।। हरे माधव दयाल की दया ।।

वाणी संत सतगुरु बाबा ईश्वर शाह साहिब जी

।। बिसरो नाहिं मोहि पियारे, बिसरो नाहिं मोहि पियारे।।
।। मेरे माधव जी प्रान आधारे, बिसरो नाहिं मोहि पियारे।।
।। मेरे अवगुण न निहारो दाता, मैं गुण न काइे विचारूं दाता।।
।। मैं सदा तुम्हारी आस लगाए, इक पल इक क्षण नाहिं बिसरूं दाता ।
।। दास ईश्वर तो मांगत है, मेरी संभार करो दयाले।।
।। ओ हरे माधव पुरूखा पियारे, बिसरो नाहिं मोहि पियारे।।

गुरुबाबल जी की मिठड़ी साधसंगत, आप सभी को हरे माधव हरे माधव हरे माधव। गुरु महाराज जी की पवित्र छत्रछाया में रूहों को सच्चा अमृत सच्चा आनन्द देने वाली, बिछड़े निज आतम पुरुख साहिब की याद तड़प, मिलने का वियोग जगाने वाली, असहाय की पुकार, प्रेम विरह की यह अमृत रब्बी वाणी हाजि़र भजन सिमरन के भण्डारी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी की इल्लाही वाणी है।

मिठड़े महबूब हरिराया रूप सतगुरु जी रूहों की सार सम्भाल कर, प्रेमी विरही रूहों को निर्मल कर, निजघर पहुँचाने का बल, भावभक्ति प्रेमाभक्ति की बरखा करने वाली जुगत बक्श रहे हैं, कि बाबलों के चरणों में बेहद प्रीत जगे, पुकार अरदास, कोरी असहाय अवस्था, अटल अछेद लौ लगे। रब्बी वाणी में अमृत मिठास के वचन आए, जिन रूहों को यह रंग सच्चा लग गया, उनकी दुनिया अजायब अलबेली है। वे रूहें हर पल पुकार ही पुकार के भाव से भरी रहती हैं।

सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के कौल, कि जब तक परम प्रभु की दया मेहर न हो, तब तक हम जीवों को उससे बिछड़ने बिछोड़े का डर अनुभव नहीं होता, और जब बिछोड़ा हुआ, तभी रूह में तड़प जगी अपने असल घर जाने की, बिछोड़े की यादआई कि हम बिछड़े हैं। अब उस अकह हरे माधव प्रभु की दया मेहर से ही हरे माधव प्रभु के ज़ाहिर रूप पूरन सतगुरु से हम जुड़ पाते हैं, फिर शिष्य उस राह पर चल निजघर में मिल पाते हैं।

हाजि़रां हुज़ूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी से एक प्रेम प्रीतवान विरहवान प्रभु के प्यारे गुरु भगत ने विनती की, कि सच्चा प्रेम वह आँख, वह सच्ची तार जुड़े, कि अपने सतगुरु पुरुख अनामि से लगन निह गाढ़ा होने की सोझी देवें।

मेहरवान बाबाजी ने वचन फरमाए, अहम दीवार है, इसे तोड़ना है, लगन निह, श्री चरणों की अनन्य प्रीत को गाढ़ा करने की, एक ही सोझी है, एक ही उत्तम उपाय सदा से है और वह है सतगुरू नाम सिमरन, सतगुरू चरणों की प्रेमा भक्ति, ऐ भगत! असहाय हो पुकार करें, ऐसी पुकार, कि मन बुद्धि चित्त एक होकर पुकार अरदास प्रेयर करें, यह परमार्थ संतमत में मीठा होने का प्रसाद है दूसरा कोई पथ नहीं। जो प्रेमी शिष्य अपने अंतर में सुखी अनुभव निर्मल अनुभव का फल चखता है, फिर उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती क्योंकि उत्तम प्रकार का उत्तम प्रसाद जो मिला। ऐसा गुरुभगत हरिराया भगत हृदय से यही विरह पुकार करता है-

बिसरो नाहिं मोहि पियारे, बिसरो नाहिं मोहि पियारे
मेरे माधव जी प्रान आधार, बिसराे नाहिं मोहि पियारे

