आया आह्यो? जहिंमल कहिंमल भडिया बीठा आह्यो! टंग्या बीठा आह्यो! हलो-हलो प्रसाद खायो, वन्यो पहिंजे गोठ! यानि क्यांे आये हो? जब देखो आ जाते हो! उठो प्रसाद खाकर अपने शहर वापिस जाओ। परिवार वाले हथ जोड़ नीज़ारी भाव से खड़े रहे। उस बालक के पिता ने विनय की, सच्चे पातशाह जी! मेरा बालक जन्म से गूंगा है, मेहर दया करें। सब डाॅक्टरों को दिखाया है पर कहते हैं कि इलाज संभव नहीं है। दया करें सच्चे पातशाह।

सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी मालिक-ए-कुल अपनी खुमारी में बैठे, बालक के पिता को जोर से आसीस वाली चपाट मारी और उसकी माता के सिर पर ज़ोर से आसीस वाले मुक्के मारे। बालक के माता-पिता हजूरों की मेहर, मौज को न समझ पाए, उनका श्रद्धा-विश्वास डोलने लगा, संकीर्ण विचार आने लगे। शहंशाह सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी सर्वज्ञ अंतरयामी, माता-पिता की मनोदशा देख पूछा, तुम दोनों कौन हो? वे कहने लगे साहिब जी! हम इसके माता-पिता हैं। सतगुरु सांई जी यूं फरमाए, तव्हां हिन जा माउ पीउ आह्यो कि न दुश्मन आह्यो जो कूड़ ता गाल्हायो। यानि आप इसके माता पिता हो कि दुश्मन हो, झूठ क्यों बोल रहे हो?’’

उस समय परिवार के साथ अन्य शहरवासी भी थे, सो माता-पिता के मन में यह बात आयी कि सांईजन सबके सामने हमें फटकार रहे हैं, इतने कड़वे वचन कह रहे हैं, हमारी बेज्जती हो रही है। साधसंगत जी-

गुरु स्वांग वरताए, शिष्य सिद्धिक न हारे

आप हम सभी पारब्रम्ह रूप कामिल-ओ-कामिल सतगुरु की शरण में बैठे हैं, यह वचन हर किसी को दिल में लगने चाहिए, भाव प्रेम बनना चाहिए।

अवधूती रूप शहंशाह सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी तखत संदुल से उठे और रूहानी मार फटकार देकर पूरे परिवार को दरबार से बाहर जाने को कह दिया। जो सेवा में सामग्री वे ले आए थे, आपजी ने उन्हे वापस ले जाने को कहा। बेपरवाह फक्कड़ शहंशाहों की मौज, किस समय क्या मौज हो, कहना दुष्वार है, पर शिष्य को सदा विश्वास पुख्ता बिठाना चाहिए कि सतगुरु की हर मौज में हमारा ही हित है, शिष्यों-भगतों को उनकी प्रेम प्रीत मौज में जीना चाहिए। समरथ पूर्ण संतो के कड़वे वचन भी मिठास से भरे हैं, जो जीव की आतम के लिए केवल और केवल मंगलकारी प्रसाद हैं, बस भाव विदुर वाला हो।

गुरु स्वांग वरताए, शिष्य सिद्धिक न हारे-2

वो सभी जाने लगे, आपजी ने फिर सेवादार से कहकर उन्हें बुलाने को कहते, फिर यूं भी वचन कहते, तुम माता-पिता, बच्चे के दुश्मन हो, फिर भगा देते। तीन बार ऐसा कौतुक हुआ, माता-पिता सतगुरु चरणों में विश्वास रख बार-बार आते पर उनके साथ आए कुछ रिश्तेदार खीज उठे, कि बेज्जती हो रही है। वे भाग खड़े हुए, कहने लगेे हमें सात शब्दी नाम मिला है, अब तो हम यहां नहीं आएंगे और भी न मालूम मन में कितने मैले भाव पनपने लगे, असहनीय बोल अपने मैले मुंह से कहने लगे।

उनके यह कुबोल सुन सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने वचन फरमाए, बाबा! मुर्गा बांग न डीन्दा, त सूरज न निकरंदो छा, मुखन में छल कीड़ा पवन्व, अचो ता पाइण की न खोइण। यानि बाबा! मुर्गे बांग न दें तो क्या सूरज नहीं निकलेगा, पूरण सतगुरु की शरण में पाने आते हो या खोने। पूरण सतगुरु की मौज को शब्दों से जोड़ रहे हो! ऐसों पर ब्रम्हश्राप लागू हो गया, या यूं कहें ब्रम्ह क्रोध का प्रभाव उनके जीवन में दिखा।

