|| हरे माधव दयाल की दया ||

।। भगत तेरे मन भावन्दे, भगत तेरे मन भावन्दे।।
।। तू भगतन का, भगत तुम्हारे, मेरे प्रीतम प्राण आधारे।।
।। भगत बिना कोई न जाणे जुगत पूरी, करे सतगुरु संग भगतधारी।।

भजन सिमरन के भण्डारी सतगुरु महराज जी की पावन ओठ छाया सत्संग अर्श वाटिका में बैठी संगतों, आप सभी को हरे माधव, हरे माधव, हरे माधव। साहिबान जी के पावन श्रीचरण कमलों में दण्डवत अर्पण हो, समर्पण हो।

आज के सत्संग, भगवतमय रसीले वचनों की वाणी, पुरनूर शहंशाह बाबा माधवशाह साहिब जी द्वारा फरमाई गई वाणी है। आप साहिबान जी ने सच्ची भक्ति को हासिल करने का सहज, सरल तरीका, अपनी वाणी के रब्बी संदेश में फरमाया,

भगत तेरे मन भावन्दे, भगत तेरे मन भावन्दे
तू भगतन का, भगत तुम्हारे, मेरे प्रीतम प्राण आधारे
भगत बिना कोई न जाणे जुगत पूरी, करे सतगुरु संग भगतधारी

भक्ति को प्राप्त करने का सहज सरल जरिया है, भगवन्त रूप कमाई वाले प्रगट सतगुरु की पनाह ग्रहण करना, जो सर्व आत्माओं को भक्ति का फल बक्शते हैं। उनकी चरण-शरण में मन का टिक जाना, यह सतगुरु भक्ति को प्राप्त करने की खूबसूरत रूहानी सीढ़ी है। जिस भगत के दिल में ये वचन पुख्ता बैठ जाते है, उसकी भटकन दूर तो हो जाती है, सुरति साफ होकर, सतगुरु भक्ति के रंग से भर जाती है, फिर भक्ति करने वाले जीव के लिए बंधन और मोक्ष की बात खत्म हो जाती है। उसके यह सवाल हमेशा के लिए हल हो जाते हैं कि बंधन क्या है और मोक्ष क्या है? प्रभु जियो की संगतों! भगंवत रूप सतगुरु की शरण से ऊँचे दर्जे की भक्ति का नुस्खा मिलता है, भगत के दिल से दिन-ब-दिन अंधकार दूर होता है और नूरानी रोशनी, परम तृप्ति आ जाती है, वह भगत, भगवंत का प्यारा बन जाता है और भगवंत, भगत के प्राण आधारे बन जाते हैं।

तू भगतन का, भगत तुम्हारे, मेरे प्रीतम प्राण आधारे
तू भगतन का, भगत तुम्हारे, मेरे प्रीतम प्राण आधारे

हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी, हरे माधव पीयूष वचन उपदेश 215 में फरमाते हैंः

‘‘पूरण सतगुरु की बारगाह में आए हर एक सांसारिक प्राणी को यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि बाहरमुखी झूठे पदार्थों की प्रीत तो एक छलावा, धोखा मात्र है। इस मिथ्या सांसारिक प्रेम का ही दूसरा नाम मोह है। दुनियावी मोह को पूर्ण संतों ने दुख का खुह कहा। प्यारों! चिरंकाल से तुम अपने मन को संसार की ओर अर्पण करते आ रहे हो परन्तु इससे तो भटकन बढ़ती है और तुम अशान्ति, तनाव, चिन्ताओं और तीनों तापों के रोगों से घिरे रहते हो। इन तापों से उबरने के लिए केवल पूरण सतगुरु भगति ही उपाय है,। अब सच्ची भक्ति है क्या? कहते हैं, ऐ गुरुमुख भगत! अपने सतगुरु माधव प्रभु जियो के श्री चरण कमलों से अनन्य प्रेम प्रीत करना ही सच्ची भक्ति है, तभी हम सार अर्थों में सच्चा आत्मिक सुख और मंगलकारी स्वरूप बन पाते हैं और यह आतम अपने निजघर में पहुँच पाती है, इसीलिए ऐ जीव! यदि तेरे चित्त में सच्ची भक्ति की आकांक्षा इच्छा है तो अपने इष्ट सतगुरु प्रभु के चरण कमलों में दृढ़ प्रीत कर और निर्भय होकर संसार में रमण कर, आदि-अनादि काल से यही एको विधान है।’’

हरिराया सतगुरु के श्रीचरणों में सभी कुछ न कुछ मांगने आते हैं पर सच्चा भगत शिष्य अपने प्रभु सतगुरु से सच्ची भक्ति के सिवा अन्य कोई सांसारिक मांग नहीं करता।

A true devout disciple pleads only for the true devotion of his Lord True Master and no otherworldly desire.