हे दीनदयाल परमेश्वर, हुजूर सतगरु , मैं अपनी अनन्य पुकार, प्रीत की पुकार कैसै कहूं, मुख छाेटा आरै तू विराटाें का विराट है, यह भी सत्य है कि हम तेरी अंशी रूहें हैं। ऐ पुरुख! तेरे अंश हैं। तेरा पाकर तुझे विसार बैठे है, पुकार है बिसराे नाहिं, हे मेरे साहिब! मरे सर पर मेहर वाला हाथ रख, मेरे प्राणों का एक तू ही आधार हैं, केवल तेरा भराेसा है, इसीलिए बिसराे नहिं माेहि पियारे। बिसरने की आदत हम जीवाे की पुरानी है, साेे थाेड़ा बहुत सेवा बदंगी की, या दुनियावी धन राज मिला ते बिसर जाते हैं तुझे। , ऐ हरे माधव अगम ठाकुर! तुझे बिसर के हमारा हमारा या किसी भी भगत का हाल अच्छा नहीं रहता, इसलिए हथजाडे़ पुकार है-

बिसरो नाहिं मोहि पियारे, बिसरो नाहिं मोहि पियारे
मेरे माधव जी प्रान आधारे, बिसरो नाहिं मोहि पियारे

अनन्य प्रेम प्रीत जिसमें यही पुकार है, कि मेरी प्रीत निर्बल कमजाेर असहाय है, ना काेई मुझे ज्ञान न तप न पुण्य की पाटेली है, हे सच्चे पातशाह! बस और बस तुझसे निह है, बिछाेडे़ का भय भी है, इसीलिए * बिसराे नाहीं।* मैंने सब कछु तुझ ही से पाया, लेकिन लत लगी है, जन्माें से तुझे बिसरने की, बिछड़ने की, मैं भलू भटक जाता हूँ, मन के हाथों विकारी बन जाता हूँ। ऐ साहिब जी!

बिसरो नाहि मोहि पियारे

गरु महराज! हम ताे बिसर जाते हैं पर आप मुझे मत बिसाराे,
दया कराे कि तरे प्रेम, तरे भजन-सिमरन में, हर पल तेरी याद में खाेया रहूँ-

मोहि पियारे बिसरो नाहिं

प्यारी सगंताे! यह प्रीत, प्रेम, विरह कहने सनुने का या तर्क का विषय नहीं, यह अनुभव प्रीत का विषय है, मन थिर हा अतंर की ओर मुड़े, इस प्रीत निह के बिना न आत्मा प्रभु में मिल पाती है, ना हीं सतंमत का पथ तय हाे पाता है, सबसे गाैरतलब यह, प्रभु हरिराया, सभी रूहाें को, हर एक गुरु के प्यारे काे इस निराले निह, प्रीत के रंग में रगं ना चाहते है क्याेंकि निर्मल प्रीत रंग में रंग बिना, शिष्य, पूरण सच्चा शिष्य नहीं हाे सकता।
आगे आया जी, गुरु भगत का समर्पण भाव कि मेरा मुझमें है क्या

मेरा मुझ में किछ नहीं, जो किछ है सो तोर
तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर

ऐ माधव! सब तेरा ही तो दिया है, स्वांस तेरे जीवन तेरा यह जो दुनियावी रस मैं ले रहा हूँ, चख रा हूं, रचना की हर एक बूंद को तू परोस रहा है, मुझ पापी को भी तू ही परोस रहा है। सब तेरा ही मुझको दिया हुआ, कुर्ब है, अपार मेहरबानियां हैं। मेरा मुझ में कुछ भी नहीं है, अगर मेरा मुझ में कुछ भी है, तो वो हैं दुर्गण, अवगुण मैली कमियां, अहंकार है, अगर मेरा मुझ में कुछ है तो वह है मनमतियां, बुरे गंदले विचारों की बीमारियां, तीनों तापों की व्याधियां, अब मैं क्या कहूँ, इसीलिए मेरा मुझ में कुछ नहीं, फिर तुझसे क्या विनय करूं बाबाजी, इन सारे अवगुणों की कोई पात्रता लायकी नहीं बनती, फिर भी मैं फूला हूं अहम में। मद माया के नशे में मान बढ़ाई के अहम में हथ जोड़ श्री चरणों में सीस धर रोकर कहता हूँ, हे हरे माधव भगवन! न कोई मेरी योग्यता सच्ची है, न मैं योग्य हूँ, इतने दुर्गुणों का अवगुणां का हुज्जतों का आदि हूँ, अभाव भरा है मुझमें, भाव कहाँ, इसीलिए हथजोड़ पुकार है तेरे चरणों में-

