|| हरे माधव दयाल की दया ||

।। पूरे गुरू ने बणत बणाई जित मिले नाम ध्याई।।
।। पूरा गुरू पूरा मिलया जब हमने नाम ध्याया।।
।। पूरे गुरू की सोभा निराली, पूरे गुरू ने रंग में रंगाया।।

हरिराया सतगुरु सच्चे पातशाह जी के रसीले चरण कमलों में बैठ, दर्शन दीदार करती हुई आप सारी संगतों को हरे माधव।

हमारी आतम के नूर, हरि सतगुरु के चरण कमलों में यही चाह, आस है, प्रेम कबूल हो, पूरा समर्पण हो। ऐसे सच्चे पुरनूर साहिब की बंदगी से, हर एक शिष्य का दिल, परम रोशनी के ज्ञान से भर जाए, दिल की गलियों में बेहद प्यार भरे, आतम, सच्चे सतगुरु के वचनों, सिमरन बंदगी में, हर पल भीगी रहे। हम खादिमों गुलामों का, सतगुरु वचनों में अमल इस कदर हो कि रोशनी से भरा दिन हो या अंधेरी रात, हमारा भरोसा और श्रद्धा सतगुरु के वचनों पर बना रहे, मेहर करें, दया करें।

आइए साध-संगतों! सत्संग के गहबी फरमान, वाणी वचनों ऊँचे संदेशों को एकचित्त हो श्रवण करें। सतगुरु प्यारे की जो अलस्ती खुमारी है, जिससे कि वे हम दुनियादारी जीवों को सचखण्ड, हरे माधव प्रभु जिओ के देश में जाने की सोझी बक्शते हैं, उसे कमाएं। पूरण सतगुरु एको परमेश्वरी सर्वव्यापक की बादशाहत के शाहूकार, जाननहार हैं, जिसकी महिमा ऊँच से ऊँची है।

असल में, भारी भजन सिमरन की कमाई वाले सच्चे पूरे सतगुरु को पहचानना, ऐसी सर्वोच्च सत्ता को समझना, हमारी तुच्छ सी बुद्धि, मन इन्द्रियों के स्तर के द्वारा सम्भव नहीं, ऐसी सच्ची सत्ता के खेलों को समझना बहुत ही मुश्किल या यूं कहें कि नामुमकिन है, क्योंकि वे अदृश्य ताकत, पारब्रह्म कुल मालिक के साथ, इकमत अभेदी हो चुके हैं, वे पारब्रह्म की करतारी कलाओं को धारणकर, उस साहिब-ए-साहिब के आदेश से, इन्सानी चोले को ओढ़कर आते हैं। हरिराया सतगुरु, इस धरा पर समस्त जीव पशु-पक्षी, किन्नर, गंधर्व एवं अधिकारी रूहों का उद्धार कर, उन्हें इस काबिल बना देते हैं कि वे अपने अमृत आनन्द और आतम मालिक में अभेदी हो सकें। जो इन्सां सतगुरु के मधुर वचनों, ऊँची समझाइशों पर अमल करते हैं, वे उन्हें अपनी भजन सिमरन की भारी कमाई के अकथ बल सामर्थ्य से, शबद नाम मंत्र के जरिए हरि साहिब में एकाकार कर देते हैं, भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु की महिमा, वडियाई भारी से भारी है, कभी-कभी वे अपनी आतम मौज से अधिकारी रूहों को, हजारों लाखों संगतों के बीच में बैठी रूहों को, अदृश्य रूप से नूर की निगाह के द्वारा, आतम को अमृतदायक बंदगी, अमृत रस की ताकत से नवाज देते हैं पर याद रखें संगतों, यह सब उनकी परम खुमार, परम मौज और जीव की पात्रता पर निर्भर है।

हरिराया सतगुरु सच्चा जानकार हाकिम है, वह जीवों को अपनी संगति छांव में बिठाकर अपने वचनों के द्वारा, अमृत शबद के द्वारा उनके विवेक को जगाता है। अमर जीवन के बाग का मालिक है। ऐ शिष्य! इस दुनिया में कच्चे गुरुओं की तादात भारी है, कितने ही लुभावने माया के तन्दों में, जीव की रूह फंसी रहती है परन्तु भजन सिमरन के भंडारी पुरुख जो मालिक प्रभु में अभेदी हैं, वे ही सार अर्थों में पूरे सतगुरु, हरिराया सतगुरु हैं, जो तीनों गुणों से परे और गहबी एकस में मिल चुके हैं। जब वे इस जगत में प्रगट होते हैं, तो ऐ शिष्य! तुम उनकी शरण संगति में बैठ, मालिक की बंदगी की चाह रखो, क्योंकि वह तुम्हारे अंदर उस ताकत को जगा देता है जिससे तुम जन्मों की भटकन से दूर हो, स्थिर शान्ति को पा सकोगे।

हम नामुराद जीवों के विचार तुच्छ हैं, मनबुद्धि की गणित से, हम हरिराया सतगुरु की समर्थता का जितना भी अनुमान लगाएं, वह पहुँच से परे ही परे है। ऐसी रूहानी, कद्दावर, ताकतवर हस्तियां, पूरे सतगुरु, खुद ही अपने राज़ भिन्न-भिन्न युक्तियों, मनोहरमय लीलाओं से खोलते हैं, इशारा एवं संकेत देते रहते हैं, अपने परम गहन रस से भरी वाणियों-वचनों द्वारा चहुवर्णो की रूहों का उद्धार करते हैं।

भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु, जीव आतम को शबद नाम बक्शकर, उस मंत्र नाम को किस तरह मथ-मथ कर जपना है, किस तरह ध्यान अभ्यास करना है, यह सारी युक्ति खोल-खोल कर समझाते हैं।