श्रीमद् भगवत गीता में श्री कृष्णचन्द्र जी कहते हैं, हे अर्जुन! जिसने अपनी मन बुद्धि की समस्त कार्यवाही को रोक, समस्त कर्म अपने इष्ट सतगुरु देव पुरुषोत्तम को अर्पण कर दिए, उस भगत के सारे संशय-अज्ञान, भगति के द्वारा नष्ट हो जाते हैं। जो ऐसा भगत है, उस पुरुषार्थी जीव को कर्म बाँध नहीं सकते, इसीलिए प्यारी साध-संगतों! दृढ़ विश्वास, सच्ची श्रद्धा भावना को, अनन्य प्रेमा भगति को अपने चित्त में स्थान दें, मन की तार सतगुरु प्रभु के चरण कमलों से जुड़ी रहे, फिर तो काल माया की कोई भी शक्ति आपको डिगा नहीं सकती क्योंकि सतगुरु की भक्ति, पुरातन पद्धति सनातन पद्धति है। संत दूलन दास जी ने कहा-

गुरु ब्रह्मा गुरु बिस्नु है, गुरु संकार गुरु साध।
दूलन गुरु गोबिन्द भजु, गुरुमत अगम अगाध।

प्रगट पूरन गुरु के रूप में ही ब्रह्मा विष्णु शिव एवं अन्य सारे देवी देवतागण आ जाते हैं। पूरन गुरु की सेवा, पूजा कर ली तो मानो समस्त देवी देवताओं की पूजा उसी में समा गई। गुरु भक्ति दिल में बसे, गुरु का ध्यान हृदय में बसा लें तो मानो सारे साधन सिद्ध हो गए क्योंकि संतमत में पूरा गुरु ही, अगोचर गोविन्द का रूप है। प्यारे सत्संगियों! पूरे सतगुरु की मौज में जीयो, सिमरन भजन एवं ध्यान करो क्योंकि सतगुरु भक्ति की उत्तम से उत्तम विशेषता यह है कि अन्य देवी देवताओं की उपासना साकार होने तक सीमित है लेकिन सतगुरु की भक्ति निष्काम होने के कारण, अमृत अगोचर अनामि असीम है, अगम अगाध है। पूरे सतगुरु के बिना जीव की कैसी मद अवस्था होती है, शास्त्रों में कहा गया, जरा गौर करें जी-

शशि हीनं यथा रात्रि, रवि हीनं यथा दिनम्।
नृप हीनं यथा राज्यं, गुरु हीनं तथा मनुः।

जिस तरह चंद्रमा के बिना जैसे पूर्ण अंधकार होता है, सूर्य के बिना दिन, दिन नहीं कहलाता और कुशल राजा से विहीन राज्य-शासन की दशा अति मंद होती है, तैसे ही गुरु भक्ति से हीन मनमुख इन्सान की दशा मंद होती है। जो जीव सच्ची अनन्य भक्ति के अभिलाषी हैं, उसके लिए परिपूरण भजन सिमरन के भण्डारी सच्चे गुरुदेव का दामन थामना, निहायत आवश्यक है क्योंकि पूरे गुरु की महिमा अपार अपरम्पार है और उनकी संगत मेहर के बिना मनोहर अनन्य भक्ति की प्राप्ति नहीं होती, इसलिए शास्त्र कहते हैं, परमार्थी ज्ञान और अनुपम भक्ति का फल, दोनों पूरन सतगुरु के आधीन हैं।

भगत बिना कोई न जाणे जुगत पूरी, करे सतगुरु संग भगतधारी

भक्ति के महातम को किस तरह पाया जाए, समझाया गया, इन्सानी जगत में सतगुरु भक्ति के बिना जीव के अंदर सच्ची ज्योति का दर्शन नहीं हो सकता। जिस आतम का अपने अगोचर ठाकुर की ओर निष्काम भाव, रूहानी प्रेम बह रहा है, वह आत्मा आंतरिक गहराई में जाकर अपनी निज दिव्यता और समरथ सतगुरु के इल्लाही अलौकिक परम रूप का दरस प्राप्त कर लेती है। गरूण पुराण में आया-

