|| हरे माधव दयाल की दया ||
।। सतगुरू के संग उतरे काचा रंग, आत्म पाये अमृत हरि नांऊ।।
।। सतगुरू दया महर बिना सभी, मन संग हुए मद बउराये।।
परम तत्व प्रगट, एकत्व की एकता और दिव्य सत्ता की सच्ची अवस्था को प्राप्त, हरिराया रूप प्यारे सतगुरु के निर्मल दरस पा रही, पवित्र संगति पनाह में बैठी संगतों, आप सभी को हरे माधव। रूहानी झिड़प के दाता फक्कड़ मौला कुल मालिक सतगुरू बाबा माधवशाह साहिब जी अपनी वाणी में उस ऊँची संगत का बयां कर रहे हैं, कि दुनिया के कालचक्र में फँसी जो तमाम रूहें हैं वे सब काल की संगत कर रही हैं याने काल की बनाई रचना में फंसी हुई हैं। प्यारों! वह ऊँची संगत तो कोई और है, जो उस आदि दाता ने बनाई है, वे सतगुरू संगत के जरिए, हमारी आँखों में वह नूर-ए-नूर की बक्शीश प्रदान कर रहे हैं। पूर्ण सतगुरू, पूर्ण मुर्शिद उस निर्मल आकाश की भांति हैं, जो अचल बुद्धि, अचल आतम ऐश्वर्य से भरे हैं, रूहों में विश्वास, प्रेम, श्रद्धा, सिमरन, ध्यान बढ़ाते रहते हैं। रूह नाम अमृत के सिमरन से अमृत अमीरल हो जाती है, लेकिन बगैर भजन सिमरन के भंडारी सतगुरू के यह असंभव ही असंभव है। इसलिए फरमान आयाः
सतगुरु के संग उतरे काचा रंग, आतम पाए अमृत हरि नांउ
सतगुरु दया मेहर बिना सभी, मन संग हुए मद बउराए
गुरू साहिबान जी अपनी वाणी में पूरन सतगुरू, पूर्ण साधू की संगत का बखान करते हुए फरमा रहे हैं, कि सतगुरू की संगत बड़ी ऊँची, निर्मल, अमृतमयी, कोट-कोट से परमातम से परिपूर्ण है। हे प्यारों! सतगुरू साध-संगत में बैठ उनके दिव्य गुणों का बखान सुनें, तभी हमारा अंतर मन निर्मल होगा, ऐसी संगत से ही हमारा मन अमृत नाम से जुड़ेगा और इससे कभी विहीन नहीं होगा। पूर्ण सतगुरू हमेशा उनकी रक्षा प्रतिपालना करते हैं, जो रूहें सतगुरू नाम से सदा जुड़ी रहती हैं। हे प्यारे! जब तुम ऐसी संगत में टिकोगे, तभी तुम्हारा निस्तार और उद्धार होगा, जिन्हें हरिराया सतगुरू से प्रेम (प्रीत) है, प्यार है, वे रूहें सदैव अमृत में भीगी रहती हैं।
प्यारी साधसंगत जी! जिन रूहों को हरिराया सतगुरू से पूरण नाम की बक्शीश मिली है, एवं वे उनकी बताई गयी युक्ति के द्वारा सिमरन, ध्यान नित्य नियम से करते हैं, वे ही रूहें अभ्यास के बल से घट-घट की तत्वता निजता व प्रभुता को देख सकती हैं। जब पूरे साधू सतगुरु की संगत में आकर इक मन, इक चित होकर अमृत नाम जपोगे, तब आज्ञाकारी गुरूमुख बन सकोगे। कई मनमुख जीव सतगुरू की रूहानी रम्झों को नहीं समझते, लोकमत, मनमति में विश्वास कर बैठते हैं, प्यारे सतगुरु द्वारा बक्शा गया अमृत नाम नहीं जपते, उनकी आज्ञा के विपरीत चलते हैं, संगत में नीवां होके नहीं टिकते, करूणावान सतगुरु ऐसे मनमुखों पर भी मेहर करूणा बरसाते है। पूरे सतगुरू साधू हमें समझाते हैं कि जब मन को साध-संगत में टिकाऐंगे, तभी सतगुरु आज्ञा मीठी लगेगी, भाणा मीठा लगेगा। सभी कहते हैं हम पूरे गुरू के शिष्य हैं, मगर पूरण सतगुरू फरमाते हैं, ‘‘जिसे हमने अपना बनाया, वे ही अपने हैं, बाकी सब मंद काल के सपने हैं’’। हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी हरे माधव पीयूष वचन 228 में फरमाते हैं, पूर्ण मुक्ता, पूर्ण साधू की सत्संगत से जीवात्मा की परमगति हो जाती है, जब ऐसी संगत प्राप्त हुई तो जीवत्मा का रोम-रोम भीग गया, सारे ताप-पाप-संताप असाध्य रोग मिट गए।