पूरे गुरू ने बणत बणाई जित मिले नाम ध्याई
पूरा गुरू पूरा मिलया जब हमने नाम ध्याया

पूरे गुरु सतगुरु अपनी भारी भजन कमाई से हमें भी भजन बल देते हैं जिससे कि हमारी रूह ऊपर उठे, सुखों-दुखों, तनाव, चिंताओं, खुशी और गमों वाले पल-पल बदलते द्वैत संसार से ऊपर अद्वैत अवस्था में पहुँचे।

इस वास्ते मराठी में फरमान आया, परमेश्वर सतगुरुंच्या नाम स्मरणात असीम शक्ति आहे, ही शक्ति सदैव शिष्याच्या भल्यासाठी कार्य करते, जे प्रिय भक्त पूर्ण विश्वास व प्रेमाने नित्य स्मरण करतात, त्यांचे कधीही अहित होऊत नाहीं।

साधसंगत जी! हम जीव अगर आँखे बंद करते हैं, तो अंधेरा ही अंधेरा दिखता है, अगर आँखे खोलते हैं, तो भ्रम, भय व अवज्ञा, अज्ञान का अंधेरा, चहुँओर छाया रहता है, इस कारण हमें सत्य, असत्य प्रतीत होता है और असत्य, सत्य प्रतीत होता है। कई बार हम सत्य को अंदर ही अंदर समझते, महसूस करते हैं लेकिन असत्य का जोर, असत्य का ज्ञान, हमारी सत्य की तस्वीर को छिपा देता है, दबा देता है, फिर घोर अज्ञान के अंधकार में पड़े रहने के कारण, हम जीव जैसा भी कर्म करते हैं, वह हथकड़ी की तरह रूह के बंधन का कारण बनता है।

पूरे सतगुरु कौन हैं? जो हमारे अज्ञान, अंधकार, भ्रम को तोड़े और ऐसी शक्ति हमें दे जिससे कि आँखें बंद हो तो रोशनी और खुली हो तो भी रोशनी दिखे, उस ऊँची हस्ती का नाम है, पूरा गुरु, हरिराया सतगुरु। हरिराया सतगुरु सत्य का प्रकाश देता है और माया के घने अंधेरे से निकाल, सार परम सत्य में मिला लेता है, फिर आत्मा, पूरे गुरु द्वारा बताई बंदगी, सिमरन कर जाग उठती है और मुक्त होने का फ़क्र हासिल करती है।

पूरे सतगुरु की दुनिया नूर से भरी है और जब शिष्य चरण कमलों से जुड़ता है, तो सतगुरु उसे अनन्त प्रकाशमय हरे माधव लोक अर्थात निजघर में जाने के लिये शौक बढ़वाता है, साधसंगत में भरोसा पुख्ता करवाता है, तब तुम ऐ शिष्य! गुरुमुख बनने के योग्य होते हो।

पूरे गुरू की सोभा निराली, पूरे गुरू ने रंग में रंगाया

परमार्थी जिज्ञासुओं को, पूरे सतगुरु का परमार्थी वातावरण, बखूबी रास आता है। एक बात यहाँ कहना उचित है कि पूरे सतगुरु की शरण में सच्ची भगतिवान रूहों के लिए आनंद खुशी का आलम है, सेवकों के लिये बड़ी आनंददायक बगिया है।

श्री रामचरित मानस में भी आया-

बंदउँ गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नर रूप हरि
महामोह तम पुंज, जासु बचन रबि कर निकर
जे गुरु चरन रेनु सिर धरहिं ते जनु सकल विभव बस करहि

गोस्वामी जी कहते हैं, प्यारे सतगुरुदेव के ज्योर्तिमय स्वरूप की मैं स्तुति करता हूँ, जो कि आनन्द प्रेम अति सुंदर रूचिकर सच्चे प्रेम के रस से भरपूर है, पूरण सतगुरु देव अमर जीवन प्रदान करने वाला, तीनों रोगों को नाश कर अमरता का प्रसाद देने वाला श्री स्वरूप है, इस स्वरूप की पुण्य स्वरूप चरण धुली शिव जी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति के सम है, यह उत्तम कल्याण महाआनन्द की जननी है।

सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने फरमाया, ऐ रब के अंश! पूरे सतगुरुदेव के पास आकर तुम सच्चा लाभ तभी पा सकते हो, जब तुम अंदर से खाली हो, जब तुम्हारा पात्र उनकी रहमत से भरने हेतु योग्य हो। ऐ शिष्य! यदि तुम समझते हो कि तुम समझदार हो, सयाने हो तो पूरे हरिराया सतगुरु के पास आने का कोई अर्थ नहीं, क्योंकि तुमने अभी तक, अपने को ही अपना गुरु बना लिया है, शिष्य बनने की राह पर तुम नहीं चले हो, इसलिए अभी तुम कुछ और तकलीफ झेलो, कुछ भ्रम व्यर्थ के संदेह कर-कर, अपने अंदर पीड़ा को, दर्द को संग्रह करो, तुम अपने मानसिक संताप और बढ़ाओ, ऐ मुरीद! जिस दिन तुम अपने आप से परेशान हो जाओ, द्रवित हो जाओ, हार जाओ, बस, उस दिन पूरन सतगुरु के पास, संगति में आ जाना, तब तुम्हें पूरे सतगुरु का सहारा अनुभव होगा, किस तरह वे तुझे अंतर हाथ देकर संभाल रहे हैं, तेरे दुख में तेरे साथ खड़े हैं, तुझे समझ आयेगा। फिर तुझे समझ आयेगा कि वास्तव में सारे संसार में एक सतगुरु देव के सिवा अपना तो कोई है ही नहीं, एक सतगुरु देव के सिवा सच्चा मीत हमदर्द हमराह तो कोई है ही नहीं।

