|| हरे माधव दयाल की दया ||

।। मेरे प्रीतमा सतगुरु प्यारे, मेरे प्रीतमा सतगुरु प्यारे।।
।। जग से अब की बार उबारो, चरण तुम्हारे रस मैं पीवूँ ।।
।। मन की धुन्ध मिटावो मेरी, आतम भाव भगत पियाला ।।

गुरु महाराज जी की प्यारी संगतों! आप सभी को गुरु पूर्णिमा की अनन्त बधाईयां, प्रेम प्यार से हरे माधव हरे माधव हरे माधव।

आज के पावन पर्व पर हरिराया सतगुरु जी की पवित्र छाया निर्मल रूप के, आप हम सभी जीवों को सफल निर्मल दर्शन मिले अंतर घट में, हमारी विनय अरदास सच्चे पातशाह जी के चरण कमलों में श्रद्धा सुमन, सत्कार सुमन, नीवां सुमन, अकीदा चरण कमलों में परवान कबूल हो।

आज के पावन सत्संग की रसीली बेहद पुकार की रब्बी वाणी हरे माधव बाबाजी, भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के पवित्र मुखारबिंद से फरमाई हुई, आपजी सभी रूहों को प्रीतमा सतगुरु प्यारे के श्रीचरणों में पुकार का सलीका बक्श रहे है-
मेरे प्रीतमा सतगुरु प्यारे, मेरे प्रीतमा सतगुरु प्यारे
जग से अब की बार उबारो, चरण तुम्हारे रस मैं पीवूँ

ऐ हरे माधव बाबाजी! यह अरदास प्रार्थना श्रीचरणों में तमाम संगतों की, आप गुरुवर जी हम शिष्यों का एकमात्र भरोसा हैं, एको टेक आपकी है, आपजी की निगहबानी सदैव हम सभी पर बरसती रहे, आपजी के सफल दर्शन दीदार कर हम आत्माऐं, सिमरन ध्यान के सच्चे रब्बानी गुलाल में भीगते रहें, चरण रस को भर-भर पीते रहें।

संगतों! प्रभु की अंशी रूहों, आप हम सभी बड़े भागां वाले हैं, असीम खुशनसीब हैं क्योंकि कमाई वाले हरिराया रूप सच्चे सतगुरु का मिलना, यह कोई आम बात नहीं और वो भी ऐसे पूर्ण सतगुरु का मिलना जो कि न्यारे चैतन्य राम में एक होकर, मुक्त हस्ती, विदेही मुक्त रूप बनकर, जगत के जीवों के मध्य आकर उन्हें पूरन भगति, पूरन निजधाम याने सतगुरु लोक में एक होने का भेद बक्शते हैं।

गुरु पूर्णिमा पर्व, पूरन हरिराया रूप सतगुरु से शिष्य का पूरन भगति पाकर निजधाम, सतगुरु धाम में एक होने का पर्व, या यूं कहें, रूह का हरिराया सतगुरु में अभेद होने का पर्व। प्यारे सतगुरु की हुज़ूरी में तमाम आत्मायें, रूहें न्यारे पारब्रह्म सुख को अपनी झोली में भरने के लिए आती हैं, श्रीदर्शन कर आतम मेहर पाती हैं। प्यारे सतगुरु नूर की निगाह से शिष्यों पर रहम की बरखा करते हैं, सतगुरु, अपने प्रेमी भगतों के घटों की सब जानते हैं और उनके मनों के दुखड़े पीर हरने वाले अनुपम वात्सल्य रूप हैं, इसलिए प्रेमी भगतजन प्यारे सतगुरु को अंतरयामी कहकर भी पुकारते हैं।

पूर्ण सतगुरु स्वभाव से स्नेहशील विरदवान हैं, उनका चित्त विराट का चित्त है। उनका आतम मन रोम-रोम निर्मल से निर्मल अथाह अनन्त में रमा रहता है, ऐसी पावन संगति में आकर शिष्य रूहों को आतम ब्रह्म ठंडक का निर्मल अनुभव सहज प्राप्त होता है। कमाई वाले पूर्ण संत पुरुखों का हृदय सुकुमार हृदय होता है, वे परिपूर्ण दया के पुन्ज, हर पल स्नेह करूणा के जल को शिष्य रूहों पर बरसाते हैं, पूरन संत राग द्वैष निन्दा स्तुति, सुख-दुख, मित्र-शत्रु के द्वंद जालों में नहीं फंसते। संत सतगुरु स्वांग रचकर शिष्यों के घट के अज्ञान या अभाव को हटाने के लिए, उन्हें जागृत करने के लिए करूणा लीलायें निर्भय होकर करते हैं, वे मन माया के कर्म बन्धनों से सर्वदा जीवन मुक्त होकर हरिराया सतगुरु आप हम सबके बीच में अजन्मे सुख का उपदेश खुल कर बरसाते हैं, इनकी रूहानी मुस्कान से हृदय का बंद रूहानी कमल खिल उठता है, ये नम्रता के संपूर्ण श्रंगार होते हैं।

