|| हरे माधव दयाल की दया ||

।। सुरति करौ मेरे साइयां, हम हैं भव जल माहिं।।
।। आपै ही बह जाऐंगे, जो नहीं पकड़ो बाहिं।।
।। बिनवंत हौ कर जोड़ के, सुनिए किरपा निधान।।
।। साध संगति सुख दीजिए, दया ग़रीबी दान।।
।। मैं अपराधी जनम का, नख सिख भरा विकार।।
।। तुम दाता दुख भंजना, मेरी करो सम्भार।।
।। जो अब के सतगुरु मिले, सब दुख आंखों रोय।।
।। चरणों ऊपर सीस धरी, कहुं जो कहना होय।।

हरिराया सतगुरु जी के श्री चरणों में बैठे प्यारे सत्संग स्नेहीजनों! आप सभी को हरे माधव, हरे माधव, हरे माधव। सत्संग की यह वाणी, गुरु भगत की पुकार है, प्रगट प्रभु के रूप वक्त के सतगुरु, जो इस भक्ति मारग में दया, प्रेम, सिमरन, ध्यान, सेवा, सत्संग एवं अथाह करूणा के पुंज हैं, वह गुरुमुख भगत, परम दयालू करूणावान, विरदवान प्यारे सतगुरु के आगे विनती कर रहा है। यह विरह प्रेम पुकार से भरी संत कबीर जी की वाणियां हैं, जो कि आज से लगभग 600 वर्ष पहले आए और पूरे गुरु के द्वारा बक्शे पावन नाम और उनके द्वारा बक्शे अंतरमुखी परम सत्य की राह दिखाई एवं रूढि़वादी मान्यताओं का कड़ा विरोध भी किया, जीवों को तिमिर अज्ञान माया की नींद से जगा, बाहरमुखी कर्मकाण्डों पाखण्ड एवं कुरीतियों को दूर किया। प्रथम में सतगुरु भक्ति, उनकी शरण का प्रेमी बन साहिब में एक होने का मारग प्रशस्त किया।

साधसंगत जी! जब-जब पूर्ण संत धरा पे आते हैं, समता के सूर्य का उदय होता है, गुरु भगत, इंसा, धर्म, मुस्कुराता है, इंसा, इंसा से प्रेम करता है, पाक नेक आत्माऐं प्रेमा भक्ति के सागर में सतगुरु के अमृतसर में नित्य नहा उठती है, उनका मत भी यही है, कि जीव अंतरमुखी आंतरिक उन्नति करे, घृणा, ईष्या, द्वैष के स्थान पर सहनशीलता बढ़े, शक संदेह के स्थान पर, श्रद्धा, सतगुरु प्रभु की नाम बंदगी बढ़े। पूर्ण सतगुरु न तो दार्शनिक होते हैं, न उपदेशक, न विद्वान, न पंडित, पूर्ण सतगुरु इस धरा पर प्रभु के हुकुम से आते हैं, वे केवल हरि प्रभु के जन गुरुमुख जन होते हैं और हमें भी गुरुमुख प्रेमी भगत बनने का मार्ग दिखाते हैं और अपने अंतर में ही परम एकस का अनुभव करने की युक्ति बक्शते हैं। अंतर के द्वार खोलने का वह मार्ग दिखाते हैं। साधसंगत जी! यह मन और आत्मा, बाहरमुखी जगत में गहरी उलझी और बंधी है, मन के साथ आत्मा स्थूल पिंजरे में कैद है। आत्मा अपने निज मुकाम, निज घर से महरूम है, यह रूह सुरत, जो जन्मों-जन्मों से इस धरा जगत में माया जाल में उलझ निर्बल हो गई हैं, समरथ सतगुरु ही, निर्बल रूह को बल देने आते थे, आते हैं और आए हैं। प्यारे गुरु भगत, आतम सतगुरु के आगे पावन हुजू़री में विनती कर रहे हैं, जो बड़े गहरे प्रीतवंत घाव से, विरह दर्द बिछोड़े से भरी है, उसे अपने साहिब के घर में एक होना है, सतगुरु प्रेम, सतगुरु चरणों, सतगुरु की पनाह, उनकी मेहर के साए में, अपनी अबोझ अवस्था में आतम सुरत, दयाल सतगुरु अकह प्रभु के जो प्रगट रूप हैं, उनके प्रगट जोहर रूप हैं, उनसे विनती कर रही है-

सुरति करौ मेरे साइयां, हम हैं भव जल माहिं
आपै ही बह जाऐंगे, जो नहीं पकड़ो बाहिं
बिनवंत हौ कर जोड़ के, सुनिए किरपा निधान
साध संगति सुख दीजिए, दया ग़रीबी दान