प्यारों! सतगुरु शरण में कच्चे भाव लेकर आने से कोई सार नहीं, अब लोग पूरे सतगुरु के पास चले तो आते हैं लेकिन अंदर से तैयार नहीं होते, बाहर से सेवा, सत्संग से जुड़े रहते पर अंतरघट में प्रेम ही नहीं, श्रद्धा ही नहीं, फिर कहते हैं कि हम लम्बे समय से रहे, हमें क्या मिला? ऐसे जीव अपने ऊपर ही भरोसा करते हैं, कहते हैं कि जो सतगुरु कहेंगे, उसमें सोचेंगे। क्या सही है, क्या गलत, उससे वे चुनेंगे, जो जचेगा, वह मानेंगे, जो नहीं जचेगा, वह नहीं मानेंगे, इसका अर्थ साफ है, कि वे अपने मन की ही मान रहे हैं, ऐ मुरीद! कहाँ और कैसी है, उनमें तुम्हारी श्रद्धा, इसे प्रेम समर्पण मत कहना, ऐ शिष्य! तुमने तो कुछ भी छोड़ा ही नहीं, फिर बलिहार भाव कैसे आए? पूरन सतगुरु के पास आना है, सच्चा लाभ कमाना है तो तुम अपनी ‘मैं‘ को छोड़कर जाना, फिर तुम्हें यह भान होगा कि जो प्यारे सतगुरु कह रहे हैं, वही सही है, तब फिर निर्णय करने को, कहाँ कुछ बचा। तभी ऐ शिष्य! तुम उनकी संगति में भीगकर, सीखने, जगने की राह पर चल सकोगे और तभी तुम सच्चे सेवक सच्चे भगत हो पाओगे। हुजूर साहिबान जी रब्बी वाणी वचनों में फरमाते हैं-

जिन्ह निह लागा पूरे गुरु चरणों से, ते कहाँ अधूरे होत हैं
जिन्ह सुरति राची शब्द मांची, अलख प्रकाशा अन्तर उपजै
अनूप रुप स्वरुप, सदा एकह लिव लागह
दास ईश्वर दाते, दात सतगुरु पूरे की
जिन्ह कृपा हर भक्ति दीन्हो, सकल संताप हर लीन्हो

जिन्हें निह प्रेम लग गया हरिराया सतगुरु से, वे सच्चा लाभ पा लेते हैं। पूरे सतगुरु की संगति से जुड़ वे भी धीरे-धीरे पूर्णता को पा लेते हैं। उनका अंतर सदा प्रकाशमान होता है। ऐसे शिष्य, अपने मन में सदा निर्मलता बनाये रखने का प्रयास करते हैं, उसमें कोई विकार या मलीनता नहीं आने देते। वह सदा सर्त्कम करते हैं, अकर्ता एवं निष्काम भाव से।

पूरन हरिराया सतगुरु की वडियाई और गहरी करणी को सत्संग वाणी में यूं समझाया गया, जी आगे-

।। पूरा गुरू पूरी मुक्ति देवे, सांच नाद पूरे गुरू ने सुनाया।।
।। पूरे गुरू की दास ईश्वर धूली मांगे, पूरा गुरू ही अनहद सुनाया।।
।। वह हरे माधव आपै आप अनामा, पूरा गुरु आतम रूप जगाया।।

गुरु की प्यारी संगतों! आज की निर्मल रब्बी वाणी में पूरे गुरु भजन सिमरन की कमाई वाले पूरण सतगुरु पर बेहद बल दिया गया है। आखिर क्यों? क्योंकि सार खुलासा वाणी में आया कि पूरा गुरु ही पूरी मुक्ति बक्शता है-

पूरा गुरू पूरी मुक्ति देवे, सांच नाद पूरे गुरू ने सुनाया
पूरे गुरू की दास ईश्वर धूली मांगे, पूरा गुरू ही अनहद सुनाया
वह हरे माधव आपै आप अनामा, पूरा गुरु आतम रूप जगाया

पूरे सतगुरु, स्वभाव से स्नेहशील दयावान हैं, करूणावान है, उनका चित्त, विराट का चित्त है। उनका आतम मन और रोम-रोम निर्मल से निर्मल, अथाह अनन्त में रमा रहता है, ऐसी पावन संगति में आकर शिष्यों को अनंत अमृत ठंडक का अनुभव सहज प्राप्त होता है। पूरे गुरु सतगुरु का हृदय सुकुमार हृदय होता है, वे परिपूर्ण दया के पुन्ज, हर पल स्नेह करूणा का जल शिष्यों पर बरसाते हैं, वे राग-द्वैष, निन्दा-स्तुति, सुख-दुख, मित्र-शत्रु के द्वंद जालों में नहीं फंसते। पूरे सतगुरु शिष्यों के मन से अज्ञान-अभाव को हटाने के लिए, उन्हें जागृत करने के लिए स्वांग रचकर, निर्भय होकर करूणा लीलायें करते हैं, वे मन माया के कर्म बन्धनों से सर्वदा मुक्त होते हैं और हम सबके बीच में अजन्मे सुख का उपदेश खुल कर बांटते हैं। पूरे गुरु सतगुरु की रूहानी मुस्कान से हृदय का बंद रूहानी कमल खिल उठता है, ये नम्रता के संपूर्ण श्रंगार होते हैं।

योग वशिष्ट में कहा गया है कि प्रत्यक्ष सतगुरू को निराकार ब्रम्ह (सम दृष्टैता) जानो, वह समस्त मानव जाति को मार्ग दर्शन देने आता है, जीवात्माओं के उद्धार हेतु आता है। उसकी मौजूदगी में और भी अनेकानेक कार्य अपने आप सिद्ध हो जाते हैं।

