|| हरे माधव दयाल की दया ||

वाणी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी

।। काल खंड में आए के, खेले सतगुरु परम कृपाल ।।
।। काल खंड में रूह उबारे, आप बन कुल दयाल ।।

पारब्रम्ह हुजूर सच्चे पातशाह जी के श्रीचरणों में हम सब भगतों संगतों का नमन वंदन समर्पण, हथ जोड़, हरे माधव, हरे माधव।

हाजिरां हुजूर हरिराया सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के भजन मुख से फरमाई आज के सत्संग प्रकाश की अमृतमयी वाणी 14 अगस्त 2019, रात्रि 9 बजकर 20 मिनट पर फरमान हुई, जो कुल आवाम के लिए परम प्रकाशी संदेश है। गुरु महाराज जी फरमाते हैं, अप्रगट प्रभु रूप दाता, पूरे सतगुरु का जामा ओढ़ युगों-युगों, कल्पों से इस धरा पर प्रगट होते आए हैं। आदि-अनादि काल से पूरण सतपुरुखों ने, इस धरा पर मानव को मन के, अज्ञानता के अंधेरे से निकाल अंतरघट में परम दिव्य ज्ञान का प्रकाश दिया और दे रहे हैं। पूर्ण सतगुरु निर्भीक अडोल हो, रूहों को हरे माधव प्रभु मालिक के धाम में ले चलने के लिए, अनेकानेक स्वांग रचते हैं, उनकी मौज प्रभु की मौज है, वे परमत्व मौज के राजे हैं, वे परमत्व मौज के शाहे हैं, पूर्ण संत पुरुखों की मौज निर्लेप और फक्कड़ता वाली मौज है, पूर्ण सतगुरु की मौज पारब्रम्ह की मौज है, सत्संग वाणी में भी आया है-

काल खंड में आए के, खेले सतगुरु परम कृपाल
काल खंड में रूह उबारे, आप बन कुल दयाल

पूर्ण संत सतपुरूखों ने सदा-सदा से एको साहिब के सत-आदेश का अपने पावन भजन मुख से सर्वत्र होका दिया। अब प्रश्न आता है कि पूरण सतपुरुख कहां से आते हैं? कहते हैं प्यारे गुरुमुखों! एक पूर्ण संत पुरुख परम प्रकाशी दुनिया से प्रकट होते हैं, वे जन्म से ही दिव्य आलोकित होते हैं। एक गहन भजन की कमाई कर दिव्य परमत्वमय पूर्ण पुरुख शाहे हो जाते हैं और परम प्रकाश फैलाते हैं; जैसे एक नासा का राॅकेट ऊपर उड़कर उन ग्रहों में गया, वहां की ताजा स्थिति हवा, पानी माहौल देख बताया, वहां रहने के लिए कैसी व्यवस्था है। अब हमारे समझाने का भाव यह कि पूर्ण संत पुरुख अपने अंदर परमत्व प्रकाश को जागृत कर चुके होते हैं, वे मुक्त पुरुख होते हैं, वे अपने भजन प्रकाश से अलोकित प्रकट होते हैं, वे हमारे बीच कालखण्ड में धुरलोक से आते हैं और अपना फरमान परमत्व की गहन कमाई कर सर्वत्र अंशी आत्माओं को देते हैं और कालखंड से उबारते हैं क्योंकि हर एक अंश आत्मा अपने मूल स्त्रोत से जुदा, बिछड़ी है।

काल खंड में रूह उबारे, आप बन कुल दयाल

हरिराया सतगुरु साधसंगत रूपी गंगा का महारस बरसाते हैं, आत्माओं को सतगुरु अमृत नाम का, अमरता का भाव देकर साधसंगत से जोड़कर, सेवा कराकर जीव का इह लोक सुखी, परलोक सुहेला कर देते हैं।

पूरन सतपुरुख निर्वाण धुर लोक से आते हैं, याने आप बन कुल दयाल। ऐसी कौन सी ताकत स्त्रोत से वे आते हैं? वह कौन सा अप्रकट नूर है, जो अथाह है, जिसका अंत नहीं। तो गहबी वचन आए, अप्रगट रूप पारब्रम्ह से, प्रगट रूप पूर्ण सतगुरु आए और रूहों को चिताया कि ऐ बंदे! तुम्हारा मालिक तुम्हारे अंदर है, काल की दुख भरी, उलझन वाली मन-माया की दुनिया से उठो, चलो, आतम परम अमृत के सच्चे निजधाम में; इसलिए तो हम पूर्ण संत सतगुरु को सच्चे पातशाह कहते हैं, क्योंकि वे एक ऐसी पूर्ण सत्य हस्ती, पूर्ण सत्य पद, जो अडोल है, थिर है, उसमें रच बसकर पूरण सच्चे सतरूप शहंशाह ही हो गए।

काल खंड में रूह उबारे, आप बन कुल दयाल

साधसंगत जी! आज हम फक्कड़ मौला, निर्वाणी बेपरवाही, आतम मस्ती में पुरनूर, सच्चेपातशाह सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी का प्रकाशोत्सव मनाने के लिए भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी की ओट शरण में बैठे हैं, आप सारी संगतों, भगतों को प्रकाशोत्सव पर्व की अनंत-अनंत बधाईयाँ जी।

आप साहिबान जी का अवतरण 18 अगस्त 1880, बुधवार के दिन हुआ, उस दिन उस समय, नभ गगन से खूब पानी का राग मल्हार, झम-झम कर बरसा। सच्चे पातशाह सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी की माता का नाम पूज्य तुलीबाई, पिता पूज्य श्री खीलयदास जी, बड़े भाई पूज्य श्री ठाकुरदास जी, दूसरे भाई पूज्य श्री चेतनदास जी तथा तीसरे आप सच्चे पातशाह सतगुरु साहिबान जी। आपजी के बाल्यकाल का नाम भाई साजन।

आपजी बाल्यकाल से ही पूर्ण अलौकिक अंतरमुखता, सिमरन ध्यान की निज कैफियत में, सतगुरु श्रीचरणों की सेवा बंदगी में परम मस्त रहते। गुरुता गद्दी पर आसीन होने के लगभग दस-बारह साल पहले, आपजी अलूप रहे, हरिद्वार, बद्रीनाथ के घने बियाबान जंगलों में, कई ऐसे भयावह स्थानों, बर्फ की कन्द्राओं (गुफाओं) में आप बेपरवाह, अपनी मौज में वर्तण करते रहे, जहाँ आम इन्सान जाने की सोच भी नहीं सकता। जिन घने बियाबान जंगलों में आपजी निर्भीक मौज में जाते, वहाँ हिंसक से हिंसक जानवर भी, अपनी हिंसा भूल, आपजी के पावन श्री चरणों में नतमस्तक हो जाते। जब लम्बे अरसे बाद आपजी गाढ़ी एको परमत्वमय कमाई कर लौटे तो मुखमण्डल पर परमत्वमय, आलोकिक दिव्य तेज, हज़ारों सूर्याें की भांति प्रकाश चमक रहा; फिर शहंशाह मालिकों ने अपनी मौज लीलाओं द्वारा उस परमत्व प्रकाश को सर्वत्र बरसाया।