योग वशिष्ट में कहा गया है कि प्रत्यक्ष सतगुरू को निराकार ब्रम्ह (सम दृष्टैता) जानो, वह समस्त मानव जाति को मार्ग दर्शन देने आता है, जीवात्माओं के उद्धार हेतु आता है जगत में और भी अनेकानेक कार्य पूर्ण सतगुरू की मौजूदगी में अपने आप सिद्ध होते हैं।

सतगुरु शिष्यों के अशुभ सोच विचार को भी शुभ मंगलमय बना देते हैं, अगर कोई उनसे बैर भी रखे तो करुणारूप सतगुरु भलाई के करुणा के बहाने ढूंढते हैं, ऐसे न्यारे हरिराया रूप सतगुरु अमृत रस के साहूकार होते हैं, वाणी में मिश्री सी मिठास, हृदय पट फूलों सा सुकोमल, स्नेह नूरानी दृष्टि को बरसाने वाले, कमाल के मंगलकारी जादूगर होते हैं, इनका दिल मक्खन के समान बड़ा नरम दिल होता है। प्यारे सतगुरु उपकार पर उपकार करते हैं और चमत्कार आपे आप होने लगते हैं, इनके दीवान-ए-संगत में आकर, इनकी जीवन महिमाओं, लीलाओं, करुणा रहमतों के दृष्टांतों को सुनने में बड़ा न्यारापन निर्मलपन, ज्ञान सुख मिलता है, भगति का रस मिलता है। पूरण सतगुरुओं ने मन माया दुई पर विजयश्री हासिल की होती है, वे बेशुमार जीवों को ऐसे दलदल से निकालने का न्यारापन, चमत्कारिक पूर्ण उद्म हर पल करते दिखते हैं। यह बात कहना मुनासिब होगा कि कमाई वाले पूर्ण संत मन मायावी विचारों के प्रतिपक्ष प्रतिद्वंदी होते हैं और जन परोपकारी कार्य निर्भव भजन से करते हैं, इसीलिए पूरा गुरु सतगुरु ही हमें करना चाहिए, कच्चे गुरु से बात नहीं बनती।

साधसंगत जीओ! पूरण सतगुरु की संगति में आप शिष्यों-भगतों के भिन्न-भिन्न रूप देखोगे कि कुछ प्रीतवान हैं, शरण दीवान में बैठे शिष्य कुछ मीठी पुकार कर रहे है, कोई विनय विनती के भाव सजाए हुए हैं, कोई प्यारे सतगुरु की एक झलक को, एक वचन को, एक छोटी सी किरन को तरस रहे हैं। ऐसे कई प्यारे शिष्यों की रूह साटिक दर्शन कर नैनों से अविरल नीर बरसाती हैं जिससे उनकी रूह बेखुद की चाँदनी में नहा लेती है। एक ही बात आई कि धुरधाम-सचखण्ड का रहबर आया और रूहों को शाश्वत चमत्कार, सुरति-शबद के जरिए ‘‘रहमतें बक्शे जा रहा है’’-2। कुछ प्रेमी शिष्य तो ऐसे भी हैं, जो भाव रखते हैं कि हम परमात्मा को पाकर क्या करेंगे, जब प्यारे सतगुरु जो खुद हरिरूप हैं, उन्होंने हमें अपना ही रूप बना दिया तो फिर मन में तनिक पिपासा ही नहीं है परमात्मा को पाने की। यहाँ भी बात एक ही घटी कि जब पूरन सतगुरु से नूर की निगाह को पा लिया तो शिष्य सभी क्षणों में उस हरे माधव नूरी खुमारी में मस्त हो उठे। सभी रूहें अपने घट अंतर के भावों की पात्रता, कमाई की पात्रता से निर्मल अति शीतल हो रही हैं, मस्त मगन हो सतगुरु चरणों की प्रीत भगति से आंतरिक मण्डलों की रसाई कर रही हैं, उच्चतम आत्मिक शिखर की ओर रूहानी विजय ध्वज लिए आगे बढ़ रही हैं। कुछ ऐसी रूहें भी हैं जिनके कर्मों का बोझ अति भारी होती है, वे पूरन शरण में आकर कर्मों के भार हल्के करते हैं, अनन्त ही अनन्त रूहें ऐसे बेशुमार परमार्थी लाभ गुरुशरण में पा रही हैं। प्यारों! पूरन सतगुरु की संगति में आ, हम भी हर पल ऐसे विदुर भाव से हंस संगति को पाने का यतन करें।

