।। हरे माधव दयाल की दया ।।

वाणी संत सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी
।। प्रेम बिना सब घट सनूे, सतगुरु प्रेम धरो घट भरो पियारे।।
।। बिन एहे प्रेम अमृत हरि काे न पावै, सतगरु प्रेम कस-कस राेम -रामे धराे ।।
।। कहे माधवशाह सुनो मरे प्याराें, कहे माधवशाह सुनो मरे प्याराें ।।
।। प्रेम की न जात न पाता, ज्यूं साहिब है अलख माता।।
।। साचा प्रेम मन धरो, भ्रम-हउमें गढ़ ऐह प्रेम न उपजै।।

प्यारे सत्संग प्रेमियों! आज के सत्संग की वाणी, सतगुरु शहंशाह बाबा माधवशाह साहिब जी द्वारा फरमाई रूहानी रब्बी वाणी है। आपजी अपनी अमृत वाणी के जरिए चिता रहे हैं कि शिष्य मुरीद को मुर्शिद सतगुरु के प्रति, साधसंगत के प्रति, किस तरह प्रेम रखना है। भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु के प्रेम को घट में प्रकट करने का केवल एक ही साधन है, पूरण साधसंगत। दुनिया के सारे धर्म इसी पर खुलकर मोहर भी लगाते हैं।

आपजी अपनी अनमोल वाणी में सतगुरु प्रीत की रोशनी दे रहे हैं-

सतगुरु प्रेम धरो घट भरो पियारे
बिन ऐह प्रेम अमृत हरि को न पावै
सतगुरु प्रेम कस-कस रोम-रोम धरो

हरिराया सतगुरु, भजन सिमरन का भंडारी सतगरु , वास्तविकता में हरि का ही रूप है, याने पूरा सतगुरु और हरि प्रभु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पूरे सतगुरु के बिना अंदर का अज्ञान अंधेरा दूर नहीं होता, जब पूरे गुरु की संगति, चरणों की प्रीत के बौरे बनते हैं, तभी पता चलता है कि वह प्रभु साहिब हमारे अंदर ही गुप्त था। जब सतगुरु प्रेम में हम रंगते हैं तब वह गुप्त प्रभु प्रगट हो जाता है। यह पूरी बढ़ाई प्रत्यक्ष सतगुरु के प्रेम की है, उस मालिक की अगर कोई जाति है, तो वह है ऊँचा प्रेम। जो भी जीव वक्त के भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु से ऊँचा प्रेम करता है, फिर उसके घट अंदर, जो रूहानी अमृत का खजाना छिपा है, वह प्रगट हो जाता है।

ऐ बंदे! यदि इस प्रेम का घाव तुम्हें लग गया और तुमने सच्चे होकर सतगुरु चरणों से निह लौ रमाई, तो फिर तुम प्यारे सतगुरु से जुदा रह नहीं पाओगे, जीना तक दूभर हो जाएगा, अगर सच्चा प्रेम है, तो लोकलाज लोगों के ताने, तुम्हारे प्रेम को कम नहीं कर पाऐंगे पर यदि प्रेम कच्चा है, तो वह बेढंगा, अड़ियल, शक-शुभा, मूढ़ता, अविवेकी, अश्रद्धा वाला, झूठा, बनावटी प्रेम है और वह तुम्हें डिगा देगा। कच्चे प्रेमियों की अवगुण भरी आँखें ही डोलायमान है। भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी हम जीवों को सार बात से अवगत करवा रहे हैं, कि प्यारे! इस ऊँचे सतगुरु प्रेम को धरना तो ऊँचे हिमालय पर्वत पर चढ़ने के समान है, जो इस कठिन घाटी से गुजरता है, चढत़ा है, वही उसके मूल्य को, भेद को समझ पाता है, जिसे सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी फरमाते-