साधसंगत जी! उस वक्त यह ‘माधव नगर’ छोटा गांव-कस्बा हुआ करता, शाम होते ही आपजी छड़ी ले, सभी को डांट-फटकार कर रूहानी बुलंद आवाज में सचेत करते, कि ‘‘उसकी बंदगी से जुड़ो, जिसने कुल रचना को बनाया है’’

पूरण सतगुरु अजब स्वांग खेल, लीलाएं रचते हैं जिससे आत्माएं मन-माया की नाना लहरों से निकल उस हरे माधव धाम में जा पहुँचे। आपजी होका देते, ऐ जीवात्माओं! गफलत से उठो, सतगुरु बंदगी का उदम करो, और हिदायत भी दी, कि अगम देश की राह पकड़ो, सतगुरु बंदगी से ही उस अगम अगोचर दाते को, परम ज्योत के रूप में अनुभव किया जा सकता है, किसी अन्य दूसरे सलीके से नहीं और यह परम ज्योति पूरन सतगुरु के बक्शे, अमृत नाम शबद को कमाकर ही दिखाई देती है। आपके अंदर गुफा में सच्चा शबद बज रहा है, उसी शबद के अंदर अगम का प्रकाश भरा है, जब जीव पूरण सतगुरु के शबद नाम की कमाई करते हैं, तो अगम अगोचर की एको ज्योत, जाग उठती है।

सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी की ऐसी स्वांग भरी लीलाऐं देख, उस वक्त गांव कस्बों के लोग बाबाजी के लिए कई ऐसे शब्दों का भी इस्तेमाल करते, जो कहने-सुनने में असहनीय पीड़ा देते, पूरे शहर के कोरे विद्वान, जो कच्चे गुरु या मनमुख थे, वे इन स्वांग लीलाओं को समझ नहीं पाते। संगतां जी! यह सत्य है कि जो सर्गुण-निर्गुण की अभेदता के मालिक शहंशाह हैं, विदेही मुक्त, जीवन मुक्त तत्व वेता हैं, उनकी लीलाओं, स्वांग महिमा को समझना, गफलतधारी बंदों की पहुंच से दूर है। उनकी गतमत को देखना, समझना, पहचानना बंदों की जड़ बुद्धि और जड़ आँखों से परे है।

जब से हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी अपनी अलस्ती खुमारी में अक्सर सतगुरु पातशाहियों की विराट करुणा कुर्ब के भेद मौज में वचन प्रकाश प्रगट किए हैं, बड़़े बुजुर्ग जनों के मन भर आते हैं कि कुल मालिक सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी, सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने हम सभी पर मेहर बरसानी चाही, पर उस वक्त हम समझ न सके, रीत को ही धारण कर आते थे, प्रीत को धारण न किया। जबसे भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी, परम ज्योत प्रगट हुए हैं, अपने भजन मुख से प्रकाशी भेद प्रकट किये हैं, तो हमें गुरु साहिबानों की अथाह ही अथाह दया रहमतों के खेल याद आते हैं, स्वांग लीलायें समझ आ रही हैं कि, हम तो कब से सोए हुए ही पड़े थे। आज हम सभी सतगुरु भगति प्रीत को धारण कर श्रीचरणों में आते हैं। सो संगतों! जागन की वेला है, जागन की वेला है, सतगुरु शहंशाहों की महिमा सिफत को सुन-सुन कर भक्ति भाव को बढ़ाने की वेला है।

काल खंड में आए के, खेले सतगुरु परम कृपाल

His Holiness Ishwar Shah Sahib Ji vocalises in Hare Madhav Yatharth Santmat Vachan Updesh 379; O beings! Soul resides within the body and Supreme Lord resides within the soul, so ultimately, both soul & Supreme Lord are present in every cell of the body. No matter how many pieces a bread is broken into, all the pieces belong to the same bread. Now, when a single piece of bread isn’t different from the whole bread, how can soul and Supreme be any different? All our senses, cells, mind, thoughts are filled with Supreme. Of all our chakras, it isn’t necessary that only last chakra reveals the Supreme, rather, all the chakras have Supreme residing in them. The merciful Supreme is merciful in the Sachkhand as well is in the Kaalkhand.

हरे माधव यर्थाथ संतमत वचन उपदेश 379 में सच्चे पातशाह सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी फरमाते हैं, सांईजन फरमाते हैं, ऐ प्यारों! शरीर के अंदर आत्मा मौजूद है और आतम के अंदर परमात्मा, तो स्वाभाविक ही देह के रोम-रोम में आत्मा और परमात्मा भी मौजूद है; जैसे एक रोटी के चाहे अनेक टुकड़े किये जाएं पर प्रतयेक टुकड़ा भी तो रोटी ही है। जब वह छोटा सा टुकड़ा रोटी की प्रकृति से जुदा नहीं तो आत्मा और परमात्मा जुदा कैसे? और हमारे अंतःकरण, मन, बुद्धि, विचार एवं जितने सारे कोष, इंन्द्रियां, रोम हैं, रेशे है वे सभी परमत्व भाव से ओत-प्रोत हैं। हमारे शरीर के जितने सारे चक्र हैं, यह जरूरी नहीं कि केवल आखिरी चक्र पर ही परमात्मा बैठा है, बाकी चक्रों पर नहीं। वह परम कृपाल सचखण्ड में भी परम कृपाल है और कालखण्ड में आकर भी परम कृपाल ही है।

आपजी फरमाते हैं-

काल खंड में आए के, खेले सतगुरु परम कृपाल

कुल दयाल पूरण सतगुरु की आतम परमातम एक हैं और उनका हर इक कोष उनका परमत्वमय है और रहेगा, हर इक रोम-रोम में परमत्वमय रास है। उनकी हर एक दृष्टि परमत्वमय प्रभुमय है, उनका हर एक विचार परमत्वमय, अपार बेहद करूणा से भरा, आतम-परमातम की सांझी वार्ता से जुड़ा है। जीवों के प्रारब्धिक, संचित और क्रियामान कर्मों को काटने वाले ऐसे दुखभंजन हरिराया सतगुरु के श्री वचन-

काल खंड में रूह उबारे, आप बन कुल दयाल

वे अपने भिन्न-भिन्न भावों, भिन्न-भिन्न लीलाओं से सभी नाना प्रकार के भगतों के कर्मों को काटते हैं। अब ये मानना, कि इच्छा भी उसी की दी हुई, अनइच्छा भी उसी की दी हुई, भाव भी उसी का दिया हुआ, अभाव भी उसी का दिया हुआ; यह प्रभु की सतत् भगति है, आपजी कहते हैं जो धारण करनी है हर शिष्य को। सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी रब्बी वाणी में फरमाते हैं-