तेरी शरण सदा सुखकारी, तेरी शरण सदा सुखकारी
मेरे सतगुरु प्यारे माधव दाते, तेरी शरण सदा सुखकारी
दास ईश्वर मांगे प्यारे, मोहे शरण सदा तुम राखो
ओ हरे माधव मेरे प्यारे, आतम के तुम मेरे प्यारे

महाराष्ट्र के भगत नामदेव जी ने कहा, सतगुरु सुखों के महासागर हैं और नामदेव जी ऐसे सतगुरु को पाकर ही सुख रूप बन गए। ऐ साधक! तू ऐसे सुखरूप सतगुरु की शरण में जा, कहा मराठी राग में-

सुखाचा सद्गुरु सुखरूप खेचरु
स्वरूप साक्षातकारु दाखविला
विट्ठल पहातां मावकले मन
ध्यानी भरले नयन तन्मय जाले
मी मांझे होते हे मजमाजि निमाले
जक जक गिकिले जयावरी
तेथे आनंदी आनंदु वोकला परमानंदु
नाम्या जाला बोधु विट्ठल नामें

नामदेव जी सच्चे सतगुरु, आत्मा को सुख देने वाले सुखरूप हैं। मेरी आतम को पारब्रम्ह में लीन कर दिया। हे सतगुरु! मेरी आँखें तेरे ध्यान में लीन हो गईं, चंचल मन अलमस्त हो गया। हे सतगुरु!

विट्ठल पहातां मावकले मन
ध्यानी भरले नयन तन्मय जाले

आतम रूपी बूंद महासागर में मिलकर उसी का रूप हो गई, अहं जाता रहा, मेरे ऊपर मेरे सतगुरु ने ही ऐसी किरपा की-

तेथे आनंदी आनंदु वोकला परमानंदु
नाम्या जाला बोधु विट्ठल नामें

विट्ठला माधव के नाम को जप मैं आनंद, परमानंद में खोया रहता हूँ। हे सतगुरु! तू तो-

सुखाचा सद्गुरु सुखरूप खेचरु 

गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी न्यारे राम रूप पूरन सतगुरु की प्रशंसा उस्तति कर कहा-

बंदउँ गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नर रूप हरि
महामोह तम पुंज, जासु बचन रबि कर निकर