औखा पंध पहाड़ जा, औखा पंध पहाड़ जा

ऐ गुरुमुख! अगर तुझे इस रूहानी राह में आगे बढ़ना है, तो खुदी को खत्म कर, तभी तू सतगुरु प्रेम का अमृत पी सकेगा। अगर तू इस रूहानी प्रेम की वाटिका में खिलना चाहता है तो याद रख! सतगुरु के प्रेम को इतना पुख्ता कर दे, कि अगर तुझे सर की कुरबानी भी देनी पड़े, तो उतार के रख दे, सतगुरु मुर्शिद के चरणों में। प्रेम करना, इन्सान के मन की स्वभाविक विशेषता है, साहिबान जी फरमाते हैं, कि मन की इस विशेषता का लाभ उठाओ, जगत के प्रेम से ऊपर उठकर, उसे सतगुरु जगदीश के प्रेम में बदल दो, उस प्रभु की प्राप्ति हेतु यह सांझा प्रीत का सेतू है। अब प्रश्न उठता है कि आखिर यह प्रेम है क्या? प्यारों! जैसे फूलों की सुगंध का अनुभव हो सकता है, उसी तरह प्रेम को भी अनुभव ही किया जा सकता है, समझाने के लिए हम कह सकते हैं, कि प्रेम का सहज, सरल, सीधा-सादा अर्थ भाव, तड़प, स्नेह, लालसा, अनुराग, प्रीति, मोहबबत, आनन्द, प्रसन्नता, चाह, आकर्षण, कशिश है पर असंभव है इस प्रेम को शब्दों का रूप दे सकना।

संत कबीरजी करुण कठोर नसीहत दे रहे हैं, कि प्रेम को हल्का सौदा मत समझो, जो पात्रवान मुरीद हैं, उनकी दुनिया प्रियतम सतगुरु के प्रेम में भीगी हैं और जो कुपात्र हैं, उन्होंने प्रेम को हल्का मामूली समझ लिया है-

प्रेम प्रेम सब कोई कहै, प्रेम न चीन्है कोय।
आठ पहर भीना रहै, प्रेम कहावै सोय।
प्रेम पियारे लाल सों, मन दे कीजै भाव।
सतगुरु के परसाद से, भला बना है दाव।
जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु है मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सांकरी, ता में दोउ न समाहिं।

अगर तुम पूरे सतगुरु के प्रेम में नहीं भीगे, दुयी को उतार नहीं फेका, तो अमृत के भागी नहीं बन सकोगे, यह कोई हाट बाजार में बिकने वाला पदार्थ नहीं है, इस प्रेम का भाव है, अपने आप को मिटाना, अंगारों पर चलने के समान है यह सतगुरु प्रेम, उस रूहानी प्रेम के सामने मौत भी छोटी है। जो जीव सतगुरु प्रेम में कुर्बान है, उसकी मौत, मौत नहीं होती और जो बिना सतगुरु प्रेम के जिया है, वो अभी जिया ही नहीं। सच्चे प्रेम से लोग कतराते हैं, प्रेम ज्ञान की कथाऐं खूब कथाते हैं, चर्चाऐं सभा भी खूब करते हैं, पर सच्चा प्रेम करने से डरते हैं, क्योंकि उन्हें मिटना नहीं आता। उन्हें खुदी को सिरधारे रखना अच्छा लगता है।

साधसंगत जी! बिना सतगुरु प्रेम के कोई भी सेवा, कोई भी भक्ति प्रभु मालिक की दरगाह में परवान नहीं होती, चाहे कोई कितना भी ज्ञान कथे या जोग जप तप कमाए, बिना सच्चा प्रेम धारे प्रियतम बाबल को नहीं पा सकते। हरे माधव वाणी में आया-

बिन प्रेम सेवा भगत न राचे
चाहे मथ-मथ ज्ञान कथो बहु जोग-जप-तप-कमाओ

सतगुरु शहंशाह सच्चे पातशाह बाबा नारायणशाह साहिब जी सच्ची प्रीत की सीख हमें अपनी वाणी के जरिए दे रहे हैं-

ऐसी प्रीत करो मन मेरे, सतगुरू चरण रखो मन धीर
ज्यों माता करे पूत स्यूं प्रीता, त्यूं प्रीत करो तुम सतगुरू संता
कहे नारायणशाह सनुहाे संतो, ऐसी मौज में हैं जाे वरते, साे साहिब तिसे खाजे

