|| हरे माधव दयाल की दया ||

वाणी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी

।। प्यारे सतगुरु दरस, जनम मरण का फंदा काटे।।
।। सतगुरु संगत हरि राया, अमृत पीजे आतम सद जागे।।
।। प्रेम साचा इक टिक बिठाओ, सो जाणे सतगुरु दरस सहज भागा।।

हरिराया सतगुरु के प्यारे सत्संग प्रेमियों, आप सभी को हरे माधव। आज के पावन सत्संग की मीठी रबियत इल्म से भरी वाणी भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी ने अपने प्रभुमय मुख से 11 जनवरी 2012, बुधवार रात्रि 08 बजकर 10 मिनट पर फरमाई। यह रब्बी वाणी सतगुरु मेहर, चरण अमृत, सतगुरु दर्शन, गुरु प्रसाद का बड़ा पवित्र हुकुम नामा है। आप साहिबान जी फरमाते हैं कि प्यारे गुरु साहिबानों, सतगुरु पारब्रम्ह स्वरूप के प्रेम, प्रीत, सेवा, चाकरी, सिमरन, बंदगी से इस दास को अमरा प्रसाद का, अमृत जीवन मुक्तता का गहबी परमत्व प्राप्त हुआ। आपजी अमृतमयी वाणी के जरिए भेद खोल समझा रहे हैं-

प्यारे सतगुरु दरस, जनम मरण का फंदा काटे

कि प्यारे सतगुरु पारब्रम्ह स्वरूप का दर्शन दीद कर मुझे जो मिला, वह शब्दों, अल्फाजों, लफ्ज़ों का विषय कदापि नहीं, वह निर्वाणी उन्मुन की चुप्पी है।

साहिबान जी फरमाते हैं कि ऐ रब के अंश! तुम चिरंकाल से भटकन के दौर से गुजर, इन्सानी बुत में आए हो, अब तुम इन्सानी जन्म की सफलता का राज़ सुनो जिससे तुम्हारे घट अंदर अमृत नूर चहके, कि प्रत्यक्ष जागृत हरिराया सतगुरु का दर्शन दीद, बड़ा अविनाशी फलदायक होता है, इससे हमारा विष से भरा जीवन अमृत आनन्द से चहकने लगता है।

प्यारा हरिराया सतगुरु, पका हुआ, जगा हुआ अविनाशी नूर है जिनका दर्शन दीद कर हमारी चेतना ऊपर के रूहानी मण्डलों पर जल्दी चढ़ती है, प्यारे सतगुरु का दर्शन तीनों तापों के बिगड़े कर्म लेखों को काटने वाला आनन्द दायक दीदार है। इस वास्ते फरमान आया-

प्यारे सतगुरु दरस, जनम मरण का फंदा काटे
सतगुरु संगत हरि राया, अमृत पीजे आतम सद जागे

प्यारा हरिराया सतगुरु तो वही जिनका दरस कर शिष्य मुरीद का अंतरमन रुपांतरित होने लगे यानि ‘‘अमृत पीजे आतम सद जागे’’ आत्मिक रूहानी जागृति होने लगे। ऐसे पूरण सतगुरु की शरण में, उनके सफल दरस कर अशान्त मन, शान्त झील की तरह ठहर जाता है, शिष्य के जीवन में अमृत के फूल खिल उठते हैं और अविनाशी रबियत की खुमारी रोम-रोम में भरना शुरू हो जाती है।

हरे माधव सतगुरु साहिबान जी बड़ी करुणा, विरद प्यार से समझाते हैं, आतम परमातम की इक छोटी सी बूँद कतरा है और उस बूँद को हरिराया सतगुरु का मेहर भरा हथ सदा चाहिए। जैसे छोटे पौधों को सुरक्षा की जरूरत होती है, लेकिन जब वह बड़ा हो गया, तब कुछ नहीं करना पड़ता। छोटे से पौधे के ऊपर आकाश से बरसते मेघ बरसें, तो उसकी मौत तय है, इसीलिए छोटे पौधे को मेघ से बचाना पड़ता है, छोटे पौधे पर सूरज की किरणें ज्यादा पड़ जाऐं, तो मुरझाना तय है, यह सत्य है, कि उस आकाश का सूरज, मेघ, वैसे तो जीवन दायी है पर छोटा पौधा अभी तैयार ही कहाँ हुआ है, अभी उसमें पूर्णतः शरण आत्मसात होने का ख्याल ही नहीं है। उसी प्रकार वह प्यारा सतगुरु करूणा मेहर व सारी स्वांग लीलाएं करता है, सिर्फ इसलिए कि शिष्य हरे माधव अकह प्रभु के योग्य बन सकें, तो ऐ मुरीद! तू उसके योग्य बन, फिर वह तुम्हें इस योग्य बना देता है कि तुम उनके पारब्रम्हमय राज़ों रम्जों, मौज को समझ सको, क्योंकि प्यारा सतगुरु आतम व प्रभु के मध्य की कड़ी है।
वक्त के प्रत्यक्ष हरिराया सतगुरु जीवात्माओं पर दया-रहमत कर, उनके और हरिराया प्रभु के मध्य, आतम प्रभुता का रूहानी तालमेल बैठा देते हैं।

जिन्हें पूरन साधु सतगुरु की संगत मिल जाए और हृदय में सतगुरु की प्रेमा भक्ति बस जाए तो फिर जीव वह कभी नीची अवस्था में नहीं गिरता। जिस प्रकार कनक गेंहू से आटा बना, आटे से रोटी पक गई तो वह दोबारा कनक नहीं बनती, उसी प्रकार जिसका हृदय घट, सतगुरु की मेहर करुणा से, बक्शे नाम से जगमगा उठता है, न्यारे साधु की शरण संगत से, वह सबसे ऊँचे अविनाशी आतम सुख को पा लेता है, जो संसार में किसी के कहने बोलने से नहीं छिन सकता। उन भगतों शिष्यों का तन-मन, सतगुरु नाम में रंग, सतगुरु प्रेम में भीग मस्त हो जाता है और ऐसी पावन आत्मायें हरे माधव साहिब प्रभु से मिल स्थाई सुख पा लेती है, क्योंकि वह अगोचर न्यारा साहिब, पूरे सतगुरु साधु की संगत से ही लभा जाता है, पाया जाता है।

उनके पावन दर्शन सत्संगति और नाम की कमाई कर रूहें न्यारे सचखण्ड महल में पहुँच जाती हैं, फिर वे आवागमन के फेरों में कदापि नहीं आतीं।

प्यारे! समरथ सतगुरु की कृपा, आशीष तो अर्जित करनी ही होगी, किन्तु वह मुफ्त भी नहीं मिल सकती, मुफ्त में कुछ मिलता भी नहीं है और जो ऐसी इच्छा रखते हैं, वे सदा खाली ही रह जाते हैं, भला इस दुनिया में मुफ्त कहाँ कुछ मिलता है? और जहाँ अमृतराया की बात उठती है, वहाँ तो पूरे के पूरे दाव लगा देने पड़ते हैं, पूरा का पूरा सिर ही देना पड़ता है।

संत कबीर जी ने साची बात कही-

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिए जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।

कहा, सीस दिए जो गुरु मिले, क्योंकि गुरु अमृत की खान। जीव का शरीर तो मौत का ही घर है, हमारे अंदर विष की बेलरी भरी है, यहाँ सिवाय मौत के और कोई फल नहीं लगता और फल देख पेड़ की पहचान हो जाती है। इस शरीर रूपी वृक्ष याने इस विष की बेलरी में मृत्यु जन्म के फल पकते हैं, मगर फिर संतजी ने कह दिया-