संपूर्ण सिमरन सतगुरु का, संपूर्ण पूजा सतगुरु चरणन की, संपूर्ण ध्यान सतगुरु का। याद रखो! फिर सतगुरु की महर किरपा से आप अपने अंतरघट में देखोगे, कब सतगुरु पारब्रह्म हो गया, शिष्य को पता ही नहीं चला, वह अपने अंतर सुखद अनुभव को बरसता पाता है, हैरान बांवरा सा हो जाता है, शिष्य कहता है, क्या मेरी तुच्छ सी समझ थी, बुद्धि थी, जिसे मैंने आम इन्सान जाना, वही परम तत्व रूप में अवतरित प्रगट हुआ है। साधसंगत जी! जब शिष्यजन सतगुरु की शरण में आते हैं, कोई शिष्य सतगुरु को तत्वयोगी अंतर्यामी ज्ञानी रूप में, कोई योगी रूप में, कोई पण्डित रूप में, कोई सतगुरु रूप में, कोई राजनीतिक गणितज्ञ, कोई साहित्यकार, कोई चित्रकार, कोई रूहों को संवारने के लिए कुशल मैनेजमैंट चलाते हुए देखते हैं, बाल-गोपाल उन्हें खेलकूद करते हुए नटखट रूप में, भिन्न-भिन्न रूपों में जान चहुँ वर्णों की रूहें शरण में आकर शिष्यता ग्रहण करते हैं, साधसंगतों! हम अपने सच्चे पातशाह जी में अनंत गुणों का भण्डार देखते हैं जो कि सभी रूप में कलायें बिखेरते हैं, ऐसे ही सतगुरु में भारी कलाओं वाला रूप आप देखोगे, बस आँख होनी चाहिए, केवल सच्ची आँख। शिष्य जब आंतरिक रूहानी कमाई कर ऊँचे मण्डलों में जाता है तब शिष्य कहता है, जिसे मैंने इन्सान की तरह हाथ में हाथ दिया था, वह मामूली इन्सान नहीं, असाधारण अकह परम पुरुख पारब्रम्ह ही है, जो एक से अनेक रूप में विद्यमान है पर एक है, वह अगोचर अडोल थिर तखत पर विराजमान अखण्ड शाहूकार शहंशाह है जो अपनी शहंशाही मौज में सब पर रहमो करम कर रहा है। सो साधसंगत जी! सतगुरु चरणों को कसकर पकड़ना, क्योंकि पूरन सतगुरु रूढ़ीवादी विचारों से नहीं भरा होता, वह जीव जगत को नित्य नया भाव रूप, परम प्रकाश रूप और अनूठी खुमारी को बरसाता है, सौ की सीधी बात, वह एक ऐसा घाव अंतरघट में लगा देता है, जिसकी दवा कहीं और नहीं मिलती, वह मरहम केवल और केवल उसी के पास होती है। आप हुजूर सतगुरु जी पूरे सतगुरु की विराट शाहूकारी, पूर्णतः सत्य रूप में मेहर करुणा सब पर बरसाते हैं। सतगुरु का अर्थ ही यही, कि वह तुम्हारे जैसा दिखता, बोलता है, चलता है, खाता है, आनन्द विनोद स्वांग करता है, फिर भी वह तुम्हारे जैसा नहीं होता है, वह तुमसे बहुत आगे है, वह बाहरी रंग रूप से तुम्हारे जैसा लगेगा पर उनका एक पैर जमीं पातालों से भी गहरा धसा है और दूसरा पैर सातों आकाशों के पार अथाह में है, सतगुरु के रंग रूप की महक ही कुछ अलग होती है, बाहर से वह तुम्हारे जैसा भान होगा पर अंतर में वह चैतन्य रब परमेश्वर ही है।

प्रभु रूप सतगुरु जड़ चेतन की गांठे खोलने वास्ते, धरा पर प्रगट हैं, ऐ आत्मा! सतगुरु, जो खुद महाचेतन है, वह चैतन्य शबद से आतम को ऐसे अभ्यास की विधी जुगत देते हैं, कि प्रभु की अंशी रूहें मेहनत करें, अभ्यासी बने गुरुप्रीत, चरणप्रीत धार सच्चे नाम की कमाई करें, जड़ ज्ञान नहीं, चैतन्य के नूर को खिलायें।

प्यारी साधसंगत जी! आज इस कलिकाल में कच्चे गुरुओं द्वारा ज्ञान का आडम्बर चहुँओर फैला है, जीव भटक जाते हैं, उन्हें भान ही नहीं कि पूरण सत्य की राह कौन सी है, जब वे कमाई वाली पूरण साधसंगत में आते हैं, साधसंगत शरण में जब उन्हें पूरण शरण, पूरण सत्य एकस के भेद के वचन, पूरण सुहेली नदर प्राप्त होती है तो उनकी रूह जागृत हो जाती है। ऐसी अनगिनत रूहें आप गुरु साहिबानों की शरण में आती हैं, प्यास लिए परम सत्य की, जिन्हें आपजी जागृत पथ से जोड़ लेते हैं।

भारी अहंकार एवं विकारों रूपी सब दुख रोग प्यारे सतगुरु की रहनुमाई से ही दूर होते हैं, इसलिए ऐसे परम दयाल दुख भंजन सतगुरु की महिमा बखान करते हुए गुरु साहिबान जी आगे सत्संग वाणी में फरमाते हैं, जी आगे-

।। दुख भंजन सतगुरु है प्यारा, भगत जनां के दुख तू हरता ।।
।। पारब्रम्ह सतगुरु प्यारे, तुम्हरी पूजा भर भर ध्याऊँ ।।
।। अनंद रूप परम सुख लीला, नमो नमो मेरे सतगुरु प्रीतमा ।।
।। दास ईश्वर मांगे सतगुरु, घट तीरथ रूप जगाओ ।।
।। हरे माधव हर दयाले, सतगुरु दीनदयाल प्रीतमा मिलाओ ।।

संगतों! संसार में इतिहास भरे पड़े हैं, दत्तात्रेय को चौबीस गुरु मिले, पूर्ण सतगुरु के बगैर आंतरिक प्रकाश न मिल सका यानि कहा-
दुख भंजन सतगुरु है प्यारा, भगत जनां के दुख तू हरता