पारब्रम्ह मालिक की किरपा हो तभी पूरे सतगुरू साध की संगत प्राप्त होती है, जब पूर्व जन्म के दिव्य संस्कार उदित हों, तभी पूरे साधू की संगत हमें पावन अमृत मय लगती है। हे प्यारे अगर तुम्हारे मन अंदर पूरण सतगुरु के प्रति किन्तु-परन्तु, मैलाभाव, शकवाद की बातें आ गईं, तो इस बात की गांठ बांध लो, रूहानियत की चढ़ाई तुम कभी नहीं चढ़ पाओगे, यदि तुम्हारे मैले कर्म, पूर्व की प्रारबद्ध आखों में उभर आई, भाई खिलावनराम की तरह, कि जिस आँखों में तिरवरों की बिमारी लग गई, उन आँखों में सभी जगह तिरवरे जुगनू की तरह दिखाई देने लगेंगे (अर्थात मनमति)। ऐ प्यारों! जब तुम मन के मैले विचारों को हटाने का पुरूषार्थ करोगे, पूर्ण सतगुरू की शरण में टिकोगे, तो वे अपनी अमृत नाम की औषधि देंगे, साधसंगत सेवा बक्शेंगे। जब हम उस नाम रूपी औषधि को ग्रहण करेंगे अर्थात सिमरन, ध्यान करेंगे, श्री चरणो की सेवा मन से, नींवे भाव से करेंगे तभी सारे मैले विकार मिट जाऐंगे। संत कबीर जी ने भी चिताया है-
साधुन ते सत्संग ते, थर हर कांपे देह
कबहु भाव कुभाव ते, मिट मिट जाय सनेह
ऐ भगत! अगर सतगुरु चरणों मे प्रेम प्रीत से जुड़े हो, तब तुम्हारे हृदय में पूर्व जन्म के साचे गुण कर्म प्रकट होंगे सूरज की तरह, तभी तुम्हें सेवा, सिमरन, दर्शन, ध्यान में लालिमा दिखेगी, भाव प्रेम से सतगुरु राह मे चलोगे तो तुम्हें सतगुरू की झिड़प भी मीठी लगेगी और तुम प्रेम करूणा से भर जाओगे, फिर लोकमत, मनमति की बांतें तुम्हें सतगुरू साध-संगत से नहीं हटा पाऐंगी, क्योंकि तुम्हें अपने प्रीयतम प्यारे से नींह-स्नेह जो लग गया है।
ऐ बंदे! अगर तुम्हारे हृदय में पूर्व जन्म की अंधकारी रात होगी और कर्म तुम्हारे मैले मनमति वाले होंगे, तो फिर सतगुरू साध-संगत में तुझे कुभाव ही कुभाव आँखों से दिखेंगे, सतगुरू की झिड़प में तुझे क्रोध तथा तेरे मन में उनके प्रति कुविचार उत्पन्न होंगे, अंतर में कुभाव, भांति-भांति के संदेह प्रकट होंगे। संत जी ने कहा, प्यारे! जब तुम कुभाव से भर जाओगे, सतगुरु झिड़प तुम्हें ना भाए, तो मेरी वह नसीहत मान लेना, जिस नसीहत को राम-कृष्ण व समस्त अवतारी पुरूषों ने भी माना, वह है ‘‘गुरुचरणों में प्रेम नींवे भाव से सेवा की’’-2। नसीहत यह कि कुभाव आने पर भी पूरे साधू की शरण में पड़े ही रहना है, जब पूरे साध सतगुरू की रूहानी निगाह होगी, तब तुम्हारे खोटे कर्म, कुभाव, शक, सब हट जाऐंगे, हे प्यारे! हरिराया सतगुरू की शरण में टिके रहना, भटकना मत, क्योंकि अगर तुम सतगुरु शरण से भटक गए, तो फिर चौरासी में काल के द्वारा लटकना होगा, क्योंकि उनकी मेहर रहमतों, किरपा में कोई कमी नहीं, ‘‘कमी तुम्हारी सेवा चाकरी में है’’-2
साहिब के दरबार में, कमी काहू की नाहिं
बंदा मौज न पावहिं, चूक चाकरी माहिं-2
द्वार धनी के पड़ा रहे, धक्का धनी का खाय
कबहुं धनी निवाजहिं, जो दर छोड़ न जाय-2
यह बात गांठ बाँध लो पूरे सतगुरु की हर एक वचन लीला झिड़प मौज में साँचा भाव रखो, शरण में टिके रहो,
द्वार धनी के पड़ा रहे, धक्का धनी का खाय
उनकी झिड़प मे भी अपना भला जानो, सतगुरु से साँचा प्रेम राखो।
कबहुं धनी निवाजहिं, जो दर छोड़ न जाय
जिन प्रेमी रूहों को सतगुरू साध-संगत से अमीठा, अजीजी प्रेम, नीह हो गया तो मानो उन्हें सतगुरू के नाम, सिमरन से अपने उद्धार की कला आ गई। ऐसी प्रीतवान रूहों को जब वैकुण्ठ का बुलावा आया, तो वे रोने लगीं, कहने लगीं कि हमें वैकुण्ठ से कोई लेना देना ही नहीं है, हमें तो अपने प्यारे हरिराया सतगुरू की संगत में ही सच्चा वैकुण्ठ मिल गया है। प्यारों! यह वड्यिई है हरिराया सतगुरू साध-संगत की।
महर्षि गौतम अपने उपदेशों में कथन करते हैं कि संतोष रूपी अमृत, तृप्त-शान्त चित्त वाले, पूर्ण सतगुरु, परम पुरूखों के पास है, जो परम आतम सुख के धनी हैं। थोथे ज्ञानियों, ध्यानियों, मनमुखों को, जो इधर-उधर दौड़ने वाले हैं, उन्हें यह सच्चा खजाना प्राप्त नहीं हो सकता, उनमें तो सदैव अभाव, अहंकार, असंतोष बना रहता है, जो सबसे बड़ा दुख है। यह संतोष रूपी धन परम सतगुरू साधू की संगत में टिके रहने से पाया जा सकता है, जिन्हें चाहिए ऐसी खैरात, दया महर से, तो टिके भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु की संगत में, क्योंकि बिना सतगुरु साधसंगत के जीना व्यर्थ है।
