।। हरे माधव दयाल की दया ।।
वाणी संत सतगुरु सांई ईश्वरशाह साहिब जी
।। गुरु मिलो मोहि बहु विवेकी, गुरु मिलो मोहि परम सनेही ।।
।। गुरु मेरी सुरति शबद राची, गुरु चरनन प्रीत लगाई।।
।। दास ईश्वर कहे अजब है यह प्रीत सुहानी ।।
।। गुरु प्रीत कर यह जाते, मनमुख न समझ पाए हमरी गति।।
  प्यारे सत्संग प्रेमियों! यह अमृत ऊँची वाणी हाज़िरा हुजू़र संत सतगुरु सांई ईश्वरशाह साहिब जी द्वारा फरमाई अमृतमयी रब्बी वाणी है। आपजी तमाम कुलमानस को सीख दे रहे हैं, कि वक्त का पूरा सतगुरु हमारे आतम विवेक को जगाने के लिए मीठा हुकुमनामा, संदेश अपनी वाणियों के जरिए देता हैं। सर्व धर्मों की प्रथमता में पूरे सतगुरु की महिमा प्रभु से भी अधिक ऊँची कथी गई है। आखिर क्यों? महिमा पूरे सतगुरु की गाई गई क्योंकि प्यारे सत्संग प्रेमियों ! गहन अँधेरे की अहमीयत अपनी जगह है और नूर रोशनी को अपनी जगह, दोनों एक के पीछे एक चलते हैं, जहां रोशनी आई, वहाँ पहले अंधेरा रहा होगा और जहाँ अंधेरा है, वहाँ रोशनी का आना तय है, दोनों के मिजाज लज्जत में अंतर है, हाँ जरूर अंतर है। अंधेरा तो चुपके से दुम दबाके आकर कोने में सिमट बैठ जाता है, याद रखना ऐ प्यारों! रोशनी न तो छिपकर आती है और ना ही छिपाई, दबाई जा सकती है, अब अंधेरे के पुजारी तो नीची जगह ढूंढते फिरते हैं, क्योंकि अंधेरा थोड़ा सा नहीं आ सकता, उसे भरपूर आना होता है,  अमावस की तरह, पर प्यारों! रोशनी थोड़ी सी भी आ जाए, तो चारों ओर नूर का प्रकाश छा जाता है, अंधेरा कितना भी गहन भरपूर क्यों न हो, उसे भगाना पड़ता है और जब उजाला फैलता है, तो वह अंधेरा रत्ती भर भी नहीं रहता, चाहे वह कितना भी गहन, भरपूर क्यों न हो, प्रकाश की एक किरण ही काफी है, उसे दूर करने के लिए । सो प्यारों। इंसान के अंदर जो जन्मों-जन्मों, काले करम खेलों की अमावस है, वह तो केवल वक्त के प्रगट सतगुरु के नूर-ऐ-एकाश से उजली हो सकती है, पूरण सतगुरु नाम की ज्योत से घट अंतर दीपक जलता है, जिससे कि हमारे मन अंदर का जो भ्रम अंधेरा है, वह दूर हो जाता है, जिससे कि शिष्य नित्य, हर क्षण, रोज ही नई दीपावली मनाता है, इसीलिए वेदों कतेबों में पूरन संत सतगुरु की महिमा गाई गई ।
संत कबीर जी भी खोल कर समझा रहे हैं-
गुरु गुरु में भेद हैं , गुरु गुरु में भाव।
सोई गुरु नित बंदीए, जो शबद बतावे दाव ।
कबीर गूंगा हुआ बावरा, बहरा हुआ कान।
पापहेतु पिंगुल भइया, मारिआ सतिगुरु बान।
कबीर सतगुरु सूरमे, बाहिया बानु जु एकु।
लागत ही भुई गिरी, परिआ परा कलेजे छेदु ।
पूरण विवेकी सतगुरु ऐसी विवेक की नसीहत देता है, कि यह मालिक के द्वारा बक्शा ऊँचा इंसानी जन्म, प्रभु की ओर जाने का प्यारा अवसर है।