जब तक कमाई वाला परमेश्वर सतगुरु रूप में नहीं मिला, दुखों का निबेरा नहीं हो सकेगा, वह भाव भक्ति का रोग देता है, वह शिष्य के दुखों को इस तरह हरने की जुगत देने वाला कारीगर करतार होता है, इस राह पर बात तो सच्चे सतगुरु से ही बननी है और कोई रचनाहार ने कायदा नहीं बनाया है।

पूरन सतगुरु अमृत के भण्डारी हैं, संगतों पर सदा दया रहमत की बरखा करते हैं, सच्चे सेवक गुरुशरण में रह, सेवा नाम बंदगी से जीवन संवार लेते हैं। सतगुरु और पारब्रम्ह परमेश्वर में कोई भेद नहीं, सतगुरु की पूजा ही प्रभु की आराधना है-
पारब्रम्ह सतगुरु प्यारे, तुम्हरी पूजा भर भर ध्याऊँ

आप गुरु साहिबान जी सेवकों, शिष्यों को परमार्थी राह में शौक चाह बढ़ाने का इल्म देकर, अनेक युक्ति लीलाओं से, प्यार दुलार से कभी डाँटकर याने प्रतिपालक की हर रीत से, संसार के थपेड़ों से बचाते, शिष्य की सार सम्भाल कर, गुरुमुख बनने की राह दिखाते हैं-
क्यों प्रानी मन बिललाऐ, सतगुरु सम को दूजी सेव नाहिं

आपजी अनेक-अनेका वचन प्रसाद या मनमोहक लीला रचकर रूह आतम शिष्यों को परमार्थी बंदगी की राह प्यारे संदेशों, लीलाओं में देते हैं।

माधवनगर कटनी का एक प्यारा अनन्य प्रेमी बंदा हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी की हुजूरी में आता जिसे दुनियावी वस्तु-पदार्थां की कोई कमी नहीं। वह आँखां में आँसू लिए, दिल प्यार से भरा हुआ, प्रेमा-भक्ति, सतगुरु भक्ति की चाह रख हमेशा फरियाद करता, ‘‘ऐ सच्चे पातशाह! मुझे दिल में, आतम रूह में अपने प्रेम की दात देवो, सतगुरु भक्ति कूट-कूट कर, रच-रच कर मेरे अंतर में भरें, मैं गुनाह-ऐबों से भरा हूँ, मेहर करो बाबल, दया करो।’’

जब भी वह अरदास-याचना करता, आप हाजिरां हुजूर बाबाजी परम मौज में ये वचन कहते, ‘‘चोर हो, चोर हो, चोरी करते हो।’’ वह प्यारा बोलता, ‘‘गरीबनिवाज़! सच्चा प्यार, प्रेमा-भक्ति बक्शो।’’ फिर सिर झुकाए वह चला जाता। जब भी वह शरण हुजूरी में आता, हर बार प्रेमा-भक्ति, सतगुरु-भक्ति की चाह विनय पुकार करता। एक बार, दो बार, तीन बार, चार बार, अनेक बार वह यही दुहाई करता रहता और आपजी भी हमेशा यही कहते कि चोरी कर रहे हो, अमानत में ख्यानत कर रहे हो।

वह प्यारा गोला जब पुकार करता तो एक सेवक जो लंबे समय से सेवा में रत, मन ही मन कहता कि यह तो बड़ा नामी-गिरामी सेठ है, इसे किसी चीज की कमी नहीं, ये चोर कैसे हो सकता है सतगुरु बाबाजी से इतनी विनय पुकार कर रहा है फिर भी बाबाजी सबके सामने उसे चोर कह रहे हैं। अगर बाबाजी इसे चोर कहेंगे तो लोग क्या कहेंगे! उस सेवक के मन में गुरु साहिबानों के प्रति खट्टे भाव पनप उठे। यही कहता रहता, ऐसे थोड़े ही होता है, वैसे थोड़े ही होता है। वह अपने अंदर बिना नम्बरों के ज़ीरो लगाता रहता। साधसंगत जी,

‘‘गुरु स्वांग वरताए, शिष्य सिद्धक न हारे’’

गुरु साहिबान जी, सब जाननहार करूणावान कुर्बदार के कुर्ब वचनों में तारणहार मर्म ही छिपे होते हैं। उन वचनों में शिष्यों, भगतों के लिए करूणा ही छिपी रहती, पारस के हल्के कण को भी पारस कहा गया।