सच्चा प्रेमी भगत, सतगुरु प्रेम में आठों पहर भीना रहता है। जैसे लोभी दाम के लिए छिन्न-छिन्न, खिन्न-खिन्न मतवाला बना रहता है, जैसे माता का पुत्र के साथ अटूट, निःस्वार्थ प्रेम रहता है, वैसे ही सच्चे मुरीद प्रेमी को भी प्यारे सतगुरु के श्री चरणों में श्रद्धा, प्रेम रमाए रखना चाहिए, तभी वह मुरीद भंवरे की तरह, प्रेम में मगन हो अमृत रस पीते रहते हैं।

श्री रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में गोस्वामी तुलसीदास जी ने यहाँ तक लिख दिया-

गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई, जो विरंचि शंकर सम होई

भाव यह कि सिवाए पूरे सतगुरु के कोई भी जीव को भवसागर से पार नहीं कर सकता, चाहे वह ब्रह्मा जी, शंकर जी के सम पदवी प्राप्त क्यों न हो। पूरे सतगुरु के रूहानी प्रेम को जो जीव जान लेता है, उस के अंदर प्रेम शबद का अर्थ भी प्रकट हो जाता है, वह हरि अनुभव की झलक पा लेता है, क्योंकि अकथ कहानी हरि-हर प्रेम की है। सतगुरु प्रेम का यह कल्प वृक्ष बिन धरती और बिन बीज के उगता, बढ़ता और फैलता है, यह अलौकिक दिव्य वृक्ष है, जिसमें आत्मिक आनन्द के अनगिनत अलौकिक ज्योर्तिमय फल उगते हैं और इसका स्वाद गुरुमुख प्रेमी मुरीद प्रत्यक्ष पूरे गुरु की दया रहमत से ले पाते हैं।

बगैर पूरन संत सतगुरु के, बगैर सच्चे प्रेम के यह तार कभी नहीं जुड़ पाती। वक्त के प्रत्यक्ष भजन सिमरन के भंडारी संत सतगुरु अमृत के महाकुण्ड हैं, जिसे प्रेमी गुरुमुख अपनी पात्रता के अनुसार पाते हैं। जब तक बंदे के दिल में मुर्शिद के लिए परवाने जैसी तड़प पैदा नहीं होती, जब तक वह अपने सारे ख्याल ख्यालात औरों से हटाकर, अपने मुर्शिद प्रियतम पर नहीं टिकाता, जब तक वह अपना सारा का सारा जीवन प्यारे मुर्शिद की प्राप्ति के लिए दाव नहीं लगाता, तब तक उसे अमरे दौलत नहीं मिल सकती। हरिराया सतगुरु का सच्चा प्रेमी आशिक, दुनिया के मान-शान का मोहताज कभी नहीं होता, मुर्शिद सतगुरु के इश्क की शम्मां उसके दिल में सदा जलती है, फिर उस प्रभु खावंद की हस्ती का भेद भी अंतर में खुल जाता है।

सतगुरु सांई नारायणशाह साहिब जी ऐसे कौल वचन कहते-
भाई ब थी न अचो, अंदर हिकु बाहर बियो।

याने हृदय का पात्र प्रेम से स्वच्छ करो, निर्मल करो, एक चेहरा धरकर आओ। जितना हृदय का प्याला निर्मल होगा, निष्कपट होगा, उतना ही हरि माधव के रस को पी सकोगे, बाहर तो केवल धूल के अलावा और कुछ नहीं है, किसी के हाथ जो कुछ लगा है, तो धूल ही लगी है। भीतर तो मेरा माधव मालिक है, उसका साम्राज्य नगर बुना है, अगर तुम तिरछे या इरछे बन आओगे, तो तुम्हारी पात्रता घटती जाएगी, क्योंकि इन्सान के अंदर मनमति का कूड़ा, करकट भरा है और जब तक यह जलता नहीं, तब तक अंदर का कुनबा स्वच्छ नहीं हो सकता, मन निर्मल नहीं हो सकता।

संतजी मुरीदों को चिता रहे हैं, कि पूरे सतगुरु चरणों में अनन्त अथाह की दौलत भरी है पर तुम उनकी मौज को नहीं जान पाते, इसीलिए खाली रह जाते हो-