यथा भक्तया हरिस्तुष्येत् तथा नान्येन केनचित्
महतः श्रेयसो मूलं प्रसवः पुण्यसंततेः
जीवितस्य फलं स्वादु नियतं स्मरणं हरेः

कहा गया कि इस संसार रूपी विष वृक्ष में अमृत के दो फल लगे हुए हैं, जो कि आदि से ही पिरोए गए-

पहला फल, सच्ची भक्ति हरिराया सतगुरु की। उसे प्राप्त करने के लिए परमतत्व सतगुरु के पावन दर्शन और उनकी पावन शरण आवश्यक है।

दूसरा फल, तत्वदर्शियों का सत्संग सानिध्य अर्थात् उनकी शरण में उनके परम भजन मुख द्वारा परम वचनों, प्रभुमय वाणियों का श्रवण मनन निंध्यासन।

यह फल जिन भाग्यशाली आत्माओं को मिले, उन्हीं का मानव जीवन सफल है। वे ही आत्माएं परम सुख के अधिकारी बनते हैं।

हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी भाव भगति वचन प्रकाश 713 में फरमाते हैं, ‘‘प्रभुराया साचे सतगुरु का भगत हर पल, भाव प्रेम से श्रीचरण कमलों में अपना चित्त पिरोये रखता है। साचा भगत हर पल अपने प्रीतमा प्रभुजियो से तार जोड़कर उस प्रीत को संजोए रखता है, कभी हृदय से प्रीतमा सतगुरु के लिए उलाहना उमड़ पड़ती है, कभी आंखो से विरह प्रीत झर-झर बरसती है। अपने प्रगट ठाकुर को दिल में बसाकर अपने मन की बात करते हुए, भगत की आतम आलौकिक मण्डलों पर रमण करती है। वह प्रेमी भगत इस दुनिया में रहते हुए भी उस अदृश्य और सतगुरु सदृश्य के भाव प्रीत में मन चित्त को संजोए रहता है। वह उसी तरह जैसे एक बालक जो खिलौनों से चर्चा तो करता है अनजाने में, पर हम समझते हैं कि वह बालक किसी जीवन्त से चर्चा कर रहा है। हमारे समझाने का भाव यही कि बच्चे के लिए खिलौना जीवन्त है। इसी तरह सच्चे प्रेमी भगत के लिए उस अदृश्य का सतगुरु जीवन्त रूप है पर जिनकी प्रेम तार सतगुरु से नहीं जुड़ी, उनके लिए अभी भी वह कोरा का कोरा है।’’

आपजी कहते हैं,
भगत बिना कोई न जाणे जुगत पूरी

परमार्थी राह पर एक सर्वोत्तम ऊँची सच्ची बात है कि बगैर प्रेम प्रीत, भाव भगति के हम देह से आजाद नहीं हो पाते मन की चिंताओं से उबर नहीं सकते, कोई इंसां गुज़रे हुए वक्त में की हुई गलतियां को सोचकर तो कोई आगे भविष्य के विषय में सोच-सोचकर जीवन खराब करते हैं लेकिन सच्चे गुरुभगत को तो बस एक ही आसरा, सतगुरु प्रभुजियो का, सतगुरु प्रभुजियो का। उसी के आसरे वह अपने जीवन की धारा को बहने देता है और निर्भय होकर, बेपरवाह होकर जीवन व्यतीत करता है, इसलिए हर पल आनंदित रहता है। प्रभुजियो से प्रेम प्रीत हमें दुनियावी प्रीत भाव (मोह) से न्यारा करती है,

सतगुरु प्रेमी का ध्यान हर पल प्रभु जियो सतगुरु पर टिका रहता है, उसकी पूजा भी उस प्रभुजियो से, उलाहना भी उस प्रभुजियो से, कभी योग वेदना, कभी मीरा शबरी की तरह निच्छल प्रेम भी उसी से, यही उनकी पूजा है। उनका जप वही है, उनका तप वही है, उनका व्रत भी वही और यज्ञ भी वही है। हरिराया सतगुरु के प्रेम रूपी यज्ञ में वह भगत अपनी अन्य इच्छाओं को स्वाहा कर देता है। उस त्याग से आतम भगत को, अनन्त प्रगट रूप सतगुरु से अन्दर ही अन्दर अविनाशी सुख प्राप्त होता है। याद रखों, उस प्रेमी भगत को जो प्राप्त होता है, वह ना शब्दों के द्वारा कहा, बताया जा सकता है न ही समझाया जा सकता है।