गुरु भगत की आतम सुरत विनय कर रही है, मेरे साइयां, मेहरबान! इस भवजाल में अगर तुम्हारा मेहर वाला हाथ न मिला, तो हम अपने आप ही बह जाऐंगे, क्योंकि ‘आपै’ का भाव यानि अहंकार आपा, ‘मैं’ का भाव हम इसमें जन्मों से बह रहे हैं। ऐ मेरे सांईयां, मेरे मालिक! हम तो बहते ही जा रहे हैं और बह रहे हैं, ऐ सांईयां! अपना मेहर वाला हाथ, मीठी शरण संगत बक्शो, हे दयालु दातार, मुझ पर कृपा करो, सुरत आतम की विनय सुन सतगुरु कहते हैं, ऐ सुरत! तुम प्रेम बंदगी, शब्द नाम की बंदगी, हरिराया सतगुरु की याद से भर जाओ, जैसे-जैसे तुम सतगुरु प्रभु के नाम सिमरन से भरोगे और मन के तपत भरे विचार त्यागोगे तो उसकी छाया गहरी होती जाएगी, आपा अहम का भाव बहता जाऐगा, क्योंकि दोनों साथ नहीं रह सकते, जिस तरह कि एक म्यान में दो तलवारें साथ नहीं हो सकतीं, यह रूहानी राह, भक्ति की राह बारीक और सकरी है, इसमें दो साथ नहीं चल सकते। ऐ सुरत! अहम को मिटाना होगा, गलाना होगा और प्रेम को बिठाना होगा, याने-

जब मैं था तब हरि नहीं, जब हरि है तब मैं नाहीं
प्रेम गली अति साकरी, जा में दो न समाहीं

सतगुरु सांई नारायणशाह साहिब जी ने भी सिन्धी में परम वचन कहे-

सिर डिजे साजन मिले, त पूरो सिर कयां इख्तियार

ऐ प्यारों! अगर रब्बल में मिलना है, तो खुदी स्व को त्यागना होगा और तुम्हें सतगुरु की राह में बहना होगा, तब तुम्हें ऐ सुरत! रब्बल साहिब का अपने अंतर ही अनुभव होगा, क्योंकि सुरत सधी है एक बड़े भारी हाट से याने अहंकार खुदी का हाट अब वह कैसे मिटे? शिष्य अपने सतगुरु प्रभु से विनय अर्ज कर रहा है।

मेरे गुरु महाराज! मैं तुम्हारी बंदगी सिमरन प्रेम में रंगने की कोशिश कर रहा हूँ, क्या यह काफी नहीं भगवन! मैं इस भारी भवसागर को अकेले पार कर सकूं, इतना मेरा बल सामर्थ्य नहीं है, गुरुवर मैं तो डूब ही जाऊँगा, क्योंकि डूबने की आदत जन्मों से पड़ी है, क्योंकि मेरी पूजा, बंदगी, सेवा, चाकरी या मेरा त्याग, साधना पूरी भी नहीं और पर्याप्त भी नहीं है, कहाँ पर्याप्त है? पुकार कर रहे हैं, मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ, वह केवल अंधेरे में ढूंढने जैसा ही है, अब मेरे प्यारल का द्वार कब खुलेगा, यह भी तो पक्का नहीं है, मैं तो द्वार को खोल ही नहीं पाऊँगा, कैसे खुलेगा यह द्वार? ऐ मेरे सच्चे मालिक! मैं तो अंधा अंधेरे में ही विनती कर रहा हूँ-

बिनवंत हौ कर जोड़ के, सुनिए किरपा निधान
साध संगति सुख दीजिए, दया ग़रीबी दान

मैं अंधा अंधेरे में बेबस बड़ा ही लाचार हूँ, तेरी मेहर का कतरा चाहता हूँ, क्योंकि मैं भी तो तेरे बाग का एक फूल ही हूँ, परम प्रभु का अंश, विराट सागर की एक बूंद हूँ, मैं सब ओर से परेशान, बेचैन हताश हूँ, पुकारता हूँ तुम्हें, कृपा निधान, मेरी पुकार ऐ मालिक! तुम तक पहुँच ही नहीं पाऐगी, मुझे न तो तुम्हारा अता है पता है और ना ही तेरा ठिकाना मालूम है, यहां तो बस खता ही हैं मेरी, तुम हो कहाँ मेरे मालिक, मुझे तो मालूम ही नहीं है, मैं पुकारता हूँ, मेरी पुकार में कहीं न कहीं संदेह मद भी छिपा है, ऐ भगवन! मैं तो हूँ ही ऐसा, मैं तो तेरी याद में भी पूरी तरह भीगा खोया भी नहीं हूँ, मेरी सुरत भी अंधुली है, पूरी कहाँ है?
मेरी सुरत खण्ड-खण्ड के विचारों में बह रही है, ऐ सचखण्ड के शाह! मेहरबान, दया कर, इस संसार सागर में रहकर कभी तुझे याद कर लेता हूँ, फिर भूल भी जल्दी जाता हूँ, मेहर कर मेरी अर्ज विनय स्वीकार कर-