मेरे अवगुण न निहारो दाता, मेरा गुण न कोई विचारो दाता
मैं सदा तुम्हारी आस लगाए, इक पल इक छण नाहीं विसरूं

कोई मुझमें गुण नहीं, अवगुणों का कूआं हूँ, ऐ मेरे न्यारे सतगुरू भगवन प्रभुवर! मुझे यह भी नहीं पता है, तेरी पसंद ना पसंद क्या है? जब मैं इतना गंदला हूँ, अब आप ही सोचो विचारो सतगुरू भगवान तेरे चरणों तेरी संगति में मैं लेकर क्या आऊँ, कौन सा मुखड़ा तुझे प्रिय है, मेरे मुखड़े में तो कोई बंदगी प्रीत की चमक नहीं, कौन से चेहरे तुझे प्यारे हैं? मुझे बता मेरे बाबल, कौन सी आँख ऐ भगवन तुझे प्यारी लगती है, ऐ मेरे गुरू महाराज! मेरी आँख केवल गंदला देखती है, इसीलिए मैं तुझसे ही यह कह रहा हूँ, कि कौन सी आँख तुझे प्यारी लगती है, कैसे किस भगतवान हृदय को तू अपने हृदय से लगा लेता है, मुझे इक तिल का भी पता नहीं, ऐ भगवन! तेरे चरणों में तेरी संगति में फिर तो मैं गलत ही अयोग्य ही फेल होकर ही पहुचूंगा न, इसलिए मेरे अवगुण न निहारो ऐ दाता। इतना सारा अभाव ले ऐ भगवन सच्चे पातशाह! तेरे द्वार तेरे श्री चरणों तक ठीक ठाक पहुँचने का उपाय कहाँ? ऐ मेरे प्यारल! मैं तेरे द्वार तक तो आ जाउं पर तेरे चरणों तक कैसे पहुंचूं, मुझ मैले कुचले को तू चरणों में बिठायेगा ना, मेरे बाबा मुझे स्वीकर करेगा न? मुझमें गलत उलट अभाव बहुत भरे हैं, मैं मैली चादर ओढ़ के तेरे श्री चरणों में आया हूँ। हे सच्चे पातशाह! मैं किस बंदगी सेवा चाकरी का दावा करूं। मेरे बाबा, मैं सेवा भी तो अपने मन के कहे कर रहा हूं, तू दया कर, महर कर। कुछ ठीक ठाक सेवा तेरे श्री चरणों में करूं, इसीलिए मैं कहता हूँ, मेरी व्यथा है मेरा मुझमें कुछ नहीं, न मेरा कुछ था, न है, न होगा, बस भ्रम था, भूल थी, बस मुझमें मेरा था तो मन का मान, प्रतिष्ठा धन अहम की बहुत अकड़ थी, मैं भूल गया कि यह सब मान प्रतिष्ठा, धन, पद भी तूने ही दिया है, मुझे मैं का रोग लगा है, यही मैं-मैं रोग मेरे समस्त दुखों का कारण हो गए हैं, मैं तो गफलत की नींद में सोया हूं भूल गया कि मेरा कुछ नही, मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर तेरी ही दी हुई, जीवन की अमोलक स्वांसें, जिसने घट में अमृत की खुशबू भर दी है, यह सब तेरा महादान है, निर्मल दान है, मेरा खुशबू प्रसन्नता के योग्य कोई भी, कुछ भी गुण कर्म नहीं हैं, सेवा बंदगी चाकरी नहीं है, जो कुछ है सो तोर, सब तेरे श्री चरणों में अर्पण कर रहा हूँ, समर्पण कर रहा हूँ, अब क्या अर्पण करूं, जो कुछ है सो तोर, तेरा तुझको सौंप दूं क्या लागत है मोर।

