|| हरे माधव दयाल की दया ||

।। जिन मन प्रेम है रे भाई, तिनका मर्म न जानै कोई ।।
।। प्रीति जिस मन होवे भाई, सो हरि से प्रीति लाई ।।
।। आदि से यह प्रीति बनी है, प्रभु से यह नीति बनी ।।

हुजूर सतगुरु महाराज जी के श्रीचरण कमलों में हम मिस्कीन ऐबदारों का प्रणाम, सादर ही सादर नमस्कार, दण्डवत कबूल हो। आप हम सब झोली फैलाए यही विनय, सच्चे पातशाह पारब्रह्म सतगुरु जी के श्रीचरण कमलों में करें कि हमारे अंदर सतगुरु प्रेमा भक्ति, की लाग बनी रहे, सुरति की डोर जुड़ी रहे। हमारे मन आतम में हर पल सतगुरु दर्शन की, लगन ताड़ी बक्शें। आप सतगुरु सांईजन फरमाते हैं कि मुरीद शिष्य के हृदय में जब तक सच्चा सतगुरु प्रेम नहीं जगा, जब तक तड़प वियोग का घाव नहीं लगा, सतगुरु दर्शन की व्याकुलता मन में नहीं उमड़ी, तब तक आतम प्रभुमय लोक में नहीं जा सकती। सतगुरु से प्रेम-प्रीत ही वो कड़ी है जिससे हंस रूपी आत्माएं, काल की बेड़ियां तोड़कर, अकह हरे माधव प्रभु के धाम में पहुँच पाती है। जिन मन में प्रीत प्रेम है, वही हरि सतगुरु से प्रीत लाई है।

जिन मन प्रेम है रे भाई, तिनका मर्म न जानै कोई
प्रीति जिस मन होवे भाई, सो हरि से प्रीति लाई

जिन रूहों पर हरिराया सतगुरू और उनकी साध-संगत की प्रेम प्रीत का अमीठा रंग न चढ़ा, वे अभी अभाव, अप्रीत रूपी आंधी में घिरे हुए हैं पर जिन निर्मल रूहों को सतगुरू साध-संगत से रूहानी प्रेम हो गया, वे रूहें सदैव अमृत आनंद में मगन रहती हैं। जिसने भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु के अखण्ड प्रेम अनुराग की ज्योत अपने भीतर जगाई और जिन्हें सतगुरु के पावन श्रीचरण कमल अमृतमय लगे, फिर वे हरे माधव कुल-ए-साहिब में जा मिले। ऐ रब के अंश! अगर पूरे सतगुरु के चरण-कमलों में प्रेम की लौ नहीं जगी तो लंबे समय तक की गई सेवा-बंदगी का पकना भी दुष्वार है। हमारा सिमरन-ध्यान चाहे बढ़ चढ़ कर होता रहे और ज्ञान-ध्यान भी घट अंदर खूब भर लें लेकिन यह सारी बातें तभी ऊँचे तबके की होंगी जब हमारा अनन्य प्रेम हररिाया सतगुरु चरणों में रम जाए। सभी पूर्ण संतों महात्माओं ने, सद्ग्रन्थों में हरिराया सतगुरु से प्रेम की ऊँची सिफत गाई है और यही आदि अनादि से अकह प्रभु द्वारा बनाया गया अटला अमिट विधान है, फरमाया गुरु महाराज जी ने-

आदि से यह प्रीति बनी है, प्रभु से यह नीति बनी

माता मीरा बाई जी ने गुरु चरण प्रीत की वड्यिाई यूं गाई-

मोहे लागी लगन गुरू चरनन की
चरन बिना मोहे कछु नहीं भावै, जग माया सब सपनन की

भवसागर सब सूख गयो है, फिकर नहीं मोहि तरनन की
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर, आस वही गुरु सरनन की

माता मीरा बाई जी प्रेमप्रीत से भर गा उठीं, जो भाव सभी शिष्य मुरीदों में होना चाहिए कि मेरे मन में गुरु सतगुरु के चरणों की अनन्य लगन बस गई है, अब तो भवसागर से भी छूटन की कोई चिंता फिकर नहीं, बस एको आस पूरे सतगुरु प्रभु की, उसी की लगन लागी है मेरे मन अंतर में।