जिसने सतगुरु प्रभुजियो के ऐसे प्रेम प्रीत की दात को प्राप्त किया, मानो उसने समाधि के दिव्य अमृत रस को प्राप्त कर लिया।

सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी फरमाते हैं, सच्चे प्रेमी का हृदय प्रभु रूप सतगुरु के विरह प्रेम में आलौकिक और अजायब सी मस्ती में भरा रहता है।

भूखे को भोजन मिला तो स्वाद अनुभव हो पाता है पर जिसने भोजन ही नहीं किया उसे स्वाद का पता कैसे चलेगा? संतमत गुरुमत में शुरूआत इसी सीढ़ी से होती है, सतगुरु प्रभुजियो से साचा प्रेम रखकर। जिस भगत ने साचा प्रेम रखा, उसका यही भाव रहता है कि न मैं कर्ता हूँ, ना मैं कुछ भोगता हूँ, ना ही मैं सफल हूँ, ना ही मैं असफल, ना मैं जीतता हूँ, न मैं हारता हूँ। सब जो कुछ कराता है, मेरा भगवन्त प्रभुजियो कराता है। मैं कुछ नहीं हूँ, ना ही मेरा कुछ है, मैंने तो सब कुछ तुझे सौंप दिया।

जी सब कुछ तेरा मेरे माधव जी
दास ईश्वर विनती करत है, जी सब कुछ है तेरा कराया
मेरे हरिराये मेरे पियारे, सब तेरी अकुलाई
सब तेरी कुदरत कुरबाना जी, जी सब कुछ तेरा मेरे माधव जी

ऐ प्रभु जियो के अंशों! यही भाव होने चाहिए, परम संतोष चाहते तो बस यही भाव कि मुझे कुछ नहीं करना, ‘‘जो तू करावै, जो तू करावै, तू करावै तो तेरी मर्जी, ना करावै तो तेरी मर्जी। जहां तू ले चल, जहां तू पहुँचा दे, पहुँचाए तो ठीक, ना पहुँचाए तो भी ठीक। बस अपना सब कुछ, अपनी सारी चिंताए उस पर छोड़ दो। प्यारों! जिस अकह प्रभु पर इतना विराटों के विराट लोकों का भार है, जो चंद्र-तारे असंख्य मण्डलों को चलाता है, सृष्टि को चलाता है, सूरज को उगाता-डुबाता है, अनंत सागरों की इतनी विशाल लहरों को बहाता है, तो क्या तुम्हारे मन की, जीवन की अनंत लहरों को वह ना संभालेगा?

इसका अर्थ यह नहीं है कि, तुम लहराओगे नहीं। लहराना तो तुम्हें पड़ेगा अर्थात् कर्म तो तुम्हें करना पड़ेगा, पर ध्यान रहे कर्म को अपना अहंकार न बनाओ। शहंशाह सतगुरु अनुभवी पुरुख हाजिरां हुजूर सतगुरु साहिबान जी समझाते है, अहम की नाव पर मत सवार हो, अहम को सर का मुकुट मत बनने दो। बाबा! अपने दिल आतमखाने में भय भाव का इत्र लगाए रखना, पूरण साधसंगत में, कमाई वाले परम ज्योत सतगुरु की शरण में, उनकी अलौकिक मेहर रहमत को साण्ढण, साण्ढे रखना यानि संभाल, संभाल के रखने की कला सीखो। सदा भय और भाव की याचना पुकार करो। तभी कहा गया-

जिना मन भय, तिना मन भाव
भय से भाव बनता है और भाव से भगति।

हरिराया सतगुरु की भक्ति की महिमा आगे सत्संग वाणी में गायी गयी, जी आगे-

।। भगतन तुम सदा रस है पाया, साध-संगत नाम अमृत है धारी।।
।। भगतन की भगत सदा सहाई, रग-रग रोम-रोम लिव सदा है लाई।।
।। भगतन ही भाव का रूप धरा है, भगतन सुचा समाया सदा निज रूप भरा है।।
।। बिन भगति भगत न होवे, माया काल हंसे मनुआ मन संग रोवे।।