सतगुरू दया महर बिना सभी, मन संग हुए मद बउराये
श्री रामचरित मानस के अयोध्याकाण्ड में सतगुरु भगति की इस नसीहत पर मुहर खुल कर लगाई गई है-
पुत्रवति जुबति जग सोई, रघुपति भगत जासु सुत होई।
न तरू बांझ भलि बाद बियानि, राम विमुख सुत ते हित जानी।।
मैं बलिहार जाती हूँ हे पुत्र! कि तुम कुपात्र नहीं हो, मेरे ही कहे तुम बड़े सौभाग्य के पात्र हुए, तुम्हारे चित्त ने छल, छिद्र छोड़, सतगुरू भगवन के चरणों में टिकाव पा लिया, इस असंसार में वह स्त्री पुत्रवति है, जिसका लाड़ला पुत्र सतगुरू भगवान का भगत हो, परन्तु जिस स्त्री का पुत्र सतगुरू भगवन की संगत से विमुख हो, मनमुख हो और वह अपने पुत्र से हित चाहती हो, तो वह स्त्री बांझ ही सही है, पशु की भांति उसका ब्याना अर्थात पुत्र प्रसव करना व्यर्थ ही है। सो ऐ रब के अंश! अपने सौर परिवार के साथ सतगुरु श्रीचरणों की भगति, सेवा में हृदय से, पूरे भाव भाव प्रेम से जुड़ना, उनके हुक्म मौज में जीना।
सच्चा शिष्य भगत सदैव सतगुरु आज्ञा वचनों पर चलते-चलते मन के फंदों से आज़ाद हो जाता है जिसका सतगुरु साहिबान जी वाणी में खुलासा कर रहे हैं, जी आगे-
।। सतगुरू आज्ञा सदा सत सत मानो, वचन तां का वृथा न बखानो।।
।। सतगुरू पूरा काटे फंदा शरण पड़ो, तुम निशदिन तिसहि संगा।।
प्यारे सत्संगी! पूर्ण सतगुरु वचनों में परम अमृत बल छिपा रहता है, उनके भजन मुख से फरमाए वचनों में साचा भाव रख, जीवों को आत्मिक आनंद का रस प्राप्त होता है। भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु की आज्ञा वचनों को सहर्ष स्वीकार करके तुम्हें अपना अहंकार, शक-शुभा मिटानी होगी, सतगुरु हुक्म आज्ञा व सोहब्बत में चलना होगा, तभी तुम्हारे अंदर वो शाश्वत सूर्य उदित होगा।
सतगुरू आज्ञा सदा सत सत माना, वचन तां का वृथा न बखानो
ऐ मुरीद! मुर्शिद का मन-बुद्धि वह नहीं है, जो तुम्हारा है, उनका मन, अ-मन है, उनकी बुद्धि परमत्व की बुद्धि है, वह जंग लगी रूहों को अपनी दया, महर, संगत, साची भगति के जरिए ऐसा बना देते हैं जो वह खुद है, यानि परम अकह हरे माधव करतार का रूप बना देते हैं।
सूफी मत के शम्ज़ तबरेज़ फरमाते हैं कि पूरण आला मुर्शिद के नूरानी चेहरे पर रबीयत का नूर बहता है, ऐ रूह! समय रहते मुर्शिद की सोहब्बत कर, कुपात्र न बन, सुपात्र बन, उनसे रहमत को पा ले, क्योंकि समय बहता जा रहा है कब स्वाँसों के निकलते ही तुम्हारी देह बुत खाक में मिल जाएगा, कोई भरोसा नहीं। कितनी सत्य बात कह रहे हैं सूफी संत कि जब तुम्हारा देह का बुत शमशान पहुँचेगा, सारी मुखियागिरी, धन-दौलत, अहंकार भरी चाल-चलन, सब यहीं धरी की धरी रह जायेगी उसी शमशान के कुण्ड में। अगर समय रहते मन की गुलामी छोड़ मुर्शिद सतगुरू की कद्र कर लोगे, अर्श के सौदागर पूर्ण सतगुरु से प्रीत कर लोगे, तो तुम्हारा मरना भी मरना न होगा, तुम साचे लोक की ओर गति करोगे, जीते जी भी परम आनंद और मरने के बाद भी परम मुक्तता के अधिकारी बनोगे। साचे भगत हर पल सतगुरु रहमते पाते हैं, जिन भगतों मुरीदों ने मुर्शिद से नियामतें पाई, उन्होंने अपने दिल में बसे सतगुरु प्रेम की खुशी यूं सुनाई-
जब से मिला प्यार तेरा, चरण आधार तेरा।
पाई सच्ची खुशी हमने, यह है उपकार तेरा।
जगत के प्यार में हमने उठाए, दुख ही दुख हर क्षण।
हुआ खुशहाल सबका जीवन, पाके चरण सहार तेरा।
हे हरिराया सतगुरु हरे माधव दाता,
हुआ खुशहाल सबका जीवन, पाके चरण सहार तेरा।