संगतों! जिसके अंदर हरिराया सतगुरु के प्रेम की सुगंध नहीं बिखरी, वह तो इस मार्ग पर समझो केवल ठीकरें इकट्ठी कर रहा है। इस राह में सतगुरु चरनन से लगन लगाए बिना तो बात नहीं बननी, केवल इक आस और प्रेम प्रीत सतगुरु चरनन की होनी चाहिए, तो आतम की राह रोशन हो पाती है।

हरिराया सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी निर्मल प्रेमामय वाणी में फरमाते हैं-

चरण कमल भरोसा तेरा, चरण कमल भरोसा तेरा
इन चरणन में लागे जियरा, इन चरणन में लागे जियरा
दास ईश्वर हरि जी मांगै, सतगुरु चरण होए बसेरा
मेरे घट में भ्रम भागै ओ हरे माधव चरण बसे जी

इन ऊँचे राज़ों कथनों का भाव बड़ा अनोखा, निराला है, जिन्हें इस रूहानी राह, इश्क-ए-हकीकी में आगे बढ़ना है, उनके लिए ऐसे वचन अमृत संजीवनी वचन हैं। प्यारे भगत जनों! आखिर वे पावन श्री चरण हैं कौन से जिनसे हम जुडना चाहते हैं, जिन्हें धो- धोकर प्रेमी पीना चाहते हैं। पावन श्रीचरणों का आखिर भाव क्या है, जिन्हें हृदय घट में धारण करने से ताप, पाप और संताप दूर हो जाते हैं। वह हैं, भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु की प्रेमामय भगति, उनके अमृतमय चरण; सुर-नर, ऋषि-मुनि, जपी-तपी, सारे अवतार भी अपना सब कुछ त्याग कर उस अमृत को पाने की लालसा रखते हैं, वे सदैव इन चरण कमलों का आसरा लेते हैं।

सुर नर मुनि जन अमृत खोजदे, सो अमृत गुरु ते पाइया

प्यारे स्नेहीजनों! जब सारी स्याणप चतुराई छोड़कर पूरे सतगुरु चरणों का प्रेम बैठ गया, तभी अनामि नूर अंतर में उभर पड़ता है। तभी सतगुरु सांई नारायणशाह साहिब जी ने सिन्धी में दिव्य वचन फरमाये-

तन में आ माधव मन में आ माधव, हर हंद मां माधव डिसां

जिन्हें हरिराया सतगुरु की प्रेमा भक्ति का अनुपम प्रसाद मिला, उस सम्पदा का मोल कोई नहीं आंक सकता। ऐ रब के अंश! यह जो नर नारायणी देही है, चिरंकाल से सभी का यह इंसानी जन्म, प्रत्यक्ष सतगुरु की चरण संगति प्रेम से ही सफल हो पाया है। ऐसे प्रेम में मस्त होकर जिनके अंतर के नैन लोचन खुले फिर उन्हें सभी अपने ही दिखते हैं, पराया कोई नहीं, सभी में एक हरे माधव प्रभु का नूर, हरिराया सतगुरु का दीद ही होता है-

तन में आ माधव मन में आ माधव, हर हंद मां माधव डिसां

यह महान महिमा सतगुरु से साचे प्रेम की है। चिरंकाल से उस एको एकता का यह एक परमार्थी रूहानी चक्र बना है यानि-

आदि से यह प्रीति बनी है, प्रभु से यह नीति बनी

समझाया गया कि प्यरों! उस प्रभु सतगुरु दाते की अभिन्नता, एकोएकता का यह राजो रम्ज वाला भाव है कि पूरे गुरु सतगुरु की जो विराट दिव्य शख़्सियत है, जो उसका विराट प्रभुमय व्यक्तित्व है, वह कौमों, मुल्कों के बंधनों से परे, उस हरे माधव साहिब की हस्ती, मस्ती मौज में ही लीन है इसलिए पूरे सतगुरु और साहिब प्रभु एको एक रूप ही कहे गए। वह हरी प्रभु अनन्त, असीम है, चहुंओर मौजूद व्यापक है लेकिन उस अथाह के प्रगट होने का स्थान है, भजन सिमरन का भंडारी सतगुरु और उसी के जरिए आतम रूहों को काल की इस माया नगरी से निकल सचखण्ड की आत्मिक राह मिलती है।