गुरु अमृत की खान

पूरन हरिराया सतगुरु से भनक आती है, अमर अमृत की, उनकी सत्संगति कर, शरण में बैठकर, अनहद नाद की धुनी झंकार सुनाई पड़ती है अमरा अमृत की। तब उस एको चैतन्य संगीत का छोटा सा टुकड़ा तुम सुन लेते हो, जो अमृत रबियत से भरा होता है, फिर वहाँ जन्म-मरण नहीं। याद रखो! सीस चढ़ाकर भी यदि गुरु मिल जाए तो सौदा महंगा मत समझना, क्योंकि-

सीस दिए जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान

साधसंगत जी! आप छोटे से सौदे को भी इसीलिए पकड़ लेते हो, कि लाभ अधिक मिले, पर बड़ा व्यापारी तो बड़े लाभ का इच्छुक है, सभी लोग लाभ के लिए दौड़े जा रहे हैं, और यह गलत भी नहीं है, लाभ के लिए दौड़ना निहायत जरूरी है लेकिन हम गफलत में पड़े जीव जिसे लाभ का सौदा समझ लेते हैं, वह असल में घाटे का होता है और हम घाटे की दौड़ में लग जाते हैं। संतजी समझाते हैं, अगर खुदी अहंकार की गरदन चढ़ाकर हरिराया समरथ सतगुरु मिले, पूरा गुरु मिले, तो भूलकर भी यह सौदा महंगा मत समझना। तुम्हारा शीश तो चढ़ ही जाएगा, आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों या नरसों, मौत के घाट, मरघट पर जरूर चढ़ेगा। ऐ मनुआ! क्यों करते हो गुरुर अपने इन चार दिनों के हाट पर, मुट्ठी भी खाली रहेगी जब पहुँचोगे शमशान के घाट पर।

ऐ सतगुरु के प्यारों! इस देह के नष्ट होने से पहले ही इसका फायदा उठाओ, साध-संगत में आकर, हरिराया सतगुरु के पावन दरस का रस पा लो, उनका नाम सिमरन कर, इस अमोलक मानुष तन को लेखे लगा लो।

पूरन सतगुरु का दर्शन, उनकी सत्संगति ही हमारे तापों, पापों, संतापों को हरने वाली है, उसकी महिमा तो वेद, पुरान, देवी, देवता भी गाए जा रहे हैं, जो कि शबद वाणी में आगे आया, जी आगे-

।। सतगुरु उस्तत करे वेद-देवा, वो औलाई अनहद धामा।।
।। करो सत्संगत शरण पड़ो, तज हउमें मद ख्याला।।
।। प्यारे शरण सत्संगति जागो, सतगुरु दाते की।।
प्यारे शरण सत्संगति जागो, सतगुरु दाते की

हुजू़र सतगुरु महाराज जी समझाते हैं, कि जो भी जगा, जिसने भी पाया पूरन कृपाल सतगुरु की शरण संगति से ही पाया, वह कृपालु दाता जीवों पर दया-मेहर कर नित अमृत की वर्षा करता है, कर रहा है।

प्यारे शरण सत्संगति जागो, सतगुरु दाते की

साधसंगत जी! जब सूरज की सारी किरणें रोशनी से भरी हैं, आकाश से बरसते मीठे पानी के मेघ शीतलता से भरे हैं, तो क्या परमहंस सतगुरु की हर एक मौज, रूहानी महकमे, उनके प्रभुमय भजन मुख से फरमाई वाणी-वचन परम अमृत से नहीं भरे होंगे! ऐ रब के अंश, गुरु महाराज जी के हर एक स्वांग, लीलाएं वाणी वचन परम अमृत से रचे बसे हैं पर कई जीवों का बुद्धि विवेक दिमाग या ज्ञान में चलता है जिससे उन्हें पूरण सतगुरु वचनों में थोड़ा बहुत ओस की बूंद की तरह प्रकाश दिखता है मगर पूरा नहीं क्यों?

क्योंकि ऐसों के दिल में अलग भावनाओं की धारा बहती है और उनकी पात्रता अभी छोटी है। जब शिष्य के दिल और दिमाग एक हो जाते हैं, तो प्यारे सतगुरु की शरण में आहिस्ते-आहिस्ते अंतरघट की परम ज्योति, परम अमृत विज्ञान का सूर्य उगता है, पूरण सतगुरु दरस से अंतरघट चानण हो जाता है।

आगे शिष्यों के लिए हिदायती वचन बक्शते हुए, सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी ने हरे माधव संतमत वचन 27 में फरमाया, सतगुरु शरण में रहते हुए भी जिन शिष्यों का मन मलिन व चित्त शंका से भरा हुआ है, वह इन दोषों से भरे होने के कारण कभी कोई सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता, इसलिए बाबा! शिष्य को सदा इन दोषों से बचना चाहिए।

His Holiness Satguru Baba Ishwarshah Sahib Ji ex- plains to the disciples in Hare Madhav Santmat Vachan 27 that Even after being in the divine company of True Master, a disciple whose mind is filled with doubts & malicious thoughts, can never attain any spiritual accomplishment. Thus, O Dear! A diciple must always refrain from such vices.

श्री रामचरित मानस के बालकाण्ड में भी पूरण सतगुरु की दया जो सूरज के समान जीवन देने वाली दात है, उस विषय में समझाया गया-

बंदउँ गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नर रूप हरि।
महामोह तम पुंज, जासु बचन रबि कर निकर।

श्री सतगुरु महराज जो कृपा के सागर मनुष्य रूप में साक्षात पारब्रह्म हैं, गोस्वामी जी वंदना करते हुए कह रहे हैं, मैं उनके पावन चरण कमलों की बारम्बार वंदना करता हूँ, उनके सार सच्चे वचन सूर्य की किरणों के समान हैं, जिससे मोह-दुयी का घने से घना अंधकार नष्ट हो जाता है। सतगुरु महाराज जी के प्यारे वचन मधुर वचन सारे जीवन को बदल देते हैं। यह सत्य है, प्रभु साहिब के देश से, अर्श से, जीवन मुक्त पारब्रम्ह स्वरूप, भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु, अपनी पारब्रम्हमयी रब्बी वाणियाँ लेके आते हैं और जीवों के मन पर इन वाणियों से चोट कर क्षेत्र से क्षेत्रज्ञ का उल्लेख करते हैं, जो कि हाजि़रा हुजू़र सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के भजन मुख से फरमाई रब्बी वाणियों में उस अनामि मुल्क की न्यारे पुरुख की बादशाहत के राज़ हम सभी श्रवण करते हैं। आगे फरमान आया-

साधसंगत जी! बर्फ की वादियों को देख ठंड उभर पड़ती है, लू के मौसम में सैर सपाटा कर ठंडे पानी की याद आती है, यह हम अपने जीवन काल में अनुभव करते हैं, इसी तरह पूरण सतगुरु का दर्शन कर हमें हरे माधव अकह परमेश्वर की याद, उनके अंश होने की याद आती है। पूरण सतगुरु के दर्शन कर यह ज्ञात होता है कि संसार सराया है और जिस प्रभु से हम बिछड़े हैं, उस अकह प्रभु के प्रगट रूप पूरण सतगुरु हैं।

भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु का दर्शन कर आतम आनंदित हो उठती है। ऐसे कमाई वाले सतगुरु का दर्शन जीव को दुखों, कष्टों, कलेषों से उबार लेता है। ऐसे श्रीदर्शन से आतम सार भजन का सुख पा लेती है और भवसागर से पार हो जाती है।
पूरे सतगुरु के दर्शन महातम से हमारे पुण्य संस्कार उदित होते हैं और भाव-भक्ति, निष्काम प्रेम का अदृश्य प्रसाद प्राप्त होता है। सतगुरु के दर्शन से आतम एकाग्रता पाती है, उनकी पावन संगति से आतम के भाव निर्मल माधुर्य हो अंतःकरण में सूर्य के सम प्रकाशमय हो उठते हैं।

प्यारी अंशी आत्माओं! पूरा सतगुरु जागृत परम पुरुख, सिद्ध ताकत है और वह ताकत सर्व सांझी रूहों के लिए सम है चाहे आप किसी भी कौम जाति मजहब के हों क्योंकि पूरा सतगुरु सूर्य के सम समदर्शी है, स्कंद पुराण गुरु गीता में 181 श्लोक में भगवान शिव जी, पार्वती से परम गुरु की महिमा कथ रहे हैं-

यस्य दर्शनमात्रेण मनसः स्यात प्रसन्नता
स्वयं भूयात धृतिश्शांतिः स भवेत! परमो! गुरुः!

अर्थात् जिनके दर्शन से आतम आनंदित प्रसन्न हो जाती है, आतम में स्वतः ही धैर्य और शांति आ जाती है, वे पूरण परम सतगुरु हैं। ऐसे तत्वदर्शी पुरुख, पूरण तत्व के जलाल से जगमग हैं, उनका रोम-रोम जागृत परम ब्रम्हमय है, ऐसे निर्मल मूरत के दर्शन दीदार का फल इस बेस्वादी जिव्हा से कथा नहीं जा सकता। सत्संग की पावन वाणी में फरमान आया-

प्यारे सतगुरु दरस, जनम मरण का फंदा काटे
सतगुरु उस्तत करे वेद-देवा, वो औलाई अनहद धामो

पूर्ण तत्वदर्शी सतगुरु के दर्शन का महातम, महाभारत ग्रंथ में आता है, जब पाण्डव अश्वमेघ यज्ञ कर रहे थे, तब भगवान श्री कृष्णचंद्र जी ने आकाश में घण्टा नाद बजने का इशारा किया, कि इसके बजने पर ही तुम्हारा यज्ञ पूर्ण होगा। यज्ञ विधि पूरी हुई, सभी जपी, तपी, ऋषि देवर्षि, राजऋषि, हजारों करोड़ों लोग भोजन खा चुके थे पर नाद न बजा। पाण्डवों ने भगवान श्री कृष्णचंद्र जी को सारी व्यथा बताई, तो दिव्यदृष्टि से देख श्री कृष्णचंद्र जी ने कहा,

जब तुम एक पूर्ण तत्वदर्शी पुरुख के दर्शन कर उन्हें यहाँ मर्यादा से ले आओ, भोजन कराओ और उन्हें प्रसन्न करो, तभी तुम्हारा यज्ञ सफल होगा, आकाशी नाद भी बज उठेगा। श्री कृष्णचंद्र जी ने कहा, सात समुद्रों की विशालता का फिर भी अनुमान लगाया जा सकता है परंतु ऐसे कमाई वाले पूरण तत्वदर्शी सतपुरुख सदा सदा बेअंत है। ये इस जगत में पूर्ण परमात्मा हैं। इनके आगे तीनों लोकों के स्वामी ब्रम्हा-विष्णु-शिव यानि मैं भी कुछ नहीं।

संगतों! ये रहस्य अंतमुर्खी हैं और आप हम सभी इसे अंतर्मुखी होकर ही देखें, बाहरमुखी नहीं। हरिराया सतगुरु जो अपने अंदर कृष्णत्व प्रगट कर धारण कर चुके हैं, उनके श्रीदर्शन से आंतरिक श्रुति का नाद आपके भीतर भी बज सकता है। श्रीकृष्णचंद्र जी ने आगे कहा, सुपच मुनि जो समय के तत्वदर्शी पुरुख हैं, बेपरवाह हैं और दिव्य मार-फटकार भी कभी-कभी आशीर्वाद स्वरूप दे देते हैं। जब तक उनके श्री चरण कमल यहाँ नहीं पड़ेंगे और वे भोजन ग्रहण नहीं करेंगे, तब तक यज्ञ पूर्ण न होगा। जब पाण्डव और द्रोपदी, कृष्णजी की आज्ञा मान भाव से मर्यादा, आदर सत्कार से तत्वदर्शी सुपच जी के पास पहुँची, सुपच जी साधारण से वेष में बैठे, उन्हें देख पहले तो द्रौपदी के मन में यह बात आई कि हम तो ऊँची जाति के हैं, ये किस जाति के हैं? हम महलों वाले, ये झोपड़े वाले, इनके शरीर और कपड़ों पर भी मैल है, श्री कृष्ण जी ने कहाँ भेज दिया। तत्वदर्शी सुपच मुनि द्रोपदी मन की बात जान गए। तब उन्होंने कड़क बात कही, क्या है, क्या लेने आए हो? पाण्डवों ने सारी कथा बता दी और यज्ञ को चरण कमलों से पवित्र कर भोजन ग्रहण करने की याचना की। सुपच जी ने कहा, पहले तुम मुझे सौ अश्वमेघ यज्ञों का फल दो, तब मैं चलूंगा।

यह सुन वे सभी सोच में पड़ गए और निराश हो लौट आए। श्री कृष्णचंद्र जी को सारी बात बताई, श्री कृष्णचंद्र जी मुस्कुराने लगे, समझ गए, कि यह पूर्ण तत्वदर्शी प्रगट नित्य अवतार हैं, इनके बोल में यथार्थ बातें छिपी हैं, वे यथार्थ सत्य से अपनी लीलायें करते हैं।

साधसंगत जी, शास्त्र सद्ग्रंथों में आया-

संत मिलन को जाइए, तज माया अभिमान
ज्यों-ज्यों पग आगे धरै, सौ-सौ यज्ञ समान

श्री कृष्णचंद्र जी ने द्रौपदी जी को मुनि सुपच के पास दिल में भाव-भक्ति सादगी, निर्मल भावनाओं को भरकर वहाँ पैदल जाने को कहा और ऐसी समझाइश दी कि मन में मैं या मेरा वाला भाव मत लाना, अगर मुनि जी कुछ ऐसे बोल भी कहें जो तुम्हारे अहंकार को चोट करें तो भी प्रेम व श्रद्धा से सिर झुकाना। शुद्ध भावना, पवित्र हृदय व प्रेम से भरे नेत्रों से दर्शन करना। इस बार द्रौपदी मुनि सुपच के पास पैदल ही चलकर गईं और भाव भक्ति मर्यादा से विनती की। मुनि सुपच ने जब पुनः सौ अश्वमेघ यज्ञों के फल देने की बात कही तो द्रौपदी ने कहा, ऐ तत्वदर्शी पुरुख! शास्त्रों में कहा गया है कि आप जैसे पूर्ण तत्वदर्शियों के श्रीदर्शन पाने हेतु उठाया गया एक-एक कदम, सौ अश्वमेघ यज्ञों का फल देता है, हम आपके पास हजारों कदम चलकर आए हैं, आप जितने चाहे ले लें। सुपच मुनि जी समझ गए कि किस परमात्मा ने इस पहेली को तोड़कर, इसे हमारे पास भेजा है। सुपच मुनि जी प्रसन्न हुए और वहाँ चले। सभी ने भावपूर्वक तत्वदर्शी पुरुख के दर्शन किए। फिर उन्हें छत्तीस प्रकार के व्यंजन परोसे गए, तो द्रौपदी के मन में पुनः भाव आए कि इन्हें मेरा बनाया भोजन बड़ा ही स्वादिष्ट लगेगा पर सुपच मुनि जी पाण्डवों और सारी रानियों द्वारा बनाए गए सभी व्यंजन एक ही थाल में मिलाकर हाथों खाने लगे, यह देख द्रौपदी को ग्लानि हुई, मन में मैली भावनाऐं आ गईं।

सुपच मुनि जी ने भोजन ग्रहण किया, लेकिन फिर भी नाद न बजा। निराश पांडवों ने श्रीकृष्णचंद्र जी से विनय कर पूछा, हे प्रभु! अब क्या त्रुटि हो रही है?