जिन-जिन प्रेमी भगतों ने सतगुरु प्रेम, प्रीत की मिसरी को चख लिया फिर उसका स्वाद पाकर वे आनन्दित ही हो गये, वे उस मुल्क में जा बसे, जहाँ सतगुरू के श्री चरण बसे हैं, जहाँ सारे परमार्थ के टिकाव की त्रिवेणी लहर बह रही है। साधसंगत जी! इस कालखण्ड में दोस्त-मित्र, रिश्ते-नाते, भाई-बन्धू जीते जी हमारा हाल कैसा कर देते हैं, इससे हम अछूते नहीं। प्यारों! दुनियावी रिश्तेनातों से कर्तव्य का नाता रखो पर प्रीत प्रेम का साचा बंधन तो केवल हरिराया सतगुरु से होना चाहिए। दुनियादारों से हमारा रिश्ता देह, शरीर तक ही सीमित है परन्तु सतगुरू से, साध-संगत से हमारा रिश्ता-नाता कई जन्मों पुराना है। उस पारब्रम्ह रूप हरिराया सतगुरु से हमारा रिश्ता रूह का है। वह, जो जन्म के पहले भी अपना था, अभी भी वह अपना है और वह मौत के बाद भी अपना ही होगा।
ऐ प्यारों! सतगुरु शरण से सारे लेखों का निबेरा सहज ही हो जाता है। सच्चे संतों ने सोने और लोहे की बनाई काल की कारीगरी से जीवों को निकाल, अपनी पावन सत्संगत की छाया बक्शी। जीव आत्मा जड़ से आजाद हो, उस चैतन्य में एक हो गई, सतगुरु का हुक्म आदेश वचनों पर चल जीव कालफंद से छूट जाता है। धर्मराज का फिर डेबिट-क्रेडिट हो गया खाक, क्योंकि पूर्ण संत सतगुरू तो खुद मुक्तता के राजदार हैं, बहुत दुर्लभ हैं, लेकिन होते जरूर हैं। तभी वाणी में भी आया-
धर्मराय अब का करेगो, जब फाटा सगला लेखा।
हम संतन की रैन प्यारे, हम संतन की शरणा।।
गुरु महाराज जी समझाते हैं कि इस झूठी दुनिया की झूठी संगत का दावा न करो, सब कुछ उसी मालिक, हरे माधव प्रभु, दयाल का जानो, अपना बनाने की होड़ ने तुझे गमों के तहखाने में भटका दिया है। कई राजे महाराजे आए, चले गए और रूह भटकती रही क्योंकि पूरण सत्संगत पतित पावन उन्हें नहीं भाई। सो सदा साधसंगत के बौरे बनें।
हरिराया सतगुरु की साधसंगत में भरी ताकत विद्यमान है, जो अहंकार व अभाव वाले बंजर मनों में भी प्रेम भाव और दीनता के बाग खिला हरियाला कर देती है।
In the holy Sadh Sangat of Lord True Master prevails such strength that flourishes the emotion of love and humility in the barren mind that holds ego and apathy and makes it greener.
संगतों! वेदों में कहा गया है, चंद्रमा ताप का नाश करने में समर्थ है, गंगा पाप का नाश करती है, कल्प वृक्ष अभिलाशा का नाश करता है मगर भजन सिमरन के भंडारी संत सतगुरू की संगत चौरासी लाख योनियों के फेरों का नाश करके आतम को हरे माधव रब में एकाकार कर देने में सर्व समर्थ है, जब उनकी सत्संगत में हम टिक गए, तब उस रब्बल में एक हो गए। जिनकी आँख खुली पूरे सत्संगत में उन्होंने पाया कि सुहानी सुबह सुहाना दिन है, जब अंतर की आँख खुल गई, तब अनुभव सत्ता जग गई, ये सारी बड़ाई कमाई वाले पूरण साधू सतगुरू की है, उनकी करूणामयी मेहर रूहों को उस संसार में जाने का सतत बल देती हैं। हे प्यारे जब परम जगे हुए भंडारी सतगुरु की संगत मिले तो फिर टिक जाना, वहां फिर छोटा-बड़ा, जात-मजहब का विचार मत करना क्योकि सर्व आत्माओं में अमृत कुण्ड व्याप्त है, पर अनुभव तब ही हो सकता है जब भजन सिमरन के भण्डारी सतपुरूख की संगत मिली और जीव ने मन को टिकाया। अतः हे प्यारे! मनमति रूपी अहंकार कुण्ड को छोड़कर सतगुरू नाम के अमृत कुण्ड में डुबकी लगाओ। तभी सत्संग वाणी में आया-
सतगुरू पूरा काटे फंदा शरण पड़ो, तुम निशदिन तिसहि संगा
सतगुरू बाबा नारायणशाह साहिब जी ने निज वाणी में फरमाया-
संतन की महिमा वेद कुराना, सब सद्ग्रन्थ गावै महिमा।।
संतन के संग राम प्यारा, अमृत नाम चित संग आवै।।
साचे संत की दरस जो पावै, जाकीं भावी ऐसी पावै।।
संतन सब ही वेद जताया, काल दयाल का भेद जनाया।।
कहे नारायणशाह सुनो भाई साधो, संतन बिन रब नूर न समायो।।
नाम के दाता संत साचे, अमृत नाम सब को चाखे।।
हरे माधव नूर वो जाने, नाम रसायन दृढ़ जो ध्यावे।।