हरिराया सतगुरु शिष्यों के अशुभ विचारों को भी शुभ मंगलमय बना देते हैं, अगर कोई उनसे बैर भी रखे तो करुणारूप सतगुरु भलाई के, करुणा के बहाने ढूंढते हैं, ऐसे न्यारे हरिराया सतगुरु अमृत रस के साहूकार होते हैं, उनकी वाणी में मिश्री सी मिठास होता है और वे स्नेह भरी नूरानी दृष्टि को बरसाने वाले, कमाल के मंगलकारी जादूगर होते हैं, इनका दिल मक्खन के समान बड़ा नरम दिल होता है। प्यारे सतगुरु उपकार पर उपकार करते हैं और चमत्कार आपे आप होने लगते हैं। इनकी शरण में आकर, इनकी जीवन महिमाओं, लीलाओं, रहमतों को सुनने में बड़ा न्यारापन निर्मलपन, ज्ञान सुख मिलता है, भगति का रस मिलता है। पूरण सतगुरुओं ने मन माया पर, दुई पर विजयश्री हासिल की होती है, वे बेशुमार जीवों को ऐसे दलदल से निकालने का न्यारापन, चमत्कारिक पूर्ण उद्म हर पल करते दिखते हैं। यह बात कहना मुनासिब होगा कि कमाई वाले पूरे गुरु मन मायावी विचारों के प्रतिपक्ष प्रतिद्वंदी होते हैं और जन आतम परोपकारी कार्य निर्भव भजन से करते हैं, इसीलिए पूरा गुरु सतगुरु ही हमें करना चाहिए, कच्चे गुरु से बात नहीं बनती।

पूरे सतगुरु अपने परम वचनों द्वारा रूह को आंतरिक चढ़ाई का बल देते हैं। सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के परम वचन कि-

खुदीअ जे अंदर डिसु बेखुदीअ जी मौज

जब कमाई वाला पूरा सतगुरु मिला, तो शिष्य रूहें अपने अंदर ही बेखुदी के अथाह का सुख माण पाती हैं, रूहें हरे माधव अचल सागर में डूब ही जाती है। ऐसा प्रेमी शिष्य हर किसी को बनना है, जो न्याज़वंद हो खुद को भूल जाता है। हमें भी प्रेमाभक्ति का घाव लगे, अपने मैं पन को पूरा खो दें, मिटा दें, सदा नीवां होकर सतगुरु श्रीचरणों में पुकार प्रार्थना करते रहें। हरिराया सतगुरु के वचनों को अमल में लाएं। संगतों! हरिराया सतगुरु, पारब्रह्म की तरह मौन चुप अडोल है, वह पारब्रह्म ही है, जो मुख से बोलता और अपने अनुभवी संदेश गहबी वाणी वचनों के द्वारा देता है। सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी अनमोल वचन फरमाते कि ऐ जगत के लोगों! सतगुरु पारब्रम्ह की तरह हर इक कुदरत रंग को बनाता है, उसकी कुदरत अमृत से भरी होती है। जिस तरह पारब्रम्ह मन माया के जालों में शिष्य को बिठा देता है, सतगुरु ऐसा पारब्रम्ह है जो शिष्यों को मन माया के जालों से निकाल लेता है। ऐसे सतगुरु की मौज अपनी, खुमार अपना है।

सच्चे पातशाह जी सुखकारी, मंगलकारी, परम रोशनी वाले माधव हरिराया के अंशी रूहों को वचन बल बक्श रहे हैं कि सच्चे सतगुरु की शरण कसकर पकड़ो, सच्चा सतगुरु अपनी परम खुमारी, अलस्ती खुमारी में भरपूर रहता है। पर जीव उनकी पहचान ही नहीं कर पाता। इस दुनी जहान में दम्भी कच्चे गुरुजनों की भारी संख्या है और जीव भटक-भटक कर भ्रम अज्ञान से यह मान बैठते हैं कि दुनिया जहान में सच्चा गुरु है ही नहीं। कई साधक शिष्य इस राह से हार कर अपनी दिशा बदल देते हैं और मान बैठते हैं कि सच्चा गुरु अब है ही नहीं। ऐ प्यारों! इस परमार्थी राह पर अंधुले गुरु से, कच्चे गुरु से अंदर का अज्ञान नहीं हटेगा, घट में करतार प्रगट नहीं होगा। अंधे गुरु पर मन-माया के ज़हर का नशा चढ़ा रहता है। अब पता कैसे आप लगाओगे कि पूरा गुरु सतगुरु कौन है? समझाते हैं, अगर शिष्य की आतम में लिव प्रीत लगन है तो वह पारब्रम्ह प्रभु फिर ऐसी रूहों को पूरे सतगुरु से मिला लेता है।

पूरे सतगुरु, भारी भजन सिमरन का भंडारी हैं, जो अकह प्रभु के हुकुम से धरा पर आकर तमाम जनमानस पर अपार रहमत कर, उस ऊँचे एको हुकुम नामे का बल प्रदान कर जीवों को कुल-ए-हकीकत में मिलाते हैं। जो जीव पूर्ण सतगुरु की शरण में अमृत नाम पाकर, साधना कर, सेवा में निष्काम भाव में रह, मालिक के भाणे को सत-सत कर बंदगी में जुट जाते हैं, फिर वे उसी एको कुल-ए-हकीकत में मिल जाते हैं।

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-
जो सेवकु सहि बहि संकोची, निज हित चहइ तासु मति पोची।
सेवक हित साहिब सेवकाई, करै सकल सुखलोभ बिहाई।
उतरु देइ सुनि स्वामी रजाई, सो सेवकु लखि लाज लजाई।
अब कृपाल मोहि सो मत भावा, सकुच स्वामी मन जाँइ न पावा।

पूरे सतगुरु की राह में हर एक सेवक को किस तरह रहना है, इस विषय में संतजी फरमा रहे हैं कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की इच्छा, चाह न रख, निःस्वार्थ प्रेम भाव से सेवक सेवा करे, यह परमार्थ रूहानियत का मूल है, सच्ची सेवा तो अपने प्यारे गुरुदेव की आज्ञा पालन करके ही होती है।

