।। हरे माधव दयाल की दया ।।

।। वाणी संत सतगुरु बाबा नारयण शाह साहिब जी।।

।। सतगुरु पुरूख अपार है, नाम अमृत धन अपार है।।
।। सतगुरु संग बड़ा अमीठा, आत्म पाये अनदिन अमीठा ।।
।। आजायिब अजब निराला, प्रभु सतगुरु दयाल ।।
।। कहे नारायणशाह सुनो भाई भक्तों, हरी हरीराया सदा दयाल।।

यह वाणी सर्व कला समरथ संत सतगुरु सांई नारयणशाह साहिब जी की है। आप साहिबान जी ने पूरी मानव जाति को रूहानी प्रकाश देने वास्ते यूं संदेश दिया कि प्यारे! सतगुरु पुरूख अपार है, नाम अमृत धन अपार है। "ऐ आत्मा तूने मन के संग जड़ता कर, कुसंग में पड़कर अपना असल चैतन्य स्वभाव खो दिया है। सतगुरु पुरूख जो अपार नाम भक्ति के दाता हैं, वे हमें भवसागर से पार कर उस पार प्रभु हरे माधव साहिब जी में एक होने का होका देते हैं।
जैसी संगति हम करते हैं, वैसा ही प्रभाव हम पर पड़ता है। अगर हम लाैंग की दुकान में बैठे हैं, तो खुशबू वही आती है।
वैसे ही पूर्ण मुक्ता, विदेही सतगुरु की संगत में आऐ, तो आत्मा नित्य अभ्यासी हो उस अमीठे अमृत को पीने के लायक बन जाती है। अज्ञानी अपनी अज्ञानता वश इंद्रियों के घाटों मन के तटों में भटक रहे हैं, परन्तु सतगुरु साहिबान तो दया के परम सागर हैं, वे अनदिन दया बरसाते हैं। हमारी आँखें होते हुए भी हमने ऊँच-नीच के बंधनों में इस मन को जकड़ लिया है, क्योंकि इस मन की बड़ी कटीली दुनिया है ,अगर पूरन सतगुरु की सौहब्बत रूह को न मिले ,तो छुटकारा संभव नहीं। स्वार्थी, मनमुख जीव तो उस सूखे पेड़ के समान है, जो छांव देने के भी योग्य नहीं, उसको तो छूने से ही चुभन का अनुभव होता है।
अब प्यारों पीपल का वट वृक्ष तो परमार्थ से रचा बसा है, छांव देता है, उसे सुखी जीवन का आधार भी माना गया है। सतगुरु साहिबान हमें भी उस वट वृक्ष की भांति बनने का बल प्रदान करते हैं, इसीलिए बाबाजी ने वाणी में यूं कहा, "जो तज मद मोह मन मत, आये शरण खिन-खिन धोये। प्यारों! पानी के वास्तविक गुण को तो हरा भरा वृक्ष ही जान सकता है, क्योंकि वह उसी पानी के कारण ही हरा-भरा हुआ है। सूखा काठ भला लकड़ी व पानी के महत्व को क्या जाने, उसमें जितना भी पानी डालो, वह हरा- भरा नहीं होगा, क्यों? क्योंकि उसे मनमति मदता ने भुला दिया है। सतगुरु शरण में रूह को उस मुकाम को में मुकममिल, प्रभुता मिल ही जाती है, जिससे उसमें दीनता, नम्रता, बंदगी, सेवा भावना, सभी के प्रति मान, सभी के प्रति हित का प्रेम पैदा हो जाता है और मन में यही भाव आते हैं-

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित दुख भाग भवेत।।

अर्थात् उसका स्वभाव सहजशील सम हो जाता है। संत कबीर जी अपनी वाणी में फरमाते हैं-
सुख दुःख सिर ऊपर खटै, कबहू न छाडै़ संग। रंग न लागै और का, व्यापी सतगुरु रंग। कबीर गुरु कै आवतै, दूरहि ते दिसन्त। तन दीना मन अनमना, जग से रूठी फिरन्त

पूरे सतगुरु का प्रेमी शिष्य, सुख-दुख, ताना-बाना सब कुछ सहकर सभी से मीठा बोले, कभी भी सांचे सतगुरु की संगति न छोड़ें, लिव-प्रेम सदा निभ आने की सत्त रसाई करे। वह मनमती, लोकमत, कुसंग से कभी मन न लगाए। प्रारब्ध कर्मों से उसे जो मिले मीठा या खट्टा, उसी का भाणा जान, सतगुरु प्रभु के श्री चरणों में दिव्य प्रेम आचरण में सदैव भीगा रहे।

