|| हरे माधव दयाल की दया ||

वाणी संत सतगुरु बाबा नारायण शाह साहिब जी

।। सतगुरु पुरुख हरि हर अनाम है, जनम मरण न आवहि।।
।। सो अगम अगाध, सतगुरु अलख अपार।।

यह रूहानी वाणी सतगुरु दयाल सांई नारायणशाह साहिब जी की, जो परम रोशनी की ओर इशारा कर रही है। पूरा शिष्य अर्थात गुरूमुख शिष्य ही सतगुरू पुरूख से अमृत नाम प्राप्त करके तथा सिमरन की बेला में भीग कर प्रेम का रूप होकर उस अगम अगाध हरि हर में तदरूप हो गए, वे ही अजात नूर हैं।

पूर्ण संत सतगुरु अपनी ख्वाहिश या इच्छा से इस काल मन माया के देशों में नहीं आते, वे उस प्रभु अल्लाह, गॉड, वाहिगुरू, हरे माधव अकह पुरूख के द्वारा नियुक्त होकर इस धरा पर आते हैं। वह साहिब संसार को अपनी परम रोशनी तत्व नाम का भेद दे मन के लुभावने रेशों से निकाल, निर्मल नेक नूर जगा विमल रूहों को साथ ले जाने के लिए आते हैं।

आपजी का अवतरण सन् 1912, माह जेठ, खुम्भ के शुभदिन को हुआ। आप साहिबान की माताजी का नाम श्रीमति गंगादेवी, जब आप गुरूता गद्दी पर आसीन हुए, ममता स्नेह सा दुलार माता पारूअ माँ से मिला, जिनसे आप कभी अनन्द विनोद बालकों की तरह रूहानी मनमोहक लीलाऐं भी रचते और उन्हें ममता माता का रूप भी कहते। आपजी के पिताश्री का नाम दादा आसनदासजी, आपजी की दो बहिनें हूरबाई एवं खथीबाई। सतगुरू शरण में आने से पहले आप हक हलाल की कमाई करते। दीन दुखियों की सेवा, वैराग्य प्रेम में आप साहिब-ए-रूप हो मस्त रहते, पर सदैव आपको खोज होती पूर्ण मौलाई जीवन मुक्त, विदेह मुक्त पूरे सतगुरू की, जो शबद नाम के पार की पहुँच रखने वाला पूर्ण पुरूख हो। आपजी, भाई रत्ताराम जी के सानिध्य में जो खुद सतगुरू प्रेम के सागर में डूबे रहते थे, आपजी यहाँ पर सदैव सेवा, सिमरन, ध्यान में मग्न रहते।

जब सतगुरू सांई नारायणशाह साहिब जी सतगुरू बाबा माधवशाह साहिब जी के रूबरू हुए, तब बाबाजी ने वचन फरमाए- ‘‘भाई प्रभा, हमारे साथ चलो।’’ आपजी उसी समय बाबाजी के साथ चल पड़े और श्री चरणों में प्रेम की लौ रमायी।

सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी के पावन चरण कमलों में, आप सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी गुरुघर, पावन चरण कमलों की बंदगी खिदमत, शरण संगति में रहने की इजाज़त मांगते, आपका हर दुनियवी कामकाजों से पूरी तरह दिल ऊब चुका था, सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी बेपरवाह बेधड़क, अलस्ती मौज में वर्तण करते, एक दफा जब भाई प्रभा जी ने विनती की, शहंशाह! हमें सेवा बंदगी का बल बक्शें, बाबाजी ने कहा, जाओ कस्बे के बाहर जो नदी का पुल है, वहीं से जाकर नीचे कूद जाओ, मन में बिना सोच विचार किए। भाई प्रभा जी गुरु वचनों को शिरोधार्य कर, सीधे पुल पर चढ़ गए, और अंतर में सतगुरु श्री चरणों का ध्यान कर कूद गए, पचास-पचास फुट ऊँचे पुल से नीचे कूदने पर, थोड़ी सी भी खरोच नहीं आयी, हृदय में शहंशाह सतगुरु के लिए अथाह प्रेम, अटल विश्वास, फिर प्रीत निह का नाता गहरा जुड़ गया, आपजी श्री चरणों में नियमित रूप से, स्वासों स्वांस, हर पल, हर क्षण, गुरु सेवा, गुरु भक्ति अगोचर की, रोम-रोम में धारण कर ली।