आए प्रगटै संत दयाल, अजब खेल रचा स्वांग कमाल
प्रेम चरणन जिन रमाया, आतम राम तिन अलख ध्याया
से सदा बेपरवाहे, आतम मौज के शाही
खिन्न में ताड़े, खिन्न करे निहाले
अगम निगम की बातें, मौज में राज़ सब खोले
संत पूरा बड़ा किरपाला, धुरधाम का दाता
कहे नारायणशाह सुनो प्यारों
पूरा संत राम सुजाना, स्वांग धरा सब भेद चिताया

फरमाया गुरु महाराज जी ने, पूर्ण संत अपनी परम विरासत को, परम पूर्ण प्रकाशी लीलाओं को बेपरवाह अलस्ती मौज में छिपाए रहते हैं।

पूरा संत राम सुजाना, स्वांग धरा सब भेद चिताया

कारण क्या है? प्यारों! यह उनकी अपनी मौजे विरासत है-

स्वांग धरा सब भेद चिताया

जैसे एक परमात्मा रोज अनगिनत जीवों को बना रहा है, अनगिनत स्वासों को अपने प्रवाह से बहा रहा है; नाना प्रकृति, सूर्यमण्डल, चंद्रमण्डलों को वह प्रभु अपने हुक्म से चला रहा है। अगर हमें वह देखना है तो हम उसे स्थूल आंखों से नहीं देख पाएंगे, जब भजन सिमरन की कमाई वाला पूरा सतगुरु मिलेगा और पूरा सतगुरु कुंजी देगा, चाबी देगा, दिव्य दृष्टि देगा। फिर वह अपने साथ हमें उन मण्डलों पर ले जाएगा, तो वहाँ अपनी वह एको पूरण की विराटता शिष्य की आतम के अंदर प्रकट कर देता है, इसलिए कहा-

अगम निगम की बातें, मौज में राज़ सब खोले

हरिराया सतगुरु कालखण्ड में आकर, जीव के अंदर कालखण्ड की अविद्या जो बेहिसाब तंदो से जड़ी है, उसे अपने भजन ध्यान, ज्ञान से नष्ट कर देते हंै। वह जीवों के कर्मों का बीजा नष्ट करने के लिए उन्हें पूर्ण साधसंगत के ज़रिए बंदगी, सेवा, सिमरन, ध्यान की सोझी, वचनों की दात बक्शते हैं। आपजी कहते हैं बाबा! तात्विक दृष्टि से सतगुरु ना आता है, ना जाता है, वह स्थिता-स्थित है। वह इस भाव से सदा भरपूर एको, परमत्व प्रकाश में विसाल रहता है, बाकी प्यारे पूरे सतगुरु की रूहानी पोज़ीशन, आंतरिक अवस्था कहना अवर्णनीय है। जैसे-जैसे हम भोजन ग्रहण करते हैं, जो भूख भोजन ग्रहण करने के पहले की थी, प्राण सूख रहे थे, शरीर के अंदर अलग ही कमज़ोरी महसूस हो रही थी, जब भोजन जिव्हा के ऊपर मुख में अंदर रखा, बड़े चाव प्रेम से खाते रहे, हमारे अंदर की भूख उड़ती गई, मालूम ही ना हुआ कि कहाँ गई। आपजी कहते हैं ऐ प्राणी! इसी तरह सतगुरु नाम का भजन भी आतम में असर दिखाता है। सतगुरु पूरे के प्रसाद, महातम के आगे कुछ भी कहना सूर्य के आगे दिया व धूप जलाने जैसा है।

कालखण्ड जहाँ पर, इंसां प्राणी हर पल मन के अभाव, नकारात्मकता, नाना उलट विचारों से, माया से भरा रहता है। आतम स्वरूप का विस्मरण ही मन माया है और माया की आवरण शक्ति परमात्मा को छिपाए रखती है। जब इंसां प्राणी पूरण साधसंगत से जुड़ता है, तब पूर्ण हरिराया सतगुरु अपनी शरण संगति में जीवात्माओं के हर इक विचार को भावमय, प्रेममय, आनन्दमय कर देते है, आंतरिक ईश्वर के ऐश्वर्यों से भर आतम को चैतन्य विरासत से जोड़ देते है, जो वाणी में भी आया-

प्रेम चरणन जिन रमाया, आतम राम तिन अलख ध्याया

सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी, सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने कालखण्ड में देह बुत को ओढ़ कर कुल दयाल रूप बनकर अपना हुकुम, वचन प्रकाश प्रगट किया।

से सदा बेपरवाहे, आतम मौज के शाही
खिन्न में ताड़े, खिन्न करे निहाले

भजन सिमरन के भण्डारी सतगुरु, परमत्व मौज के शाह सतगुरु की मार झिड़प में भी शिष्य की आतम का परमहित एवं कमाई वाले परम सतगुरु की भण्डार देने की यह मौज-ऐ-विरासत है। अनेकानेक आत्माओं पर किरपा बरसती है, संगतां जी, कई ऐसे गुरुमत की भारी सिफतें, दया सिंधु की करुणा प्रकाशी लीलाएं सुनते हैं। शहंशाह सतगुरु सच्चे पातशाह, अलस्ती बेपरवाह बाबा माधवशाह साहिब जी परम खुमारी में, जीव मण्डल पर हर पल कोई न कोई कौतुक, जीव तारण का जरूर रचते और समाज को प्रबुद्धजनों को भी सही दिशायें अपनी मौज में दे देते।

खिन्न में ताड़े, खिन्न करे निहाले
अगम निगम की बातें, मौज में राज सब खोले

कालखण्ड में आपजी रूहों पर करुणा का भंडार भी बरसाते और खूब रूहानी डांट फटकार देकर, जीवों पर माया का पर्दा चढ़ा देते।सत्संग वाणी में फरमान आया-

काल खंड में रूह उबारे, आप बन कुल दयाल

सतगुरु दाता है, इसलिए कालखण्ड में सतगुरु को महादानी दाता कुलदयाल कहा क्योंकि वह दात ऐसी देता है, जो बाकी संसार में हमें कोई भी नहीं दे सकता, बस उस दात को ग्रहण करने के लिए शिष्यों भगतों को योग्य होना पड़ता है, विदुर भाव और मीरा भाव जैसी आत्माएं बनना पड़ता है। आपजी अमृतमयी सत्संग वाणी में फरमाते हैं, जी आगे-

।। दाता सतगुरु सम नाहिं साधो संतों, नौ खंड पृथ नौ खंड पसारे ।।
।। साचे सतगुरु बिन काल खंड आतम न उबरे ।।

हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी की दिव्य आलौकिक रब्बी वाणियों, वचनों में गहन अलौकिक प्रकाशी फरमान भरा रहता है। फरमाया आप गुरु महाराज जी ने-