आदि से यह प्रीति बनी है, प्रभु से यह नीति बनी

गोस्वामी जी ने आगे की बात भी खोल कर समझाई और चिताया, कि होशियार रहना, वो इस तरह-

सहजु सनेह स्वामी सेवकाई, स्वारथ छल फल चार बिहाई

कि छल, स्वार्थ, धरम, अर्थ, काम, मोक्ष इन फलों को छोड़कर, निर्मल शुद्ध स्वभाविक प्रेम प्रीत से अपन पूरण सतगुरु की सेवा करनी चाहिए। स्वार्थ, छल, कपट, छिद्र या बाहर से प्रेमी और अंदर से अप्रेमी बनकर, बाहर से गुरुमुख और अंदर से मनमुख की तरह नहीं रहना चाहिए। भगतां जी! जिनके हृदय में सतगुरु से प्रेम-प्रीत लगन नहीं, उन का हृदय शमशान के समान सूना नीरस है। जिस प्रकार लुहार की धौकनी निर्जीव खाल होने पर भी स्वांस लेती है उसी प्रकार सतगुरु प्रेम के बिना मनुष्य निःसंदेह स्वांस लेता, चलता-फिरता, कार्य करता हुआ दिखाई देता है लेकिन वह मृतक ही है। परमहंस सतगुरु से हंस रूप शिष्य साधक का प्रेम-प्यार निह होना अनिवार्य है, उनकी शरण में स्वार्थ और दुनियावी भावों से रहित होकर आओ, तो बात बनती है। वहाँ थोथा प्रेम, चालाकी, चतुराई, पाखण्ड नहीं चलता। सतगुरु सब घट के जाननहार हैं भले वे आपको मुख से कुछ नहीं कहें। उनकी साची रहमत तो साची प्रेम-प्रीत वाले ही पाते हैं।

हरिराया सतगुरु के श्रीचरणों में शिष्यों का समर्पण, शरणागति, निर्विवाद होनी चाहिए, उनकी हर एक श्री आज्ञा का पालन करना, सच्चे शिष्य भगत की पहली निशानी है, पहचान है, लेकिन यह निशानी किसी-किसी में ही होती है, उस भगत को बाहरी सुख-दुख, लोक लाज की तनिक भी परवाह ना हो। इस राह पर लोकमत, मनमत, खुदी अहंकार को छोड़ कर ही आगे बढ़ा जाता है।

प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय
राजा प्रजा जेहिं रुचै, सीस देय ले जाय

हरे माधव यथार्थ संतमत वचन उपदेश 664 में फरमान आया, पूरे गुरु सतगुरु संत के प्रति प्रेम, श्रद्धा अपने अंदर बैठाओ, अगर प्रेम, श्रद्धा नहीं जगी, तो निकट होते हुए भी दूर हैं, अगर श्रद्धा, प्रेम है, तो दूरों दूर होते हुए भी सतगुरु मालिक सदैव अंग संग है। अपने मन इन्द्रियों को उसी चाल में चलाओ जिससे कि प्रत्यक्ष हरिराया सतगुरु में प्रेम प्रीत बढ़ती जाए। हरिराया सतगुरु को साधक शिष्य का निष्काम भाव प्रेम ही प्रिय है।

Develop immense faith and love for the Accomplished True Master within you. Unless there is love & faith, you shall find the True Master to be away from you but once you develop them, you will feel the True Master’s presence within your core. Mould your mind and senses towards the path that deepens your love for the Lord True Master because He is only pleased by a disciple’s selfless sentiments & love.

सत्संग शबद वाणी में आगे फरमान आया, जी आगे-

।। गुरू के शबद से होवे प्रकाश, अंतर मांहि होत आनंदा ।।
।। शबद बिना भक्ति न होए, भाव बिना प्रीति न होए ।।
।। दास ईश्वर कहत है भाई, जिस ये है प्रीति धारी ।।
।। हरे माधव राया में समायो।।

सतगुरु महाराज जी बड़ा ही ऊँचा फरमान सत्संग वाणी में फरमाया-

गुरू के शबद से होवे प्रकाश, अंतर मांहि होत आनंदा
शबद बिना भक्ति न होए, भाव बिना प्रीति न होए

जब गुरुमुख प्रेमी ने, पूरण सतगुरु देव का साचा शबद पाया, और सतगुरु के देह रूप स्वरूप का ध्यान कर, धीरे-धीरे शबद नाम सिमरन में सुरति को रमाया, तो उसकी आतम नौ तापों, इंद्रियों की गुलामी से आज़ाद हो साटिक में स्थिर होती है, तभी मन की भटकन दूर होना शुरू हो जाती है, अंतर में शाश्वत आनंद की लहरें उठने लगती हैं, अंतर माहिं होत अनंदा, लेकिन यह तभी सम्भव है, जब भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु की साची भाव भक्ति, अविचल प्रेम घट में बस जाए, तभी कहा-