आप सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी, बाहरमुखी कर्मकाण्डों से जीवों को दूर रहने को कहते, लेकिन पूर्ण संतो के कुर्ब भी यथार्थ, खुद को छिपाकर मेहर रहमत करते, पुछाणा सगड़ा, साधसंगत जी! उन पुछाणों सगड़ों में कृपा मेहर तो प्यारल की ही बरसती, आपजी संतमत सुरति शबद योग के पुरनूर जानकार, समरथवान शहंशाह सतगुरु हैं।

आपजी दिन-रात सेवा, सिमरन और ध्यान में मस्त रहते, सतगुरू दयाल के हुकुम में भरपूर रहते। आप साहिबान जी 5 अक्टूबर 1960 को रूहानी कलाओं, रूहानी डांट, रूहानी झिड़प की शहंशाही गुरुता गद्दी पर आसीन हुए। पच्चीस वर्षों तक आपजी ने संसार को अमृत नाम के जरिए निज मंदिर में ज्योत जगाने का होका दिया। आपजी बड़े प्रेम से दीन दुखियों की सेवा करते और लोगों को भ्रमों-वहमों से निकाल उस एक हकीकी रसाई का सदैव होका दिया करते। तभी वचनों में खुलासा किया ‘‘सतगुरू पुरूख हरि हर अनाम है।’’ पूरे गुरूमुख शिष्य जब सतगुरू के प्रेम सेवा में भीगकर संसार के तानों-बानों को सहके नित्य सिमरन, ध्यान में अपनी रूह को लगा, उस अडोल साहिब में जा मिलते हैं, इस मार्ग में पूरे सतगुरू की मौज, पूरे सतगुरू की खुशी से ही उस अमृत आनन्द प्रभु करतार का नूर जग सकता है, बगैर पूरे सतगुरू के सारे साधन बेशरणी काल की बिछात है। फकीरों का कौल है-

हर कसे रा बहरे, कारे साखतन्द।
मैले-ओ अन्दर, दिलश अन्दा खतन्द।। 

इस दुनिया में हर किसी को किसी न किसी कार्य के लिए मालिक ने कर्म प्रारब्ध स्वभाव से बनाया है, कुछ ऐसीं दिव्य ऊँची आत्माऐं हैं, जिन्हें प्रभु ने विशेष गुणों से सुसज्जित कर इस जमीं पर भेजा। आपजी उन्हीं दिव्य गुणों से रचे हैं।

रूहानी कलाऐं, रूहानी राज, रूहानी मुखड़ा, रूहानी अन्दाज, अथाह आत्म निर्भरता कि प्रकृति आरम्भ से ही उन दिव्य महापुरुखों में भर दी जाती है। आपजी का दिव्य तेजोमय स्वरूप विशाल ललाट मुस्कुराता हुआ अलौकिक मुख मण्डल, दिव्य नयन ऐसे, जैसे कि पूरे ब्रम्हाण्ड की क्रान्ति हिलोरे मार उठती है।

आपजी के मंद-मंद वचनों को जो साफ दिल से श्रवण करता है, उनकी आत्मा मस्ती में झूम उठती है। त्याग, वैराग्य आप श्री के जीवन की एक-एक लीला से झलकता है, आप वैराग्य निजता की अवस्था में वनों में, सिंह, चीते आदि हिंसक पशुओं के मध्य निर्भय होकर विचरण कर आतम आनन्द में मस्त रहते, रिद्धियां-सिद्धियां तो आपकी चरण चेरी थीं, आप सिद्ध शक्ति का उपयोग करना भक्ति के विरूद्ध समझते थे किंतु प्यारों! समुद्र भरा है, कभी कभार आनन्द विनोद के खेल भी खुद-ब-खुद होते हैं। आपका हृदय गंगा सा निर्मल, आकाश सा विराट, समुद्र सा परम गंभीर, संकीर्णता से कोसों दूर रहता। आपजी सभी को डांटते, झिड़प देते पर तह में प्रेम ही प्रेम अथाह प्रेम उभर आता, खिन्न में आप खूब डांटते, खूब फटकारते, फिर दूसरे ही क्षण अथाह प्रेम के मधुर प्याले भी पिला लेते। आपजी सदैव नम्रता, सरलता धारण किये रहते, सदा शान्त परमतत्व भाव में स्थित रहते, पूरे गुरू का वर्णन शबदों में किया नहीं किया जा सकता है।