हरि प्रभु, पूरे सतगुरु का अनोखा, अमीठा, सर्गुण रूप धारण कर इस जगत में प्रकट हुए। जब प्रेमी रूहें उस सच्चे सतगुरु का साटिक ध्यान एकाग्रचित होकर करती हैं, तभी उन्होंने भेद जाना, फिर उन्हें हाजिर-नाजिर अदृश्य-सदृश्य के दीद दर्शन हो ही जाते हैं।

ऐ इंसान पूरे सतगुरु का ध्यान ही वह सच्ची आनंद दायक भक्ति है, जिसका कोई साथी हमजोर नहीं है। जो इन वचनों से मूंह फिर इधर उधर के ज्ञानाधिक कचरों को ढोता है, वह तो उस अबोध किसान की तरह है, जो भूसे को अनाज समझ लेता है, भटकन है प्यारों! यह कलिकाल की अनोखी अटकन है। पूरे सतगुरु के दिव्य ज्ञान की अनुपम कलाऐं, दिव्य तेज के लक्षण दूर से ही परिलक्षित हैं। वे इस जगत से उदास हो विचरण करते हैं ।

जिन्हें परम आनंद, उत्तम रसायन पाने का शौक है, फिर वह चाहे हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई या फिर सिंधी हो, सतगुरु पूरे की साेहब्बत से उन्हें नाम की ठंडक प्राप्त होती है। पूर्ण संत ही हमारे सच्चे रहबर परम हितैषी हैं। जब रूह गुरु, सतगुरु संगत से जुड़ी, तो उन्होंने रूह को मीठे नाम सिमरन के साटिक ध्यान का रहस्य देकर, उसे अपनत्व का भेद दिया, जहां सतो- रजो-तमो की कोई कड़ी-लड़ी तक नहीं है। जब तक रुह का सतगुरु में असीम प्रेम नहीं रमा, तब तक उसकी रंगत में रूह नहीं भीग सकती और उस ऊँचे मुकाम तक नहीं पहुँच सकती।

आप साहिबान फरमाते हैं सतगुरु तो दयालु दया के सागर हैं, कृपालु हैं, जो रूहों से शब्द नाम का सिमरन करवाके उन्हें उज्ज्वल बनाते हैं।

भगत रविदास जी की वाणी खुलासा कर रही है-

संत तुझी तनु संगति प्रान, सतिगुरु गिआन जानै देवा देव। संतची संगति सत कथा रसु, संत प्रेम माझै दीजै देवा देव ।
संत आचरण संत चौ मारगु संत च आल्हण ओल्हाणी ।
अउर इक मांगउ भगति चिंतामणी, जणी लखावहु असंत पापी सणि।
रविदास भणै जो जाणै सो जाणु, संत अनन्तह अंतरू नाहीं।

समझाते हैं कि सच्चे संत की संगत ही हमें उस मालिक से अभेदी कर सकती है, सतगुरु प्रेम अगर हमारे अंदर बस गया तो सिमरन, सहज ही बस जाता है। यह जो मारग है वह हमें भाने लगता है। हम सब देखते हैं कि संगत में कई प्यारे बन्दे आते हैं, सच्चे संत सतगुरूओं के पास उनकी भीड़ लगी रहती है, परन्तु सच्चे भक्त सतगुरुओं से केवल अमृत नाम रूपी चिंतामणि की मांग करते हैं। वाणी में भी आया है, "अउर इक मांगउ भगति चिंतामणी।" चन्दन शीतल है, चन्दन से अधिक शीतल है चंद्रमा, परंतु इनकी शीतलता बहारी है, जो कि तपते मन को शीतल नहीं कर सकती। पूरे सतगुरु के सिमरन-ध्यान, निष्काम सेवा करने से आत्म आनंद की खुमारी प्राप्त होती है, तब रहमत की ऐसी बरसात होती है, जिससे हमारे, मन की तपत, मन की जलन शांत हो जाती है।
सतगुरु प्रभु मालिक बेपरवाही मौज में, बड़ी अबूझ पहेली से अपनी विरद प्रेम करूणा बरसाते हैं, पर हम हैं जो स्वार्थ मोह अहंकार वश, बेपरवाही रूहानी शान के विपरीत अपने मन के विचारों को गढ़ मढ़ देते हैं। जब उसे अपने प्यारों को निकट करना होता है, तो वे स्वांग धरते हैं, तब हमें दुखदायक बेशान प्रतीत होते हैं, पर उसमें भी उनकी प्रेम करुणा दया ही बरसती है। वे कभी किसी को हीन नहीं बनाते, वे तो खुद दया और दीनता के प्रकाश पुण्ज हैं, हम ही अज्ञानी मोह माया से जुड़, परमार्थ की पावन छत्र छाया को नहीं समझ पाते।