गुरू के शबद से होवे प्रकाश, अंतर मांहि होत आनंदा
शबद बिना भक्ति न होए, भाव बिना प्रीति न होए

चाहे हम कितने भी मनमति के कर्म, धर्म, जप-तप करें, सतगुरु शबद नाम के बिना साची भक्ति प्रीत होती नहीं और मन में भाव भक्ति धारण किए बिना साची प्रेम प्रीत की डोर जु़ड़ती नहीं।

जब सतगुरु दयाले के प्रताप से शबद, नाम का सिमरन पकता है तब शिष्य के घट अंदर, हरिराया सतगुरु का दिव्य स्वरूप प्रकट होता है, जब सतगुरु का तसव्वुर ध्यान घट में पकता है, तब हरिराया सतगुरु का दीद दर्शन, अंदर-बाहर सदा होने लगता है।

साहिबान जी समझाते हैं कि जीव मनमति में पड़ अपने असल उद्देश्य को भूल रहा है। ऐ दुनिया के लोगों! तुम्हारे अंदर जो मोह, मन माया की इच्छाओं रूपी, अनेक अवगुणों की बाड़ियां लगी हुई हैं, तुम उनसे प्रेम बिठाये हुए हो जिससे तुम्हारा लेख विषैला बन रहा है, इस मन माया के स्वार्थी प्रेम से मुँह मोड़ो और प्रत्यक्ष हरिराया सतगुरु के दिव्य प्रेम का अमृत पीकर देखो, जब वह सतगुरु चरण प्रेम का अमृत तुम्हें भा जाएगा तब तुम्हारे सारे संशय, सारा हौमें रोग दूर हो जाएगा और तुम सदा अंतरमुखी रहना चाहोगे, सतगुरु की प्रेम प्रीत की खुमारी में ही भीगे रहना चाहोगे।

प्यारी संगतों! रक्षाबंधन का पावन पर्व सच्ची प्रेम प्रीत का प्रतीक है। प्रेम सद्भाव का यह त्योहार बड़ा अनूठा है, सभी घरों में इस दिन अपार खुशियाँ मनाई जाती हैं। बंधन का अर्थ है अधीनता और रक्षा का अर्थ है सुरक्षा, यानि जो बंधन हमारी रक्षा करता है। हरे माधव यथार्थ संतमत वचन उपदेश 631 में फरमान आया, हरे माधव मत में, रूहानियत की दृष्टि में रक्षाबंधन यानि एको सूत्र, यह शिष्य आतम का हरिराया सतगुरु से प्रीत का परम दिव्य बंधन है जो रूह को सतगुरु श्रीचरणों से इक अदृश्य डोर से बांधती है और यही प्रेम प्रीत का बंधन जीव को मुक्तता भी दिलाता है, मन माया के सारे बंधनों से आज़ाद भी करता है। सतगुरु प्रेम-प्रीत का पतले से पतला धागा भी जीवों को चैरासी कैद से आज़ाद करा सकता है, धागा कसकर पकड़ में आ जाए तो हमें फर्श से अर्श तक पहुँचा देता है यानि सतगुरु भक्ति का धागा शाश्वत मुक्ति का साधन बन जाता है।

रक्षाबंधन वह बंधन है जिसमें सम्पूर्ण श्रद्धा, विश्वास, प्रेम-प्रीत निष्कामता के साथ समाहित है, यह भक्ति का अनुपम संगम है। आतम शिष्य को सदा सतगुरु युक्ति से नाम अभ्यास करना चाहिए, यही सार सच्ची भक्ति है, इससे आतम सहजता से सत्रूप में समाती है, फिर एक पल के लिए भी उससे अलग नहीं रहती, इसी से उसे सच्ची तृप्ति, परम आनंद, परम सुख मिल जाता है। ऐसी रूहें, हरिराया सतगुरु की सत्संगति में रहते हुए, पूरण सतगुरु वचनों को आत्मसात कर अमल में लाती हैं।

सतगुरु नाम भक्ति से प्रेम प्रीत का यह निष्काम रिश्ता बड़ा विचित्र है, इससे जीव को सभी में एक रूप वाली समत्व दृष्टि प्राप्त हो जाती है, सभी अपने ही प्रियजन लगते हैं। यह एको सूत्र, प्रेम प्रीत की डोर हमारे मानव जीवन को संवारती है। हरिराया सतगुरु की साची प्रेम प्रीत में भीगी रूहें इस तरह सतगुरु प्यारे को पुकार रही हैं-