ऐ भगवन! गुरुवर! सच्चे पातशाह सारी कायनात दुनिया तेरी है, नभ, धरत चाँद तारे हमारे जीवन का हर एक कण हर क्षण तेरा दिया खा रहे हैं, तू हर पल अपने कुर्ब करूणा विराट के अंबार खर्च से हमें लोक परलोक की खर्चियां यानि रहमतें दे रहा है, क्या लगता है मेरा, मेरा कुछ खर्च नहीं हो रहा है, कुछ भी तो नहीं, सोचा विचारा देखा कुछ नहीं मेरा, अब मेरे प्रभु सतगुरु मेरी आस केवल हर पल तुझ पर बलिहार की है, हर पल समर्पण अर्पण का भाव पिरोए रहता हूँ, तू बस हमें अंगीकार स्वीकार कर ले, काफी है इतना, मुझमें भटकने बिसरने का रोग जन्मों से भरा है, इसीलिए बिसरो नाहीं मोहे प्यारे, बिसरो नाहीं मोहे प्यारे, बिसरो नाहीं मोहे प्यारे।

हरिराया रूप संत सुजान, मेरी पुकार सुनो, कलिकाल का समा भारी है, मन विचारों पर कलिकाल का दुई का रगं भारी चढ़ा है, मैं तेरा निर्मल भजन नहीं कर पाता, तेरी सेवा हुकुम आज्ञा का सत्कार भी नहीं कर पाता, कलिकाल का मुझ पर असर चढा़ है, आंखें काला देख रही हैं, कान काला गंदला सुनने के आदि हैं, मेरी चित्त बुद्धि में जो हर पल फुरणे प्रफुट्ट हो रहे हैं, वे मुझे मैला कर रहे हैं, मेरा अंतर मलीन होता जा रहा है, इसलिए मुझे मत विसारो, अपनी शरण में रखो, मुझे यह भी पता है, तेरी निर्मल संगति अर्शी बाग में रहकर भी मैं केवल मैले भावों को, विकारी भावों को अपने अंदर अंतर चित्त में कैमरे की तरह कैद कर लेता हूं। हे सच्चे पातशाह! ये तो मेरी हालातें हैं, तू हर बार चिताता है, निर्मल होकर आओ, बाबा नारायणशाह साहिब जी ने, शिष्य को दीन असहाय होकर आने की वचन बात कही कि मन को टिका के आना, आंखों में, दिल में सतगुरु प्रीत का पानी भरा रहे, आप सतगुरु जी ने फरमाया, जिस शिष्य की, दयाल सतगुरु के दर्शन वचन सुन आँखें तर न हों, गंगा न बहे तो समझना तुम अभी शिष्य नहीं हो, ऐ प्यारों! सतगुरु प्रेम विरह विछोड़े में रोना भी सुखद है, यह भजन बंदगी में बड़ी बरकत देता है, इसलिए बारंबार असहाय पुकार, श्रीचरणों में यही अर्ज है मेरी, मेरे बाबल-

तमु हाथ सदा मोहे सर पर धाराे, निमर्ल छांव शरण तुम्हारी-2

हुजूर साहिबान जी सत्संग वाणीयों में रूह, अथाह निर्मलता का हवाला दे रही है, कि न मेरी कोई सेवा चाकरी है, न मेरा कोई सिमरन भजन है, ना कोई सुबह प्रभाती तेरा ध्यान करता हूं, न संध्या में तेरा भजन गाता हूं, न मैंने कोई दिये धूप सजाए हैं, न पूजा आरती थाली घुमाई है, पर तू तो घट पट का जननहार सर्वज्ञ स्वामी है, मैंने तेरे भक्तों से सुना है, कि तू तो सबके दिलों के हाल, सबके मनों की स्थति, सभी रूहों के घट-पट की खबर रखता है-

मैं सुनिया तेरे भगत जनां से, तू है घट पट का जानन-2

ऐ प्यारल खुदाया-

मन माया मुझे को बहुत भुलावै, बिसरो नाहिं माेहि पियारे-2

इसीलिए, बिसरो नाहीं मोहे प्यारे, ऐ सच्चेपातशाह! मेरे अवगुण न निहारो दाता, मेरा कोई चंगा गुण नहीं, अच्छी सच्ची प्रीत भी अभी नहीं, मुझे मन माया बहुत प्रलोभन दे भ्रमित कर रही यह माया बड़ी बलवान है, मेरे बाबल जब तेरी ओर आने का एक पग भी बढ़ाता हूँ, तो यह माया रिश्ते-नाते, मायावी चकाचौंध या कुछ जीव ज्ञानमत शास्त्रमत का हवाला दे, मेरे पैरों में जंजीरें डाल देते हैं। ऐ मेरे सुहणे गुरुवर मुझपर अपनी कृपा धार, मुझे इस माया से बचा ले, मुझे अपने श्री चरणों की रज बक्श, अपनी गोद में बिठा ले, श्री चरणों में बिठा ले।