सत्संग वाणी मे फरमान आया, इस धरातल जगत में पूर्ण सतगुरु पारब्रह्म स्वरूप हैं। सतगुरु वे सतपुरुख हैं जिनकी भक्ति और आराधना, परमेश्वर की भक्ति-आराधना है। पूर्ण सतगुरु विराट सर्गुण भगवत भगवन हैं और निर्गुण निराकार भी हैं क्योंकि दोनों किनारे एक हो गए याने एकोंकार। प्यारे भगतजनों! उनकी आँखों में परम अमृत परमेश्वर को पाओ, उनके शब्दों में नहीं, क्योंकि वह थोड़ा गूंगा है, मौन है, उनकी आँखों में दिव्य रबियत की मस्ती है, उनके मुखमंडल पर परमात्मा का सौंदर्य झलक रहा है, उन भगवत परमातम के पावन दर्शन कर भक्ति के रस को पियो-

भगतन तुम सदा रस है पाया, साध-संगत नाम अमृत है धारी

हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब हरे माधव पीयूष वचन उपदेश 295 में फरमाते हैंः

‘‘ऐ सत्संगियों! हरिराया सतगुरु की भक्ति ऊँचे दर्जे की होती है क्योंकि वह सदा निष्काम हुआ करती है, उस ऊँचे दर्जे की भक्तिवान आत्मा के अंदर अपने प्यारल खालिस के रूहानी प्रेम के अलावा कुछ भी समा नहीं सकता। भगत पुकार कर कहता है कि मेरी मांग पूरी हो ना हो, चाहे मेरा यश हो या अपयश पर मेरी सतगुरु के चरण कमलों से निह एवं गुरूभक्ति में तनिक भी फर्क न आने पाए, प्यारों! यह निष्काम ऊँची भक्ति की पुकार है, निचले दर्जे की भक्ति तो रोज़ बनती बिगड़ती है।’’

आप साहिबान जी आगे कहते हैं, ऐ प्यारी संगतों! जहाँ कामना, आसक्ति हुई, वहाँ भक्ति का आना असम्भव है। सच्चे सेवक गुरु भगत प्रेमियों का तो उसूल है, अपने प्यारल प्रियतम पर सर्वस्व कुर्बान होने का, कुछ मांगने का नहीं। इसी वास्ते जहाँ इच्छा कामना का सवाल मन में होता है, तो जान लो यह असल भक्ति नहीं। असल भगति यानि भाणां-

तू देवें तां तेरी रजा, न देवें तां शुकर करां
दे के जे लै लेवें, तां भी मीठा भाणा करां
बस एहो अरदास सतगुरु तेरे चरणां ते करां
जिवैं राखीं, तेरे भाणे विच जिदंड़ी बसर करां

यही शुक्र भाव, भाणां भाव मन में धारो। साधसंगत जी! मन का यह स्वभाव है कि वह कभी एक जगह कायम नहीं रह सकता और ना ही सदा के लिए किसी एक वस्तु पदार्थ को पसंद करता है, इस मन की आदत है इच्छाओं की, परिवर्तन की, नए सुखों की। आज वह जिस चीज को पसंद करता है, कल फिर उसे ना पसंद करने लगता है, कई अन्य मैली तब्दीलियां उसके अंदर आती रहती हैं, जिस कारण यह इन्सान अपने असल मकसद को ना हासिल कर हमेशा इच्छाओं, कल्पनाओं, परेशानियों, द्वंद का शिकार बना रहता है, मन माया का संग कर रोता रहता है और काल ऐसे जीवों की दशा देख, प्रसन्न होता है। वाणी में फरमान आया-

बिन भगति भगत न होवे, माया काल हंसे मनुआ मन संग रोवे

सतगुरु सरकार कहते हैं, अब भला जहाँ कल्पना हो, कामना हो, वहाँ एकाग्रता कैसे? वहाँ भगति कैसे? जब आप पूरे सतगुरु के चरणों से साफ दिल, मन वचन कर्म से सच्चे हो जुड़ते हैं फिर आपके मन को एकाग्रता और यकरूरी की ताकत मिलती है और भगति की सौगात भी। ऐसी अनुपम सौगात से भगत मग्न रहता है।