प्रीत की डोरी लेकर सतगुरु, द्वार तेरे मैं आई।
दर खड़ी मैं तुझे निहारूं, मन में रही सकुचाई।।
है इक छोटी सी आशा कि बांधूं तुझको राखी।
मांगे प्रेम तुम्हारा बाबा, चरणों की यह दासी।।
बांधो सतगुरु निज चरणन से बंधन कभी न टूटे।
छूटे चाहे सारी दुनिया तेरा साथ कभी न छूटे।।
रहमत कर दो हरे माधव बाबा, भर दो मेरी झोली।
सतगुरु ईश्वरशाह बाबल, कर दो नज़र सुहेली।।
तुझ संग रक्षाबंधन साचा, मनाउं मैं दातार।
सुन लो मेरी पुकार ओ मेरे हरे माधव करतार।।

रक्षाबंधन का पर्व सदा से रक्षा का भाव प्रगट करता है। यह अमिट सत्य है कि हरिराया सतगुरु ही शिष्य की आतम की रक्षा इस लोक एवं परलोक दोनों में करता है।

जहाँ मात पिता सुत मीत न भाई
मन उहां नाम तेरे संग सहाई

हरिराया सतगुरु शिष्य की आतम पर रक्षात्मक कवच, मेहर वाला अदृश्य हाथ रखता है, मैले मन को ऊजल करता है यानि रक्षक बन निजता की ओर रुख करवाता है, नाम मंत्र देकर कायदों में चला, शिष्य आतम को काल की दुविधाओं से बचाता है। किस तरह हमारे हरिराया सतगुरु अदृश्य-सदृश्य रूप में हमारी संभाल रक्षा करते हैं, इसका अनुभव आप हम सभी स्वयं करते रहे हैं और कर रहे हैं। है न संगतों!

यदि हम सतगुरु नाम बंदगी बखूबी नहीं भी कर पाते, तब भी करुणावान दयालु सतगुरु हमारी रक्षा करते हैं, अपने पावन वचनों से, मेहर से संभालते हैं। हम अनगिनत शिष्यों पर बेशुमार उपकार, रक्षा मेहर हरिराया सतगुरु की प्रतिपल बरसती है, हम शिष्यों का कर्तव्य धर्म है अपने सतगुरु श्रीचरणों से प्रीत प्रेम के बंधन को गाढ़ा करना, अहम खुदी को गलाना। हम घट अंदर निहार कर देखें, ज़रा ध्यानपूर्वक सोच कर देखें, समझ कर देखें तो पायेंगे कि हरिराया सतगुरु तो हमारे घट अंदर सदा हमारी रक्षा कर रहे हैं, संगतां जी! प्रीत प्रेम का बंधन, हमें गाढ़ा करना है। ऐ सत्संगियों! सतगुरु चरणों से एको सूत्र, प्रेम प्रीत की डोर जोड़ें, नाम बंदगी, सेवा-सत्संग से जुड़ें। संतमत में रक्षाबंधन का रूहानी महत्व यही है। हरिराया सतगुरु जीवों को अपने प्रेम प्रीत के बंधन से जोड़कर शिष्यों के मन के सारे द्वंद्व काट देते हैं। वे शिष्य की आतम को प्रेम बंधन व भगति में गाढ़ा करते हैं जिससे वे मैले कर्माें से उबर साफ हरे हरियाले हो जाते हैं।

साचा प्रेम साची प्रीत सरलता से प्राप्त नहीं होती, उसके लिए सबसे पहले अंतर से वैर-विरोध, नफरत-घृणा, तृष्णा, अहम, अश्रद्धा, मूढ़ता, पाखण्ड का त्याग करना पड़ता है। सतगुरु की प्रीत का बंधन अजात होता है, जाति, वर्ग की सीमाओं में नहीं आता, सभी वर्गों, चहुं वर्णो की रूहों के लिये सतगुरु का प्रेम समान होता है। सतगुरु का प्रेम हिमालय सा ऊँचा होता है परन्तु कठोर नहीं, वह सागर सा गहरा गंभीर होता है पर खारा नहीं। साचे सतगुरु प्रेम में विश्वास श्रद्धा, समत्व प्रेम, विवेक, समर्पण की पूर्णता होती है। सम्पूर्ण सृष्टि का अस्तित्व प्रेम के कारण ही है। प्रेम के बिना सब घट सूने हैं, प्रेम ही परमात्मा है, परमात्मा प्रकट स्वरूप सतगुरु हैं। हर और हरी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हर सतगुरु के बिना हरी प्रभु का प्रेम प्रकट नहीं होता, अंदर का अज्ञान अंधेरा नष्ट नहीं होता। हरिराया सतगुरु ही साचा प्रेम करने की युक्ति देते हैं।