प्यारी संगतों! ऐसे भाव भक्ति में पुकार कर शिष्य की रूह दीवानी बांवरी सी हो जाती है, ऐसी रूह हर पल मनाती है, अपने बाबल को हर पल मिन्नतें, अन्दर ही अन्दर ऐसे गुरुभगत प्रभु भगत अपनी सारी दुनियावी इच्छाऐं हटा देते हैं, मिटा देते हैं, वह कहता है, अगर ख्वाहिश इच्छा होगी तो, प्रेमा भक्ति में कमी पड़ जाएगी, निह का अनुपात कम न हो, प्रीतवन्त बस प्रीत में खोया रहूं, न हो परवाह दुनिया की न परवाह लोगों की, बस मुझे मेरे सतगुरु की चरण छांव सेवा चाकरी में हरपल रहना है।

परमार्थी प्रेमियों! सतगुरु प्रेमा भक्ति से आतम की दरिद्रता मिट जाती है, अमृतमय आतम बनकर महक उठती है, फिर ऐसे प्यारल की खुमारी में अंतरघट अमृत रस में हर पल भीगना शुरू हो जाता है।

सतगुरु सच्चे पातशाह हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी की शरण में इक भक्तिवान बंदगीवान प्यारा आया, विनय पुकार कर कहने लगा, साहिब जी, मैं आठ-नौ घण्टे सिमरन-ध्यान बड़ी पाबंदी से करता हूँ, फिर कुछ समय निकाल सेवा-कार्य भी कर लेता हूँ लेकिन सिमरन-ध्यान में रब चासनी का अमृत नहीं बरस रहा है, मुझ पर दया करें, मेहर करें।

आपजी ने वचन कहे कि आधा घण्टा एकांत में बैठ कर, मन बुद्धि चित्त को एक कर रूह से पुकार करो, अपने सतगुरु प्रभु के श्रीचरणों में केवल और केवल पुकार किया करो, असहाय होकर पुकारा करो, पुकार हिरदय की गहराईयों से निकले, पुकार करते-करते आँखें भर उठें, रूह से ऐसी पुकार निकले कि पुकार के हर एक शब्द में रोम-रोम शामिल होना चाहिये, रोना भी निकले ऐसी पुकार करो और अपना नित नेम सेवा सिमरन यथावत् जारी रहे। तीन माह तक पाबंदी से यह नियम बनाओ, फिर आना।

वह सेवक वचनों को सर माथे रख चल पड़ा, तीन माह बाद जब श्री हुजूरी में आया, उस प्रेमी भगत के अश्रु न रुके, बस पुकार ही पुकार, असहाय दीन द्रवित हो गया क्योंकि पुकार करते-करते उसका अहम गल गया, वह दीन हो गया, छोटा हो गया। तब आप गुरु साहिबान जी ने उस भगत से फरमाया कि चासनी अमृत की प्राप्त हो गई, भजन-सिमरन में वह महारस मिल रहा है न! हाथ जोड़ वह कहने लगा, हे मेरे गरीब नवाज़, अब तो हर पल, हर क्षण अमृत, थिर रस का रस लेता हूँ, अब मछली की तरह तड़प रहा हूँ कि इसी महासागर में पड़ा रहूँ, अब इस आनन्द अमृत रस के सागर में डूबा रहूँ। दया करें मेरे हरे माधव दातार, दया करें।