गुरु साहिबान जी फरमा रहे हैं, कि मन माया में तमाम जगत संसार के जीवों ने अपनी-अपनी भक्ति रमा रखी है, अर्थात् उनके ही ध्यान में मगन हैं, कोई पुत्र के भक्ति प्रेम में, कोई धन सत्ता के भक्ति प्रेम में, कोई रिश्ते नाते की भक्ति में, तो कोई दोस्त के ध्यान में जुटा है। कोई झूठी देह के मद में चूर है, कोई आलिम फाजि़ल बन, उसके मद में उसका भगत बना पड़ा है, भाव यह ऐ भगत! दिल के खाने में जिस चीज की मोहब्बत ने घर किया हुआ है, जिसकी सूरत, हर वक्त दिल में जमा रहती है, वही उसका इष्ट बना है, वही उसके दिल की तमाम ताकतों का निशाना बना हुआ है, वह उसी का पुजारी है। अब कहते हैं, गुरु के सच्चे सेवक गुरुमुख भगत के हृदय अंदर में पूरन सतगुरु का ध्यान है, तभी वह प्रभु रूप पूर्ण सतगुरु का भगत है, यह एक साफ सुथरी हकीकत है, जिसको समझना कोई मुश्किल नहीं है, समझ बूझ वाले इन्सां इसके मानने में भी कदापि इन्कार नहीं करेंगे, क्योंकि यह कायदा कुदरती है, जो जिसका ध्यान करता है, उसकी ही भगति करता है, वह उसी ध्येय तक पहुँचता है। सो प्यारों! अपने मन को फनां सूरतों के ध्यान से हटा शाश्वत के ध्यान में लगाओ।

हरे माधव पीयूष वचन उपदेश 310 में गुरु महाराज जी ने फरमाया, इस भक्ति पथ पर ध्याता, ध्यान और ध्येय का तरीका है, क्योंकि फिर इसके जरिए ध्याता, ध्यान में और ध्यान, ध्येय में लीन होते हैं।

ऐ सच्चे सत्संगी! दुनिया तमाम में आप नजर दौड़ाओ, और देखो समझो, हर क्षेत्र में तीन अहम पहलू हैं, जैसे डॉक्टर, दवाई, मरीज। अध्यापक, विद्या, विद्यार्थी। दुकानदार, सौदा, ग्राहक। प्रेमी, प्रेम एवं प्रियतम। दानी, दान एवं दानपात्र। आंख, देखने वाला, एवं देखने की वस्तु। इसी तरह ऐ सत्संगी! भक्ति के अनुपम पथ पर तीन मुख्य पहलू हैं, भगत, भगति, भगवंत।

भगत जो भक्ति करने वाला है, भगवंत वह जिनकी भक्ति की जाती है और भगति वह, जिसके जरिए भगत भगवंत में जा लीन होता है। अनन्य भक्ति की राह में, इन तीनों का होना जरूरी है। वह जो मालिक-ऐ-कुल हैं, हरे माधव पुरुख हैं, करीम हैं, रहीम हैं, अज सच्चिदानंद स्वरूप है, उनका असल स्वरूप पारब्रम्ह परमानन्द भगवंत रूप है, गुरुभगत उसकी भक्ति अपने घट में प्रगट करता है।

प्यारों! सर्व आतम के लिए हरिराया सतगुरु का संदेश सदा एक है, सतगुरु भक्ति कमाओ। अपने दिल के खाने में यह वचन भक्ति के बिठाओ। वास्तव में उस न्यारे साहिब पुरुख से प्रेम कर, अपने घट अंतर में उसकी सच्ची तलाश का नाम है, भक्ति, जिसके आदि मध्य और अंत में प्रेम ही प्रेम भरा होता है, वह प्रेम से प्रगट होती है, प्रेम में रहती है और प्रेम में ही समां जाती है क्योंकि वह न्यारा अगोचर हरे माधव प्रभुजियो खुद प्रेमा स्वरूप है और अपनी अंशी आत्माओं से उसका अगाध प्रेम है। आप देखो, जिससे आपका प्रेम है फिर हर पल उसी की तस्वीर, उसी का ख्याल, उसी का ध्यान रहता है। सो प्यारों साचा प्रेम रखो, साचा प्रेम अपने सतगुरु से रखो।