शहंशाह सतगुरू बाबा नारायणशाह साहिब जी चिता रहे हैं कि ऐ प्यारों! मेरी बात ध्यान से सुनो, केवल किताबी ज्ञान या पुराने वक्त की कथाऐं सुन-सुनाकर गुरूमुख या भगत नहीं बन सकते। यदि इन्सान का दिलो दिमाग पुस्तकालय बन जाए, तो भी साचे पूरण संत सतगुरु का इक तिल भेद नहीं पा सकता। स्वयं विचार करो, तुम पानी पीते हो, कुछ समय के लिए प्यास बुझ जाती है, मगर वह कौन सा निर्मल अमृत है जो आत्मा की प्यास को सदा के लिए बुझा दे और कौन वह अमृत हम जीवों को देने में समरथवान है? प्यारों! वह अमृत, आत्मा को सतगुरु चरणों के प्रेम, सत्संगत में टिकाव से मिलेगा, सतगुरु भक्ति से ही मिलेगा।
मौलाना रूम कलाम में गा रहे हैं-
यक ज़माना सोहबते बा औलिया।
बेहतर अज़ सद साला ताअत-ए-बेरिया।।
यानि खुदा के वली की सोहबत के चंद लम्हे सौ साल की बेरिया इबादत से कहीं इेहतर हैं। मन, बुद्धि की अकुलाई से की गई सैकड़ों सालों की बाहरमुखी बंदगी से, एक पल की शुद्ध भाव अनन्य प्रेम से की गई पूर्ण सतगुरु की सोहब्बत संगत ऊँची है और जो जीव पूर्ण साधसंगत से जुड़े, वे सदा संतोषी जीवन, आनंद से भरे रहते हैं।
साधसंगत जी! आप देखो, कई घरों से बड़े बुजुर्ग, पुत्र पौत्र बहुऐं, छोटी बच्चीयां, सभी पूरा का पूरा परिवार पूरण साधसंगत, पावन दर्शन, सत्संगों सेवा में जुटे रहते हैं एवं जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण बदला रहता है, उनकी बुद्धि भी विलक्षण सी रहती है। एक बुजुर्ग सच्चे पातशाह जी के श्रीचरणों में आते, वे देखते कि, यहां गुरु महाराज जी की पावन साधसंगत में सभी सौर परिवार के साथ सेवा में जुटे हैं, भगति की राह से जुड़े हैं, उन्होंने बाबाजी से विनती की, ‘‘मेरे गुरु महाराज जी! कभी-कभी मेरे मन में यह बात आती है कि हमारे पुत्र पौत्र, पुत्रियां बहुऐं सभी इस आंतरिक राह, सतगुरु मति से जुडें़, क्योंकि मैं देखता हूँ जब से आपजी की मौज शुरू हुई है परमारथ की, जब से सतगुरु भक्ति सेवा के भंडार बक्शे हैं, गांव नगरों, देश-विदेश से संगतें आपजी के श्रीचरणों में पावन दर्शन सत्संग सेवाओं में आती हैं। बाबाजी! सेवाओं में जिनका पूरा परिवार समर्पण भाव से रमा है, उनका जीवन खुशहाली आनंद से भरा है, संतोषी जीवन जीते हैं, सदा शुक्र भाणें में रहते है। सच्चे पातशाह जी, मेरे परिवार में सदा कलह अशांति रहती है, तनाव से भरे रहते हैं, बच्चे गलत संगति से जुड़े हैं। बाबाजी! दया करें, हमारे पुत्र-पौत्र, कुल-कुटुंब भी सतगुरु सेवा की राह पर चलें।’’
साधसंगत जी! अधिकांश सत्संगीजनों के मन में यह जिज्ञासा अवश्य उठती है। आप साहिबान जी ने उस प्यारे की जिज्ञासा सुन, करूणामयी वचन फरमाए, ‘‘हमें खुशी है कि आप इस बात का शौक रखते हैं, आपके बाल-गोपाल, पुत्र-पौत्र, पुत्रियां-बहुएं शरण संगति का सुख पायें क्योंकि आज जगत में फैले मानसिक प्रदूषण से बच्चों के मन भी मैले हो रहे हैं, जिससे वे नकारात्मक सोच को अपनाते हैं एवं डिप्रेशन से गुजरते हैं, तनाव से उनका जीवन, स्वास्थ्य दोनों ही प्रभावित हो रहा है और वे गलत संगति से जुड़ने लगते हैं, इनसे दूर रहने के लिए सतगुरु श्री चरणों की सेवा करने का, सेवा सीखने का भण्डार सर्व आत्माओं के लिए खुला है, आप अमुक सेवादार से मिलें, भाईयों एवं माताओं की तरफ, जो जो अलग-अलग इन्चार्ज हैं, उनसे मिलें, सेवा के नियम आप उनसे समझें, आप बड़े बुजुर्गां का फर्ज़ बनता है, कि आप अपने बाल-गोपालों बच्चियों को, इस नेक परमार्थी राह पर अवश्य जोड़ें, कड़ाई करके भी, आप बच्चों को इस मारग में भेजें, उनमें शौक पैदा करें क्योंकि सेवा से ही आंतरिक विवेक खुलता है। सारे परिवार के साथ सत्संग में हाजिरी दे, घरों मे भी, परिवार को साथ में बिठाकर सत्संग वचनों का लाभ लें, सतगुरु नाम सिमरन का अभ्यास करें, जिससे नेक रोशनी वाली राह से सभी जुड़ सकेंगे, आतम बल बढ़ेगा, पॉजिटिवटी आएगी। नितनियम से सतगुरु श्री चरणों में प्रार्थना अरदास से दिन की शुरूआत करें, उसके बाद अपने कारज-व्यवसाय आदि से जुड़ें।’’