जे गुरु झिड़के तां मीठा लागे, जे बक्शे तां देह वडियाई
शिष का मान सतगुरु, गुरु झिड़कै लखबार
सहजो द्वार न छोड़िए, यही धारणा धार
सहजो गुरु रक्षा करै, मेटै सब दुख द्वन्द
मन की जानै सब गुरु, कहा छिपावै अन्ध
जो गुरु रूठे होए तो तुरन्त मनाइये
हुइए दीन अधीन चूक बकसाइए

प्रभुराया कामिल सतगुरु की झिड़प भी फलदायक है, मार भी फलदायक है। जीवों को बक्शीशें देने वाली यह झिड़प है कामिल सतगुरु की। सूफीमत में आया, कामिल-ओ-कामिल रहबर की मार भी, कर्मजाल काटने वाली, रहमतों भण्डारों को देने वाली है, पर अफसोस, इन्सां ऐसी ताकतों की सिफत और उनकी हक रसाई से वाकिफ नहीं रहते और अपनी हानि कर बैठते हैं।

गुरु की प्यारी संगत! भजन सिमरन के भण्डारी सतगुरु का दिल शुद्ध निर्मल मक्खनमय, करुणामय होता है, वह सब पर किरपा ही बरसाते है। साचे पारब्रम्ह सतगुरु के प्रति, शिष्य की भगति, प्रेम-प्यार जितना गाढ़ा होता है, वह उतना ही देख समझ पाता है। पूरण सतगुरु शुद्ध दर्पण हैं, हम जैसा भाव लेके आते हैं, वैसा ही पाते हैं।

शहंशाह अलस्ती रूप सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के पास फिर माता-पिता अपनी भूल बक्शाने बालक को साथ ले श्रीचरणों में अंदर दौड़े आये, श्रीचरणों में शहडोल का वह परिवार आकर बैठा, उस बालक को आपजी ने गोद में बिठा लिया, पारब्रम्ह रबमय मौला सतगुरु जी मुख से यूं सिंधी वचन गा रहे-

तन में आ माधव मन में आ माधव, हर हंध मां माधव ड्सिां
कि नालों मां तुहिंजो जपियां, कि नालों मां तुहिंजो जपियां

फिर उस बालक के सर पर आसीस वाली थप्पड़ मार यूं कहते, तूं भी गडु गडु चओ पुट्र, याने बेटा! तुम भी साथ-साथ बोलो‘‘।

वह बालक यह सब कहता जा रहा था,

तन में आ माधव मन में आ माधव, हर हंध मां माधव ड्सिां
कि नालों मां तुहिंजो जपियां, कि नालों मां तुहिंजो जपियां

माता-पिता बेहद अचरज में अवाक खड़े थे, विश्वास ही नहीं हो रहा कि हमारा बालक बोल रहा है। आँखें झर-झर बरस आईं, गरीबनवाज सतगुरु की ऐसी मनोहरमय लीला देख। तब करुणामय सतगुरु बाबे ने माता-पिता को कड़क वचन फटकार देते हुए कहा, चओ पया बार गूंगो आ याने कह रहे थे ये बालक गूंगा है, जनम से, बाबा हे त गाल्हाए तो। बाबा! यह तो बोल रहा है।

माता-पिता सिसकियां भर रोने लगे, दहाड़े मार रोने लगे, होठ सिल गए, गला भर आया।

हरे माधव प्रभु की प्यारी संगतों! ऐसी मनोहर लीलाएं सुन आंखे भीगनी चाहिए, दिल और आतम भीगनी चाहिए, शरीर का रोम-रोम भाव प्रेम से तर होना चाहिए, बेहिसाब करुणामय सागर, पूरे सतगुरु की भगति हृदय में गाढ़ी होनी चाहिए।

शहंशाह सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने शहडोल शहर के परिवार जनों को प्रसाद भोजन खिलाकर, अपने शहर जाने को कहा और यूं वचन भी कहे, कहिं खे बुधाइजो न, कहिं खे बुधाइजो न। इतना कहते ही वे सारे कौतुक खेल भूल गए और योगमाया से घिर गए।