हाजिरां हुजूर गुरु महाराज जी, ध्यान को बड़े सहज भाव से समझा रहें हैं, ज़रा गौर करें साधसंगत जी! मिसाल के तौर पर आप माया धन दौलत को ही ले लो, उसको तुमने कड़ी मेहनत मशक्कत से हासिल किया, घर के अंदर बैठ, जहाँ आप उसे रखते हो, हर समय प्रतिपल, आपका ख्याल लगा रहता है, एक ओर अत्यंत खुश भी होते हो, दूसरी ओर फिक्र चिंता भी रहती है कि कहीं ये हाथ से चला न जाए या कोई उसे उठा न ले जाए, चुरा न ले जाए। लोहे की भारी संदूक में छिपाकर रखते हो, दिन-रात ध्यान आता रहता है, यहाँ तक कि अपनो से, अर्थात् बच्चों, भाईयों या कभी माता-पिता से भी छिपाकर रखते हो, अंतर की तमाम ताकतें, उस दौलत माया के इर्द-गिर्द चक्कर लगाती हैं, क्यों? क्योंकि उसको संग्रह करने में आपने जो कर्म किए, वक्त दिया, कड़ी मेहनत मशक्कत की, इसी वजह से तुम्हारा मोह वहाँ फंसा है और ऐसा फंसा है कि निकालने से भी नहीं निकलता। फिर इसी माया धन से जब कोई व्यापार आप शुरू करो या गेहूँ, कपड़ा, एवं अन्य वस्तुऐं खरीद लो, तो तुम्हारी मोहब्बत और मोह का केंद्र अब वह व्यापार या अन्य खरीदी हुई चीजें हो जाती हैं जिसको तुमने धन देकर, माया देकर खरीदा था। फिर आठों पहर रूपए की बजाए, वस्तुओं में तुम्हारा ध्यान लगा रहेगा।

आपके अंतर में ध्यान इन वस्तुओं में होगा, जब वही धन, बच्चों की परवरिश या एैजूकेशन पर या मंगल कारज पर आप खर्च करते हो या घर में हार श्रृंगार ले आते हो या मित्र दोस्तों की खिदमत में खर्च करते हो, तो धन माया के प्रति जो मोहब्बत थी, वह परिवर्तित हो जाती है। जिस वस्तु या व्यक्ति पर आपने धन व्यय किया, उस पर पहले से ही आपका कुछ मोह या ध्यान अवश्य था, अब धन का मोह भी उसमें तब्दील हो गया तो ये दोनों मोहब्बतें, एक जगह इक्कट्ठी हो जाने पर नई शक्ल इख्तियार कर लेती हैं, नतीजा यह होता है कि उनके साथ पहले से भी कई ज्यादा गुना आपका मोह, ध्यान बढ़ जाता है, ये सारी ध्यान हालातें रोज़ आपकी जिन्दगानी में, नजरों के सामने से गुज़रती रहती हैं और आप सभी को इसका अच्छा खासा अनुभव भी है संगत जी।

सतगुरु महाराज जी फरमाते हैं, ऐ प्यारे! हम आपको ये नहीं कहते कि, इन सबसे अपना ध्यान हटाओ या कर्त्तव्य धर्म भूल जाओ, बस आप हर कर्म को मालिक की सेवा जान कर करें, कर्म करते समय हरे माधव हरिराया की भाव भगति को अपने जीवन, मन आतम में भरते रहें जिससे उस हरिराया की अनन्य भगति का प्रसाद, आपके अंतर मन में बरस पड़ेगा और आप जो भी कर्तव्य कर्म करते हैं, उन में अहम भाव या मोह विकार मन पर हावी नहीं होगा। सतगुरु भगति सम्पूर्ण प्रकाश का पुंज भी है, भण्डार भी है और परम तत्व से इक मत होने की परिपूरण दात है। हरिराया सतगुरु की भगति-भाव मन को एकाग्र भी रखती है, प्रेमाभगति में अगर मन चंचल होता है तो सतगुरु की मेहर किरपा को याद करो, शुकराना करो। सच्चे भगत सतगुरु की लीलाओं एवं उनकी भाव प्रीत के बारे में ही चिंतन करते रहते हैं। ऐसी भगति से अहम तो गलता ही है और हम परम गति की प्राप्ति भी सहज कर पाते हैं। सच्चे भगत सतगुरु के अनन्य प्रेम में अचल हो जाते हैं, जब अचलमय हो जाते हैं तो वे मोक्ष-मुक्ति की भी चाहना कहाँ करते हैं? यह अनन्य भाव भगति हमारे दिल में दिव्य आलौकिक गुणों को प्रगट करती है।

गुजराती में कथन आया, ऐ जीव! आपडा मन ने एकचित थई ने सतगुरु नी भक्ति मां लीन थई जाओ, अने साचा सुख ने कमाओ। नितनियम ती साची भक्ति ने आपडा प्यारा सतगुरु नी खुशी पावा नी प्रयास करता रेवानू केमके आ शिष्य नी स्वथी मोटी संपत्ति छे।