सुरति करौ मेरे साइयां, हम हैं भव जल माहिं
आपै ही बह जाऐंगे, जो नहीं पकड़ो बाहिं

ऐ मेरे सांईयां! तुम्हें यानि आपजी को मेरी याद करनी पड़ेगी, क्योंकि हम तो हर पल बहे जा रहे है, मन का सागर इंद्रियों के विचार, बहाते ही जा रहे हैं, हम चाहकर भी तेरा सिमरन, ध्यान, तेरी याद, तेरे पावन चरणों में सच्चा प्रेम स्मरण नहीं बैठा पा रहे हैं, तुम्हें ही याद करनी पड़ेगी, तुम्हें ही हमारी सुध करनी है, मैं तो चल रहा हूँ इस राह में, मुझे पता ही नहीं कि जिस राह दिशा में मैं दोड़ रहा हूँ, चल रहा हूँ, यह मेरी दिशा या राह कहाँ जाऐगी, इसकी मंजिल किधर है? मैं तुम्हें याद करता, पुकार कर सिमरन करता चल रहा हूँ,, मुझे पता भी तो नहीं है, कि मैं जिस राह में चल रहा हूँ, वह तुम्हारे घर मुकाम की ओर जा रही है, कि नहीं। ऐ मालिक! मुझ अकेले से न हो सकेगा, क्योंकि मैं निर्बल जीव हूँ, हम भव जंजाल भव जाल में फंसे पड़े हैं, भारी उलझन है, भवजल भारी एवं बहुत बड़ा है, संसार का जाल अति सूक्ष्म गहरा है, किनारा दिखाई नहीं पड़ता, ऐ मेरे भगवन! इस कलिकाल में माया का बड़ा जोर है, इस मायावी सागर में ऐ प्यारल! मेरा डूबना ज्यादा निश्चित मालूम पड़ता है, उबरने के लिए आपकी दया मेहर करूणा चाहिये, उसी से ही हमारी सुरति की नाव किनारे पर पंहुचेगी, हम जीव तो संसार सागर में उलझें हैं, समर्थता कहाँ हैं हमारी, हम निर्बल जीव हैं, हमारी पात्रता कहाँ है और कितनी पात्रता है, यह भी पता नहीं हमारी तो नाव कागज के जैसी है और इसी कागज की नाव का हमें मद चढ़ा है, हमारे सारे अपराध भारी भूलें, इसी नाव पर होंगे और उस नाव में सारे छिद्र हमारी इन्हीं भूलों अपराधों के कारण होंगे, क्योंकि हमारी नाव की पात्रता छोटी है, इसीलिए पुकार कर रहे हैं।

सुनो हमारी अर्ज हे गरीबनवाज़! हमें साध-संगत का सुख बक्शें-2

बिनवंत हौ कर जोड़ के, सुनिए किरपा निधान
साध संगति सुख दीजिए, दया ग़रीबी दान
मैं अपराधी जनम का, नख सिख भरा विकार
तुम दाता दुख भंजना, मेरी करो सम्भार
जो अब के सतगुरु मिले, सब दुख आंखों रोय
चरणों ऊपर सीस धरी, कहुं जो कहना होय

ऐ कृपानिधान! हम तुम्हें पुकारते हैं, बुलाते हैं, क्या तुम तक हमारी आवाज पहुँचती है, हमें यह कैसे भरोसा हो? जब तक तुम्हारी आवाज हम तक ना पहुँचे, हम तो फैला रहे हैं हाथ। हे दयावान! हमें साध-संगत का सुख बक्शीए, अपने श्रीचरणों में बुला लीजीए दया गरीबी दान दीजिए। मुझे ऐसा सुख बक्शें, मुझे दीनता गरीबी बक्श और मुझे यह दान बक्श कि तेरे श्रीचरणों में, शरण संगति का मैं अमृत पी सकूं।

सच्चे पातशाह जियो! हम जन्मों-जन्मों से मैले अपराधी हैं, विकारों से भरे हैं, तुझे बिसारना यह बड़ा भारी अपराध हुआ है हमसे-

मैं अपराधी जन्म का नख सिख भरा विकार

हे सतगुरु! मैं इक जन्म का अपराधी नहीं हूँ, जन्मों-जन्मों का तेरा अपराधी हूँ, मन की मति पर चलकर मैंने केवल अपने अंदर मैले विकारों के कचरे इकट्ठे किए हैं, हर पल हर क्षण मैं अपराध कमाता हूँ, मैं विकारों के जहर से भरा हूँ -

नख सिख भरा विकार, नख सिख भरा विकार

मैं तो जन्मों-जन्मों का हूँ ही अपराधी, तेरी रहमतों मेहर से ही चल फिर रहा, देख-सुन रहा हूँ, तेरे दिए स्वांस लेता हूँ, सब कुछ तूने बक्शा है दुनियावी सुख, धन, पद, मान सब तेरा, तेरा दिया खाता हूँ पर तेरी बंदगी नहीं करता, जन्मों से मैला कुचला हूँ, मैं मैला हूँ, तुम दयाल दुख भंजना, मेरी सम्हार करो, तुम दाता हो, मैं भिखारी हूँ, तुम नाम के दानी न्यारे पुरूख बक्शनहार महादानी हो, मैंने कोई सेवा कहाँ की है तुम्हारे श्री चरणो की, न ही कोई प्रेम बंदगी की, न भगति की, न कोई बंदगी की राह का पता मुझे मालूम है, कि किस राह चलना है, तेरी संगति में मुझे कैसे रहना है, यह भी नहीं जानता, मेरी सम्हार करो, हे दातार! मुझे बस दीनता, गरीबी का दान बक्श, ऐ सतगुरु दातार-

मेरी करो सम्हार, मेरी करो सम्हार

ऐ मेरे गुरु महाराज, अर्ज़ सुन मेरी, मुझे अपनी शरण में बिठा, श्रीचरणों में इक घड़ी तो बैठने दे, मैं अपना सब हाल-ए-दुख बयां करूं-