सच ही कहा गया है-
सब धरती कागद करूं, लेखनी सब बनराय।
सात समुंद की मसी करूं, गुरू गुन लिखा न जाय।।

जो जनम मरण से उस एक समत्व में माधवे करतार के रूप में है, उनकी महिमा अवर्णनीय, अवर्चनीय है। आप साहिबान तो परमार्थ भक्ति आतम ज्ञान के सर्वगुण विधान मालिक हैं।

आपजी ने भक्ति का सहज सरल सुगम पथ दिखाया यानि जिस धन से यह जीव भक्ति पंथ में आ सके, उसी अनूरूप आपजी ने चलाया, होका दिया। प्रेमी, जैसी भावना लेकर आया, दया मेहर कर मौन रूप में आप भावना की पूर्ति कर देते। आज भी आप हम, सभी प्रेमीजन, वह ढंग, वह सलीका, वह भेद उस अमरता का होका सुनते हैं या आँखें, दिल के खिड़की दरवाजे खोल वह रंग, वही रूहानी मस्ती, रूहानी मौज, रूहानी झिड़प डांट पर खिन्न में ही प्रेम अथाह प्रेम, आप हाजि़रां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी में हाजि़र-नाजि़र देख सकते हैं। आपजी कर्मकाण्डों से जीव को निकाल उसे सच्ची राह दिखा, उस सतगुरु नाम सेवा की मस्ती में सदा लगाना चाहते।

ऐ रब के अंशों! सतगुरु साहिबान जी हमें अहंकार, खुदी, मनमत, से किनारा कराकर सेवा, सिमरन के सलीके का बल प्रदान करते हैं, क्योंकि पूर्ण रहनुमा तो प्रेमी शिष्यों को साटिक टिकने का बल वह महासुन्नता की प्रभुता व जगाने के राज देते हैं। शिष्य का भी यह फर्ज है कि वह हमेशा आज्ञाकारी बने, क्योंकि आपजी ने इस वाणी के जरिए राज खोले हैं।

माँ अपने बच्चों की खातिर सुख के साधन व ऐशोआराम त्याग देती है, इसी तरह सतगुरू भी रूहों को परमार्थ के खेमे में लगा उन्हें रूहानी दीक्षा दे उनपर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं। अगर बच्चा उदवादी या शरारती हो जाए, तो भी माँ उसका ख्याल करती है, मन में यही विचार करती है, कि मेरे बच्चा कहीं भूखा तो नहीं है, बीमार तो नहीं है, उसी तरह शिष्य चाहे सतगुरू को छोड़ जाए, बिगड़ जाए या विमुख हो जाए, पर पूर्ण सतगुरू अपने शिष्य को नहीं छोड़ते, वे हमेशा उसकी सार-सम्भाल करते रहते हैं।

सतगुरू सच्चे पातशाह, आपजी समझाते हैं सबसे पहले सतगुरू शिष्य से प्रेम, प्रीत करता है, परन्तु सतगुरु के लिए उस शिष्य का प्यार तो केवल एक क्रिया-प्रतिक्रिया ही मात्र है, सतगुरू शिष्य को याद करता है, हर घड़ी हर वक्त उसी का भला चाहता व सोचता है।

प्यारे मुरीदों! याद रखना, पूरे सतगुरू देहधारी, शरीरधारी जरूर हैं, लेकिन वे नाशवान शरीर नहीं हैं, वे तो परमपुरूख प्रभु सत्ता शरीरधारी हैं, वे हर किसी में बसे रमे हैं। क्योंकि वह परिपूर्ण उसी में आ चुके हैं।

आपजी उन रूहों को चेतावनी दे रहे हैं, जो अभी परमार्थ के राज नहीं जानते, ऐ बन्दों! हमारा मुख, गुरू सतगुरू की तरफ होना चाहिए, बाहरी भ्रमों-वहमों व्यर्थ के बातों, ख्यालों से हटकर अंतरमुखी बने रहें, तभी हम अपनी आँखों से वह जलवा, वह लीला देख सकते हैं। पूरन सतगुरू हमारे लिए क्या-क्या नहीं करते, चाहे हम अंतरमुखी हों या बाहरमुखी हों, तब भी वे सदा दया, मेहर करते रहते हैं। आप सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने फरमाया-