श्री कृष्णचंद्र जी ने कहा - ये तो सुपच मुनि जी ही बताएंगे। ऐसा सुन सुपच मुनि जी ने कहा कि इस प्रश्न का उत्तर द्रौपदी जी देंगी। सुपच मुनि के ऐसे वचन सुन द्रौपदी को अपने मलीन मन की भूल का भान हुआ और द्रौपदी ने पूर्ण श्रद्धा व नम्रता से दण्डवत कर क्षमा याचना की। सुपच मुनि ने करूणा कर क्षमा याचना स्वीकार की। फिर आकाश में नाद भी बजा और यज्ञ भी सफल-संपूर्ण हुआ। साधसंगत जी! पूरण तत्वदर्शी सतपुरुखों, हरिराया सतगुरु का ऐसा भजन किया होता है, कि वे भगवान भगवतमय रूप हो चुके होते हैं। वेदों उपनिषदों में भी शुद्ध निर्मल भावना, श्रद्धा से ऐसे पूरण तत्वदर्शी भगवतमय सतगुरु दर्शन की अनंत महिमा गाई गई। श्रीमद् भगवद्गीता में आया-

श्रद्धावांलभंते ज्ञानंम् तत्परः संयतेन्द्रियः
ज्ञानम् लब्धवा परां शान्तिम अचिरेणाधि गच्छाति

खुलासा यह, ‘‘श्रद्धावान’’ यानि श्रद्धालु साधक, ‘‘लभते’’ यानि प्राप्त करना, ‘‘तत्परः’’ उनमें अत्यधिक श्रद्धा प्रेम अनुरक्ता, ‘‘ज्ञानम्’’ यानि ज्ञान, ‘‘पराम्’’ यानि दिव्य, ‘‘अचिरेण’’ यानि शीघ्र ही।

अर्थात् जो साधक प्रेम युक्त श्रद्धालु मन से भरा है, वह दिव्य ज्ञान को समर्पित है, जो इंद्रियों को वस कर ऐसा अधिकारी हो गया, वह आध्यातिमक शांति को पा लेता है, सतगुरु श्री चरणों में दृढ़ विश्वास वचनों में श्रद्धा रख कर ही शिष्य इस तरह की परम तत्व की अवस्था का अधिकारी बन पाता है, वही श्रद्धावान प्रीतवान साधक, मंत्र जाप, शबद जाप के द्वारा, दिव्य सुख को पाता है। उसके भौतिकहिरदय की मलीनता दूर हो जाती है, इस राह पर जीवात्मायें उस तत्वदर्शी को, जिसे आज हम हरिराया पूरण सतगुरु कहते हैं, इस तरह प्राप्त करती हैं-

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानंम् तत्परः संयतेन्द्रियः

हरिराया सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी पूर्ण सतगुरु दर्शन की महिमा, हरे माधव संतमत वचन 181 में फरमाते हैं, ऐ अंशी आत्मा! पूरण सतगुरु के दर्शन भाव प्रेम से करने से ज्ञान सिद्धि, वैराग्य सिद्धि, ध्यान सिद्धि, भजन सिद्धि, शाश्वत मोक्ष सिद्धि का फल तो मिलता ही है, सतगुरु पूरे के श्रीचरण कमलों के ध्यानसिद्धि से प्रकाशमय अविनाशी सिद्धि को पाया जाता है। यह वचन सत्य सत्य है।

His Holiness Satguru Baba Ishwarshah Sahib ji narrates the glory of Satguru darshan in Hare Madhav Santmat Vachan 181, O Soul! By seeking the pious glimpse of Lord True Master with utmost love, we attain the fruits of accomplished wisdom, accomplished detachment, accomplished meditation, accomplished devotion and eternal liberation. Through the Lord True Master’s earned treasure of Dhyana, we too attain the eternal accomplishment.

सत्संग की अंतिम तुक में समझाइश दी गई, जी आगे-

।। मेरा प्यारा सतगुरु अनामा, वो सदा कृपाला अमृत का वो दाता।।
।। बात न भूलो इक साची, प्रत्यक्ष सतगुरु सभ काटे द्वंद।।
।। कहे दास ईश्वर मेरे हरे माधव सत्त मूरत इत उत रहे भरपूरा।।

हाजि़रां हुज़ूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी सत्संग वाणी में वचन बक्श रहे हैं, हमें प्रत्यक्ष हाजि़र सतगुरु मालिकों से जो रहनुमाई, अमृत की तहज़ीब मिली वही सारी रूहानी बरकत मालिकों की मेहर से आप सभी को मिल रही है, आज का सूरज तो आज की रोशनी, बाबा! पहले देह छोड़ चुके गुरुजन अगर हमारी सहायता कर सकते तो फिर सीधा परमात्मा ही क्यों न कर लेता। प्रकट प्रत्यक्ष हरिराया सतगुरु में पूर्व में हो चुके मालिकों की नूरी ज्योतियां पुरनूर हैं और यह दावा झुठलाया नहीं जा सकता, यह सूरज की तरह अमिट सत्य है। हरे माधव वाणी में फरमान आया-

प्रत्यक्ष सतगुरु सभ काटे द्वंद्र-2

कमाई वाले प्रगट प्रत्यक्ष सतगुरु ही नाम, पावन भक्ति देकर आत्माओं को निजघर की गुत्थी, जड़-चेतन की गांठें सुलझा सकते हैं। कमाई वाले प्रत्यक्ष सतगुरु ही आतम मन को बहिसाब द्वंदों से उबार दिव्यमय रूप कर देते हैं, तभी कहा-

प्रत्यक्ष सतगुरु सब काटे द्वंद

इस रचना कुदरत में यह विधान अनादिकाल से खुले आकाश की तरह अमिट है, आज और कल भी, इसलिए याद रखो-

प्रत्यक्ष सतगुरु सब काटे द्वंद

हरिराया सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी हरे माधव संतमत वचन 936 में फरमाते हैं, सारे पृथ्वीलोक के एकछत्र सम्राट से भी सौ गुना सुख यक्षों के पास होता है। यक्षों से सौ गुना सुख गंधर्वां के पास होता है। गंधर्वां से सौ गुना अधिक देवताओं और देवताओं से सौ गुना अधिक सुख अजानू देवताओं के पास होता है।

उससे भी कई सौ गुना सुख होता है देवराज इंद्र के पास और ऐसा इंद्र भी स्वयं को जागृत तत्वदर्शी पूर्ण सतपुरुख के परमत्व वैभव के आगे खुद को कंगाल ही पाता है। ऐसे परमत्व वैभव के साहुकार, पूरण तत्वदर्शी सतपुरुख नाना लीलाएँ रच स्वयं ऐसे परमत्व प्रसाद को सर्वत्र सर्वसांझी रूहों पर लुटाते हैं। बाबा! जब काल भी ऐसे पूरण तत्वदर्शी सतपुरुख के श्रीचरणों में आता है तो उसे भी वह जामा वे अपनी परम मौज से देते हैं या उसे वचन आज्ञा कर देते कि चलो बाबा! आज शरीर नहीं छोड़ना। अब बताओ बाबा, कौन ऐसे पारब्रम्ह पुरुख पूरे सतगुरु का थांव पा सके, कौन अंत पा सके। ऐसे जागृत तत्वदर्शी पूर्ण सतपुरुख की गत-मत कही ना जा सके, बखानी ना जा सके।