जो अब के सतगुरु मिले, सब दुख आंखों रोय
चरणों ऊपर सीस धरी, कहुं जो कहना होय

सच्चे पातशाह जी, जब मुझे अपनी संगति में बिठाऐंगे, श्री चरण कमलों में बिठायेंगे तो मैं पहले इस मद भरे सिर को उनके पावन चरण कमलों में रख दूंगा, सीस धर चरणों में मद का त्याग करूंगा, अंतर के संकल्प विकल्प एक कर, हाथ जोड़ दिल में प्रेम बिठा, आँखों से सतगुरु प्रेम की गंग बहाऊँगा अपने नयनों से। ऐ मेरे सतगुरु, आपके आगे सारे दुखों की बात कहूँगा, अपने सारे दिल के हाल सुनाऊँगा और उनसे तीनों संतापों के दुखों की निजातों की विनती भी करूंगा, क्योंकि मेरे किए से तो कुछ बनना नहीं है और आज तक बना भी नहीं किसी का, अगर बना है तो केवल सतगुरुजी आपकी दया-मेहर एवं कृपा से ही बना है, फिर जो मुझे आप सच्चे सतगुरु मालिक से पारब्रह्म में विलीन होने की मत मिलेगी, उसे ही मैं कमाऊँगा।

साधसंगत जी! आगे सत्संग के प्यारे मधुर वचन, रूहानी रसीले वचन शबद बड़े प्रेम प्यार से श्रवण करें, जी आगे-

।। अवगुण मेरे बाप जी, बक्शो ग़रीब नवाज़।।
।। जो मैं पूत कपूत हौं, तौं पिता को लाज।।
।। क्या मुख लै विनती करूं, लाज आवत है मोहिं।।
।। तुम देखति अवगुण करूं, कैसे भावूं तोहि।।
।। अवगुण किये तो बहु किये, करत न मानि हार।।
।। भावै बंदा बक्शिये, भावै गरदन मार।।
।। साहिब तुम जनि बिसरो, लाख लोग लग जाहिं।।
।। हमसे तम्हरे बहुत हैं, तुम सम हमरे नाहिं।।

आत्मा का प्रभु में मिलाप व एक होने एवं अपना समूरा भाव, सतगुरु हुज़ूर के समक्ष रखकर गुरुभगत कहते हैं, हमें बक्शो हमने केवल अवगुण कमाए हैं-

अवगुण मेरे बाप जी, बक्शो गरीब नवाज

गुरुभगत केवल अपने अवगुणों की क्षमा चाहता है साधसंगत जी बाकी सभी जो बाहरमुखी भक्ति करते हैं, वे अपने इष्ट से उसका फल मांगते हैं, बताते हैं, मैंने तेरे लिए वृत उपवास तप किए हैं, क्योंकि तपस्वी हिसाब रखता है, साधसंगत शरण में सेवक कहता है, मैंने इतने समय से सेवा की, इतनी सेवा की, इतना सिमरन-ध्यान किया, सेवक और साधक हिसाब रखता है, कि मैंने तेरी याद में इतने उपवास किए, इतनी पूजा की, मालाऐं फेरी, दो करोड़, पांच करोड़ मंत्र जपे, लेकिन प्यारों! यह हिसाब तो अहंकार का है, सेवा की बंदगी की या कि मंत्र जपा, यह सब अहंकार के खाते बही का ही संसार है, दावेदारी कुछ भी हो, मलीन अहंकार के अलावा और कोई दावेदारी ही नहीं है दुनिया में, सतगुरु भगति प्रेम की राह में गुरुभगत का भाव और प्रेम, कुछ अलग और न्यारा है, गुरुभगत हिसाब किताब नहीं रखता, भगत विरह दर्द से भरा पुकार ही करता है-

अवगुण मेरे बाप जी, बक्शो ग़रीब नवाज़

ऐ मेरे सतगुरां! बक्श दो मुझे माफ कर दो मुझे, मेरे अवगुण बक्श, मैं बड़ा मैला गंदला हूँ मुझे अपने भारी अवगुणों का पता है, जानता हूँ अपने अवगुणों को और उन अवगुणों को मिटाने इतने आसरे और इतनी बाहरमुखी राहें पकड़ीं, उन अवगुणों को मैं न मिटा पाया, वह भी जानता हूँ, ऐ सच्चे पातशाह! मैं उन्हें मिटा भी नहीं पाऊँगा। हे गरीब नवाज़! मैं अपने अवगुणों की चादर को कैसे धोऊँ, इस मैली चादर को धो नहीं पाऊँगा, बस केवल तेरे श्री चरण कमलों में बैठ मैं अपने अवगुणों की चादर को संवार सकता हूँ, मालूम है मुझे तेरी मेहर के बिना यह न धुलेगी, मैं यह नहीं कहूँगा कि धो दे निर्मल कर दे और कहूँ भी किस जुबां से, कि मैं गुणी हूँ या सेवक हूँ या हिसाब किताब रखूं, कि तेरी बंदगी चाकरी कर ली, सेवा कर ली, इसीलिए हे कृपानिधान! तू अपना हाथ मेहर वाला बढ़ा, मुझसे कुछ भी नहीं बन सकेगा, ऐ मेरे सतगुरां-