‘‘नन्हें-मुन्ने बाल-गोपालों, बच्चियों को हरे माधव रूहानी बाल संस्कार में नियमित भेजें जिससे कि आपकी नन्ही कलियों को वहाँ का रूहानी बातावरण मिले, जिससे कि वे महकते-खिलते हुए फूल बनें एवं उनकी नींव मज़बूत हो। सतगुरु मेहर से उनमें बाल्य काल से ही इस आभामंडल में अंकुरित होने का सौभग्य प्राप्त होगा। आतम बल बढ़ेगा।’’ साधसंगत जीयो! माटी को शीतल मटके का आकार देने के लिए ज़रूरत है कुशल कारीगर की। आज हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी रूहानी कुम्हार की तरह हम सभी के जीवन को, मनों को, रूह आतम को सही आकार, सही दिशा देकर दुनिया के दुख-जंजालों से उबार रहे हैं, जनम मरण के फेरों से आज़ाद कर रहे हैं। जब तक कुशल कारीगर न मिला, माटी को सही आकार कैसे मिले। इसी वास्ते सत्संग वाणी में जि़क्र आया, जी आगे-
।। बिन सतगुरू दुखी जगत है, सदा डूबे अन्ध ख्वारा।।
।। कहे माधवशाह सुनहो प्यारां, सदा साधू पूरै संगत नित विचारो।।
शहंशाह सतगुरू बाबा माधवशाह साहिब जी फरमा रहे हैं कि बगैर पूरण सतगुरू के जीव अपना जीवन दुखों में व्यतीत कर रहा है, वे ऐसे अन्धे कूएं में जा गिरता है, जहाँ से निकलना दुशावर है। साहिबान जी फरमाते हैं, अभी भी पूरे साधू सतगुरू की शरण में आ जाओ और सेवा कर, भजन बंदगी कर निज स्वरूप प्राप्त कर अपना उद्धार करो। सैकड़ों, हजारों मीलों से सतगुरू संगत का लाभ उठाने रूहें खींची चली आती हैं परन्तु क्या हम संगति में पूरा लाभ उठा पाते हैं, नहीं, क्योंकि हमारा पूरा ध्यान सतगुरू दरस में नहीं टिकता। प्यारों! हरिराया सतगुरु की संगत का लाभ तो तभी मिलेगा, जब एक चित्त हो, साटिक दरस दीद करें। मन को मोड़ कर दर्शन और सत्संग वचनों में रमाएं। जब सत्संग में आयें तो अपने मन को भी साथ ले आयें, केवल तन को ही सत्संग में न बिठायें, मन को भी सतगुरु का दर्शन करते-करते, नाम सिमरन स्वांसों-स्वांस करते-करते बाहरी विचारों से हटाकर उसे बैठायें।
जैसे किसी सतह पर निरंतर टपकने वाली पानी की बूंद एक दिन निशान जरूर छोड़ती है, ऐसे ही प्रतिदिन सतगुरु संगत में आने से अवश्य ही मन की सतह पर सतगुरु भगति व प्रेम उभरने लगती है।
Like droplets of water that fall repeatedly on a particular surface do leave a mark one day, similarly, by being in the company of True Master regularly, the mark of devotion and love for Satguru emerges on the surface of mind
प्यारों! मन मानसिक प्रदूषण से बचने की सबसे बड़ी ढाल यह है कि किसी अन्य की आँखों में न देखो, केवल सतगुरू प्यारे का ही दीद करते रहो, सहिणा दर्शन करते रहो, इससे आतम साटिक में केन्द्रित होगी। अगर तुम सिमरन, भजन, आतम में साटिक रमे हो, तो तुम्हें असर पड़ेगा, मन को टिकाओ, जब पूरण सतगुरू की संगत में रहने का टिकाव आ गया, तो फिर ‘‘परम आनन्द के राज उनमुन हैं, खोलना दुश्वार है, सुनना-समझाना सम्वाद है।’’ अनुभव कर खुद चखो, साधसंगत जी! आखिर राज़ क्या है कि वेदों-कतेबों, उपनिषदों में पूर्ण साधसंगत की सोहब्बत को निराले राग में गाया, सतगुरू से प्रेम, प्रीत करने को फरमाया! कि हमारा प्यार, लौ उस जगह टिके, जहाँ वह नूर-हुजूर प्रगट है और वह परम नूर वक्त के पूरण हरिराया सतगुरु में प्रगट है, इसलिए उनमें रूहानी ठंडक, तेजस्वी कशिश है जो रूह को एक सूत्र में पिरो देती है।
पूरन हरिराया सतगुरू की संगत सभी जीवों के अन्दर उस चैतन्य का फूल खिला देती है। आज मन माया ने इन्सान को घेर लिया, परन्तु वे जीव बड़े धनभागी हैं, जिनके अन्दर का आन्तरिक दरवाजा समरथ पूरण सतगुरु की संगत से निखरा और निखर रहा है।
आज आप देखो, इन्सानों के अवगुणों ने, मन ने किस कदर इसे गिरा दिया, वह जिसका पाता है, उसी को नहीं भजता, क्योंकि अभी वह अपने ही मन का नौकर-चाकर है।
दरवेशों ने अपने अंदाज में साफ कह दिया-