His Holiness Satguru Baba Ishwarshah Sahib ji vocalizes in Hare Madhav Santmat Vachan 936 that Yakshaas own far greater prosperity than even the emperor of this world, while Gandharvas own even greater prosperity than Yakshas; Devtaas surpass Gandharavaas and Ajaanu Devtaas own it million times more than Devtaas. Above all prevails the propserity of Devraaj Indra, but the truth is that even Devraaj Indra finds himself a destitute before the supreme prosperity owned by the Awakened Tatvadarshi Satguru. Possessor of such glorious grandeur, Complete Tatvadarshi True Master plays divine spectacles and blesses the divine sacrament to all the souls universally. Baba! Even Kaal cannot take such Tatvadarshi True Master’s robe like body without His divine will. If the True Master does not wish to shed His body, He commands the Kaal to return. So give it a thought, can anyone ever measure the glory of the accomplishment of such Lord True Master? Glory of such an awakened Lord True Master can never be put into words, it can never be sung about.

ऐ प्रभु की अंशी आत्माओं! प्रत्यक्ष सतगुरु में परमत्व भाव को गाढ़ा करते रहो और मन के द्वंदों-दोषों को चरण भक्ति, नाम भक्ति से निर्मल करते रहो। याद रखो प्यारों! आईना तो प्रत्यक्ष होता है, बस शर्त यह कि हमें खुद को संवारने के लिए आईने के सामने खड़े होने की आवश्यक्ता है।

इसी तरह जीवन मुक्त सतगुरु पूर्ण निर्मल रूप दुखभंजन रूप स्वरूप ही हैं जिनकी शरण में शिष्य भगत हरिराया सतगुरु का दरस दर्शन कर अपने तीनों तापों से निजात पाते हैं, अपने दुखों को दूर करने का फल पाते हैं। अनेका-नेक शिष्य भगत यह स्व अनुभव कर अपनी भक्ति को बढ़ाते हैं।

पूरे सतगुरु का दर्शन वेदों-उपनिषदों में भी आवश्यक माना गया है। सतगुरु महाराज जी समझाते हैं कि सतगुरु के स्वरूप का ध्यान करो, साटिक केन्द्र पर अपनी तवज्जू ख्याल को टिकाओ, इससे हृदय में सतगुरु साहिब के लिए गहरा विराट, प्रेम प्रगट होता है और हृदय का कंवल खिलता है, अंतर में हरे माधव ज्योति प्रगट होती है। पूरण सतगुरु का दर्शन आत्मा माधुर्य देने वाला है, मन के दुखों का नाश और पीर हरने वाला है। संत कबीर जी ने सतगुरु दर्शन का महातम यूं बयां किया-

कबीर दरसन सतगुरु का बड़े भाग दरसाए-2
जो होवे सूली सजा कांटे ही टर जाए
दरसन कीजै सतगुरु का, दिन में कई लख बार-2
आसोजा का मेंघ ज्यों, बहुत करे उपकार
कई बार न होई सके, दोय बखत कर लेई
सतगुरु दर्शन के किए, काल दगा नहीं देई-2
दोय बखत न होय सके, दिन में करै इक बार
सतगुरु दर्शन के किए, उतरै भवजल पार-2
सतगुरु दरस नहीं कर सके, ताको लागै दोष
कहे कबीर वा जीव सो, कबहु न पावै मोक्ष

ऐ रब के अंश! अपने प्रियतम हरिराया सतगुरु को निहारते रहने के लिए आतम तड़प उठे, शिष्य मजबूर हो जाए तो वह अनन्य प्रेम है, सच्चा दर्शन है।

यह सच्चे प्रेम की ऊँची अवस्था है जिसमें प्रेमी भगत अपने प्रियतम सतगुरु को पल भर के लिए भी अपनी आँखों से दूर होने नहीं देना चाहता। वह चकोर की तरह अपने सुहिणे बाबल के दीदार का सुख पाता है। वह दर्शन के वक्त कभी समय सारणी का हिसाब नहीं लगाता, नाहिं उसे यह परवाह है कि उसने क्या पाया या क्या खोया, वह हरि रूप सतगुरु के प्रेम में इतना मग्न है कि उसे कुछ भी विचारने का वक्त ही नहीं। उसके नयन भीगे, हृदय भाव से भरपूर, वह बस अपने प्यारे सतगुरु को टकटकी लगाए निहार निहार कर खुश रहता है।

साधसंगत जी! जिससे आप प्रेम-प्रीत करते है, आप उससे पल भी दूर नहीं होना चाहते, बस उसे ही जी भरकर देखते रहना चाहते हैं, और जब प्रेम-प्रीत अपने हरिराया सतगुरु से हो तो आतम का दरशन कर-कर भी जी ही नर्ही भरता, कहाँ भरता है जी। जब शिष्य भगत चकोर की न्याई अपने प्यारे सतगुरु के सुहिणे रूप को निहारते हैं, निहारते ही रहते हैं, तो मनवा के सारे भाव, संसार के विचारों को छोड़ सच्चे सतगुरु, हरिराया सतगुरु के श्रीचरणों तक आ पहुँचते हैं। फिर हृदय के सारे जज़्बात, आँसुओं के अल्फाज़ों द्वारा सतगुरु श्रीचरणों तक पहुँच जाते हैं। इससे हमारा सतगुरु से प्रेम प्रबल होता है, गाढ़ा होता है। यही सच्चे श्रीदर्शन के अमृत रस की निशानियाँ हैं।

ऐ रब के अंश! अपने प्रियतम हरिराया सतगुरु के श्री चरणों में, साधसंगत में बैठो, ऐसा मगन हो बैठो कि आँसू आ जाएँ, बस इतना ही काफी है। उनके श्रीचरणों को छूने की दौड़ नहीं, बस बैठे रहो, सतगुरु के पास, सतगुरु का दर्शन हथ जोड़ अपने स्थान से करते रहो। याद रखना, मन में कुछ भी पाने का ख्याल ना हो, बस अंतर-बाहर से मौन रहो, क्योंकि मौन प्रार्थना सतगुरु के श्री चरणों तक पहुँचती है। क्यां? क्योंकि वह प्रार्थना शब्दों के बोझ से रहित है। ऐ प्यारों! हरिराया सतगुरु के पास होना ही, सबसे बड़ी रहमत है। फिर तुम्हें कुछ और मांगना नहीं पड़ता, उनके सानिध्य में होने से ही सब मिल जाता है, बस श्रद्धा, विश्वास सच्चा रखो। फूल के पास जाकर सुगंध मांगनी नहीं पड़ती, सूर्य से रोशनी की मांग नहीं करनी पड़ती, ऐसे ही सतगुरु के पास मांगने की ज़रूरत नहीं पड़ती, उनकी हुजूरी में ही अथाह रहमतें, लोक-परलोक के सारे सुख स्वतः ही मिल जाते हैं।