जो मैं पूत कपूत हौं, तौं पिता को लाज

मैं पूत हूँ, कपूत हूं, बुरा हूँ, भला हूँ, चंगा हूँ, भारी मैला हूँ, ऐ परमपिता! लाज पत तो आप ही ने रखनी है, आप ही रख सकते हो, क्योंकि आपके सिवा इस जहां में रूह की लाज कोई नहीं रख सकता, आप ही विरदवान हो, आप कृपा करो, दया करो, दया का द्वार खोलो, दया का द्वार खोलो। बक्शो, बक्शो, बक्शो गरीब नवाज़, मैं मैली चादर ओढ़ तेरे श्री चरणों में आया हूँ, मुझे अपने चरणों में बिठा, मैं जैसा भी हूँ, तेरा हूँ, बस यही आस तेरे श्री चरणों में स्वांस-स्वांस कर रहा हूँ, मैं जैसा भी हूँ, तेरा हूँ। यही भाव सतगुरु भगत के हैं, ऐ रब के अंश! हमें भी यही भाव हृदय में रखने हैं और इस रूहानी राह में गुरुमुख जन को सेवा बंदगी में, सेवक जनों को सिमरन-ध्यान में बढ़ते हुए, प्रभु सतगुरु की आज्ञा एवं प्रेम के पुख्ते भाव रखने हैं, इसी से रूह को पारब्रह्म की मंजिल सहज मिल पाती है।

मनमति में डूबा बंदा शिकायती भाव रखता है, क्योंकि शिकायत के पीछे अहम का भाव चलता है, जैसे तुम्हारे पीछे छाया चलती है। प्यारे! दीनता की राह में चलना है, अहंकार की राह में नहीं, अहंकारी कहता है देखो! मैंने तेरी राह में कितने कष्ट सहे, तप किए, अभी तक तेरा हाथ नहीं मिल रहा है। अन्यायी, कुटिल, मनमुख तरे जा रहे हैं, ईमानदार सच्चे डूब रहे हैं, जिन्होंने गुरुप्रसादी नाम जपा, सेवा की, साधना की, उन्हें दुख मिले हैं, यह अन्याय हो रहा है, क्योंकि जहाँ अहम है, वहाँ शिकायत होगी, क्योंकि जो मेरी पात्रता है, वह मुझे नहीं मिल रहा है, यह उदासी अहंकार की है, मनमुखों की हैं, यही उसकी असफलता है, लेकिन प्यारा, दर्द में डूबा भगत कहता है-

अवगुण मेरे बाप जी, बक्शो ग़रीब नवाज़
क्या मुख लै विनती करूं, लाज आवत है मोहिं

सांईजी! मैं किस मुख से यह विनती करूं, इस मुख से मैंने लोगों की निन्दा और व्यर्थ की बातें की हैं और कानों से मैंने लोगों की निन्दा और विकारों की बातें सुनी हैं, सतगुरु जी! आपके प्रति भी मन में सौंसे पाले हैं, मेरे शरीर का रोम-रोम विकारां से, अवगुणों से भरा है, इस दिल में सदा शिकायत भरी रहती है, अहम भरा रहता है कि मैंने ये किया, इतना किया, मैंने इतनी सेवा की, मैं अपने अवगुणों का हिसाब करूंगा तो मेरे पास कोई भी इक गुण नहीं, मेरे सतगुरां कृपानिधान! तू सब देखता है, जानता है, मैं यह सब जानकर भी, भारी अवगुण कर रहा हूँ, अपराध कर रहा हूँ, फिर भला मैं तुझे कैसे भाऊँगा,

कैसे भावूं तोहि, कैसे भावूं तोहि

पर तू तो गरीब नवाज़ है, तू उन पर भी अपनी प्रेम, दया, करूणा लुटाता है, जो अवगुणी हैं, द्रोही हैं, मनमुख हैं, निंदक हैं, जो मैले हैं पापी हैं तू उनपर भी दया मेहर अपार करता है, यह सब हमने देखा है, तू सब पर मेहर करता है, तू तो केवल दया ही करता है, करूणा ही बरसाता है, तेरी परमेश्वरी करूणा तेरा विरद, तेरा कुर्ब तेरा प्रेम गहरा मंझा अगाध ही अगाध है, अनन्त कुर्ब है जीवों पर। प्यारे सतगुरु! मैं तेरी उसी अगाध करूणा कुर्ब को पुकार रहा हूँ, अपनी पात्रता, कुपात्रता का हवाला नहीं दे रहा हूँ, मैं यह भी नहीं कह रहा हूँ, कि तू देख मेरे साथ न्याय-अन्याय हो रहा है, जानता हूँ, मुझे जो कुछ भी मिलेगा, तेरी रहम साये, मेहर पावन करूणा, तेरे चरणों से ही मिलेगा, मेरी कोई पात्रता नहीं है और न ही इस पात्रता के कारण मुझे कुछ मिलेगा, इसीलिए विनती कर रहा हूँ-

क्या मुख लै विनती करूं, लाज आवत है मोहिं
तुम देखति अवगुण करूं, कैसे भावूं तोहि

ऐ मेरे सतगुरां, मुझ निमाणे भगत की विनय पुकार अर्जी कबूल कर-

मैं अंधुला खिन्न खिन्न भटकूं, कर गुनाह मैं मैला होता।
तू मेहरबाना मेहर करो अब, मैं नित्त नित्त गंदला होता।
मैं ना ही बंदगी करता, सेवा ना मैं कमाता।
ना अंतर कोई चाह तुम्हारी, नित्त नित्त विषय मैं भोगा करता।
कुछ न जानूं इक टिक निहारूं, निर्मल रूप मेरे घट में विराजो।
निशदिन विनती खिन्न खिन्न करता, कब तू सुने ऐ माधव जिओ।
दास ईश्वर करे पुकारा, साहिब ओ हरे माधव पियारा।
मैं अंधुला खिन्न खिन्न भटकूं, कर गुनाह मैं मैला होता।
तू मेहरबाना मेहर करो, साहिब ओ हरे माधव पियारा।
तू मेहरबाना मेहर करो, तू मेहरबाना मेहर करो।