दाता सतगुरु सम नाहिं साधो संतों, नौ खंड पृथ नौ खंड पसारे

नौ खण्डों में काल का फांस, उसका प्रवाह जीवन और मौत कहलाता है। आपजी फरमाते हैं पूर्ण सतगुरु की सामर्थता अपार है इसलिए इन खण्डों, मण्डलों का ज़िक्र करें तो नौ खण्डों से हमें वह पूर्ण दात नहीं मिलती, जो पूरण सतगुरु आशीष, मेहर और अपार करूणा कर कालखण्ड में प्रगट हो सर्व आत्माओं को समत्व भाव से बक्शते हैं। संगता जी! नौ खण्डों में सभी जीवात्माओं के शरीर को भोजन पानी, स्वांस, हवा भी मिलती है पर वहाँ भी काल का प्रभुत्व है, समस्त नौ खण्डों में आत्मा को परमात्मा से जोड़ने वाली शक्तियां नहीं होती। इसलिए आत्मा अपने मूल स्त्रोत तक नहीं पहुँच पाती, अपने मालिक-ए-कुल में एकमत नहीं हो पाती।

साचे सतगुरु बिन काल खंड आतम न उबरे

संगतों याद रखो! आत्मा साचे सतगुरु के अंतरमुखी परम एको भजन-ध्यान से ही मालिक-ए-कुल में एकमत हो पाती है। कालखण्ड में हरिराया सतगुरु प्रगट होकर आतम को उस अदृश्य, बिछड़ी ताकत से जोड़ता है। पूरे सतगुरु की बेहिसाब सामर्थता है, साधो पूरे सतगुरु की बेहिसाब समर्थता है। पूरण सतगुरु चाहे अपने संपूर्ण जीवन में विदेही मुक्त होकर रहें और इक तनिक भी भेद प्रगट नहीं करें, तब भी याद रखना, वह पूरा सतगुरु ही है। हाँ! जब उन मंडलों की उ न प्रकाशी ताकतों का कोई अदृश्य एको सतगुरु दयाल पुरुख बनकर प्रगट होता है तो वह उनके भावों को प्रगट करता है, ज्योति-ज्योतमय बनकर प्रगट करता है क्योंकि गंगा का पानी गंगा में मिलकर गंगामय ही हो जाता है। अब खोज कहाँ, हदें कहाँ, वर्ग कहाँ, नाना रेशे कहाँ? विलय एको इक हो गए फिर नौ खण्डों की सीमायें कहाँ।

दाता सतगुरु सम नाहिं साधो संतों, नौ खंड पृथ नौ खंड पसारे

ऐ रब के अंश! जैसे अगर आपको किसी हाट से घी लेना हो, नाना बजार खुली हों, नाना हाट बजार सजे हों, दुकानों की सजावट देखकर आप बच्चों की तरह सजावट में पड़े रहें या अन्य चीजों के नाना भावों और नाना रंग में पड़े रहें। जब समय हुआ दुकानें बंद करने का, सारे साजो सामान दुकानदारों ने अंदर किये और ताला जड़ दिया, तो आप वहीं घूमते-घूमते कुछ समय बाद अंधेरा देख घर को आए, घर में बड़े बुजुर्गों ने कहा, आप घी लेने गए थे, क्या घी ले आए? तब आपको याद आया कि आप क्या लेने गये थे और कैसे चकाचैंध में उलझ गए। तब वापस उसी हाट की ओर दौड़े, हाट बंद हो गई। काफी देर तक हाट बजार में ढूँढा। आपको हताश परेशान देखकर एक सज्जन पुरुष ने करूणावश आपसे पूछा, बेटा! आपको घी चाहिए, दूध चाहिए, मक्खन चाहिए? उसने तो आपको करूणा स्वभाववश वह सब दे दिया। यही भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु हैं, कालखण्ड में नौखण्ड में भी अलौकिक सौदे नहीं मिलते जो पूरा सतगुरु अलौकिक आंतरिक सौदांे को सर्वत्र जीवों को देता है। सांईजन ने फरमाया, इसी तरह जीव का यह मन मनुआ, बाहरमुखी कालखंड चमक-दमक में आतम को भरमा देता है, जीव भ्रम जाते हैं और असल आतम खुराक को पकड़ नहीं पाते, न पचा पाते हैं, न ही सच्चे सतगुरु से, आंतरिक हाट से निज वखर दात नहीं ले पाते और इंसानी जीवन स्वांसों की पूंजी व्यर्थ उड़ी जाती है। सो प्यारों! स्वांसों के रहते स्वर्णिम इंसानी जीवन में रहते लाभ कमाएं।

हमें आंतरिक परमत्व प्रकाश, नाम बंदगी को देने वाला पूरा सतगुरु ही है इसलिए सर्व प्रथम एक ही बात है, अटूट प्रीत, निह प्रेम से सतगुरु भगति कर आप सारे मण्डलों में वह एको प्रकाश का प्रभाव किस तरह से काम कर रहा है, ये सारी दात अपने अंदर देख सकते हैं। सतगुरु अपने मण्डलों पर नाना खेल खेलता है जो कोई भी हिसाब-किताब से परे हैं, संसार की कलम उनके भावों को नहीं लिख सकती। संसार की बुद्धियाँ, संसार के सारे तर्क हैं अपनी हद तक हैं पर इन मण्डलों के साहूकार इन एको ताकतों के भण्डार अपार हैं।

कौतक अजायब रचे, न गत मत को पछाने

हरे माधव भांगां अमृत वचन साखी उपदेश 652 में ज़िक्र आता है, सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी, आप पारब्रम्ह स्वरूप फक्कड़ अवधूती बनकर परम मौज में गुरु दरबार साहिब में विराजमान। उस समय कस्बे में भारी गरीबी का दौर था, पर आपजी के तेजोमय पारब्रम्ह रूप के समक्ष जीव आने से भय इसलिए खाते क्योंकि आपजी अपनी दिव्य दृष्टि से उनके मनों के कच्चे-पक्के अच्छे-बुरे ख्यालों को देख, दूर से ही जान लेते, उन्हें संवारने के लिए सर्जन की तरह हितकारी क्रोध से ताड़ते, झिड़प देते यानि पूर्ण सतगुरु जी ने अपनी दिव्यता भी प्रकट की, सर्वत्रता, सर्वज्ञता, ब्रम्ह-पारब्रम्ह के एकत्व का रूप भी प्रगट किया।

आपजी विराजमान, उस वक्त रीवा शहर का परिवार जिनके बाल-बच्चे, बड़ी ही दयनीय दशा में रो रहे, श्री चरणों में आए। आपजी ने मौज में उनसे पूछा क्या हुआ? परिवार ने रोकर कहा, बच्चे भूखे हैं दया करें। आप सच्चेपातशाह जी ने फक्कड़ अवधूती मौज में कहा, बाबा! हमारे पास क्या है? तुम लोग सब हमें दे जाते हो तो हम खाते हैं, हमारे पास क्या है? वे याचक बनकर रोने लगे, महाराज जी, कृपा करो। आपजी श्रीआसन (तड्डी) पर विराजमान थे, आपजी ने कहा, बाबा देखो! हमारे पास तो कुछ नहीं, खपरैल है, तड्डे हैं देखो क्या है, हमारे पास तो केवल छड़ी है। परिवार बच्चे रोते हुए विनय याचना कर रहे, दया करें, दया करें सांई जी। आप करूणा कुर्ब के भण्डारी दाता ने झिड़प दे तेजोमय वाणी में फरमाया, देखो इस तड्डे के नीचे क्या है, जो हो ले लेना और बच्चों को खिला देना। यह वचन फरमा आपजी उठे और भ्रमण करते रहे, उन प्रेमियों ने जब तड्डे को उठाया तो वहां आठ-दस रोटियां पड़ी थीं, घी, दही भी पड़ा था, पकौड़े भी पड़े थे, वे प्यारे उठाने लगे, शहंशाह सतगुरु जी ने निर्भीक ओजस्वी वचनों में कहा, जितना जरूरी हो उतना ही उठाओ ‘‘बाकी माटी होगा’’-2 उन्होंने तड्डा उठाके जितना चाहिए था ले लिया और फिर तड्डा नीचे किया तो देखा फिर से वहां माटी धरती हो गई।