आपजी अपनी रब्बी मौज खुमारी में बैठे थे, तभी वह प्यारा बंदा पुनः आया और कहने लगा, ‘‘हुजूर जी! प्रेमा भक्ति बक्शो। चरण कमलों की छांव दिल में बस जाए।’’ आपजी ने कहा, ‘‘बड़ी चोरी की आदत है, चोर हो न!’’ वह रोने लगा, हथजोड़ बस नीर बहाए जा रहा, वह सेवक जो उल्टी सोच रखता था। वह यह सब देख-सुन रहा, आप बाबाजी ने उसे भी बुलाकर फरमाया, ‘‘बेटा! मन में वचनों के प्रति उलटा भाव है न। प्यारे! यदि सेवक का सिद्दक विश्वास, प्रेम अनवरत बढ़ता रहे तो ही बात बनती है, मन में प्रेम का डोलना यानि अभी आप कच्चे शिष्य सेवक हो। पतंग वे ही कटते हैं जिनकी डोर, मंझा, सद्दी कच्चे होते हैं।’’ वह उलट भाव वाला सेवक आँसु लिए हथ जोड़ माफी मांगने लगा, सच्चे पातशाह दया करें, दोनों ने विनय की, ‘‘मालिकां जी! बक्शें, दया मेहर करें।’’

आपजी ने उस प्रेमी प्यारे से कहा, ‘‘आप जो स्वांस लेते हैं वह किसके दिए हुए हैं?’’ वह कहने लगा, ‘‘बाबाजी! हरे माधव प्रभु सतगुरु के।’’

आप बाबाजी ने कहा, ‘‘और परिवार, बाल-गोपाल सब किसके दिए हुए हैं?’’ उस बंदे ने कहा, ‘‘बाबाजी! हरे माधव प्रभु के।’’

आप बाबाजी ने पुनः पूछा, ‘‘ज़मीनें धन और मान किसका दिया हुआ है?’’ वह कहने लगा, ‘‘सच्चे पातशाह जी! हरे माधव प्रभु का।’’

आपजी ने दोनों से कहा, ‘‘बाबा! जब सब कुछ उस अकह परम पियारे हरे माधव प्रभु का है तो हम उन चीजों को अपना मान कर अमानत में ख्यानत ही तो कर रहे हैं, चोरी ही तो कर रहे हैं। सतगुरु भक्ति में सम्पूर्ण समर्पण होना चाहिए।’’ फिर आपजी ने यह पावन रब्बी वाणी फरमाई-

जी सब कुछ तेरा मेरे माधवे जी, जी सब कुछ तेरा मेरे माधवे जी
मेरे माधव जी मेरे साहिब जी, मेरे माधव जी मेरे साहिब जी
सब कुछ तेरा कुछ न मेरा, मेरे दाता सतगुरां
दास ईश्वर विनती करत है, जी सब कुछ तेरा कराया
मेरे हरि राय मेरे प्यारे, सब तेरी अकुलाई

हुजूर महाराज जी ने फरमाया, ‘‘इस राह में आप सब कुछ हरे माधव परम प्रभु का ही मानो। केवल मुख से नहीं, दिल और जुबान दोनों एक हों। जिन रूहों को इस राह पर आंतरिक उन्नति प्राप्त करनी है, उनके लिए 100 प्रतिशत यह वचन, परिपूर्ण टैबलेट टॉनिक हैं। साथ ही मन पर वचन कायदों का अंकुश रखना और परहेजी होना भी शिष्य के लिए अति लाज़मी है। जब सब कुछ दिया हरे माधव दाते का है तो मोह के लगाव-लपेट में क्या पड़ना।’’

उस प्रेमी बंदे ने हुजूर शंहशाह जी के मुख से परम वचन वाणी सुने, आँखे तर होती गईं, गला रुंध गया, प्रेमाभक्ति से पूरे शरीर में बिजली सी दौड़ पड़ी, हथजोड़ पुकार कर कहने लगा, प्रेमा भगति बक्श मेरे बाबा! चरण ठौर बक्श।’’

आपजी ने फरमाया, ‘‘बेटा! सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी की शरण में रह तुमने दुनियावी दातें पायी और मैं अहं को ओढ़ लिया, पर सच्ची प्रेमा भक्ति अहंकार की कुर्बानी मांगती है और हमें यह देखना था कि तुम्हारे अंदर अभी तक कहीं अभिमान का डेरा तो नहीं।’’
शिष्य भगत रो रोकर अर्ज़ करने लगा-

माया पहिंजीअ खां पाण बचाइ जांइ, हथड़ा डई पहिंजा पार लगाइ जांइ
कान्हे बी का वाह, तुहिंजो ही आ आधार, जीयं वणई तीयं तार