मैं अंधुला हूँ, खिन्न-खिन्न, हर क्षण मन के संग भटकने की आदत हो गई है, मैं गुनाहों का अम्बार इकट्ठा किए बैठा हूँ, मेरा अंतरमन बिछौना गुनाहों से मैला हो गया है, तू मेहरबान मेहर कर, अगर तेरी मेहर रहनुमाई और सरपरस्ती का साया न मिला तो मैं गंदला होता ही जाऊँगा, क्योंकि मैं ना बंदगी और ना ही सेवा कमाता हूँ, न सिमरन करता हूँ। मेरे अंतर में सच्चा प्रेम निह श्रद्धा, तेरे पावन चरण कमलों का अनुराग और तेरे नाम की बंदगी चाहनी कहाँ है, तू ओट बक्श, मेरे प्यारे मेहर का हाथ बढ़ा, मैं खिन्न-खिन्न विकारी सुखों को कमाता हूँ, तू मेहर दया का हाथ धर, कि मैं खिन्न-खिन्न चरण कमलो का रस पियूं, मेरे दिल का माहौल मैला भारी है, इसके अलावा मेरे पास और है भी क्या? कहाँ है पात्रता, कहाँ तुझसे कुछ छिपा है, जो मैं तेरे द्वार पर दावा ले आया हूँ।

तू मेहरबाना मेहर करो अब, मैं नित्त नित्त गंदला होता

हे मेहरबान मालिक! मेरे किए कुछ नहीं होना, तू अपनी मेहर वाला हाथ बढ़ा, अगर मैं यह कहता हूँ कि मैं इसके योग्य हूँ, तो मैं तो इसके योग्य भी नहीं हूँ, क्योंकि तू तो बड़ा, महान है, गरीब नवाज़ है, तू तो निवाजने वाली कलाओं को जानता है, मैं तो कुछ भी नहीं जानता गरीबन निवाज़।

कुछ न जानूं इक टिक निहारूं, निर्मल रूप मेरे घट में विराजो

बस इक टिक निहारता हूँ, दिल में प्रेम, आंखों में आंसू लिए कि मेरे घट में प्रगट होकर विराजो, निसदिन विनती करता हूँ, बार-बार इल्तिज़ा करता हूँ, शिकायत नहीं केवल विनती अरदास पुकार,

कब तू सुने ऐ माधव जिओ

‘‘कब सुनोगे मेरे माधव जियो, कब सुनोगे‘‘-

अवगुण किये तो बहु किये, करत न मानि हार
भावै बंदा बक्शिये, भावै गरदन मार
साहिब तुम जनि बिसरो, लाख लोग लग जाहिं
हमसे तुम्हरे बहुत हैं, तुम सम हमरे नाहिं

गुरु महाराज जी, मैंने अवगुण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, अवगुणों के टीले भारी बड़े किए हैं और बड़े गुमान, अहंकार से मेरी यह गरदन रावण के जैसे अकड़ी रहती है, और मैंने तेरे वचनों की भी कद्र न की, अवगुणों को कमाके मैंने अपनी जीत समझी, हार न मानी-

अवगुण किए तो बहु किए, करत न मानि हार
भावै बंदा बक्शिये, भावै गरदन मार

ऐ मेरे हरे माधव गुरुवर! मुझे बक्शो बक्शणहार, चाहे मेरी गरदन मारकर, चाहे तू मुझे प्यार से बक्श, चाहे मुझे ताड़ कर संवार, ऐ मेरे प्यारे! मेरे अहम की गरदन को चाहे मार कर संवार, चाहे बक्श कर संवार, बस मुझे तू संवार, बस मुझे तू संवार, तेरे श्री चरणों में पड़ा रहूँ क्योंकि कोई चारा नहीं है मेरा, तुम्हारे सिवा, सच कहता हूँ कोई चारा नहीं है, मैं हारा हूँ, क्योंकि मैंने तुम्हें विसार कर देखा, तो पूरी रचना मेरी वैरी बन गई है, जिन्हें मैं अपना कहता था, वे ही लोग बिगाड़ने में लगे हैं, ऐ साहिब! भले मैं तुझे बिसार दूं, पर तुम न बिसारना, जे तू मुझे बिसारेगा, तो-

लाख लोग लग जाहिं

ऐ मेरे बाबल साहिब-

साहिब तुम जनि बिसरो, लाख लोग लग जाहिं
हमसे तुम्हरे बहुत हैं, तुम सम हमरे नाहिं

हमारा एक आसरा तुम हो और तुम्हारे समान इस रचना में कुर्बदार करुणावान और कोई नहीं, हमसे तुम्हरे बहुत हैं, लेकिन तुम्हारे जैसा विरदवान करुणानिधान हमारे पास कोई नहीं, ऐ मेरे साहिब ‘‘मैं तुम्हें विसारूं, पर तू न विसार।’’-2।