हरे माधव भांगां तीसरे में साखी अमृत वचन प्रकाश में जि़क्र आया , सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी का, आप गुरु साहिबान जी अपनी आतम प्रभुताई मौज में दरबार साहिब में विराजमान, शबद कीर्तन का अमृत प्रवाह हो रहा, तभी एक जजमान पंडित, जो अपने अंदर बड़ा अहंकार, अभाव, अश्रद्धा, मलीन चित्त कुभाव से भरा था, पीछे आकर संगत में बैठ गया। बीच-बीच में वह कुभाव के बोल बोलने लगा। वेदों कतेबों के संस्कृत श्लोक भी उच्चारण करने लगा, उसके साथ कुछ सेवक चेले भी आए हुए थे और सभी चित्त में मलीन भाव लिए बेढंगी शरारत कर रहे थे। आप सतगुरु साहिबान जी की आतम मौज में कुछ खलल हुआ। आपजी उठे और एक दुशाला लेकर वहीं पहुँच गए जहाँ वो जजमान पंडित बैठा था। आप साहिबान जी ने दुशाला उसके गले में डाल, कुछ भेंटा भी दी, लेकिन वह महंत पंडित कुभाव, मलीन अहम् से भरा, उठ खड़ा हुआ और बोलने लगा कि बाबाजी मैं तो चौबीस वेदों का ज्ञाता हूँ, ऐसा कोई शास्त्र न होगा जो मुझे याद न हो, मेरे कई चेले भी हैं। आप गुरु साहिबान जी ने समझाया, कि प्यारे! पूर्ण सतगुरुओं की मौज में ये सब दिखावा मत करो। मैला भाव मत रखो, इस थोथे पढ़े लिखे शास्त्र ज्ञान से कुछ नहीं मिलेगा। जब तक पूर्ण सतगुरु की शरण ना ग्रहण की और तुमने उनसे भजन प्रसाद न पाया, तब तक बात नहीं बननी।

बाबा! धर्म पुराणों में भी जि़क्र आया है कि मुनि शुकदेव जैसे चौदह कलाधारी तपस्वी, जब पूरे सतगुरू राजा जनक में दोष अहंकार अभाव मलीन भाव रख शरण में गए तो मुनि शुकदेव की बारह कलाएं गुम हो गयी। भाई! तुम तो अभी एक-दो कला भी नहीं कमा सके हो, तुम जरा खुद को बदलो। बाबा! शिष्य में ऐसे मलीन चित्त वाले भाव नहीं होने चाहिए, वरन् वह खाली का खाली रह जाता है और वह शिष्य काल का शिष्य बन जाता है। लेकिन वह बंदा मलीन चित्त, हठ विचारों में भरा, बड़बड़ा रहा था। यह देख जब आप साहिबान जी ने फटकार लगाई और हाथ पकड़ते हुए रूहानी मरोड़ दी और फरमाया, भाई! खुद को बड़ा महंत मान रहे हो, ज़रा भागवत के कुछ श्लोक ही हमें सुना दो, क्यों मौज में खलल कर रहे हो। संगतों! उस बंदे का रूहानी झिड़प, डांट को पाकर, सारा शास्त्रिय ज्ञान गुम हो गया, अदृश्य हो गया, पूरे जीवन भर का तप, फल उड़ गया। वह हैरान, डरा सहमा कांपने लगा, पूरे शरीर में कंपकपी दौड़ पड़ी और मूढ़ता से भर, वह मदफिरी बातें करने लगा। तब आप सतगुरु साहिबान जी के मुख से ऐसे वचन निकले, कि ‘‘अंधे हो गए हो क्या?’’ यह सुन वह बाहर की ओर दौड़ पड़ा। कुछ समय गुजरा, उस महंत पंडित के रिश्तेदार उसे सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी की हुजू़री में लेकर आए, क्योंकि उसकी आँखों की ज्योति गुम हो चुकी थी, वह ज़ार-ज़ार रोए जा रहा और प्रेम, दर्द से भरी क्षमा, याचना, पुकार किए जा रहा। उसकी यह दयनीय दशा देख आप साहिबान जी अपनी मौज में उठे और वचन फरमाए, क्यों ले आए हो इसे यहाँ, क्या हुआ? क्यों पंडित जी, जब हम तुम्हें समझा रहे थे, तब तो तुम बड़े राग अलाप रहे थे, जो तुमने चालीस सालों की तपस्या कर पठ शास्त्रों को याद किया था, वह तो एक क्षण में ही सभी गुम हो गए, तुम तो हमारे पास यही भाव ले आए थे न, कि ये सिन्धी गुरु हैं और मैं जाति का बामन हूँ।

वह बंदा हथ जोड़, बस रोए जा रहा था और बाबाजी से कहा, जी बाबाजी, यही भाव था, यही मेरा मन मैला था। आप साहिबान जी ने उसकी दयनीय दशा देख, करुणामय वचन फरमाए, अपने किए पर पछतावा बहुत है। बाबा याद रखो! हरिराया सतगुरु की कोई जाति नहीं होती, वह मालिक प्रभु की तरह सर्वव्यापक, न्यारा और अजात है। जिस तरह हवाओं की कोई जात नहीं, पानी की कोई जात नहीं, रोटी की कोई जात नहीं, प्रभु की कोई जात नहीं, तो प्रभु रूप हरिराया सतगुरु की कैसे कोई जात होगी? संतवाणी में भी आया-

तहं जात धर्म की बाती नाहीं।
सतगुरू नाम जिन आराधा, ताकी कोई जाति नाहीं।
तहं कर्म करनी की होगी बातें, जागो सतगुरू संगत आए।
कहे कबीर सुन साधवा, तहं देश में भजन की बाता।

बंधू! याद रखना, हरिराया सतगुरु की आतम, उस न्यारे राम दाते में मिल एक हो गई है। उस हरे माधव प्रभु की दरगाह में पढ़े-लिखे शास्त्र ज्ञान का कोई मोल नहीं, वहाँ करनी की बातें होती हैं, वहाँ तुम बामन हो, क्षत्रिय हो, शूद्र हो, वैश्य हो, ये सारी जातियां नहीं चलती। हरिराया सतगुरु हमें गुरुमुख बनाके जो नाम की दात देते हैं, वही करनी, बहीलेखा हमें चौरासी से छुड़ा सकता है। ये सारी बातें सुन, वह जजमान पंडित रो पड़ा और पुकार उठा, हमें बक्शीए सतगुरु मालिक जी! मैं बड़ा गुनहगार हूँ, मुझे बड़ा गुमान था, कि मैं इतने शास्त्रों का ज्ञाता हूँ, लेकिन वो तो सब गुम हो गए, अब मुझे अपने पावन श्री चरणों की सत्संगति का आसरा बक्शें। आप सतगुरु साहिबान जी ने रूहानी डांट-झिड़प लगाकर, उन्हें बिठाया, प्रसाद खिलाया और ये वचन फरमाए, ‘‘अभी वो समय नहीं है और जिन आँखों की ज्योति तुम चाहते हो, उन आंतरिक आँखों की बादशाहत आगे चलकर मिलेगी, अभी तुम ये सारे हठ धर्म छोड़ो, तुम जिस गांव खेड़े में तुम रहते हो, वहीं उसी जगह बैठे, तुम्हें सारा, रूहानी आंतरिक भेद मिलेगा।’’