जो बजाना बिदेह बगरना अज़ तो बिस्तानद अजल।
खुद ही मुन्सिफ बाश-ए-दिल ई निको या आँ निको।।
ऐ गफलत में पड़े इन्सान! तू अपनी जिन्दगी उस प्रभु सतगुरू के हवाले कर दे अन्यथा यह काल इसे बल पूर्वक छीन ले जाएगा। रे मन! तू न्यायकारी बन, गफलत में सोना और फिर शमशानों में सोना, यही तेरी किस्मत बन जाएगी, चिरकाल तक दुखों, कष्टों में तुझे घिरना होगा। भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु की दया मेहर से, ऐ प्राणी! हानि के सौदे से बच, लाभ कमाना सीख। याद रख! जो सच्चे पूरण सतगुरु की मेहर रहमत नहीं समझते, फिर उनके लिए तो काल का कहर लागू ही है। ऐसे घटों-दिलों में अब तक जो बीता सो बीता, पर अब तो चेतो! अब समझ के उठने की बारी है। पूरण संत सतगुरू तुझे गुनाहों के दलदल से निकाल कर अमृत पिलाना चाहते हैं, मगर तू शराब-कबाब, मैली मनमति कुमति में पड़ उनकी रम्ज़, कल्याणकारी वचनों को समझ नहीं पाता। यह काल अपनी बाज़ीगरी से जगत में जीवों के मन के सर चढ़ इस कदर नचाता है कि वह भ्रमवश सोचने लगता है, कि मैं तो सच्चा सिख सेवक हूँ, मैंने तो इतने वर्ष सेवा की है, मैं गुरुमुख हूँ। अब प्यारे! आप जरा स्वयं विचार करो, कि कौआ अगर हिमालय पर्वत पे जा बैठे, तो वह गरूढ़ थोड़े ही बन जाता है? भले ही कौआ मन में यह धारणा कर ले, कि मैं गरूढ़ बन गया। सो ऐसे जीव जो मनमुख हैं, मन में कपट है, बैरी हैं, वो भला गुरुमुख कैसे? सच्चे सेवक कैसे?
सतगुरू साहिबान जी समझाते हैं, बाबा! यह सारा पसारा माया की रचना का है, जो इन्सान को मोह अहम में फंसाकर भ्रम धोखे में धसा देती है, जिससे यह इन्सान नेत्रहीन होकर भ्रम मूलक रचना में भटककर अपना मूल ही गंवा देता है। तब वक्त के जागृत सतगुरू ही आकर उसे उस ओर ले जाना चाहते हैं, जहाँ सुख है, भ्रम टूटता है, अहम घटता है, बढ़ता नहीं। ऐसे मनमुखों पर भी सतगुरु दया, करूणा बरसाते ही जाते हैं, चेतना, जागना और पात्रता मनमुख जीवों को रखनी है, करूणा मेहर को सांढने की।
संत देवदास जी के वचन आते हैं-
मनुखा देही पाय, तियो नहीं चेत रे।
राम भजन कूं भूल, माया सूं हेत रे।।
चौरासी में जाय पड़े मुख रेत रे।
देवा दुनि माने नहीं दुख कूं लेत रे।।
पूरण संत सतगुरू तो हमें इन्सानी देही की कद्र करा हम दुनिया के बंदों को चिता रहे हैं, ऐ नादान इंसान! क्यों तू सिमरन भजन को भूल मन माया से प्रेम कर बैठा है, हर क्षण मन के कहे माया काया के यतन करता फिर रहा है। प्यारे! वक्त के पूरण हरिराया सतगुरु का फरमान तो सत्य ही होता है, कि पूर्ण नाम सिमरन सच्ची सेवा के बगैर इस इन्सान को लोक परलोक में शर्मसार होना पड़ता है, चौरासी की माया काल के अनन्त दुख कष्ट सहने पड़ते हैं। परन्तु आज तो इन्सान माया-काया की चमक देख भटक रहा है, हम जरा गौर करें, नूर की रोशनी का भेद देने वाले आला सतगुरू दया पे दया, कृपा पे कृपा करना नहीं छोड़ते, वे तो हमें प्रमाद अज्ञान की नींद से जगाते हैं, चिताते हैं कि ऐ रूह! चंद दिन की यह रोशनी है, फिर घनघोर काली घटाऐं काल की। हम तो तुझे समझाते हैं, चिताते हैं, परन्तु अफसोस! कि तू रिश्ते नातों के प्यार में उलझकर वाह-वाही चापलूसी में पड़ पूरण संत सतगुरु की रम्ज को नहीं समझता, अभी भी चेत जा, स्वांसों के रहते ही असल सौदा कर ले।