         वह साहिब मालिक तो हर एक घट-पट में बैठा है, वह गुप्त है, पर हमें यह समझ में नहीं आ रहा, वह प्रभु हरि साहिब हमारे अंदर बैठा है, जैसे दूध में घी, फूलों में महक, चाँद में चाँदनी समाई है और हम गफलत में फंसे अविवेक बंदे उस हरिराया प्यारल को बाहर ढूंढ रहे हैं। जीव को यह सोझी नहीं है, कि जिसकी वह अंश है, वह अखंड रोशनी का विराट दीपक है, अविनाशी उजाले का मालिक है, अजूनी अजर रोशनी का भण्डारी, पूरण सतगुरू है, क्योंकि वह अल्लाह अजूनी दाता अंदर घट में है, हमारे घट का दीपक बुझा हुआ है, इस माया ने हमें बड़ी बुरी तरह भरमाया हुआ है, तभी सतगुरु बाबाजी वाणी के जरिए समझा रहे हैं कि छुटकारा हो सकता है, क्योंकि-
गुरु मिलो मोहि बहु विवेकी, गुरु मिलो मोहि परम सनेही
      जब ऊँचे भाग्य हों तो पूरन सतगुरु की चरण-शरण मिलती है, खुदाई विवेक वाला पूरण सतगुरु ही रूहों को उस अचरज चैतन्य की दुनिया के राज खुल-खुल कर समझाता, और शौक बढ़ाता है, क्योंकि वह सच्चे अमृत नाम का शाह दाता, अणखुट भण्डार का साहूकार होता है। पूरा पूरन सतगुरु ताप, पाप, संतापों का नाश करने वाला है।  यह सत्य है, कि वह कर्मों के लिखे लेखों को बदलने का सामर्थ्य रखता है, उस पर किसी का जोर नहीं, वह खुदाई विवेक वाला ऐसा धोबी है, कि आत्मा के ऊपर अविवेकी बेहोशी के दाग को धोकर, कभी-कभी रुहानी फटकार मार देकर भी, आत्मा को निर्मल बनाने का मीठा वचन सुनाता है, यह उसे स्टीमर जहाज की तरह है, जो जीवों को मनमाया के तटों से ऊपर उठा, अपनी संगति शरण में रख, हरे माधव सचखण्ड की ओर ले जाता है।
 सतगुरु शहंशाह बाबाजी बड़े खुले रूहानी अंदाज में, बड़े प्यार करूणा, दया के रुहानी हाकीम की तरह, नब्ज को पकड़ हमें उठाते हैं और समझाते भी हैं, प्यारों!  जिस तरह करम बात के दो रूप हैं, संयमी और असंयमी, उसी प्रकार चेतना के भी दो रूप हैं, एक मूर्छितता यानी सोई हुई और एक अमूर्छितता यानि जगी हुई । इंसान अपने भीतर सोया हुआ है, प्रमाद में, अब वह सोया कैसे, वह गफलत में, पहुँचा कैसे?  बाबाजी फरमाते हैं कि जब जीव काल मन माया अहम में पड़ विषय विकारों में फंस जाता है, भले ही यह प्रतीत हो कि वह जगा है पर उसकी रूहानी चेतना मूर्छित होती है, अब प्रश्न आता है, कि अंदर की चेतना किस तरह जगे? जब हम वक्त के पूर्ण पुरुख द्वारा बक्शे नाम का सिमरन ध्यान करते हैं तभी हमारी सोई हुई चेतना जागृत होती है यानी मूर्छित चेतना, अमूर्छित होती है। आपजी उसे ही उत्तम एको विवेकी कहते हैं। आपजी फरमाते हैं उठना- बैठना विवेक से, चलना-फिरना विवेक से, सोना भी विवेक से और खाते-पीते समय भी हमारी चेतना, जाग्रत हो, जगी हुई हो, बेहोशी, अविवेकी निद्रा में ना हो, तभी हम पूर्ण संत पूरुख के अमरा प्रसाद के अधिकारी होते हैं, इसीलिए संत पुरुख दयाल सदा फरमाते हैं, अमृत नाम से आठों पहर जुड़ी रहो, ताकि चेतना सोये नहीं, पर इंसान इस कदर सोया हुआ है, जैसे कि पास पड़ोस में हम अक्सर सुनते होंगे, कि कुछ जन लोग जब सोते हैं, तो नींद में ही उठकर चलते हैं, खाते हैं, घर के खिड़की दरवाजे तोड़ देते हैं और भी कई अजीबो गरीब हरकतें करते हैं, फिर आकर सो जाते हैं और वही लोग सुबह उठकर हैरान होते हैं, कि ये सब नुकसान कौन कर रहा है, ऐ प्यारों, यह नींद में चलना, एक बीमारी है, अगर उनसे सुबह पूछोगे, तो वे कह देंगे, मुझे क्या पता, मैं तो सो रहा था, किसी और ने यह सब किया होगा।