वह बंदा, करुण पुकार करने लगा, महाराज जी! वह समय, वह वेला कब आएगा? आप गुरु महाराज जी ने फरमाया, चिन्ता मत करो, आगे चलकर हमसे भी बड़ी दस गुना शक्ति लेकर, भजन सिमरन की भारी कमाई वाली ज्योत प्रगट होगी, जो परमत्व का उपदेश, सर्व सांझी आत्माओं को देगी, वही आकर तुम्हें बक्शेंगे। यह हमारा कौल है, जहाँ तुम रहोगे, वहीं तुम्हें आंतरिक आतम धर्म का भेद मिलेगा और तुम ऐबदार को बक्शा जाएगा, तुम्हारी देह की उम्र लम्बी होगी लेकिन देह के रोगों के कारण तुम निर्बल हो जाओगे, फिर भी वहीं तुम्हें सब भेद मिलेगा।

साधसंगत जी! लगभग 25 बरस गुज़र गए, भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी, शिष्य सेवकों को लेके, सत्संग सभा का दौर बना, हुजूर साहिबान जी की दया रहमत सत्संग सभा में हुई, सत्संग के उपरांत प्रेमी भगतों ने विनती की, मालिकां जी! भोजन प्रसाद बनाया है, दया कर भोग लगाऐं। आपजी ने सेवक से कहा, हम आगे जंगल में चल रहे हैं, वहाँ भोजन प्रसाद लेकर आओ। आपजी ने जंगल में भोजन किया और सेवकों को भी प्रसाद खाने की आज्ञा दी। कुछ समय बाद आपजी फरमाए, ‘‘हम आ रहे हैं, कोई पीछे मत आना।’’ इतना कह अपनी मौज में विचरण करते हुए, आपजी कोसों दूर चले गए। वहाँ उसी जंगल गांव में एक झोपड़ी बनी हुई थी, जहाँ वही जजमान बंदा, जिसकी उम्र बहुत बड़ी हो चुकी थी, जिससे न चलना हो सके, न फिरना हो सके, एक ही खटिया पर पड़े पुकार रहा, कि ‘‘ऐ मेरे मालिक! क्या वे कौल वचन आपको याद नहीं, मैं बड़ा मैले मलीन मन वाला, कुपात्र हूँ। मेरे प्रीतम जी, मेरे अवगुण, क्षमा के योग्य तो नहीं है, मैं क्या करूं मेरे माधव, आपजी के पास तो हज़ारों, लाखों शिष्य भगत हैं, लेकिन मेरा तो तू ही एक सहारा है, मैं जि़न्दा हूँ, तो उस क्षण के लिए, कि मेरे सतगुरु आऐंगे, मुझे दर्शन देंगे और मुझे क्षमा कर आंतरिक अमृत नाम की बक्शीश देंगे।’’

वह प्यारा, पुकार करते हुए, जैसे ही उठने की कोशिश करता, फिर खटिया से गिर पड़ता, विरह प्यास दर्शन की इतनी बढ़ गई कि पानी की एक बूंद तक नहीं पी रहा था, कई लोग उसको आके ताने देते, कि अब गुरुसाहिबान जी यहाँ थोड़े ही आऐंगे? उनकी मौज तो बहुत बढ़ चुकी है। या यूं भी कहते कि तुम बामन होके, सिन्धी गुरु की ओर दौड़ रहे हो। यह सुन वह बंदा ज़ार-ज़ार रो पड़ता और कंकड़, पत्थर उठा, उन्हें मारता और कहता, हरिरूप सतगुरु जी की कोई जात कहाँ होती है, तुम सब भागो यहाँ से। यह कह, फिर वह रो उठता, याद करता हुआ, लकड़ी का सहारा ले, निहारता रहता और ऐसी करुण पुकार करता, कि ऐ मेरे मालिक! मुझे अब जिन्दगी रास नहीं आ रही, पर मेरा आसरा, तो एक तेरा दरस ही है। गुरु महाराज जी, क्या मेरे इस जीवन का अंत तेरे दरस के बगैर होगा, मैं बड़ा गरीब अभागा हूँ, हे हरिरूप सतगुरु! दर्शन दो।

ऐ मेरे मालिक! मुझे मेरे मित्र, पड़ोसी रिश्तेदार, तेरी महिमा का जि़क्र सुनाते हैं, तेरी वड्यिई रहमतों का बखान करते हैं तो मैं जल बिन मछली की तरह तड़प उठता हूँ। गुरु महाराज! क्या तेरे चरणों की जुदाई ही मेरी जिंदगी है? मेरे पैर, मेरा सारा शरीर तेरे प्रेम वियोग में इतना निर्बल हो चुका है कि चंद कदम चलना भी, दुश्वार हो गया है। ऐ प्रभु बाबल! मेरे पापों गुनाहों की इतनी बड़ी सजा? भला कोई अपने प्रेमी भगत से इतना भी रूठता है? क्या तू मुझे विसर गया है? पर मेरे दातार! मैं तुझे कैसे विसारूं, मुझ कुपात्र को दरस दो, मैं बड़ा ऐबदार हूँ, देखो मेरे ऐबों की हालत, एक तो मैं निर्बल हूँ और दूसरी ओर मेरे घाव इतने भर चुके हैं, कि एक जगह पड़े रहने के कारण, इनसे कीड़े भी गिर रहे हैं, मुझे बड़ा कष्ट है, बड़ी ही पीड़ा है, लेकिन फिर भी मैं इन कीड़ों को इसीलिए नहीं निकाल रहा हूँ, कि जब ये मुझे काटते हैं, तो तेरी याद, प्रेम, विरह बनी रहती है, और फिर मैं इन्हें कहता हूँ, कि मैं तुम्हें भी अपने मालिक प्रभु का दरस करवाऊँगा।

वह दोनों हाथ उठाए पुकारता, ओ मेरे प्रभु जीओ, हरे माधव बाबा! कब मेहर करोगे, मेहरबान, मुझे इन आँखों की ज्योति और ज्ञान नहीं चाहिए, क्योंकि इन आँखों के कारण, थोथे ज्ञान मलीन चित्त के कारण ही मैंने तेरे परमत्व रूप की पहचान नहीं की, लेकिन तुमने कौल किया था, कि परमत्व का उपदेश सर्व सांझी आत्माओं के लिए ले आओगे, उस ऊँचे समय के लिए, यह कौल भी किया था, कि आपजी की भजन सिमरन की भारी ज्योत प्रगट होगी, उनका दीद दरस कब होगा? हे मेरे साहिब! मैं असहाय दीन हूँ, हे दीनानाथ, हे गरीबनवाज, मुझ गुनहगार पर मेहर करो, अगर जो इस कदर रूलाना दर्द देना था, तो मैले मलीन चित्त वाले मनमुख से मुझे निर्मल मन, चित्त शुद्ध वाला गुरुमुख क्यों बनाया, मैं पापों के नरक में जलता ही रहता, क्यों बचाया, अपना विरद कुछ तो याद करो, मेरे गुरु बाबाजी।

बड़ी मौज पूर्ण संत सतपुरुखों की होती है, यह गतमत, यह रम्ज़ों की बातें कोई नहीं जान सकता। जब हाजि़रां हुजू़र सतगुरु साहिबान जी भ्रमण करते हुए, वहाँ पहुँचे, उस वक्त गरमी का दौर था, आपजी को प्यास लगी और आपजी एक पेड़ के नीचे बैठ गए। वहाँ विरह पुकार की आवाज सुन, आप उस दिशा में गए, झोपड़ी के बाहर खड़े होके, आवाज दी, कोई है, जो हमें पानी पिलाए-2।