वी गेट द प्रिशियस अपॉरच्यूनिटी औफ द ट्रू मास्टर्स सर्विस बाय द मर्सी एंड ग्रेस ऑफ हरे माधव लॉर्ड। ही बैलेंसेस अवर कर्मास बाय मेकिंग अस सर्व फिजिकली एंड ब्लैसेस अवर माइन्ड एंड सोल विद द सेवा और मेडिटेटिंग द होली वर्ड (नाम) एंड मर्जेस विद इन हिमसेल्फ।

सूर्य का सेवन पीठ से, आग का सेवन सामने से करने में अत्यंत हित होता है, सच्चे सेवक को अपने स्वामी की आज्ञा का सेवन, छल, कपट एवं उल्टी निगाह को त्याग कर सेवा में रतना चाहिए और इसी में उसकी भलाई है, सेवक सेवा में रत कर सुख-दुख, लाभ-हानि, यश-अपयश, निन्दा की चिन्ता ना कर, सेवा में रंगकर टिका रहता है। यह याद रखना! जो सेवक अपने सतगुरु मालिक को संकोच में डालकर, खुद का भला लाभ या हित चाहता है, उसे संत तुलसीदास जी ने नीच बुद्धि वाला कहा और आगे समझाया, जो अपने प्यारे मालिक की आज्ञा सुन उत्तर दे एवं अपनी तुच्छ मलीन कुरूप अक्ल से कोई दूसरी बात कहे, तो ऐसे सेवक को देख लज्जा भी लजा जाती है। प्यारा गुरुदेव अपनी मौज खुशी से जो हुकुम दे, आज्ञा दे, उसे सिर-माथे रख पालन करना चाहिए, इसी में हमारा हित कल्याण है।

उतरु देइ सुनि स्वामी रजाई, सो सेवकु लखि लाज लजाई।
सेवक हित साहिब सेवकाई, करै सकल सुखलोभ बिहाई।

गुरुवाणी में भी हिदायत दी गई-

सेवा थोड़ी मांगन बहुता

सेवा कर आप सतगुरु प्रभु पर कोई मेहरबानी नहीं करते, सेवा आपके औखे कर्म काटकर ऊँचा फल देती है, कण की सेवा का फल मण मिलता है, यही इस राह में खुली किताब है।

सच्ची निष्काम शरण का आधार प्रेम ही है और प्रेम के नशे में डूबकर ही सच्चा प्रेमी, अपने प्रियतम में खुद को खो देता है, इस राह में सच्चे सेवक की एक मात्र इच्छा प्यारे सतगुरु को प्रसन्न करने की होती है और वह उनकी रज़ा भाणें में रहता है, लेकिन सबसे बड़ी बात, कि इस राह में चतुराई, छल, छिद्र, कपट और काग वाली दृष्टि से उसे पाया नहीं जा सकता, क्योंकि-

सेवक स्वामी एक मति, जो मति में मति मिलि जाय।
चतुराई रीझै नहीं, रीझै मन के भाय।

सतगुरु सांई नारायणशाह साहिब जी भी प्यारे वचनों से सेवा आज्ञा का हमें बल दे सच्ची सेवा का भेद दे रहे हैं-

सेवा करो सेवक बनके, स्वामी बनके नाहीं,
भक्ति करो भगत बनके, ठगत बनके नाहीं,
कहे नारायणशाह सुनों जग वालों,
जो माने यह ज्ञाना, सो दरगह परवाना।

जब-जब प्रभु मुल्क से पधारे पूरे सतगुरु, भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु, सेवा, सत्संग, सिमरन, ध्यान व अथाह प्रेम का भण्डार खोलकर जीवों को चिताते हैं, तब मनमुख, निन्दक, बैरी, कपटी या कच्चे भगत, जी भरकर मैल, कपट का काम करते, क्योंकि काल शैतान उन सबका मालिक होता है, आदि काल से यह होका जिक्र आता है, मोहम्मद साहिब जी श्री गुरु नानकदेव साहिब जी श्री गुरु अर्जुनदेव साहिब जी महावीर स्वामी जी ईसा मसीह जी अनहल रूप सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी एवं सदा ही ऐसे पूर्ण दयालुओं ने जब वक्त पर अपना भेद जाहिर किया, तब ऐसे मनमुखों की जमातें भी बड़ीं। गुरुवाणी में भी वचन आया-

संता नाल वैर कमावन्दे, दुष्टां नाल मोह प्यार।
मुँह काले तिनां निन्दका, नरके घोर पवन।

हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के पावन सत्संग दीवान में एक बंदा, जो सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के वक्त का था, अक्सर आता रहता। वह निमाणा दीन बनकर, कुल परिवार के साथ श्रीचरणों में अमृत नामदान, साध संगतों की सेवा का गुलाल मांगने, सच्ची सुमति, श्रीचरणों का अटूट प्रेम पाने आता। हर बार यह विनती फरियाद करता रहता, ‘‘हे सच्चे पातशाह जी! मेरे अवगुण बहुत भारी है, मैं बड़ा अवगुण धारी, नमक खुवारी हूँ।’’ एक दिन, हाजिरां हुजूर साहिबान जी ने उस बंदे को परिवार सहित बुलाकर कहा, ‘‘प्यारे! बहुत समय से आ रहे हो, भारी दुख हैं।’’ वह बंदा न्याज़वंद हो हथ जोड़ विनती करने लगा, ‘‘बाबाजी! आपजी तो सब घट-पट के जाननहार हैं, मुझे बड़ी ग्लानि होती है कि मैं किस मुख से विनती करूँ। सच्चे पातशाह जी! मैं सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के चरणों की सेवा में कई साल रहा, सेवा नित नियम से करता, साहिब जी की दया, प्यार, दुलार मेरे ऊपर बड़ा बना रहता लेकिन सेवा करते-करते मेरे अंदर अहंकार आता गया, अभाव और निन्दा का रंग भी चढ़ गया, क्योंकि मैंने बाहर जाकर मनमुखों व निन्दकों की संगति कर ली थी, जिससे मुझमें गुरु साहिबानों के लिए वैर निन्दा का भाव चढ़ गया, उलट विचारों ने मेरे मन को मलीन कर दिया और विरोध आवरण का पर्दा चढ़ गया। उनकी ऐसी आँख पाकर, मैं भी उन्हीं आँख से सब कुछ देखता, क्योंकि मैं काग हो चुका था, हंस से।’’