आपजी ने भगत के सिर पर हाथ रख सतगुरु बाबा नारायणशाह जी के परमार्थी वचन की शिष्य की कैसी प्रीत होनी चाहिए, कहे-
प्रीत न कीजौ पंछी जैसी जो जल सूखे उड़ जावै
प्रीत तो कीजौ मछली जैसी जो जल सूखै मर जावै

संगतों! यही वचन सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी फरमाते जो आज हाजिरां हुज़ूर सतगुरु बाबाजी ने उन प्यारों से वचन कहे। आज हजारों लाखो रूहों की यह जुबानी हम सुनते हैं कि आज हर इक वचन प्रकाशमय हो रहे हैं, रूहें असलता की सोझी पा रही हैं, जिसे खुद हाजि़रां हुजुर सतगुरु ही प्रकाशमय कर रहे हैं। कहावत है न सिन्धीयत में कि लिकाएण वारो हिकु, गोल्हण वारा सव।

हरे माधव रब रूप सतगुरु के आनंददायक परमसुखों की लीला महिमा गुरुभक्तों ने निहवान रूहों पर बरसती है, जैसे सावन के मेघ चहुँओर हो रही हैं, ऐसी मनमोहक लीलाओं से शिष्य की रूह बुद्धि चित्त नीरसमय जीवन में भक्तिमय जीवन प्रीतमय जीवन का ढंग रंग आ जाता है, सतगुरु जी की लीलायें सुन, उनका अपने भगतों के ऊपर दया करुणा बरसाने के वात्सल्य रूप देख आँखों से नीर बरस पड़ते हैं कि किस तरह सतगुरु अपने हर इक सिक्ख भगत पर मेहर करुणा कर संभाल करते हैं, भगतों से सतगुरु महिमा के अनुभव सुनहृदय का आलौकिक पुष्पकमल खिल उठता है, अनंद रूप परमसुख की लीला देख देव देवा देव सिद्ध-सन्यासी भी सूक्ष्म रूप में परमसुख को पाने पूरण सतगुरु के श्रीचरणों में भेष बदल उमड़ पड़ते हैं, वे अपनी हदों में इस अमृत को पीते हैं, हरिराया सतगुरु तो जाननहार है, अब आगे क्या कहें-

अनंद रूप परम सुख लीला, नमो नमो मेरे सतगुरु प्रीतमा

हरिराया सतगुरु की पनाह संगति में क्या राजा-रंक, क्या साजन दुर्जन या जात-पात का भेद, सतगुरु दयाल तो समता करुणा के विराट महासागर बेहद रूप हैं। भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु, चहुँवर्णों की रूहों को अपनी पवित्र ओट छाया शरण में रख रहमतें बरसाते हैं। यह कोरा भ्रम कोई न पाले कि सतगुरु एक वर्ग के हैं, वे तो सर्वत्र सर्वव्यापक हैं। धरती की कोई कौम जाति नहीं और नाहीं साचे सतगुरु की, आकाश की कोई कौम जाति नहीं और नाहीं भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु की। गुलाब के फूल या इत्र को ही ले लो, उसकी खुशबू की कोई जाति वर्ग नहीं, ऐसे ही हरिराया सतगुरु की कोई कौम जाति नहीं। पूरण सतगुरु अजात रूप हैं, अजन्मी प्रकाश ज्योत है, वे चहुँवर्णों की आतम के लिए हैं, इसलिए जाति-वर्ग-कौम की हदों से ऊपर उठ, साचे हरिराया सतगुरु की शरण दीवान में बस योग्यता और कोरा हृदय लाकर, सतगुरु दर्शन, सतगुरु शबद के द्वारा अपनी आतम को सोध सकते हैं।

कटनी हाउसिंग बोर्ड निवासी, सरदार गुरुजीत सिंह जो सचखंड हरे माधव लोक में गति कर चुके हैं। उन्होंने हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी की अपार महिमा सुनी थी कि भजन सिमरन के भण्डारी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी चहुँवर्णां की रूहों को सांझा उपदेश दे ऊँची रूहानी तालीम देते हैं। वे गुरु साहिबान जी की हुजूरी में आने को लालायित थे। जब पहली बार सरदार गुरुजीत सिंह, हुजूर महाराज सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के सत्संग पावन दर्शन में आए, जो कुछ मन में परमार्थ मत की चाह थी, वह सब उन्हें शरण साधसंगत एवं अमृत नाम बंदगी में प्राप्त होता गया।