प्यारी संगतोें! बेपरवाह पारब्रम्ह पुरुख अपनी फक्कड़ विरासत को कालखण्ड में अपार दातों से लुटाते हैं, अब कौन ऐसे समरथ पुरुखों की गतमत को जाने, पहचाने, ऐसा कोई हो भी नहीं सकता जो उनकी समर्थता का पार पाए, जो अमरता अमृत के भण्डारों के पार गए केवल वे ही उनके आयामों का निशां बता सके। संगता जी फिर शहंशाह सतगुरु जी ने परिवार से यह भी वचन कहे कि, नगर में जाना और ये बात किसी को बताना नहीं वरना लोग हमें परेशान करेंगे और आपजी ने जोर से छड़ी की मार देते हुए कहा, ‘‘जाओ बिसरो’’-2। इतिहासों, जीवन लीलाओं में आया, वे परिवार वाले यह मेहर दया का कौतुक बिसर गए। यानि ऐ प्यारों! वह भण्डारी दयालु दाता भण्डार दे भी देता है, अपार दातों को भी बक्शता है पर योग माया से अपने प्रभुत्व को ढक लेता है। जैसे एक शरीर के अंदर आप देखो परमत्मा है पर दिखाई नहीं देता, रेशों में परमात्मा है दिखाई नहीं देता, मन के अंदर वह बैठा है पर मन की हताशा देखो, वह दिखाई नही देता, बुद्धि के अंदर बैठा है पर नाना विचारों के प्रवाहों को देखो सोच ही नहीं सकते कि वह इसमें बैठा है, अब इसी तरह पूरा सतगुरु अपनी परम दातों को बरसा भी देता है और छिपाए छिप भी रहता है।

कौतक अजायब रचे, न गत मत को पछाने

प्यारी संगतों! कौन ऐसे पारब्रम्ह पूर्ण सतगुरु की परम विरासत, कुर्ब, करूणा के परम भावों को प्रगट करे, क्योंकि सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी ने संपूर्ण जीवन फरमाया कि, आगे चलकर जब हमारी परम ज्योत प्रगट होगी, वह अपनी मौज से, भजन प्रकाश से हमारी लीलाओं, भावों और भेदों को खुद आपै-आप पारब्रम्ह भण्डारी बन प्रगट करेगी। महिमावान जिक्र आया, जब हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी 22 अप्रैल 2013, सोमवार को रीवा शहर पहुँचे, सत्संग हुआ। सत्संग पश्चात् जो जिज्ञासु संगतों को नामदान दीक्षा की बक्शीश होती है, आप साहिबान जी सेवकों से फरमाया, जिज्ञासु अभिलाषी संगतों को यहाँ नहीं, कटनी में नामदान की बक्शीश होगी।

साधसंगत जी! प्रेमी संगतों के जत्थे जुलाई में गुरुपूर्णिमा पर्व पर माधवनगर कटनी आए और उन्हें नामदान की बक्शीश हुई तो आपजी ने उस जत्थे में से रीवा के एक परिवार से कहा, अब सब ठीक है! फिर हुजूरों ने कुछ श्रीवचन बक्शे, कहा, ऐ प्यारों! याद रखना, अब जब कटनी आओ तो जो-जो गुरु प्रसाद सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी ने आज से लगभग 60 साल पहले दिये थे, वो सब लेके आना। साधसंगत जी! यह वही परिवार के सदस्य, जिन पर सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी की मेहर करूणा बरसी।

संगतां जी! यह सब गुरु प्रसाद का गूढ़ महातम है जो शब्दों में बयां नहीं हो सकता और कमाई वाले अकह भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु का प्रताप भाव करुणा अलौकिक सिंधु पुरुख की महिमा को कहना असंभव है। हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी ने परिवार को जो श्रीवचन बक्शे, उन प्रेमी भगतों को समझ में नहीं आये, वे सब आज्ञा पाकर रीवा घर पहुँचे। घर में बुजुर्ग दादा-दादी थे, उन्हें हाजिरां हुजूर सतगुरु जी के श्रीवचनों का सारा हाल कह सुनाया, बुजुर्गजन जो खटिया पर थे, चल फिर नही पाते, उन्होंने सतगुरु वचन सुन कई बरसों पहले की विस्मृत झलिकयां याद आ गईं, भाव सागर में डूब रोने लगे, सतगुरु के प्रेम वियोग में तड़प उठे और कहा, यहीं तो हमारे सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी ने दातें हमें बक्शी थी, फिर वह परिवार वाले समझ गए कि सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी की भजन सिमरन की भंडारी ज्योत आज प्रगट है, 60 साल पहले की रहमत महर जो हम भी भूल गए थे, वह सब आज हाजिरां हुजूर साहिबान जी, प्रकाशी भेद स्व खोल रहे हैं, हमें याद करा रहे हैं। संगतां जी! परम दिव्य शक्तियां एकाकार हो चुकी हैं, भजन सिमरन के रूप अवर्णनीय हैं, एकोमय एकत्व रूप ही हैं, अब संगतों कुछ कहने के लिए उन ताकतों के विषय में शब्दों में कह पाना मुमकिन नहीं, अवर्णनीय है, गंगा का पानी, गंगा में लीन हो गया।

हाजिरां हुजूर सांईजन पूरे सतगुरु दुखभंजन रूप, महिमा वड्यिाई के वचन सत्संग वाणी की अगली तुक में बक्श रहें हैं, जी आगे-

।। कौतक अजायब रचे, न गत मत को पछाने ।।
।। कहे दास ईश्वर आप रूप बन दुख भंजन तारे रूह उबारे ।।
।। हरे माधव वाणी बोले, प्रभु खुमारे एकै टिकना ।।
।। हउं बैठत दयाले रत्त संगा, हउं बैठत दयाले रत्त संगा ।।