साहिब के दरबार में, कमी काहू की नाहीं।
बंदा मौज न पावही, चूक चाकरी माहिं।
द्वार धनी में पड़ा रहे, धक्का धनी का खाय।
कबहूँ धनी निवाजहीं, जो दर छोड़ न जाय।

प्यारों! सच्चे प्रेमी भगत, पूरे गुरुदेव की शरण संगत में पड़े रहते हैं, मुर्शिद चाहे, कितनी भी रूहानी ताड़ फटकार दें, फिर भी वे शिष्य टिके रहते हैं। सतगुरु जी सच्चे आत्मिक नाम के धनी हैं, वे आज नहीं तो कल हमारे गुनाहों को बक्श, हमें शरण में रख लेंगे। ऐ मुरीद! हौसला मत हारो, निज़ारी बक्शाने में कोई कसर मत छोड़ो, क्योंकि-

द्वार धनी में पड़ा रहे, धक्का धनी का खाय।
कबहूँ धनी निवाजहीं, जो दर छोड़ न जाय।

बंधुओं! जिसने भी अपने अंदर अमृत पाया है, पूर्ण प्रत्यक्ष सतगुरु में सच्चा प्रेम धर, अंतर में शबद नाम कमाई से ही पाया है और ऐसा पक्का सच्चा रंग एक बार चढ़ जाए, तो कभी नहीं उतरता।

आप बाबाजी समझाते हैं, गुरुमुख प्रेमी अंदर में हर पल हर क्षण सतगुरु बाबल प्रियतम के सिमरन में खोया ही रहता है, तन-मन, रोम-रोम उसका सतगुरु चरणों का ध्यान करता ही रहता है, फिर इसी प्रेम के जरिए नश्वर दुनिया के प्रेम से वह उठकर, उस अविनाशी माधवपुरी में पहुँचता है, कुल मालिक अनहल के राजे सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी फरमाते हैं, कि सच्चे शिष्य का जो अगाध प्रेम सतगुरु हरि में होता है, वह उसकी आत्मा को सुंदर निहाल कर देता है, पर पूरण दरवेशों ने सावधान करते हुए चिताया भी कि रुको, हमारी बात समझ लो-

सियाने मूल न पावंदे, नगरी है बौरी।
ऊहा सब बौरे फिरे चतुरा नहीं ठौरी।
आगे पौड़ी प्रेम की, नेमी नहीं पावे।
सीस उतारे भूई धरै, तां इस घर आवे।

आज इन्सान भीतर कुछ है, बाहर कुछ है, बड़ा फासला दोनों के बीच खड़ा हो गया है, प्रेम के नाम पर इतने मुखौटे ओढ़ रखे हैं, कि जो उसका असल चेहरा है, उसे उसका पता ही नहीं, जब तक वह प्रेम नहीं, तब तक आत्मिक नूर स्थाई शान्ति भी नहीं मिलती।
गुरु की प्यारी सगंताे! सतगरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने सम्पूर्ण परमार्थ की कुंजी इन सिंधी अल्फाज़ो में बक्शी-

सिर डिने साजन मिले, त पुरो सिर कयां अख्तयार

सो गुरु की प्यारी संगतों! पात्रता शिष्य को धारण करनी है, सतगुरु तो मेहर दया के अनन्त भण्डार सदा बरसा रहे हैं। अब हमें चाहिए कि दुनियावी नाशवान वस्तुओं के प्रति, प्रेम-प्रीत न रख, सतगुरु प्रेम के भंवरे बन, श्री चरणों में लिव रमायें। बिना किसी शक-शुभा के सदैव सच्ची प्रेम-प्रीत धार, पावन अमृत नाम का सिमरन करते रहें, जिससे सतगुरु प्रेम के सच्चे पक्के रंग के अधिकारी बन सकें।

। कहे माधवशाह सुनो मरे प्यारों, कहे माधवशाह सुनो मरे प्यारों ।।
।। प्रेम की न जात न पाता, ज्यूं साहिब है अलख माता।।
।। साचा प्रेम मन धरो, भ्रम-हउमें गढ़ ऐह प्रेम न उपजै।।

हरे माधव    हरे माधव     हरे माधव