अंतरमुखी सदा सुखी, बाहरमुखी सदा दुखी 

ऐ इन्सान! अगर तुझे जिन्दगी में जीवित देहधारी हाजि़र पूरण संत सतगुरु स्वरूप आला हस्ती का संग मिले, तो यह मान लेना, तेरे सारे लेखे, कुलेखे अपनी दया, मेहर से सिमरन, सेवा, ध्यान करवाकर तुझे कुल-ऐ-वतन हरे माधव लोक में पहुँचा देगा।

अब जिन्हें मौजूदा आला सतगुरु का संग नसीब ही नहीं हुआ, उन्हें उनकी महिमा का क्या बोध होगा, हे बन्धु! लोहे पर कितना भी जंग लगा हो, लकड़ी की तरह उसमें घुन, दीमक नहीं लग सकता, कर्मकाण्डी मनमुख अहंकारी काल के शिकार बन जाते हैं, परन्तु बक्शणहार, महरबान, रहमते करम बरसाते हैं, फिर भी इन्सान पहचान नहीं कर पाता।

जब भी ऐसी हस्तियां इस संसार में अवतरित होती हैं, वे साधसंगत की सेवा कर हक हलाल की कमाई कर, हमें वह आदर्श सिखाते हैं, वे किसी पर बोझ नहीं बनते और मर्यादा का पालन करना सिखाते हैं। आपजी अक्सर यह हिदायत देते कि ‘‘कमाई का दसवां हिस्सा परमार्थ के कार्यों में लगाओ, तभी इह लोक सुखी, परलोक सुहेला होगा।’’ साधसंगत जी! जीव का मन धन की सेवा में रोड़े करता है, पर करुणावान सतगुरु युक्तियों द्वारा भिन्न-भिन्न सेवाओं द्वारा, धन की सेवा द्वारा शिष्य के पेचीदा कर्मों को हल्का कर देते हैं। आपजी फरमाते हैं, जब यह इन्सान सतगुरू से, परम प्रभुता की ऊँचाई प्राप्त करता है, फिर वह शिष्य सतगुरू रूप में प्रकट होते हैं, तब वे निर्मल रूहों को इसी अमृत में मिलाना चाहते हैं, उसके पहले वह नेकी की कमाई, तन, मन, धन अर्पित कर उस नूरानी शान में, वह पाक रूह अभेद हो जाती है, प्रभु के द्वारा यह फरमान सदैव तय व पुख्ता होता है। समय व वक्त पर वे उन्हीं के हुकुम से अपनी कलाओं को खोल, परमार्थ का मुकाम तय करवाते हैं।

शहंशाह पारब्रम्ह पुरुखमय अलस्ती मैज के भंडारी सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी, सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी यूं अलौकिक वचन का फरमान कि भजन सिमरन की भंडारी ज्योत प्रगट होगी, वह पातशाही हमारे हर एक दिव्य करुणा कौतुक बेहिसाब भाव जीवन मुक्त लीलायें प्रगट अपने इल्लाही मुख से प्रकाशमय करेंगे। शरण में रहने वाले जीवों को भी न हमारी रूहानी पूर्णता, बेदाग प्रकाश का भेद पता न होगा। भजन सिमरन की वह ताकत प्रगट होकर हर एक शिष्य का उद्धार भी करेगी, भक्ति वालों को भक्ति, नाम बंदगी वालों को नाम बंदगी एवं अंतरमुखी दिव्य सुख का मक्खन, गुरु सिखी, गुरु भक्ति यथार्थ संतमत का स्तंभ निर्भय होकर विराट स्तंभ को प्रगट करेंगे। अपने अचल अनुभव मस्ती में हमारे रूपों को धारण कर अपनी मौज में करेगी।

हरिराया प्रभु की अंशी आत्माओं! यह परम सत्य वचन, सत्य सत्य सत्यमय जब से हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी, प्रभुवरों के हुकुम से भजन सिमरन का प्रकाश प्रगट किया, हर एक शिष्य हामी भरते हैं। आज जब आप हुजूर मालिकां जी सतगुरु पातशाहियों की साखियां उठाते हैं, तो बुजुर्ग जन व अम्डि़यां जो उस समय के हैं, उनके नैन भर आते हैं कि पहले हमें शरण में प्रतीत ही न थी, उस वक्त बस आते रीत से पर आज भाव रीत से, भक्ति प्रेम दिल में भर-भर आता है।