आज जब हाज़िरां हुजूर बाबाजी शहडोल सत्संग में सतगुरु पातशाहियों की यह मेहर करूणा किरपा की साखी फरमा रहे, वहाँ सत्संग सभा में वह पूरा का पुरा परिवार आया था, आप सतगुरु साहिबान जी के इल्लाही मुख से यह साखी वचन प्रकाश सुन वे सभी परिवार जन विस्मादित रह गए, वह रहमत लीला अचानक याद आ गई जिसे वे 30-35 साल पहले भूल चुके थे। ज़ारोज़ार बस रोए जा रहे, जल्द से जल्द श्रीचरणों में आने की लालसा जगी। जब सत्संग वचन पूरे हुए, श्री दर्शन की कतार लगी, तो खुद ही उन भगतों का परिवार समूह बनाकर आया, श्रीचरणों को चूमने लगा, विनय प्रीत के गुन गाने लगा, बलिहार के भाव बोल पड़े, उस बालक की माता, अमड़ी अब बुजुर्ग हो चुकी थी और अपने साथ बेटे को भी लेकर आईं, कि बाबा! हे ई बारु हुयो, जेको जन्म खा गूंगो हुयो, सतगुरुन जी मेहर सां गाल्हाइण लगो, असां गुमराह थी वया हुया सीं, अजु तव्हां असांखे गुरु साहिबानन जी लीलाउं खोले याद करायो तव। बाबाजी! यही बालक है जो पहले गूंगा था, सतगुरु सांई नारायणशाह साहिब जी की मेहर से बोलने लगा। हम गुमराह हो गए थे, भटक गए थे, आज आपजी ने हमें गुरु साहिबानों की लीलाओं महिमा के वचन फरमाकर याद कराया है। हे सच्चे पातशाह आप ही सांई नारायणशाह है, आपही मेरे माधव भगवन हैं, पहिंजा गुझ पाण खोल्या तव।

भूले मारग जिन बताया, ऐसा सतगुरु वड्भागी पाया

वह परिवार जन नाक घिसने लगे, कान पकड़ने लगे, बारंबार सर को चरण कमलों से घिसाने लगे, विनय करने लगे, बाबाजी! हमने अथाह मेहर पाकर भी शुक्राना न किया, मन में विपरीत भाव रखे। उस समय तो हम सेवा, बंदगी का लाभ न उठा सके, अब सच्चे पातशाह जिओ, आपने किरपा कर सुमति बक्शी है तो अपने श्री चरणों की सेवा भी बक्शें। हम सुत्ते जीवों, नाशुकरे जीवों को अपनी भक्ति की दात बक्शें, चरणों की प्रीत बक्शें, मेहर करुणा बक्शें।

साधसंगत जी! समरथ सतगुरु की भगवतमय लीलाओं को सुन, मन होश में आना चाहिए, प्रेम से भर जाना चाहिए। यह पूरन सतगुरु के प्रकाश की मनोहर लीला आज से 30-35 साल पहले की थी, जो हाजिरां हुजूर भजन सिमरन के भण्डारी सतगुरु जी सन् 2018 में फरमा रहे। हम शिष्य भगत, ऐसी लीलाओं-महिमाओं को सुन-सुनकर साचे सतगुरु की भक्ति प्रेम को, श्रीचरणों से निह की डोर को पुख्ता करें। पूर्णता को भला किस प्रमाण की आवश्यकता, सूर्य की तुलना भला किसी और प्रकाशपुंज से कैसे संभव है, आज इस मुबारक घड़ी में बैठ हम सभी इस बात का अवलोकन करें। जागन की वेला हैं जागें।

प्यारी संगतों! आज सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के प्रकोशोत्सव के पावन पर्व हम शिष्य भगत बस यही विनय याचना करें, ऐ सच्चे पातशाह! आप सतगुरु मालिकों ने स्व जो आदर्श हम शिष्यांे भगतों के लिए स्थापित किए हैं, हमें उन आदर्शाें पर खरे होकर चलने का बल बक्शें। हमें सच्ची निष्काम सेवा, अंतरमुखी साधना, परिपूर्ण समर्पण, त्याग, विश्वास, भाणे का सलीका बक्शें। बस ऐसी किरपा करो हरे माधव महाराज, बस ऐसी किरपा करो।

।। कहे नारायणशाह सुनो संतों, मोरो रूप अनन्तो, न जन्मू न मरूं।।
।। मैं सदा निज रूप रहूँ, मैं सदा निज रूप रहूँ।।

हरे माधव   हरे माधव   हरे माधव