सर्वकला समरथ संत सतगुरु सांई नारायण शाह साहिब जी फरमाते हैं कि पूर्ण सतगुरु साहिबान जी तो पूरूख अपार हैं, वे हमें अपार अमृतरूपी धन प्रदान करते हैं। वे प्रभु सतगुरु अजायिब अजब निराले हैं, उनकी शान निराली है, वे सदा आत्म हरियाली खुशहाली बक्शने वाले हैं। आप की समझाइश देते हैं कि ऐसे सतगुरुओं के श्री चरणों से प्रीतकर अपना आज और कल संवार लें।
यदि कोई बंदा दर्जी के पास कपड़ा लेके पोशाक सिलवाने पहुंचे, तो दर्जी उसकी डील-डोल देख नाप करता है, फिर कैंची से लंबे कपडे को छोटे- छोटे टुकड़ों में काटकर सुई-धागा चलाके अच्छी सुहणी पोशाक बना देता है। प्यारे बुद्धिजनों जरा विचार करो, अगर वह बन्दा अड़ जाए कि दर्जी यह क्या कर रहे हो, मेरे कपड़े को क्यों काट रहा है और वह दर्जी की कारीगरी में शंका-संदेह करने लगे, तो दर्जी कितना भी कपड़े को सजाए संवारे, लेकिन बंदे को शंकालू स्वभाव के कारण दर्जी की कला भी काल की बला प्रतीत होगी। जिस तरह जब तक दर्जी कपड़े को काटे नहीं, उसे सुई और धागे से सिले नहीं, तब तक उसे सुन्दर पोशाक का रूप नहीं दे सकता, ठीक उसी प्रकार सतगुरु साहिबान भी हमें रूहानी झिड़प, रूहानी डांट-फटकार, रूहानी मार के द्वारा हमारे अवगुणों को दूर कर अमृत नाम के सिमरन का बल प्रदान करते हैं, पर मनमुख जीव इसे बाहरी झिड़प, मार ,डांट- फटकार समझ इस अनमोल रूहानियत से वंचित हो जाते हैं। सतगुरु साहिबान तो सदैव ही हमारा हित चाहते हैं।
गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है, गढ़-गढ़ काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ साहर दै, बाहर मारे चोट ।।

इसी तरह हमारा मन भी काल शैतान से जुड़ा है और सतगुरु संगत अमृत नाम से तुड़ा है और यूं ही जीवन गंवा रहा है।

हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी हमें अक्सर हिदायत देते हैं कि यदि तुम वेदों उपनिषदों ज्ञान- ध्यान की बातें पढ़, पढ़ा ज्ञानियों का दर्जा हासिल कर लोगे, तो तुम्हारे अंदर तर्क-वितर्क वाद-विवाद करने की खराब आदत पैदा हो जाती है, जिससे तुम दूसरों को अज्ञानी मूढ़ जान खुद को ज्ञानी-ध्यानी मान बैठते हो, तुम्हारे दिल में अहंकार अकड़ रूपी हठीली सर्प बैठ जाता है। प्यारे इस मारग में तो बाल-गोपालों की तरह सरल सहज स्वभाव होना चाहिए, तभी हृदय निर्मल होगा जिससे सतगुरु भाणे में सुख और शान्ति प्राप्त होगी। लेकिन हम साध-संगत के वचनों पर अमल नहीं करते, प्यारे! मन को सतत समझाने का पुरजोर यतन करो, क्योंकि जो हुकुम में जीना जानता है, वह बेहुकमी लकीरें नहीं खींचता, नम्रता, दीनता धारण करने से आत्मिक आनंद एवं साध- संगत की सेवा से ही रूहानी बल मिलता है।

सो हमें चाहिए कि सदैव बिना किसी शक-शुभा के सतगुरु के भाणे में राजी रहें, किन्तु-परन्तु वाले राग न गाकर चित को सदैव सतगुरु जी के श्री चरणों में लगाए रखें।

।। कहे नारायणशाह सुनो भाई भक्तों, हरी हरियाला सदा दयाल।।
।। जो संगत सतगुरु प्रेम प्रीत धारी, जो संगत सतगुरु प्रेम प्रीत धारी।।

हरे माधव   हरे माधव   हरे माधव