ऐ रब के अंश! जब यह प्रीत की निह रीत जुड़ गई, तो जिस तरह दुनिया में जीव इन्सां धन खोने से कोई डरता है, कोई पद या कोई मान-शान छिन जाने के ख्याल से डरता है, किसी को रिश्ते नातों को खोने, मित्र यार से बिछड़ने का डर रहता है परन्तु इस परमार्थ राह में शिष्य की रूह ऐसी दुनियावी चाह नहीं रखती, उन्हें इन सब चीजों को खोने का डर नहीं रहता, उसे बस एक ही डर सताता है, अपने लालन सतगुरु से बिछड़ने का डर, उससे प्रीत की डोर टूटने का डर, सतगुरु चरण कमलों से विमुख होने का भय, निह प्रेम इश्क कम होने का डर सताता है। बस प्रेमी रूह, शिष्य का मन विचलित चित्त उदास बेशक हर पल प्रेम प्रीत के सागर में रूह हंस बन आनन्दमय अवस्था का सुख पाती है, जिस तरह दुनियावी नशे वाले आदी बनकर अपने जीवन की क्या हालातें बना लेते हैं, किसी अन्य की चिंता नहीं, बस संसारी नशे के आदि हैं, संत बाबाजी कहते हैं, इन सबसे सीखो, असल प्रीत सच्चे नशे से भरो। गुरु का शिष्य कहता है, कि मेरी डोरी तोरी न टूटे, मेरा निह न छूटे, मुझे ऐसे चरण कमलों का आश्रय प्रीत दे दे, ऐ मेरे प्रभु लालन! घट में लालिमा वाली प्रीत बरखा दे।

सतगुरु प्रेम में भीगा शिष्य भगत यही याचना करता है, हे मेरे सतगुरु बाबले! मुझे नित प्रतिपल यह भय बना रहता है कि कहीं मैं तेरे चरणों से विमुख न हो जाउं। इस जगत में काल का खेल बड़ा भारी चालू है, कई बार मन में संकीर्ण विचार, शक-शुभ वाले विचार पनप उठते हैं तो मैं घबरा जाता हूं बाबल, मन को फटकार भी लगाता हूं पर भय निरंतर बना रहता है कि कहीं मैं अपने मलीन मन के कारण तुझसे दूर न हो जाउं, मेरी संभाल करो मेरे हरे माधव बाबले, मेरी संभाल करो, मेरी प्रीत चाहत अडिगता वाली नहीं है, मैं निर्बल हूं, मेरी संभाल करो।

प्यारी साधसंगत जियो! सतगुरू मालिक हमारे अंग-संग है। जिस कुले मालिक परमात्मा सतगुरु से हम पुकार करते हैं, वह हमसे दूर नहीं, हम भले ही दूर हों, उस तक ऊँची आवाज़ पहुंचाने की ज़रूरत नहीं, उसके दिव्य सूक्ष्म कान हर जगह हैं, वह हमारे भावों की पुकार सुन ही लेता है, कबूल करता है, वह घट-घट को जाननेवाला है, उसको जीव की हर ज़रूरत का पता है, हमारे अंतर घट के गुप्त भावों को भी भलिभांति जानता है। पुकार का अर्थ भावां को व्यक्त करना है। अपने परमात्मा को दीनता के साथ अंतर से चुपचाप पुकारो, क्योंकि वह सब कुछ सुनता है।

हाथी की चिंघार पल पाछे पहुंचत ताहि
चींटि की पुकार पहले ही सुनिअत है

पुकार के लिए किसी विशेष भाषा या बोली की ज़रूरत नहीं क्योंकि प्रभु सतगुरु सभी भाषाओं बोलिओं को जानता है, पुकार के लिए किसी खास समय की आवश्यक्ता नहीं, आवश्यता है हृदय से की गई पुकार की। हमारी पुकार सुन सतगुरू, मेहर, दया करुणा बरसाते हैं और हम जीव सतगुरू मेहर का शुकराना भाव भी घट अंतर में नहीं रख पाते।

बेअंत करुणावान सतगुरु हमारी पल पल सुध रखते है। हम सभी गुरुभक्तों की अनगिनत अर्जियां चरणों में कबूल हो जाती हैं पर हम कृतघ्न जीव उन एक-आध अर्जियों की बात का शिकवा शिकायत करते हैं जो आपजी हमारे ही हित के लिए आपजी कबूल नहीं करते, हम मन में मैला अप्रेम वाला भाव रखते हैं। आपजी की ऐसी मौज के पीछे न हम छिपे हुए कुर्ब को देख पाते हैं ना ही भाणे में रहते हैं। आपके विराट करुणा विरद को हमारी तुच्छ बुद्धि क्या समझ पायेगी।