‘‘बाबाजी! सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने कई बार प्यार, दुलार, फटकार से बहुत बार समझाया कि मेरे ऊपर काल का रंग चढ़ रहा है, मेरी आँखें, मेरी चेतना काल के हवाले हो रही है, और चिताया कि मैं अहंकार, शंकाओं, मलीनताओं को धो लूं लेकिन मैं मूढ़ उलट बातें करने लगा। तब साहिबान जी ने फटकार कर कहा, निकल जाओ शरण से, आज्ञा में नहीं चल रहे हो। मैं मदफिरा यही सोचने लगा कि मैं इतने साल सतगुरु शरण में रहा, अब लोग बाहर मुझे कुछ तो सच्चा मानते, समाज नगर में मैं गुरु साहिबानों, गुरुघर के लिए बड़े कुलीन, मलीन, निन्दा के बोल कहता रहता, मेरा यह नियम रोज चलता रहता और मैंने ऐसे नाते, रिश्तेदार, मित्र भी इकट्ठे कर लिए थे, जो मेरे साथ मिलकर निन्दा करते।

सतगुरु सांई नारायणशाह साहिब जी फिर भी दया कर सेवादार के हाथों कणाह प्रसाद, रोटी हमारे पास भेजते और सेवक द्वारा यह भी वचन कहलवाते, कि सतगुरु के वचनों रम्जों मेहर को समझो, सम्भल कर चलो, करड़ा हिसाब देना होगा पर हम मनमुख लोग प्रसाद लेकर हमेशा मदिरा पी लेते। दयालु बाबाजी बार-बार मेहर करते, साफ निर्मल होकर शरण में रहने को कहते, लेकिन हम पर अहंकार, निन्दा, कुबुद्धि का रंग भारी चढ़ चुका था, जब वर्सी पर्व होता, गुरु साहिबानों की मौज संगतों पर बरसती तब हम मनमुख निन्दक सब मिलकर जी भर कर निंदा करते, बाहर से पत्थर फेंकते। मेरा एक ज्ञानी मित्र जो हमारी तरह ही उलट रंग वाला था, हमारे साथ अक्सर जुड़ा रहता, वह पंजाब के रहने वाले संतों का सेवक था लेकिन काल का मुरीद बन गया था, जब वह अपने गुरु के पास पहुँचा और कहने लगा, मेरा सिमरन नहीं हो रहा है, पहले होता था, अब मेरा कुल कुटुम्ब भी दुखमय बना है, तो उन संतजी ने देखकर कहा, ‘‘जिन पूर्ण संतों के बैरी निन्दक कृतघ्न होकर तुम लोग खेल रचते हो, उससे तुम्हारे सिमरन भजन का पूरा प्रताप तो उड़ गया है और कुल के कर्म भी भारी हो गए हैं, वे हमसे भी बड़ी कमाई वाले पूर्ण सतगुरु हैं एवं उनके भी पूर्ण सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी बड़े मौज राज के स्वांग रचते हैं, उनकी ज्योत अब सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के रूप में भेद दे रहे हैं, उनकी मौज को समझना कठिन है, उनकी शरण में नीवां होकर जाओ और अपने गुनाह बक्शाओ। वे जैसा कहें, वही करो।’’ मेरा वह मित्र आज्ञानुसार सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी की शरण में आया और अपने गुनाहों की माफी मांगी, अपने गुनाहों की तौबां की। जब दयावान सतगुरु जी ने उसे बक्शकर शरण में रखा तो उसका सिमरन ध्यान भी रचने लगा।’’

खोटे कर्मा ने विछोडि़या तेरे चरणां तों,
किरपा करके मेलो बाबाजी।
असीं कृत कर्म दें बिछड़े, किरपा करके मेलो राम।

संगतां! ऐ मुरीद! पूरे सतगुरु चरणों में अनन्त अथाह की दौलत भरी है और वे तुम्हें अपने भंडार से भरपूर करना चाहते हैं लेकिन तुम अपनी मनमति के कारण उनकी मौज को नहीं जान पाते, इसीलिए खाली रह जाते हो-

साहिब के दरबार में, कमी काहू की नाहीं।
बंदा मौज न पावही, चूक चाकरी माहिं।
द्वार धनी में पड़ा रहे, धक्का धनी का खाय।
कबहूँ धनी निवाजहीं, जो दर छोड़ न जाय।

सच्चे प्रेमी तो पूरे गुरुदेव की चरण संगत में पड़े रहते हैं, मुर्शिद चाहे, कितनी भी रूहानी ताड़ फटकार दें, फिर भी वे टिके रहते हैं। सतगुरु जी सच्चे आत्मिक नाम के धनी हैं, वे आज नहीं तो कल हमारे गुनाहों को बक्श, हमें शरण में रख लेंगे।

वह बंदा आगे कहने लगा, ‘‘बाबाजी! गुरु साहिबानों की अपार दया करुणा को देखकर भी मैं न चेता और मनमुखों का संग लिए हुए मदख्वारी बना रहा। मेरा एक मित्र जो गुरु चरणों का प्रेमी भगत था, वह भी हर बार समझाता, कि भाई! शहंशाहों की मौज को मजाक मत समझो, तुम अपनी उलट मति के कारण, मेहर को कहर बना रहे हो, वो बक्शंद हैं, अपने गुनाह बक्शालो। लेकिन हम मनमुख लोग उसे खूब बुरा भला कहते, कि तुम्हें बाबाजी ने सिखाकर भेजा है। वह बंदा दुखी होकर सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के पास गया और सारी बात बताई, तब बाबाजी ने ऐसे वचन खुदाई मौज में कहे-