एक बार रविवार के हरे माधव साप्ताहिक सत्संग में वे परिवार के साथ नितनियम से आए, आप शहंशाह सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी ने सरदार गुरुजीत सिंह से कहा कि मंगलवार के दिन प्रसाद बनाकर ले आईएगा, साग डोढा। आज्ञा पाकर वह मंगलवार को सुबह के समय प्रसाद ले आए, काम के सिलसिले में कार्य व्यवहार के लिए उन्हें झुकेही क्षेत्र में जाना था, उनकी कोयले की गाडि़यां आनी थीं, सो हरे माधव दरबार साहिब आये, प्रसादी जो लाए थे सेवकों को दे, मत्था टेक जाने को हुए, हाजिरां हुजूर मालिकां जी उसी समय आकर विराजमान हुए, संगतें दर्शन दीद दरस कर कतार में श्री चरण स्पर्श वंदन कर आगे बढ़ रहीं। सरदार जी जल्दी-जल्दी जाने को आतुर हुए दर्शन चरण स्पर्श के लिए। जब गुरुजीत सिंह जी श्रीचरणों में आए तो आप हुजूरों की वाणी से परम वचन प्रकाश हुए, करीब 1.5 घंटा। सतगुरु वचन प्रकाश की रहमतें पाकर, भंडारा प्रसाद खाकर दरबार साहिब के बाहर आ समय देख गुरुजीत जी कार्यक्षेत्र को न जाकर घर को वापस चले गए। सरदार जी का हुजूरों के श्रीचरणों में अगाध प्रेम। अगले दिन जब गुरजीत सिंह जी सुबह के समय सतगुरु नाम अभ्यास में बैठे, करूणावान दीनबंधू दुखभंजन हरिराया सतगुरु ने उन्हें यानि उनकी आतम को खींच कर उन ऊँचे मंडलों में उड़ाकर यह दृश्य दिखाया कि कल उस समय तो आपकी कोयले की जो गाड़ी आने वाली थी, उसे खाली करवाते वक्त, जो कोयले के पानी से भरा कुंआ था, उसमें आपको गिरना था सो आपजी ने श्रीचरणों में वचन प्रकाश की रहमत कर शरण में रखकर सार संभाल की। सरदार जी उन ऊँचे मंडलों में यह सब कुर्ब करुणा के खेल देख गहन विस्माद में आ गए, आँखों से आँसु बरस पड़े। सरदार जी ने बताया कि दुखभंजन सतगुरु ने करूणा रूप दर्शा दिया मेहर की और साहिब जी अलूप हुए, फिर मैं सरदार गुरुजीत सिंह जी उसी समय परिवार सहित श्रीचरणों में एक ही बात अरदास लेकर आया, कि अंत समय तक सच्चे पातशाह सतगुरु शरण एवं सेवा में मेरा मन लगा रहे। सो प्यारी संगतों! सरदार गुरुजीत सिंह जी सतगुरु शरण, सतगुरु सेवा, सतगुरु बंदगी में नितनियम रख आतम सुख, शाश्वत प्रसाद को पाया।

साधसंगत जी! दयावान सतगुरु, करुणावश, प्रेमी भक्तों की पल-पल संभाल अवश्य करते हैं, बस जीव पूरण श्रद्धा, पूरण समर्पण, पूरण भाव, पूरण प्रीत, पूरण प्रेम से श्रीचरणों में रमा रहे।

सो गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर शरण संगत में बैठे स्नेहीजनों! सत्संग के परम प्यारे वचन हमें अंदरूनी रोशनी से जुड़ने की ओर इशारा, प्यारे मालिकां जी वचन मेहर के बक्श रहे हैं। प्यारों! नाम का सिमरन निशदिन करें, सतगुरु शरण सत्संगत में नित नियम रखें और सेवा की महत्वता महानता में घुलमिल जाऐं, प्यारे सतगुरु के परम प्यारे वचनों के अंदर सुमत का भण्डार छिपा है, मन, वचन, कर्म से भवरें बनने की ओर अपना रुख करें। सो विनती है, महारस के सच्चे पातशाह सतगुरां के श्री चरणों में कि हमें अपना गोलाबनाऐं, नाम का सिमरन एवं सारे कायदे हम पुख्ते होकर कमाऐं, तभी हमारी वास्तविक गुरु पूर्णिमा होगी, रहम करो, मेहर करो, मेरे बाबाजी मेरे सतगुरु जी।

।। दास ईश्वर मांगे सतगुरु, घट तीरथ रूप जगाओ ।।
।। हरे माधव हर दयाले, सतगुरु दीनदयाल प्रीतमा मिलाओ ।।

हरे माधव    हरे माधव    हरे माधव