ऐ रब के अंश, मालिक सतगुरु हमारे पूर्व वर्तमान और भविष्य के हर हाल को जानता है कि जो कुछ हमारा यह भगत मांग रहा है इसमें उसकी भलाई नहीं है, इसीलिए उसे वह पदार्थ नहीं बक्शता, भला करता रहता है, पर जीव मांग से मांग करता रहता है। जिस तरह माता-पिता जानते हैं कि फलां वस्तु से हमारे बच्चे की हानि है, तो उससे वह चीज़ नहीं देता भले ही ऊपर से उसे दिलासा देते रहें। वह अंतर्यामी पुरुख भी हमारा भला ही चाहता है, इसलिए मालिक से यही पुकार करें कि हमें वही दें जिसमें हमारी भलाई हो, शुक्राना करें। सदा यही पुकार करें कि जहां भी जैसा भी, जिस अवस्था में भी तू रखे उसी में खुश रहें, ''तेरा किआ मीठा लागे"-3

ऐ मेरे हुजूर महाराज, अर्ज़ सुन मेरी, मुझे अपनी शरण में बिठा, श्रीचरणों में एक घड़ी तो बैठने दे, मै अपना सब हाल-ए-दुख बयां करूं-
जो अब के सतगुरु मिले, सब दुख आंखों राेय
चरणों ऊपर सीस धरी, कहुं जो कहना होय

मेरे बाबल सतगुरु जब मुझे अपनी संगति में बिठाएंगे, चरणों में बिठायेंगे तो मैं पहले इस मद भरे सिर को उनके पावन चरण कमलों में रख दूंगा, सीस धर चरणों में मद का त्याग करूंगा, अंतर के संकल्प विकल्प एक कर, हाथ जोड़ दिल में प्रेम बिठा, आंखों से सतगुरु प्रेम की गंग बहाऊँगा अपने नयनों से। मैं सतगुरु के आगे सारे दुखों की बात कहूँगा, अपने सारे दिल का हाल सुनाऊँगा और उनसे तीनों संतापों के दुखों की निजातों की विनती भी करूंगा, क्योंकि मेरे किए से तो कुछ बनना नहीं है और आज तक बना भी नहीं किसी का, अगर बना है तो केवल सत्गुरु दया-मेहर एवं कृपा से ही बना है, फिर जो मुझे अपने सच्चे सतगुरु मालिक से पारब्रह्म में विलीन होने की मत मिलेगी, उसे मैं कमऊँगा।

ऐ मेरे साहिब! मेरी अर्ज़ कबूल कर, मुझे अपने साचे पथ पर बांह पकड़ कर ले चल, तू अपने करुणा बिरद से हम मैले बंदो पर अपनी पाक निगाह कर। हाथ जाेड़ दामन फैला तुझसे भीख मागंते हैं, अपनी चरण छावं बक्श। हमारा हाल तुझे पता है, हम भटक जाते हैं, तू सब दिलाें का जाननहार है, हमें अपनी प्रीत पनाह दे, तेरे ही चरणाें में हमारा जीवन, हमारी स्वांसे अर्पण हैं। ऐ मेरे बाबल हमें तू सुख दे या दुख दे, जाे तेरी मर्ज़ी है हमें बस उस रजा़ में रहने का बल बक्श, भाणा बक्श। ओ मेरे माधवे, जाे भी दे, सत्त सत्त स्वीकार है, केवल और कवेल बस यही इल्तिजा़ं है कि अपने श्रीचरणां का विछाेड़ा न दे मेरे माधवे, अपने श्रीचरणों की जुदाई न देना, मेरे माधव जी, मरे बाबल जी, अपने चरणाें से न करना जुदा, अपने चरणाें ये न करना जुदा। दया करो, मेहर करो, बक्शो, यही आस
विश्वास कि ‘‘बिसरो नाहीं मोहे प्यारे’’-3

।। दास ईश्वर तो मांगत है, मेरी संभार करो दयाले ।।
।। ओ हरे माधव पुरूखा पियारे, बिसरो नाहिं मोहि पियारे ।।

हरे माधव हरे माधव हरे माधव