सच्चा प्रेमी भगत, बलिहार बलिहार के भाव श्री चरणों में प्रगट कर क्या अर्ज़ विनय कर रहा है, आईए, सत्संग की अगली तुक में श्रवण करें, जी आगे।

।। कर जौरे विनती करूं, भवसागर आपार।।
।। बंदा ऊपर मेहर करि, आवागवन निवार।।
।। अंतरजामी एक तुम, आतम के आधार।।
।। जो तुम छोड़ो हाथ फिर, कौत उतारे पार।।
।। भगति दान मोहिं दीजिए, गुरू देवन के देव।।
।। और नहीं कछु चाहिए, निस दिन तेरी सेव।।
।। कबीर करत है बेनती, सुनो संत चित लाय।।
।। मारग सृजनहार का, दीजै मोहिं बताए।।

गुरु भगत की विनती है, कि यह भवसागर तो भारी गहरा अपार है, ऐ मेरे सतगुरु! तू अथाह अनन्ता है, ऐसे अपार सागर से हमें पार पहुँचा सकता है।

कर जौरे विनती करूं, भवसागर आपार
बंदा ऊपर मेहर करि, आवागवन निवार

प्यारे सत्संगियों! विरह पुकार हमारे प्रेम को दृढ़ पुख्ता करती है, गहरी तीव्रता देती है, विरह-विरह की वेदना, उसका असहाय दर्द सहते हुए भी, सच्चा प्रेमी अपने प्रियतम महबूब को पल भर के लिए कहाँ विसारता है, वह घबराकर प्रेम को नहीं छोड़ता, तानों की परवाह नहीं करता। प्रेमी भगत हर प्रकार के तानों बानों कष्टों को अपने प्यारल का आर्शीवाद वरदान ही मानता है, जो कुछ भी हो रहा है, हे प्रभु! तेरी मौज, तेरे भाणे से हो रहा है, मेरी कहाँ गिनती है, हे प्रभु! मैं अबोझ गुनाहों से भरा, बोझ से दबा हूँ। साधसंगत जी! जो इसी प्रकार अपनी वर्तण कर लेता है, वह सहज अवस्था को सहज पाता है और यह अवस्था सतगुरु की बंदगी, प्रेम, अजीजी और इनकी मौज में लीन रहकर, जो यह देह नगरी है, उसके अंदर जो भक्ति प्रेम में डूबकर रूह अमरता का सुख पाती है, वह पा सकती है।

कबीर सुरग नरक ते मैं रहिओ, सतिगुर के परसादि।
चरन कमल की मउज महि, रहउ अंति अरु आदि।

गुरु भगत इसी मौज में रंग जाता है, कि हे सतगुरु दयाल! मुझ कुपात्र को चाहे नरकों में भेज, चाहे स्वर्गों में, प्यारे गुरुवर! इस कुपात्र भगत के दिल अंदर तेरे मीठे नाम का प्रसाद और तेरे प्रेम विरह का घाव तो लगा ही रहेगा, क्योंकि गुड़ फिर जहाँ भी रखेंगे, मीठा तो होगा ही। तेरे चरण कमलों की मौज से मुझे तेरे चरण कमलों की मिठास का सुख भा गया है, तेरी शरण में मेरे मैले कर्म कट गए, अहम का अंत हो गया। ऐ प्यारल! तेरे चरण कमलों की छांव में वासनाऐं एवं तृष्णाऐं खाक हो गई, क्योंकि तेरी शरण, तेरा विरही प्रेम ऐ गुरुवर! मैंने रसपान कर लिया, तेरे चरण कमलों के प्रेम के अलौकिक दिव्य नशे में मैं मग्न हूँ, अब तो मेरी कामना और कर्मों के जाल बाकी न रहे, जो मुझे इस संसार में वापस खींच सकें।

सतगुरु सांई नारायणशाह साहिब जी प्यारे वचन सतगुरु प्रेम के विषय में अक्सर उठाते, ऐ भगत गुरुमुखजन! जिस तरह कुम्हार घड़े को पकाता है, घड़ा जब पक गया, तो वह दुबारा उसे फीते चाक पर नहीं चढ़ाता, इसी प्रकार जिस गुरुभगत ने सतगुरु प्रेम में मग्न हो, पूर्णता पा ली, फिर वे कहाँ जन्म-मरण में भटकेंगे। आप गुरु साहिबान जी कहते हैं, कि सेवक गुरुमुख को, प्यारे गुरुवर की इच्छा पर छोड़ देने के भाव को भाणा कहा, सच्ची शरण कहा, कि जैसा तू राखे, मुझे कबूल है, मैं तो गुनहगार हूँ, अगर तू रख लेगा, तो तेरी करूणा है, मेरी कहाँ कोई औकात, मेरा कोई कमाया न तप है, न सेवा, न चाकरी ही है, तू जैसा राखे, यह भक्ति भाणे का नशा है, यह एक ऐसा नशा है, जो भगत अपने अंतर में अनुभव करता है, लेकिन कह नहीं सकता, वह लाबयान है।

गुरु की प्यारी संगतों! निर्मल हरिराया रूप प्रत्यक्ष सतगुरु शिष्य रूपी रूहों को जब पारब्रम्ह याने अपने निजघर बुलाना चाहता है, तो ऐसी रूहों के अंतर निष्काम प्रेम विरह दर्द बिछोड़े का घाव बक्श देता है, हर पल वह रूह छटपटाती और पुकार ही पुकार कर उठती है,