      जब पूर्ण जाग्रत संतों ने अपनी रुहानी दृष्टि से देखा, तो यही पाया, कि सभी सोय़े पड़े हैं, सभी का विवेक दबा हुआ है, गफलत प्रमाद, मनमत निद्रा में सभी गलतान हैं, तभी तो संतमत में कहा गया-
बहुत जन्म बिछड़े थे माधव, इह जन्म तुम्हारे लेखे
        लम्बे जीवन काल चिरंकाल से जन्म पे जन्म हुए, पर हम सोए रहे, जब प्रत्यक्ष सतगुरु की चरण लौ उनकी रूहानी औषधि का बूटा पिया, तो उस निद्रा, अविवेकी प्रमाद का रोग उतर गया और कह दिया कि अब जो भी शेष जीवन है "ऐ मेरे माधव! तुम्हारे लेखे में हो"  क्योंकि अब जग कर, जांच परखकर समझ चुके हैं, बहुत जन्मों से सोते और खाते आ रहे हैं आज अर्श का जागृत मालिक खुद जगा रहा है, अब हम उठते-बैठते, चलते -फिरते, सोते मनमत की राह में नहीं पड़ेंगे क्योंकि ऐ मेरे पालनहार सतगुरु! तुम बचाने वाले हो, जगाने वाले हो। तभी फक्कड़ अनहल के सच्चे पातशाह सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी अमृत वेले प्रेमी भक्तों के घर जाकर रुहानी फटकार, रुहानी कड़क वचनी कहते और अक्सर आप साहिबान जी फरमाते-
उथ जाग मुसाफिर जीयड़ा, तोखे  निड्रंडी न ओढ़े।
वेठो आहीं वांट खां, पहिंजो मुँह मोड़े ।
वाट लहंजै औहड़ी, प्यारा देश अगम जी।
     पूर्ण संत दयाल बारम्बार चिताते हैं कि आखिर कब तक गफलत की निद्रा में गल्तान रहोगे, प्यारे! जागो, अब जागने का समय है, अगर अब भी नहीं चेते तो भटकना होगा। पूरे गुरुदेव की महिमा जो अगाध विवेक से भरपूर है, उससे सतगुरु बाबा नारायणशाह साहब जी ने ऊँची रूहानी वाणी में यूं बयां किया-
साचा गुरु करहु सतगुरु पुरख साचा ।
इक रूप हो जावै, ध्यान धरहु तू मनवा ऐसा।
कहे नारायण सुनो रे प्राणी ।
पानी पियो छान कै, गुरु कियो पछान कै। 
     आप सतगुरु दयाल तमाम जनमानस को समझाते हैं, पूरण सतगुरु ने सत विवेक सत्पुरुख की ओर जाने वाला रुहानी मारग का भेद, नूर के विवेक से खोलकर बयां किया, फिर रूह उस मारग पर चलकर अपने प्रभु से, एकरूप हो गई, ध्यान रखें! कि पूरण सतगुरु द्वारा बताई रुहानी साधना का अर्थ यह है कि हमारी रूह जगे। हम जन्मों की गहरी निद्रा में कैसे सोए हुए हैं और पूरण सतगुरू हमें जागे हुए जीवन में ले जाना चाहते हैं। वे फरमाते हैं, अब तुम्हें सोना नहीं, जागना है। अब बंदों के अंदर अक्सर यह बात उठती है, कि आखिर जागने की तरकीब है क्या? क्या आप जागने की युक्ति कोई है या नहीं? ऐ प्रेमियों ! पहले कुछ डूबना होगा, गहरा उतरना होगा, तभी कुछ क्षण जागेंगे और कभी-कभी तो थोड़ा बहुत सो भी जाते हैं, पर यदि जागने का निरंतर अभ्यास बना रहे, तो धीरे धीरे रूहानी जीवन में जागना सहज स्वीकार हो जाएगा, इसके लिए जाग्रत पूरे सतगुरु की न्यारी प्रीत और शरण संगत के पुरजोर पकड़ना होगा।