अब हम ही ज़रा विचार करें, क्या ये गहबी खेल हम पल-पल अपने आसपास प्रत्यक्ष हजूरों की विराट करुणा को नहीं देख रहे, जिन प्रेमी रूहों को प्रभु से मिलाप की तड़प है, वे रूहें परमात्मा के अधिकारी पुरुख, पूरन सतगुरु की समरथता, अपार दया, विराट दृष्टि का भान कर पाती है, प्यारे गुरुमुखों! पारब्रम्ह परमेश्वर और पूरन सतगुरु एक है, हमारे हुजूर पुरुनूर सतगुरु सच्चेपातशाह बाबा ईश्वरशाह साहिब जी पारब्रम्ह परमेश्वर अकाल पुरुख हैं, जो चहुंवर्णां को एकस में मिलने का मारग युक्ति देने आए हैं और हम शिष्य भर-भर ले जा रहे हैं।

एक प्यारे भगत पर यह महिमावान मेहर दया का जि़क्र, जबलपुर निवासी एक भगत ने बताया, मुझे सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी से पहल मिली हुई थी, उस वक्त बड़ा प्रेम प्यार था श्रीचरणों में मेरा। बाबाजी के चोला छोड़ने के पश्चात, मैं मन के कहे बिदक गया, भटक गया इस राह से। मैंने माधव नगर आना छोड़ दिया, मेरे घर में बाबा नारायणशाह साहिब जी की मूर्ति स्थापित थी, मैं घर में ही पूजा कर पहल को जप लेता पर माधव नगर नहीं आता। मैं कुछ वर्षों से भगतों-संगतों से हाजि़रां हुजूर मालिकां जी की वड्यिई महिमा का बखान सुनता आ रहा था, कि हाजि़रां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी, जब से हरे माधव अक्षय भण्डारी कला का भेद जीवों को, रूहों को बक्श रहे हैं, परम सत्य का कारवां नित्य हुजूरी में बढ़ता ही जा रहा है, गांव नगरों शहरों देश-विदेश की संगतें अक्षय सुख पा रही हैं।

हरे माधव साप्ताहिक सत्संग माधवनगर कटनी में सत्संग दर्शन में हर रविवार, सभी सतगुरु जी की, मीठी महिमा सिफत सुनाते। आपजी की महिमा सुनकर मेरे मन में प्रेम चाह जगी, मैं भी दर्शन को जाउं, मैं पहल को रोज जपता परन्तु पक्का नाम मुझे नहीं मिला था, एक दिन जब मैं पहल को जपके उठा, आंखों से आंसूं बहने लगे, सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी की याद से दिल भर उठा, केवल रोए जा रहा था, घर के लोगों ने मुझसे पूछा कि, क्या हुआ? मैंने कहा, पता नहीं आज आंखों से आंसूं नहीं रुक रहे, केवल दिल रोए जा रहा है, मुझे वह घड़ी याद आ रही है, जब शहंशाह सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी मुझे पेड़े प्रसाद में देते, प्रेम कृपा मेहर से परमार्थी सांसारिक समझ भी देते, बाबाजी मंद-मंद बोली में, सत्संग भी हमें बक्शते, कभी मार झिड़प भी आप सच्चे पातशाह जी देते, उस समय हमने बाबाजी की पहचान नहीं की, न योग्यता, न समझ रखी, ऐसे सुहाने पलों को याद कर, रूह तड़प रही है, आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे, दिलो जान से मीठी यादें बह रही हैं। हे मेरे सतगुरु बाबल! वह सुहिणा मुखड़ा दिखाओ, अब नादान, मनमुख नहीं बनूंगा, तन मन सब बलिहार कर दूंगा, दया करें मेहरवान दया करें। उसी रात जब मैं पहल को जप-जप के सोया तो स्वप्न में मैंने देखा कि सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी प्रगट सामने खड़े हैं, करुणा वाली डांट, मेहर वाली झिड़प देकर वचन फरमाए, उठो! गफलत की आंखों को मलो, दिल में प्यार तीव्र विरह विछोड़ा है, तो माधवनगर आओ, * हमने कब कहा था कि हम दूर हैं, हम आज भी हैं। *