वाणी का अर्थ
गुरु की प्यारी संगत! भजन सिमरन के भंडारी हाज़िरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी, परम खुमारी में अलौकिक मंडलों के भाव, अपने सर्वत्र समत्व भाव के प्रकाश भडार से, पावन दरगाही वचनों से सारे रम्जों भेदों को प्रगट करते हैं। आप हाजिरां हुजूर गुरु महराज जी, शहंशाह सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी के अलस्ती मौज, बेपरवाही मौज के भेद, आपै आप प्रगट कर रहे हैं, सांईजन पारब्रम्ह पुरुख वेता, जीवन मुक्त अवस्था में रमण करते हैं, बाहरी संसार में ऐसी प्रकृति की रचना, कि कुछ मान कुछ अपमान के बोल, कुछ यश कुछ अपयश की कथाऐं, पर आपजी परम समदृष्ट योग मुक्त पुरुख रूप में रमण करते हैं। ब्रम्ह पुराण में आया, कि ऐसे परम योगीराज, पूर्ण तत्व वेता, परम आतम में शुद्ध रूप में भरपूर भरे रहते हैं।

कौतक अजायब रचे, न गत मत को पछाने

कमाई वालों के भंडार अणखुट गहन हैं, बस विनय आस हर पल करते रहना चाहिए, तौबा नीजारी, सिदक अटूट, प्रेम अटूट, चरण भगति की।

शहंशाह सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी यूं वचन अपने निज मण्डल में गुनगुनाते, कि वह भजन सिमरन की दिव्य ज्योत प्रगट होकर हमारे रूप करुणामय प्रकाशमण्डल का प्रसाद खुलकर बांटेगी, जीवों को भ्रमों, सौंसो वहम से निकालेगी, संगतो-

संता दे वचन अटल होंदे, रब नूं भी मन्यणे पय जांदे

हाज़िरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी इस रूप में हर इक आंतरिक परम भेद संगतों को, अंशी रूहों को मनोहर लीलायें, श्रीवचन पावन मुक्त कण्ठ से फरमाते हैं, संगतों को पातशाहियों की लीलाएं, महिमाएं, मेहर करूणा कुर्ब की अमृत चासनी पिलाते हैं।

हरे माधव भांगां अमृत वचन साखी उपदेश 79 में आया, सतगुरु श्रीचरणों के अनन्य सेवादार भगत द्वारकादास जी की धर्मपत्नी माता टिकुलदेवी, जो सन् 2013 को हरे माधव लोक में गमन कर चुकी हैं। लगभग सन् 1950-60 के मध्य का ज़िक्र, माता टिकुलदेवी के हाथों में कुछ तकलीफ हो गई, फुन्सियों जैसे कुछ निकल आया और पस निकलने लगा। भगत द्वारकादास कटनी बरही रोड में डाॅक्टर मित्रा के पास माता टिकुल को ले गए, डाॅ. मित्रा भी सतगुरु चरणों के सेवक भगत थे। डाॅ मित्रा ने जब उनकी दोनों हाथों की दो-दो उंगलियों के घाव देखे तो बताया माता टिकुल देवी की उंगलियों में कोढ़ हो गया है, फिर दवाई लिखके दे दी। कई महीनों तक दवाई खाई, कोढ़ के ऊपर मल्हम भी लगाते रहे पर आराम नहीं हुआ अपितु पूरी उंगलियां व हाथों में कोढ़ बढ़ता ही जा रहा। परिवार के सभी जन दुखी रहते, मन में भय भी रहता कि यह रोग पूरे शरीर और घर के सदस्यों को भी न हो जाए, सभी मन ही मन सतगुरु जी को पुकारते रहते, दया करें सच्चेपातशाह।

साधसंगत जी! परमपिता सतगुरू कुल मालिक बाबा माधव शाह साहिब जी की हुजूरी में एक दिन द्वारकादास जी ने आके बड़े ही दीन भाव से विनती की, सच्चे पातशाह जी! टिकुल को कोढ़ हो गया है, सब उपचार कर लिए पर तकलीफ बढ़ती ही जा रही है। सांईजी! आप रहमत करें, दया करें। यह सुनकर सतगुरु बाबा माधवशाह जी सहज स्वभाव में फरमाए, कौन कहता है टिकुल को कोढ़ हो गया है, बुलाओ उस गधे डाॅक्टर मित्रा को, ये दो-चार अक्षर पढ़कर खुद को बड़ा अकल वाला कहते हैैं पर असल पढ़ाई तो की ही नहीं, हजूरों ने फिर फरमाया, उस डाॅक्टर से बाद में मिलेंगे, वह भी तो अपना भगत ही है, अपना ही प्यारा है।

सतगुरू बाबा माधवशाह साहिब जी अपनी बेपरवाह मौज में, द्वारकादास जी से फरमाया, द्वारका! घर जाके टिकुल को कहो कि कल अपने हाथो से 50-60 जनों के लिए भोजन तैयार करें। कल संगतों के साथ हम भी भोजन करने आयेंगे और ध्यान से सुन लो कि भोजन में क्या-क्या बनाना है, सिर्फ ज्वार के ढोडे, साग और साथ में मठा। भगत द्वारकादास जी, सांईजन के श्रीचरणों में माथा टेक, आज्ञा पाकर खुशी-खुशी अपने घर गए। दूसरे दिन सतगुरू बाबा माधवशाह साहिब जी, भगत वेष में सतगुरू साँई नारायण शाह साहिब जी को साथ लेकर माता टिकुल के घर पहुँचे। भगत द्वारकादास जी ने हथ जोड़ सांईजन को आसन पर विराजमान होने की विनती की, तभी सच्चेपातशाह जी ने पूछा, बेटी टिकुल कहां है?

भगत द्वारकादास जी ने हथजोड़ विनय कर कहा, पातशाह जी! टिकुल कमरे में दरवाजा बंद कर ज़ारों-ज़ार रो रही है। आप सांईजन ने प्यार से पुकारा, टिकुल दरवाज़ा खोलो, टिकुल दरवाज़ा खोलो। पर टिकुल जारोज़ार रोए जा रही। सांईजन ने द्वारकादास से कहा कि टिकुल को बुलाओ, हम उससे ही मिलने आए हैं। द्वारकादास जी हथ जोड़ के विनय करने लगे, शहंशाह जी! कल से टिकुल ने सुना है सच्चेपातशाह जी ने उसे अपने हाथों से भोजन बनाने की आज्ञा फरमाई है और उस भोजन को साईंजन स्वयं ग्रहण करेंगे, उसी समय से दरवाजा बंद कर रोए जा रही है, बाहर नहीं आ रही, बस यही कहती है, मैं अपने कोढ़ वाले रोगी हाथों से अपने शहंशाह बाबल के लिए भोजन कैसे बनाऊँ, मैं यह पाप नहीं कर सकती। मैं कैसे इन कोढ़ से सने हाथों द्वारा तैयार किया हुआ भोजन अपने पारब्रम्ह भगवन को खिलाऊँ।