जितने भी रिश्ते-नाते हैं, वे प्रेम के सूत्र में बंधे हैं। प्रेम प्रीत के बिना चित्त में उत्साह प्रसन्नता नहीं आती। वह हृदय मुबारक है जिसमें प्रियतम सतगुरु के लिए प्रेम प्रीत बसी है, यह प्राप्त होती है सतगुरु नाम भक्ति से। साची भक्ति उसी को प्राप्त होती है जिसकी आस्था, हार्दिक लगन सतगुरु श्रीचरणों में होती है। लगन से ही आतम आंतरिक गगन तक पहुँच पाती है, बिना लगन के मन मगन नहीं होता और मगन हुए बिना सिमरन भजन नहीं होता। सच्ची लगन-प्रीत के बिना भक्ति सार्थक नहीं।

शबद बिना भक्ति न होए, भाव बिना प्रीति न होए
दास ईश्वर कहत है भाई, जिस ये है प्रीति धारी
सो ऊँचा बाकी सब नीचा

सो हम शिष्यों आतम रूहों का भी धर्म है, सतगुरु से नींह, प्रीत की डोर को, एको सूत्र को सदा श्री चरणों से बांधे रखना, सतगुरु युक्ति से नाम बंदगी भक्ति करना, सेवा, सत्संग, सिमरन, भजन, ध्यान से जुडना,़ सतगुरु वचनों पर अडिग होकर हुक्म आज्ञा में चलना, भांणे में रह सतगुरु प्रीत प्रेम के परम दिव्य बंधन को गाढ़ा करना, जिससे आतम सहज ही परम दिव्य बंधन से परम मुक्तता की ओर उड़ान भरती है, यही रक्षाबंधन का, एको सूत्र का रूहानी महातम है। आज इस पावन पर्व पर बस यही अरज है हरिराया सतगुरु साहिबान जी के श्रीचरणों में-

हे हरे माधव दयालु भगवन, हे हरे माधव दयालु भगवन
श्री कर कमलों में लाए, एको सूत्र का बंधन
भावों के सुमन श्रीचरणों में आए करने अर्पण
सतगुरु तुझको प्रीत का तिलक लगाएं
इक जनम नहीं हर जनम प्रीत निभाएं
हर इक मन का हो तुझसे एको सूत्र का बंधन
बक्शो सबको सतगुरां अपना भगति प्रेम समर्पण
जब भी दुखी हुआ मन हमारा, तुमने माँ सी ममता को लुटाया
जब भी भटके कदम हमारे, बन गए तुम पिता की छाया
प्रीत प्रेम प्यार दे के, तुम बने हमारे भाई व बहन
अब तो हर रिश्ता तुझसे ही है, तुमसे मिला अपनापन
सदा हमारे अंग-संग रहना, बाँध के एको सूत्र का बंधन
सदा हमारे अंग-संग रहना, बाँध के एको सूत्र का बंधन

अपने प्रियतम हरिराया सतगुरु के श्री कर कमलों में, श्री कलाई पर राखी बाँधने का भाव यह कि हे सच्चे पातशाह जी! अपने साचे प्रीत प्रेम के बंधन में, एको सूत्र से हमें सदैव बाँधे रखना, आप ही हमारे सच्चे रक्षक, हमारे मात-पिता बंधु सखा हो, आप ही हमारा एको आसरा और विश्वास हो। बस आपसे और केवल आपसे ही हमारा सदा सदा के लिए नाता जुड़ा रहे, आप हमारे और हम आपके बने रहें। सांईजी! अपनी प्रेमामय भक्ति के एको सूत्र में सदा बांधे रखना, अपने एको सूत्र में सदा बांधे रखना हरे माधव सतगुरु दातार।

।। दास ईश्वर कहत है भाई, जिस ये है प्रीति धारी ।।
।। सो ऊँचा बाकी सब नीचा, हरे माधव राया में समायो।।
।। हरे माधव राया में समायो।।

हरे माधव   हरे माधव  हरे माधव