मैं प्रेम उत्साह से भर उठा, सुबह परिवार वालों को बताया, कि बाबा नारायणशाह साहिब जी ने मुझे माधवनगर बुलाया है, अपने कपड़ों वाला बैग बनाया और 10 अक्टूबर 2015 की सुबह को मैं माधवनगर कटनी पहुँचा। मैं काफी लंबे अरसे बाद माधवनगर आया था, यहाँ के नक्शो निशान बहुत ही बदले हुए थे, पर हवाओं में प्यारे सतगुरु की रहमतों की वही खुशबू आज भी आ रही थी, जो सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के वक्त अनुभव होती थी। मैंने देखा कि माधवनगर में वर्सी महोत्सव का जलसा लगा हुआ है, चहुँओर संगतों का इतना विशाल हुजूम देखकर मैं चकित रह गया। बाबा माधवशाह चिकित्सालय के सामने वाले विशाल प्रांगण में, जहाँ सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी बड़ी आनंद विनोदी लीलायें किया करते, वहाँ वर्सी महोत्सव का विशाल सत्संग दीवान सजा था। मैं हैरान अवाक खड़ा रह गया, अचानक मुझे सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के वे वचन याद आ गए, जो बाबाजी ने इसी स्थान पर, पीपल के पेड़ के समीप, सभी से फरमाए थे कि आगे चलकर संगतों का भारी हुजूम उमड़ेगा, यहाँ विशाल सत्संग के जलसे लगेंगे और संगतें रूहानी परमार्थी खज़ाना भर-भर कर ले जायेंगी।

आज उन वचनों को मैं अपनी आँखों से सत्य होते देख रहा हूं, मेरे आँसु बह उठे। मैं सत्संग पंडाल में आया, सत्संग दीवान में सत्संग के मीठे परमार्थी वचन बह रहे थे, मैं बड़ा ही उत्सुक हो रहा था कि जल्दी से जल्दी चरण कमलों तक पहुँचूं, बड़ी आतुरता से आगे संगत में बैठ गया। हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी ऊँचे आसन पर सुशोभित, आप बाबाजी परम तत्व में लीन, योगीराज बाबाजी तेजोमय आंखें, कभी गंभीर मंद-मंद मुस्कुराता सुहिणा मुखड़ा, सिर पर वही गोल टोपी, जैसे ही मुझे पावन दर्शन हुए, मैं अपनी सुध-बुध खो बैठा। सेवादार भगतजन सत्संग वचन फरमा रहे थे, अनगिनत संगतें सतगुरु शरण में बैठ सत्संग वचनों का अमृत रसपान कर रहीं।

कुछ देर बाद आप हाजिरां हुजूर बाबाजी मुखारबिंद से वचन फरमाए, बड़ी ही ओजस्वी वाणी में आप मालिकां जी ने नाम भगति के गहरे भेद बताए, सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी, सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी की महिमायें साखियाँ फरमाईं, अंतरमुखता बंदगी के शाश्वत परम सुख के वचन, साधसंगत पर आपजी बरसा रहे, उस समय सारा आभामंडल, बड़ा ही शांत, केवल आपजी की वाणी का रस चहुँओर बह रहा और सभी संगतें एकटिक हो वचन रसपान कर रही। हवायें भी थम सी गईं थी, ऐसा लग रहा था मानो आज सम्पूर्ण कुदरत, देवी-देवता भी यहाँ श्रीवचनों को सुनने, सत्संग दीवान में आये हैं।

जब सत्संग वचन पूरे हुए, मैं दण्डवत सजदा कर आगे बढ़ा, आंखों से नीर बह रहे, बाबाजी के प्रेम के मधुर वचन सत्संग सुन, मेरे होंठ सिल गए, हृदय में सुहाना आनंद समा छा गया, चित्त शांत, दर्शन कर प्रेम के सागर में गोते मारने लगा, जैसे ही निकट पहुंचा, श्रीचरणों में दण्डवत हो लेट गया, जब उठा तो अंतर में प्रसाद की आस हुई, कि सम्मुख जाकर, श्रीचरण कमलों को स्पर्श करूं, सेवकों ने मना किया, तभी करुणावान बाबाजी की निगाह मुझ दीन पापी पर पड़ी, मेरी अंतर आस की पुकार सुन, आप बाबाजी ने सेवकों से कहा, इन्हें आने दें।