सतगुरू बाबा माधवशाह साहिब जी ने बाबा नारायणशाह साहिब जी को फरमाया, जाओ आप टिकुल को बुलाके ले आओ, हम उसी के हाथों से बना हुआ भोजन ग्रहण करेंगे। सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी गए और कमरे का दरवाज़ा खटखटाते हुए माता टिकुल जी को आवाज़ देने लगे। माता टिकुल जी ने सकुचाते हुए दरवाज़ा खोला, नैन भीगे, हथ जोड़ नमन किया और कहने लगीं कि आप मेरी हालत अच्छी तरह जानते हैं बाबा। मैं सच्चेपातशाह जी के सामने रोगी हाथों से कैसे जाऊं, मेरे हाथों से कोढ़ बह रहा है, ऐसे दारुण हाथों से कैसे पारब्रम्ह सतगुरु के चरण कमलों में जाऊं? सांईजन मुझे बार-बार आज्ञा कर रहे हैं कि मैं अपने हाथों से उनके लिए आटा गूंथ कर ढोडा और भोजन बनाऊँ, आप विनय करो मेरी ओर से, मैं अन्य सभी आज्ञायें मान सकती हूँ पर मैं यह आज्ञा मान इतना भारी गुनाह कैसे करूँ कि मेरे जिन रोगी हाथों से गंदला पस बह रहा है, उनसे आटा गूँथ मैं अपने प्रभुमय सतगुरु गुरूदेव सच्चेपातशाह जी को भोजन खिलाऊँ। बाबा नारायणशाह साहिब जी कहने लगे, माता! यह शंहशाह पुरुख की बेपरवाह मौज है। माता टिकुल जी कहने लगीं, नहीं बाबा! मुझे तो नर्कों में भी जगह नहीं मिलेगी, इन कोढ़ वाले हाथों से अपने प्रियतम भगवन के लिए भोजन बनाऊँगी तो पस भोजन में गिरेगा, वह विषैला हो जाएगा। माता जी रोते-रोते हथजोड़ विनय करने लगी कि शहंशाह जी की हुजूरी में आप मेरी प्रार्थना रखो कि मुझे यह हुक्म न दें, मुझे यह हुक्म न दें।

सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने फरमाया, हम जीवों के लिए क्या भला है, यह तो पारब्रम्ह पुरुख सच्चे पातशाह जी ही जानते हैं, हम शिष्यों का कत्र्तव्य है हुक्म में रहें, सतगुरु के श्री हुकुम को मन आतम से सत-सत कर मानें। सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के वचन सुन माता टिकुल रोते-रोते हाथों का छिपाए सतगुरू बाबा माधवशाह साहिब जी की श्रीहुजूरी में आईं। सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी ने फरमाया, टिकुल! कितनी देर हो गई है तुम्हारा इंतज़ार करते-करते, हमें भूख बहुत तेज़ लगी है, सुबह से हमने कुछ नहीं खाया। जल्दी जाओ, भोजन तैयार करो पर याद रखना अपने ही हाथों से आटा गूंथना, ढोडे भी तुम ही सेकना, मट्ठा भी अपने हाथांे से तैयार करना, हम तभी ही खाएंगे, अगर कोई और भोजन बनाएगा तो हम नही खाएंगे।

माता टिकुल जी की आँखे भर आई, ज़ार-ज़ार रोने लगीं, सच्चे पातशाह दया करो, रहमत करो पातशाह, ऐसी आज्ञा हुक्म मुझे ना दें जो मैं अपने प्रभु सतगुरू के लिए न कर सकूँ, हुक्म न मान सकूँ। मेरे मन में बड़ी ग्लानि हो रही है कि मेरे प्रियतम सच्चे पातशाह जी मुझे भोजन बनाने की आज्ञा फरमा रहे हैं पर मैं बेबस हूँ। सांईजी! भोजन परोसने का हुकुम कीजीए तो मैं परोस सकती हूँ पर मैं इस लायक नहीं कि मैं आपके लिए भोजन बनाऊँ उन हाथों से जिनसे रोग पस बह रही है, जिन हाथों में कोढ़ है। सतगुरू सच्चे पातशाह बाबा माधवशाह साहिब जी वात्सल्य क्रोध से कहने लगे, टिकुल! खाना बनाएगी भी तू और खाना परोसेगी भी तू। हम तेरे हाथों का भोजन ही खाएंगे। माता टिकुल कहने लगीं, पातशाह! आप क्यों ऐसा कर रहे हो? मेरे हाथों को देखो, मैं इसलिए नहीं रो रही कि मुझे कोढ़ हो गया है पर इसलिए कि मेरे परमात्मा स्वरूप सारे जहां के मालिक बाबा माधवशाह साहिब जी इन कोढ़ वाले रोगी हाथों से बना भोजन ग्रहण करें, मेरे सतगुरु ठाकुर ऐसे भोजन का भोग लगाएं। मैं यह अपराध नहीं कर सकती पातशाह। जारोंजार रोते हुए, माता टिकुल ने कहा, दया करो सच्चेपातशाह, ऐसी आज्ञा मुझे मत दो, पातशाह ऐसी आज्ञा न दो।

सतगुरु साहिबान जी फरमाए, टिकुल! ये जो पट्टियां हाथों में बांधी है, सब खोल दो और जाओ, आटा गूंथो और ढोडा तैयार करो। माता टिकुल ने सतगुरु श्रीचरणों में माथा टेका और बड़े ही दुखी मन से आटा गूंथा, रोते-रोते ज्वार का ढोेडा बनाया, साग और मठा भी तैयार किया और मन ही मन पुकार कर रही और रोए जा रही कि, सांई जी! ये कैसी परीक्षा है? हे सच्चेपातशाह! हम शिष्य भक्तों से ऐसी परीक्षा ना लो।

जब भोजन तैयार हुआ, माता टिकुल ने सच्चेपातशाह जी के सम्मुख उसे परोसा और हथजोड़ वहीं श्रीचरणों में बैठ गई और विन्यणा झुला रही। सांईजन ने बड़े प्यार से भोग लगाया, भोजन ग्रहण किया। फिर कुछ देर द्वारकादास जी के घर आराम कर आपजी शाम को टांगे में बैठकर दरबार साहिब के लिए रवाना हुए और जाते-जाते कड़ी फटकार दुखभंजन सतगुरु ने दी, टिकुल! ये आटे से सने हुए हाथ आज मत धोना, कल सुबह पांच सौ पच्चपन साबुन की टिकिया से हाथ धोना। अभी हाथों में आटा लगा रहे।

साधसंगत जी! कमाई वाले पूर्ण संतो की गतमत बेपरवाह फक्कड़ है, दुखभंजनी भी है, कष्ट हरने वाली भी है, अथाह करुणा वात्सल्य बरसाने वाली है।

कहे दास ईश्वर आप रूप बन दुख भंजन तारे रूह उबारे

अगले दिन जब माता टिकुल प्यारे सतगुरु को याद करते सिमरन करते हाथों को धोया, तो ना हाथों में कोई कोढ़ था, न हाथों में कोई ज़ख्म। ज़ारों-ज़ार रोकर कहने लगी सच्चे पातशाह ये तेरी रहमत का सदका, ये तेरी किरपा हैं। जो कोढ़ इतनी दवाइयों से ठीक नहीं हो पाया, तेरी मेहर की निगाह से, तेरी रहमत से इक पल की सेवा देकर भारी असाध्य रोग ठीक हो गया, हाथों मे कोढ़ का नामो निशान न था। वाह सच्चे पातशाह, मेरे सतगुरां, तेरी वडियाई, सब तेरी वडियाई। पूरा परिवार सतगुरु मेहर कुर्ब करुणा को देख आप सच्चेपातशाह जी का शुकराना करने लगा।