सच्चा प्रेमी अपनी असहाय अवस्था की पुकार करता है-

अंतरजामी एक तुम, आतम के आधार
जो तुम छोड़ो हाथ फिर, कौन उतारे पार

ऐ मेरे सच्चे मालिक! हर एक आत्मा की तुझे खबर है, कि मन के संग साथ तेरे इस अंश आतम की क्या दशा है, पहले तो मैं पुकार करता ही रहता, जब तेरी हुजू़री में आता हूँ, तो कुछ बोल ही नहीं पाता, बस इतना ही-

अंतरजामी एक तुम, अंतरजामी एक तुम

ऐ मेरे गुरुवर! तुम हमारी दशा जानते हो न, हम सभी के एक तुम ही आधार हो-

अंतरजामी एक तुम, आतम के आधार

तू जो हमारा हाथ छोड़ दे तो हम पार कहाँ उतर सकते हैं, क्योंकि हमारी जीवन रूपी नाव, झूठी दुनियावी चीजों के मद कारण भारी हो गई है, और वह वह नाव तो डूब ही जाती है, जो नाव भारी पत्थरों चट्टानों से भरी हो, वह भवसागर में गर्त हो जाती है, इसीलिए तेरे सिवा और कोई खेवनहार नहीं है, मेरे सतगुरां! अगर तेरा हाथ छूट गया, तो हम पार नहीं उतर सकते, किरपानिधान! किरपा करो, हे गुरुमहराज! मुझे अपनी चरण कमलों की भक्ति का बल बक्शो। सतगुरु भक्ति का दान देवो बाबल, और कुछ नहीं, बस तेरे श्रीचरणों की भगति-

भगति दान मोहिं दीजिए, गुरू देवन के देव
और नहीं कछु चाहिए, निस दिन तेरी सेव

तू अपनी बंदगी प्रीत की सेवा बक्श, क्योंकि जुगनू तो सूरज के आगे खड़े नहीं हो सकती, जुगनू की रोशनी की क्या औकात। गुरुवर तुम सूरज हो, हम जुगनू हैं, हम पर दया करो, हमें उस सृजनहार का पथ बताओ, ऐ प्रभु के रूप संतजनों! हमारी बात को जरा चित में रख लो कि-

कबीर करत है बेनती, सुनो संत चित लाय
मारग सृजनहार का, दीजै मोहिं बताए

सच्चे पातशाह जी! मेरी अजऱ् कबूल कर, मुझे अपने साचे पथ पर बांह पकड़ कर ले चल, तू अपने करुणा बिरद से हम मैले बंदों पर अपनी पाक निगाह कर। हाथ जोड़ दामन फैला तुझसे भीख मांगते हैं, अपनी चरण छांव बक्श। हमारा हाल तुझे पता है, मन का संग कर हम भटक जाते हैं, ‘‘तू सब दिलों का जाननहार है-2’’, किरपा करो, किरपा करो, हमें अपने श्रीचरणों की पावन भक्ति बक्शो। गुरु महाराज जी! मेरे कर्मां की कोई नेक कमाई नहीं जिसका वास्ता मैं आपको दे सकूँ, ना ही मेरे अंदर कोई चंगा गुण है कि आपको रिझा सकूँ। बस आपजी की बेहिसाब करूणा मेहर की महिमा सुन आपके द्वार पर, आपके श्रीचरणों में यह विनती ले आया हूँ साँई जी, मन माया का संग कर मेरी रूह आतम भारी दुखों से घिरी है। आपजी के सिवा हमारी दुख की घडि़यों का सहारा आखिर कौन है, अब दया करो मेरे सतगुरां, ‘‘इन मन-माया के फुर्णो से, मोहे उबार लीजिए’’-2। हमारे जीवन में जो भारी दुख हैं उनको काफूर करने की याचना लेकर आपसे पावन भक्ति की दात लेने आया हूँ, यही अरदास है मेरी-

इहा आस अंदर में आ मुहिन्जी
डे भगति पहिन्जे चरणनन जी-2
चरनन में तुहिन्जे अथम बाडायो
फुरणनन खां सांई जिन्द छडायो
जीयण कला छा आहे सिखारियो
डे भगति सतगुरु पहिन्जे चरणनन जी-2

यही आस है, हम दासों की, ’’भगति दान दीजै’’-2। आपकी किरपा की आस ले आए हैं महाराज जी, मेहर करें। आप ही तो सच्चे पूरण रहबर हैं, सच्ची दरगाही राह आपने ही दिखानी है। जीवन जीने की साची कला बक्शों, दया करो मेरे सतगुरां, हमारे कर्मां की कोई नेक कमाई नहीं, बस अपने श्रीचरणों की पावन भक्ति का दान बक्शो। मेरी बांह पकड़ ले सतगुरु कहीं जग माया के इस दरिया में बह न जाए, अपनी भगति का दान बक्शों सतगुरु, कहीं जग माया के इस दरिया में बह न जाए, दया करो सतगुरु जी मेहर करो मेरे माधव जी।

।। कबीर करत है बेनती, सुनो संत चित लाय।।
।। मारग सृजनहार का, दीजै मोहिं बताए।।

हरे माधव      हरे माधव     हरे माधव