मैंने सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के श्रीचरणों पर शीश रख दिया, आंखों से नीर बहे जा रहे थे, आंखों का पानी जैसे ही श्रीचरणों में गिरा, मेरे सिर पर मेहर दया का हाथ, सच्चे पातशाह जी ने रखा, जैसे ही मैंने आंखें खोलीं तो मैंने देखा कि ‘‘सम्मुख सिंहासन पर सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी विराजमान हैं। सम्मुख सिंहासन पर सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी विराजमान हैं’’ मैं पलक भी नहीं झपक रहा था, ‘‘बस मुखड़े को निहारे जा रहा था’’। आप हाजि़रां हुजूर बाबाजी ने प्रेमामयी झिड़प दी, उठो! इतना मत निहारो, सेवा करो, भजन बंदगी करो और परीक्षा लेने मत आया करो। आप बाबाजी के इन वचनों से मैं इशारे समझ गया, कि मैंने गुनाह किये हैं, क्योंकि शिष्यों को कभी भी सतगुरु की परीक्षा लेने का भाव मन में नहीं लाना चाहिए। मैं समझ गया, सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी अब हाजि़र प्रगट नाम सिमरन के भण्डारी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के रूप में धरा पट पर आ, आप जीवों को नाम भक्ति, आंतरिक आतम मंजिल की रसाई का भेद दे रहे हैं, मैं अपनी मूर्खता पर रोया, कि क्या समझता था और क्या पाया। जो वचन सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी हमें कहते-
अंतरमुखी सदा सुखी, बाहरमुखी सदा दुखी 

इस रूप में वही सत्संग वचन हाजि़रां हुजूर सतगुरु बाबाजी दीवान पर बैठ रूहों को चिता रहे हैं, वह सारा नज़ारा मेरी आंखों के सामने घूमने लगा, आगे क्या महिमा हो सकेगी अकथ की।

ज्योत ओहा जुगति साई, सह काइया फेरि पलटिए

प्यारी संगतों! पूर्णता को भला किस प्रमाण की आवश्यकता, सूर्य की तुलना भला किसी और प्रकाशपुंज से कैसे संभव है, आज इस मुबारक घड़ी में बैठ हम सभी इस बात का आतम अवलोकन करें। जागन की वेला हैं जागें।

गुरु की प्यारी संगतों! भजन सिमरन के भण्डारी सतगुरु ऐसे रूपों ऐसे भेदों को खुद आप प्रगट करते हैं, आपजी ने उस शिष्य से कहा, आज जब भजन सिमरन की दिव्य दृष्टि के द्वारा एक-एक वचन सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के भाव भेदों को प्रगट कर रहे हैं। उस समय अगर आपने कोई पात्रता नहीं रखी तो ये कमजोरी दोष आपका है, आपके कर्मों की पोटली का है, आज जो आंखों का कचरा मले, अडिग प्रेम भजन ध्यान से दिल मन को साफ कर, प्रीतवान करे, तो आज सारे वचन प्रकाश प्रगट है, फिर आपजी ने यूं कहा, कि यदि किसी सौदे को आप नहीं ले सकते, तो दुकानदार को दोष मत देना, पहले आपने यही किया है, लेकिन आज यह मत करना, आज करुणा का भण्डार खुला है।

प्यारी संगतों! आज प्रकोशोत्सव के पावन पर्व पर सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी की इक-इक लीला बेहिसाब करुणा भंडार का हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी आपै आप सतगुरु अपनी भजन बंदगी अलौकिक ध्यान दिव्य दृष्टियों द्वारा अपने पावन मुख से बयां करते जाते हैं, आज उन्हीं मनोहर लीलाओं की साखियों को हम सुनकर अपने जीवन में सतगुरु प्रेम, भजन-बंदगी के मीठे गुलाल से अपनी रूह आतम को रंग दें और सदैव यही विनती करें कि ऐ मेरे मालिक! मुझे बस तेरा ही बल, आसरा विश्वास है, हे मेरे बाबल! हे करुणावान सतगुरु! हम सभी जीव बड़े निर्बल मैले प्राणी है, हमें अपना बल बक्श, चरण कमलों का प्यार अपनी संगति की छाया बक्श। मेरे सतगुरु जी, मेरे बाबल जी।

।। कहे नारायणशाह सुनो संतों, मोरो रूप अनन्तो, न जन्मू न मरूं।।
।। मैं सदा निज रूप रहूँ, मैं सदा निज रूप रहूँ।।

हरे माधव  हरे माधव  हरे माधव