प्यारे बुद्धिजनों! हम जरा विचार कर देखें, कि खाने-पीने सोने तथा इन्द्रि भोगों की पूर्ति में पशु-पक्षी भी दिन रात डटे रहते हैं, परन्तु इस इन्सान ने उच्च कोटि की बुद्धि पाकर भी व्यर्थ के कार्यों में जीवन खपा दिया है और संत सतगुरूओं के ऊँचे रहनुमाई वचनों को न समझकर, मन की गवाही को सुन, दुखों के घेरों में उलझकर उल्टे मुँह जा गिरा है। फिर भी पूरण सतगुरु की दया कितनी अपार है, जो सच्ची मानवता व सर्वहित की चाहना रखने वाले हैं, वे हमारे अवगुणों को न देख केवल मेहर पर मेहर, दया पर दया अथाह ही अथाह करते हैं। सत्य है न संगतों ज़रा गौर करें, आत्म अवलोकन करें कि पहले हम किन भावों को लेकर सतगुरु चरणों में आते थे, सतगुरु मालिकां जी हमें क्या देना चाहते थे और हमने क्या पाया। आज हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी भजन सिमरन के भंडार, प्रेमा भक्ति की दात, दिव्य सोझी, दिव्य विवेक जीवों को खुले रूप में बक्श रहे हैं और तमाम प्यासी आत्मायें स्वार्थमय भावना को छोड़ आतम की प्यास बुझाने हुजूरों के सत्संग दीवान, दर्शन, सेवा, ध्यान के लिए आ रही हैं, परम सुख को पा रही हैं। एक बंदा कुछ समय पहले नामदान ले सेवा चाकरी से जुड़ा, वह फरियाद कर उठा, ‘‘मेरे मालिक, मेरा कुल कुटुम्ब साठ-सत्तर सालों से जुड़ा है, पर पहले हम रीति को ही पकड़ कर आते थे, आज सतगुरु प्रेम में डूबकर जो मेरा कुल कुटुम्ब पा रहा है, काश पहले मुझे यह रंग लग जाता, तो मैं इधर-उधर नहीं भटकता और अमृत आनन्द का प्याला क्षण-क्षण पीता।’’ हुजूर साहिबान जी उस बंदे से फरमाए, ‘‘प्यारे! सूरज तो सदा रहता है, अगर हम बंद कमरे में बैठे हैं, खिड़की रोशनदान सब बंद हैं, तो रोशनी का आना दुश्वार है, जब खिड़कियां खुलीं तो रोशनी बहती है, तभी उससे प्रेम कर पाते हैं और फिर दुई का खात्मा तो हो ही जाता है। यदि बुखार बढ़ा हुआ है, तो सामने रखे छत्तीस प्रकार के व्यंजन देखकर भी उल्टी आती है, क्योंकि हम बीमार रहते हैं, हाजमा बिगड़ा रहता है, अगर स्वस्थ रहते, तो नमक के साथ रोटी भी मीठी लगती। पहले और आज की दशा इन रम्जों से समझ सकते हैं। जिन्होंने इन रूहानी रम्जों को जाना उनका मन स्वस्थ निर्मल और जो आज भी गफलत में उलझे हैं, उनका मन मुर्दा है, अस्वस्थ है। प्यारों! सूरज जब क्षितिज पर उगता है, न जाने कितने लोग सो रहे होते हैं फिर भी वह रोशनी देता है। जो जगे सो मुबारक हैं, जो आज भी सो रहे हैं, वे सतगुरु हुजूर जी की संगति सेवा, नाम-बंदगी से जुड़ जागने का प्रयास करें। सतगुरु प्यारा मेहरबान, मेहरबान, बेहद मेहरबान है।’’
सतगुरू साहिबान जी बड़ी सुंदर नसीहत देते हैं कि काल माया ने इस संसार को इस कदर भ्रमों में उलझा दिया है, कि यह मूढ़ इन्सान उस साहिब सतगुरू की करूण कला को समझ ही नहीं पाता, इसीलिए बारम्बार सत्संगों में जि़क्र आते हैं, उन जीवों के बहु ऊंचे भाग हैं, जिन्हें साध-संगत की संगत मिली है। आखिर क्यों पूरण संतों ने इन्सानी जन्म और साधसंगत की महिमा बढ़-चढ़ कर गाई है? क्योंकि उन्हें उत्तम ज्ञान विवेक मिला ‘शबद नाम’। फिर उनकी दृष्टि काग दृष्टि नहीं हंस दृष्टि बन गई, जो खुद को हाड़-मास का पुतला समझते थे, अब वे खुद को उस करतार का अंश स्वच्छ पवित्र आत्मा समझने लगे। हे प्यारों! बड़ा भारी फर्क है, अगर ऐसी संगत में आकर परमार्थ का पूरा भरपूर लाभ न उठाया, तो अपनी देही के अंदर छिपे हरे माधव परम प्रभु का खज़ाना नहीं पा सकोगे। हुजूरों ने फरमाया-बड़े भाग्य से यह मनुष्य तन मिला है, देवी-देवता भी इस जामें के लिए तरसते हैं, देवों के पास रिद्धियां-सिद्धियां तो हैं, पर वह अमृत आनन्द देने वाली सतगुरु साधसंगत नहीं है, जिससे वे अपना हित कर लोक-परलोक की निज सम्पदा पा सकें।
सो साधसंगत जीयो! हमें चाहिए कि अपने मान-अभिमान को छोड़कर, पद गरिमा को भूलकर हरिराया सतगुरू की संगति में नीवां, निमाणा होके आऐं और मन में हमेशा यही भाव हो कि हे मेरे परमपिता सतगुरू देव जी सदैव आपके श्री चरणों में प्रेम-प्रीत बनी रहे, मन में कभी ‘मैं’ का भाव न आए, आपकी संगति पनाह के सदा बौरे बने रहें, ऐसी मेहर करना मेरे सतगुरू जी, मेरे बाबल जी।
।। बिन सतगुरू दुखी जगत है, सदा डूबे अन्ध ख्वारा।।
।। कहे माधवशाह सुनहो प्यारां, सदा साधू पूरै संगत नित विचारो।।
हरे माधव हरे माधव हरे माधव