कदुर वारा घट थिया, खुटा खरीदार।
जेके लोहु कुटिन लोहार, तिनखे कहड़ो कदुर सोन जो।

आपजी सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी के ऐसे वचन भी कहते, कि बाबा!
ढोंगी दूना नावै माथा

बेटा! ये सब ऊपर-ऊपर से जुड़े हैं, अंदर से न कोई तार जुड़ी है, ना कोई सोच विचार सही है और यह हमें घर का पीर चुल्ह का मारग समझ रहे हैं। यहाँ के लोग हमारी मेहर, रहमत को कम समझ पाए हैं, बाहर के लोग मौज मेहर बरकत पाके जाऐंगे। यह वचन जब वहाँ बैठे एक बुर्जुग बंदे ने सुने, तो उन्होंने विनती की, हे साहिब जी! ऐसे वचन तो न कहें, बक्शें बाबाजी बक्शें, हम भवसागर में डूब रहे बंदों पर आप ही मेहर का हाथ रखें। आपजी ने शांत स्वर में कहा, प्यारों! अभी कर्म गत बहुत भारी है, आप सभी अभी कर्म गत का सौदा दे रहे हैं, लेकिन आज हम जो गुप्त राजदारी में जो वचन कह रहे हैं, वह मौज की बादशाहत आगे खुलेगी, आगे चलकर भक्ति ज्ञान, ब्रह्मज्ञान, अमृत नाम के सारे भेद खुलेंगे, उस वक्त नगर के लोगों को भी लाभ मिलेगा और जो कोई नीवां, न्याज़वंद होके, शरण में अहम को त्याग कर आएगा, वह शरण में टिकेगा, जो बंदे नाम सेवा में जुट जाऐंगे, वह प्रभु दरगाह में परवान होंगे, जब हम देह छोड़ेंगे, तब हमारे असल उपदेश अलूप होंगे, कच्चे मनमुख निन्दकों की जमातें बढ़ेंगी, लेकिन यह हमारा कौल है, कि यह सब कुछ समय तक रहेगा, कच्चे भगत, थोथे ज्ञानी, खूब भ्रम गढ़ की कथनी बातें कथेंगे, किन्तु-
सचु कायम थींदो

20-25 सालों के बाद सच का सौदा खुलकर आएगा, तब यह गुप्त राज़दारी वाले वचन स्वयं तुम भी चरितार्थ होते देखोगे। पर जो उस वक्त भी कुराही, वैरी, निन्दक बनेंगे, तो उनका दीन, ईमान दोनों जाऐंगे।

जो कोई निन्दह साधु को, संकट आवै सोई।
नरक माहिं जन्मै मरै, मुक्ति न कबहु होई।
सतगुरु शबद उलंघ कै, जो सेवक कहिं जाए।
जहाँ जाए तहाँ काल है, कह कबीर समझाए।

सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने फरमाया, जिसने हमारे वचनों में प्रेम, निह बिठाया, वे उस समय आनन्दित और खुशहाल होंगे, उनकी रूह इस कदर खुशहाल होगी, जिस तरह भगत सिमरन-ध्यान में भगवन्त को पाता है।

वह बंदा अश्रुधारा बहाए, हाजि़रां हुज़ूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के पावन श्री चरणों में अपने गुनाहों की माफी मांगे जा रहा और याचना कर रहा, हे गरीबनवाज! मैं आज सतगुरु पातशाहियों के वही वचन, कौल चरितार्थ होते देख रहा हूँ और वही अनूठा अमिट प्रसाद चहुँ वर्णों, सभी जीवों को मिल रहा है, मेरी करणी का मुझे करड़ा हिसाब मिला। सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी अक्सर कहते थे-

गुरु से कपट, मित्र से चोरी, निर्धन या कोढ़ी
एवं
गुरुअ जा ड्रोही, अंधा छोन थींदा।
धूड़ वरी तिनजा धन्धा छोन थींदा।

हे करूणा निधान! मुझे अपने धन वैभव पर बहुत गुमान था, जब से मैंने शरण छोड़ी, सब खत्म हो गया, मेरा जीवन, मेरा कुल कुटुम्ब ऐसा हो गया, जैसे बंजर भूमि में कभी हरियाली हो ही नहीं सकती, मेरे कुल में कई सदस्यों को कोढ़ की बीमारी लग गई, हमें न घर में चैन था, न अंतर में खुशी, हमारा जीवन अत्यंत दुखमय हो गया। हे बक्शणहार बाबाजी! हमें बक्शें। बक्शो मेरे सतगुरु बाबाजी। हम भूले गंवार जीवों पर दया मेहर करें बाबाजी।

हाजि़रां हुज़ूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी ने उस भूले बंदे से ये वचन कहे, प्यारे! जिस तरह पिता अपने सारे बच्चों पर समान नज़र रखता है, उसी तरह पूर्ण संत सतगुरु सभी पर समभाव प्रेम-प्यार से निगाह रखते हैं, पूरा सतगुरु मुरीद (शिष्य) के बुरे गंदले कर्मों की आदतों को छुड़ाने का एक मात्र लक्ष्य रखता है, जिससे आत्मा के अंदर सोया प्रकाश चमक पड़े, पूरा सतगुरु तो हमारे रहन-सहन स्थिति-परिस्थिति को देख, हमें सही राह बताते हैं, वे हमारी मनमति गल्तियों को पहले प्रेम-प्यार से समझाते हैं, इस राह पर चलने का मार्ग बताते हैं, जब वह तरीका असफल होता है, तो पूरा गुरु कुछ सख्ती से, कड़ाई से, डांट-फटकार से हमें संवारना चाहता है, जब इससे भी काम नहीं बनता, तो और सख्ती कायदे से हमें गंदले मार्ग से उठाने का खेल रचते हैं।