जब उस जजमान पंडित जी ने आवाज सुनी, तो उसने दौड़ कर बाहर आने का प्रयास किया लेकिन शरीर निर्बल होने के कारण गिर पड़ा और सिर से खून की धारा बह निकली, वह ज़ारां-ज़ार रो-रोकर फरियाद करने लगा, कि ओ मेरे सतगुरु साहिबान जी! इतने बरस लगा दिए, इतना समय लगा दिया, मुझे विसार दिया। हुजूर सतगुरु महाराज जी ने मुस्कुराकर कहा, कौन हो आप और क्यों रो रहे हो? वह रो-रो कर विरह-प्रेम में याचना करने लगा, हे दीनानाथ! अब और मेरी परीक्षा मत लो, अब तेरे विरह प्रेम में इतने बरसों में, मुझे भान हो गया है, मेरी आतम की आंखों ने पहचान लिया है कि आप अपना कौल पूरा करने आ गए हैं।

गुरु महाराज जी! आपके प्रेम, विरह, वियोग में मेरे अंतर की मैल धुल चुकी है, मैं आज वो देख, सुन रहा हूँ, जो सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने उस वक्त श्री वचन फरमाये थे। वही मनमोहक, मनोहर छवि, उसी सुहणे रूप का दीद हो रहा है क्या मुझे काल चौरासी में भरमाओगे? मोहे अब तो उबारो-2 और रो-रो कर श्री चरणों में गिर पड़ा। और फरियाद करने लगा-

अवर न सूझै दूजी ठाहर, हारि परिओ तउ दुआरी।
लेखा छोडि़ अलेखै छूटह, हम निरगुन लेहु उबारी।

आप सतगुरु साहिबान जी ने करूणा कर हाथ पकड़कर, उन्हें उठाया और कुटिया में ले गए, पानी पिया और बाबाजी ने उस प्रेमी बंदे से कहा, प्यारे! विरह प्रेम में आकंठ डूबी तुम्हारी करुण पुकार सुन हम कैसे रुक पाते। आपजी ने उसे गले लगाया और फरमाए, सौ साल की उमर हो गई है, अभी कुछ सालों तक आप और रहोगे फिर हरे माधव लोक में आप गति करोगे।

साधसंगत जी! सतगुरु साहिबान जी ने मेहर कर, उसे गुरुप्रसाद से नवाजा़, जिससे उसका रोम-रोम भावमय, प्रेममय हो गया और उसे परम रोशनी में एक होने का सतगुरु साहिबान जी ने बल बक्शा और वचन फरमाए, भला होगा, भला होगा।

संगतों! पूरण हरिरूप सतगुरु आत्मिक शांति व शाश्वत खुशहाली को सभी आतम रूहों पर समत्व भाव से बरसाते हैं। हरिराया सतगुरु एक एको असीम से असीम, बेअंत से बेअंत सत्त महाविराट सागर से, काल जीव मण्डल के मध्य प्रगट होते हैं, पूरन सतगुरु किसी कौम, किसी जाति वर्ग विशेष के उत्थान प्रोग्रेस के लिए नहीं आते,

पूरन हरि रूप सतगुरु समस्त भूमण्डल के आतम मंगलकारी उद्धार के लिए प्रकाशमय रूप में प्रगट होते हैं और हरिरूप सतगुरु की शरण में जीव सदा के लिए निर्भय, निश्चिन्त, निर्द्वंन्द हो जाते हैं और फिर जिन्हें प्रगट हरिरूप सतगुरु की शरण पनाह, प्रेमामय भक्ति, अमृतनाम का महादान मिला, वे भाग्यशाली हुए।

फिर ऐसी आत्माओं का रोम-रोम भावमय, आनन्दित हो उठा, हरिरूप सतगुरु जब अपनी शरण में जीवों को लेते हैं तो जन्मों के दुखों का निपटारा अपनी करुणा नज़र से कर देते हैं। सांईजन फरमाते हैं, बाबा! याद रखो, शिष्य को अपनी भाव योग्यता, प्रेम योग्यता का तप सतत् बनाए रखना पड़ता है, शिष्य को सतत् अंतरमुखी भाव धारण करना पड़ता है, तब ही सारे द्वन्द कटते हैं, कहा-

बात न भूलो इक साची, प्रत्यक्ष सतगुरु सभ काटे द्वंद

ऐ रब के अंश! प्रगट प्रभुजियो सतगुरु का दर्शन, अनन्य भाव, अनन्य प्रेम, अनन्य श्रद्धा, अनन्य प्रीत हृदय में भरकर, नित्य करना।

वडे भाग देवे परमेश्वर, कोट फलां दरसन गुरु डीठे

बड़े भाग हों, तब ही जीव को भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु का दर्शन होता है। जिस दिन हरिराया सतगुरु का दर्शन हो उस दिन आप जानना कि परमात्मा आपसे प्रसन्न है, वह हरे माधव प्रभु आपसे खुश है। जिस दिन श्रीदर्शन प्राप्त न हों, उस दिन जानना कि आज परमात्मा प्रसन्न नहीं है। यह सदा ही अटला नियम है।

हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी हरे माधव यथार्थ संतमत वचन प्रकाश 51 में फरमाते हैं, बाबा! रेगिस्तान मरुस्थल में, तपती धूप में अनंत किलोमीटर चलने के बाद, कोई अंजुलि भर ही पानी दे दे तो हमें पानी की कीमत और पानी देने वाली की करुणा समझ आती है। इसी तरह इस कालखण्ड में, जीवात्मायें काल के रेगिस्तान में चिरंकाल से तीनों संतापों के ताप से धधक रही हैं, जब पूरे भजन वाला अमृत सतगुरु मिला तो आत्माओं को परम अमृत मिला, आत्माओं को शाश्वत ठौर मिला। फिर सतगुरु के श्री चरण मीठे लगने लगते हैं।

His Holiness Satguru Baba Ishwar Shah Sahib Ji explains in the Hare Madhav Yatharth Santmat Vachan Prakash 51 that, O dear! After walking for endless miles in the sunny desert, when someone offers us a
handful of water, it is then that we realize the importance of water and the compassion of the giver. Similarly, in this land of Kaal, the souls are suffering from the tri-agonies in the desert that is world, when a soul finds the possessor of complete Bhajan Lord True Master, only then it procures the Amrut, it procures the true shelter.

फिर संतजी कहते हैं-

रब तुट्ठे दी एह निशानी, संतां संग विहावे

बाबा! हरिराया प्रभु के खुश होने की निशानी यही है कि वह हमें पूरण सतगुरु की अखण्ड चरण छांव में बिठा देता है, हरिराया सतगुरु का सफला दर्शन करा देता है और आपकी आतम आनंदित हो उठती है, भजनमय हो उठती है, सतगुरु के श्री चरण कमलों का ध्यान इकनिष्ट हो जाता है। इकनिष्ट शरणागति जब शिष्यों की प्रकट हरिराया सतगुरु जी के श्रीचरणों में हो जाती है तो आतम को सर्वस्व प्राप्त हो जाता है। आगे इस बेहिसाब हरिराया सतगुरु की ताकत को, पावन प्रताप को कथा ही नहीं जा सकता, बस, बस, बस।

सो विनती है प्रगट हरिरूप सतगुरु श्री चरणन में, हम सभी संगतों के हृदय में हे हरिरूप सतगुरु साचे दर्शन का भाव, आंखों में प्रेमाभाव, प्रीत के आंसू, आतम में हरिरूप सतगुरु के आलौकिक दरस की मेहर किरपा बक्श, मेहर करें मेरे माधवजी, दया करें सतगुरु जी।

।। बात न भूलो इक साची, प्रत्यक्ष सतगुरु सभ काटे द्वंद।।
।। कहे दास ईश्वर मेरे हरे माधव सत्त मूरत इत उत रहे भरपूरा।।

हरे माधव   हरे माधव    हरे माधव