साधसंगत जी! सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी करुणा कुर्ब भी बरसाते और थाली उलट कर देते याने योग माया भी ओढ़ लेते, आप अपार समरथ पुरुख जी यूं वचन फरमाते की ये महिमाएं और लीलाएं कोई नहीं समझ पायेगा। अभी कस्बे के लोगों के भाग उदित नही हैं, कालखण्ड में यह गुम हो जायेंगे। आगे चलकर जब गुरुमत की ज्योत प्रगट होगी, अपने भजन प्रताप मुख से ऐसे रूपों को धारण कर, भगतों सोई आत्माओं को प्रभु रूप सतगुरु का प्रताप प्रगट कर सेवा, सत्संग, अमृत नाम का भेद खुमारी में प्रगट करेंगी, जो आज वचन सत्य, सत्य और सत्य ही हैं। हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी ने रहमत किरपा का प्रताप भेद प्रगट किया।

कहेे दास ईश्वर आप रूप बन दुख भंजन तारे रूह उबारे
हरे माधव वाणी बोले, प्रभु खुमारे एकै टिकना

हउं बैठत दयाले रत्त संगा, हउं बैठत दयाले रत्त संगा

प्यारी संगतों! पूर्ण सतगुरु जी की पावन छत्र छाया में क्षण भंगुर चमत्कार तो बरसते ही रहते हैं, बारिश की बूंदों की तरह, महिमामय पूरे सतगुरु का आत्माओं के जगावन खातिर आतम पर अमृत बरसाते रहते हैं लेकिन शाश्वत चमत्कार आतम को, मन बुद्धि को, चित्त को सतगुरु प्रभु भगति से मुक्त फल प्रदान करते हैं। आज वो चमत्कार शाश्वत चमत्कार हर इक आतम अनुभव करती है, आज आप ऐसा दान, अक्षत फल हरिराया सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी से झोली फैलाए मांगे।

हाजिरां हुजूर सतगुरु साहिबान जी फरमाते हैं, शिष्य को सदा पारब्रम्ह की परम मौज में रहना चाहिए। शरीर को सुख मिले या दुख मिले तब भी आप भाणे में रह सतगुरु नाम सिमरन में भीगे रहें, परमत्व में रमे रहे। अगर ऐ रब के अंश! तुम्हें दुनियावी कष्ट मिले तब भी सतगुरु की रीत-प्रीत से जुड़े रहें, अगर देह का मान हो, अपमान हो तब भी उसके भाणे में रहें, सतत् उसी की मौज में रह, अपने अंतर में सतगुरु शब्द से जुड़ कर, आतम का रुख शाश्वत चमत्कार की ओर करें; अकह पारब्रम्ह सागर में मिलने का, एकमत होने का भाव सतगुरु चरणों में लेकर आएं, मन को सदा सतगुरु हुक्म आज्ञा में ढालें, मन को हौमे का रोग न लगने दें।

प्यारे सत्संगी जनो! होमै रोग से मुक्त होने के लिए सतगुरु श्री चरण प्रीत को गाढ़ा करते रहें क्योंकि मन में हौमें के कारण हम सतगुरु हुक्म मौज और भाणे में चल नही पाते। सो सदा भाणे में रहें, सतगुरु हुक्म में रहें, चरण प्रीत को गाढ़ा करते रहें। आप भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु के पावन वचनों को अपने मन में बसा लेते हैं तो इस शरीर के दुख कष्ट वेले में आप सम रहते हैं, संसार की क्षणभंगुर शक्लों पदार्थों का मोह छूट जाता है, शुद्ध आलौकिक इल्म, दिव्य ज्ञान, शाश्वत चमत्कार आतम के अंदर प्रगट हो पाता है; तब आपको पता चलेगा कि पूरे सतगुरु की संगति से, आतम रूह, परमातम के मिठास से लवलीन हो पाती है। अगर आप भजन सिमरन के भण्डारी सतगुरु के आलौकिक वचन अपने मन में प्रीत भाव से बिठाते हैं तो याद रखो, आपका मुख परम राया की तरफ और पीठ संसार की तरफ हो जाती है यानि अंतरमुखी वृत्ति आनन्दित हो जाती है; आप फिर देखोगे बाबा, आपका मन, माया का चोगा चुनने के बजाय अपने अंतर में सच्चे सतगुरु के नाम का रस गटक-गटकर पीता है, यह सतगुरु के शाश्वत चमत्कार का अपार प्रभाव है।

यह मनोहर रहमत का ज़िक्र हरिराया सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी ने अपने भजन प्रताप से 2007-08 में प्रगट की जब अम्मां टिकुल जिनकी उम्र उस वक्त 90-95 बरस और चल-फिर नहीं पातीं, नितनेम से सदा सतगुरु श्रीचरणों में आतीं। एक बार जब दादा द्वारकादास जी के साथ वे सतगुरु श्री चरणों में आईं, आप सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी ने दादा द्वारकादास व अम्मड़ी को सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी के वक्त का वह सारा रहमत, करुणा, कुर्ब का ज़िक्र फरमाया तो दोनों को वह विस्मृत रहमत अचानक स्मरण हो आई और वे हामी भर ज़ारों-ज़ार रो पड़े, रोम-रोम भाव-विभोर हो उठा और कहने लगे, सांई जी! हम भुलणहार जीव तो गुरु साहिबानों की लीलाओं मौज रहमतों को भूल गए थे, आप हाजिरां हुजूर साहिबान जी वही भजन रूप सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी, सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी का धारण कर हमें और सभी जीवों को जगा रहे हैं। वाह मेरे सच्चे पातशाह, आप ही माधव, आप ही नारायण, आप ही ईश्वर भगवान हो।

हे मेरे हरे माधव परम दयाल अगोचर साहिबी के शहंशाह, हमें अपने असल रूप स्वरूप का आंतरिक दीद बक्शो, अपने नाम सिमरन ध्यान का मीठा गुलाल बक्शें, अपने पावन चरण कमलों का अटूट अगाध प्रेम, भक्ति बक्शें जिससे आपके एकस सच्चे रूप को जान सकें। दया कीजिए मेरे हरिराया साहिब जी, मेरे हरे माधव मालिक जी।

।। कहे दास ईश्वर आप रूप बन दुख भंजन तारे रूह उबारे ।।
।। कौतक अजायब रचे, न गत मत को पछाने ।।
।। हरे माधव वाणी बोले, प्रभु खुमारे एकै टिकना ।।
।। हउं बैठत दयाले रत्त संगा, हउं बैठत दयाले रत्त संगा ।।

हरे माधव   हरे माधव   हरे माधव