जैसे धोबी केवल कपड़े की मैल को ही देखता है, उसकी निगाह केवल कपड़े पर टिकी रहती है, उसी प्रकार पूरा सतगुरु, शिष्य के अवगुणों को मैल की भांति देखता है, धोबी कपड़े की मैल को चाहे साबुन लगा, मुलायम हाथों से साफ करे या पत्थर के टुकड़े पर पीटकर, उसी प्रकार सतगुरु भी शिष्य को सुधारता है, चाहे प्रेम से या सख्ती करके। उनका उद्देश्य एक ही रहता है, शिष्य के मन को पवित्र निर्मल करना। सतगुरु उस समय तक चैन से नहीं रहता, जब तक आत्मा को हरे माधव निर्वाणी मुल्क तक नहीं पहुँचा देता, अगर शिष्य सतगुरु को छोड़ दे या विरुद्ध हो जाए, निन्दा करे या उनको तकलीफ देने की इच्छा रखता हो, फिर भी पूरन सतगुरु उसकी सम्भाल करता है और उसे निर्मल पवित्र करना चाहता है, वे शिष्य से उसी तरह प्रेम करते हुए उसे उत्तम सांचे में ढालने की चाह रखते हैं, जैसे कि कुम्हार-

काँचे भांडे यूं रहैं, ज्यों कुम्हार को नेह।
भीतर सूं रच्छा करै, बाहर चोटै देह।
सेवक सेवा में रहे, अनत कहूँ नहिं जाए।
दुख सुख सिर ऊपर सहै, कह कबीर समझाए।

वह बंदा ज़ार-ज़ार रोते हुए अपने गुनाहों की माफी मांगने लगा और पुकार कर उठा, सच्चे पातशाह!

जे मैं तेरे चरणों में हूँ, तो दया तुम्हारी है।
जे मैं तुझसे दूर हूँ, तो रजा तुम्हारी है।
हे मेरे मालिकां, जैसा भी हूँ, भला बुरा तेरा ही हूँ।
जे मैं सेवा से जुड़ा रहूँ तो, प्रेम-प्रीत मेरी तुम्हारी है,
प्रेम-प्रीत मेरी तुम्हारी है।

हाजि़रां हुज़ूर मेहरबान सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी ने उनका दासा याचक भाव देख सभी को अमृत नाम की दात बक्श कर, सेवा बक्शी एवं कुल कुटुम्ब को दया-मेहर कर पावन चरण कमलों की छांव बक्शी।

हुजूर सतगुरु जी के एक अनन्य बुर्जुग सेवक ने कहा कि मैं कई सेवकों रिश्तेदारों के संग बैठ, यही महिमा कहता हूँ, कि देखो, शहंशाह सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी, शहंशाह सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने गहबी राज़ अनेक लीलाओं के द्वारा जीवों को देने चाहे, लेकिन उस वक्त हम जीव मन माया के सैलाब में बहते रहे, हमें कहाँ पता था। आज हाजिरां हुज़ूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी, भजन सिमरन के भारी प्रताप से, उन रूपों को धारण कर सारे भेद, बारीक से बारीक सूक्ष्म से सूक्ष्म वचन स्वयं खोलकर प्रगट कर रहे हैं, वरन् हम जीव तो सुत्ते के सुत्ते ही पड़े रहते। आज जब हम हाजि़रां हुज़ूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के चरण कमलों में बैठते हैं, तो हमारी आँखों से पानी बह उठता है, रोम-रोम में नशा सा भर जाता है, बस यही भाव उमड़ते हैं, अब चरण कमलों को पकड़ेंगे, कसके और अपने सिर को उनके चरण कमलों पर धरकर, मन की सारी वेदना आंसुओ से कह देंगे। बस यही भाव रहता है कि-

निभजी अचे पछाडि़य ताईं, निभजी अचे पछाडि़य ताईं

याने मेरे अंतकाल तक तेरा आसरा, तेरी शरण कभी न छूटे। हम जीव मन माया में घिरे हैं, हमारी बुद्धि हमारा चित्त, हमारे विचार, मोह-माया के दलदल में फंसे रहते हैं, फिर हम, हरिराया सतगुरु की पहचान कर ही कहाँ सकेंगे, इसलिए वे स्वयं अपनी खबर पहचान देते हैं, परख देते हैं और शिष्यों को आँख खोलने के लिए भी चिताते हैं, दिल में प्यार बंदगी बिठाने को कहते हैं, सेवा, साधसंगत, नाम सिमरन ध्यान से जुड़ने को कहते हैं।

सो प्यारों! पूरा सतगुरु मेहरबान ढकपाल सदा दयालु, कृपालु है लेकिन पात्र हमें बनना है, सुपात्र हमें बनना है और यही फरियाद करनी है, हे मेरे प्रभु पुरुख साहिब! हम पर दया-मेहर करें, हमें पावन संगति की ओट बक्शें और काग बगुलों की संगति से हमें बचा लें।

आज के सत्संग के परम प्यारे वचन हमें अंदरूनी रोशनी से जुड़ने की ओर इशारा, प्यारे मालिकां जी वचन मेहर के बक्श रहे हैं। पूरे गुरु सतगुरु की ओट में रह, सतगुरु नाम का सिमरन निशदिन करें, गुरु शरण सत्संगत में नित नियम रखें और सेवा की महत्वता महानता में घुलमिल जाऐं, प्यारे सतगुरु के परम प्यारे वचनों के अंदर सुमति का भण्डार छिपा है, मन, वचन, कर्म से प्रेमी भवरें बनने की ओर अपना रुख करें।

।। पूरे गुरू की दास ईश्वर धूली मांगे, पूरा गुरू ही अनहद सुनाया।।
।। वह हरे माधव आपै आप अनामा, पूरा गुरु आतम रूप जगाया।।

हरे माधव      हरे माधव      हरे माधव