        जिन्होंने भी पाया, पूरन सतगुरु के प्रेम-प्रीत को धार, चरण कमलों के प्रताप से ही पाया और फिर उन्होंने ही गाया।
        संत जी सच्चे चैतन्य विवेकी   की एक बात समझा रहे हैं, कि प्रेम के नाम पर तुम खुद को धोखा दे रहे हो, क्योंकि तुम्हारे पास जो आत्मा है, वह मालिक की दी हुई है, परंतु वह सो रही है तुम्हारे अंदर गहन अंधकार भरा है, जिससे तुम अपने अंदर, अंधेरे की अड़़चन पे अड़़चन बढ़ाते जा रहे हो, पूरे सतगुरु के पास वह रूहानी सम्पदा दात है, जो तुम्हारे अंदर उजियारा भर देगी, पर अभी तुम्हारे अंदर की पात्रता अविवेकी है, मैली है, जब तक सतगुरु शरण में पूरा समर्पण नहीं है, तब तक तुम्हारी भटकन तुम्हें भटकाती रहेगी। हे प्यारों! सतगुरु से रूहानी मारग की सीख ले, तभी तुम उस पथ पर चल सकते हो, संतजी फरमाते हैं, पूरे गुरु का मारग उधार नहीं लिया जा सकता, वह हमें सच्चे संदेश व नूर के इशारे देता है, अब हर कोई इशारों के अंदर छुपे राज को नहीं समझ पाता, प्यारे!  पूर्ण सतगुरु तो पूर्ण प्रकाशमय जीवन जीने का ढंग देता है और हमारे अंदर का सोया चिराग जलता है, वह हमें होश में लाना चाहता है, कि खुद को पहचानो, तुम कौन हो? क्या कर रहे हो? क्योंकि वह रूह सुरत को, उसकी खोयी हुई संपदा से रूबरू करवाता है। उसके लिए शिष्य, शिष्य ही बना रहे, वह मन का मुरीद कदापि न बने, तब ही अगाध मुल्क की बाती जल सकती है।
  मन मुरीद संसार है, गुरु मुरीद कोई साध।
जो माने गुरु वचन को, ताका मता अगाध।।
      सतगुरु तो उस दयाल देश के वासी हैं, उनके अंदर परम अखण्ड शांति, शाश्वत सुख दिव्य आनंद के खजाने हैं और वे स्वयं सच्चे आनंद स्वरूप हैं, अगर मन के अनुसार सुरत चलेगी, तो मंजिल-ए-मकसूद मिलना दुष्वार है मगर पूरण सतगुरु नाम का बोध जानकर, दरगाह में मुख उज्ज्वल हो पाता है। शिष्य जब मन को पूर्ण रूप से श्री चरणों में अर्पित कर देते हैं, तो वह अमृत तत्व नाम में धुलना शुरू हो जाते हैं। पूरे गुरु की ऊँची मौज कि, वे हमें सेवा की महिमा, सत्संग, विवेकी और भजन मारग समझाकर, सुख, आनंद के धाम का अनुभव करवाते हैं और जिस दिन हम नींद से जागेंगे और करता होने का भाव मिट जाएगा, उस दिन कहेंगे, मेरे मालिक प्रभु की मौज बड़ी मेहर, दया, रहमत को बरसा रही है।
       सो हमें चाहिए इस जगत सराय में, झूठी माल वस्तुओं का गुमान ना करें।  हमें हरी रूप पूरन सतगुरु की शरण संगत मिली है, इस शरण में रहके, देह का, सारे कुल का अभिमान त्याग, निर्भव का भजन करें और अपनी सोई हुई आंतरिक चेतना को जगाने का बल मांगे।
।। दास ईश्वर कहे अजब है यह प्रीत सुहानी।।
।। गुरु प्रीत कर पर यह जाते, मनमुख न समझ पाए हमरी गति।।

हरे माधव  हरे माधव हरे माधव