यानि ऐ जीवात्मा! अपने मन को एकाग्र कर सतगुरु भक्ति में रमाओ, निःचल सुख को कमाओ। नितनियम से सच्ची भक्ति द्वारा अपने प्यारे सतगुरु की प्रसन्नता पाने का प्रयास करते रहें क्योंकि यह शिष्य की सबसे बड़ी संपत्ति है।

सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने फरमाया कि भगत तो सतगुरु भगति में डूबकर बहरा सा हो जाता है। यह वचन सुन, एक प्यारे ने कहा, सांई जी वह बहरा कैसे हो जाता है? आपजी फरमाए, सतगुरु प्रीत भगति में सच्चा भगत, दुनिया के तानों-बानों या लोक-लाज को न सुनता है, न देखता है, वह तो बहरा सा हो जाता है, बस भाव भगति की गंगा में बहता हुआ, अपने अंतःकरण में विरदवान सतगुरु को सुशोभित कर, मोहित सा भावरां रहता है और सच्चा रूपमय हो जाता है।

प्यारी संगतों! हम सभी सतगुरु की शरण आए हैं, सो ऐसे भगवंत रूप सतगुरु के प्रेम-प्रीत में मन को टिकाओ, अनमोल भक्ति के फल को पाने का यत्न करो, असल सौदा करो, अनन्य प्रेम सतगुरु श्रीचरणों में रख उसके साथ अपने ख्याल, चित्त को जोड़ो। उठो, नया सवेरा है, सतगुरु भक्ति से जुड़ो। यह जो दुर्लभ जनम तुम्हें प्राप्त हुआ है, इसे आलस्य एवं भटकने में मत गंवाओ, सतगुरु का भजन सिमरन करो।

Wake up, It's a new dawn, connect with True Master's devotion. This rare life that you have received, do not waste it in laziness and wandering, meditate True Master's Holy Word.

प्यारे सतगुरु दाते की वड्यिई आगे रब्बी वाणी में यूं गायी गई, जी आगे-

।। साध संगत ऐह साचा रंग ही चढ़े, सो भगतन लिव लाई है।।
।। भवसागर भगत ही पार होवे, तब ही काल सिर धुन-धुन रोवे।।
।। कहे माधवशाह सुनहो रे प्यारों, भगतन का सतगुरु दाता प्यारा।।
।। भगतन पाया तेरे भगत का भण्डारा, तिन भगतन का तू एको प्यारा।।

कुल मालिक सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी फरमाते हैं, साधसंगत की सेवा और सतगुरु प्रेमा भक्ति से ही प्रेम-प्रीत का पक्का रंग चढ़ता है, तभी जीव भवसागर से पार हो पाता है। फिर वह काल की कैद से छूट जाता है और काल भी ऐसे प्रीतवान की भगति को देख रोता है, कहा-

भवसागर भगत ही पार होवे, तब ही काल सिर धुन-धुन रोवे

गुरुवाणी में भी कौल आते हैं-

प्राणी तू आइआ, लाहा लैणि
लगा कित्त कुफकड़े, सद मुकदी चली रैणि

ऐ प्राणी! तू तो कमाने आया था, सच्ची भक्ति को, अपने निजघर में पहुँचने की राह पकड़नी थी, जो कि समय के कमाई वाले पूरन सतगुरु से पाई जाती है, पर तूने ऐ प्राणी! वह वाट राह ही छोड द़ी और भरमों में भटक गया। ऐ प्यारे! यह मानुष जनम परमात्मा से मिलने का एक दुर्लभ अवसर है, यह जानते हुए भी तू हरिराया सतगुरु का भजन सिमरन क्यों नहीं करता? O being! Even after knowing that human birth is a rare opportunity to meet with the divine lord, why don't you still engage in Bhajan-Simran of the Lord True Master?
ऐ प्राणी! तू जाग, सतगुरु भक्ति कमा, मन का भगत मत बन, प्रभु रूप सतगुरु का भगत बन।

भगतन पाया तेरे भगत का भण्डारा, तिन भगतन का तू एको प्यारा

हरे माधव साखी वचन प्रकाश 175 में भगवंत जी के विराट करुणा कुर्ब का जि़क्र आता है, 25 जून 2013, मंगलवार को दोपहर के वक्त जब आप साहिबान जी विश्राम कर रहे, तब गुरु दरबार साहिब के पीछे वाले द्वार पर एक पुकारी याचक आया, जिसका नाम भगत चंदाराम, उम्र 87 वर्ष थी। उसका पूरा शरीर बदबूदार कीचड़ से सना हुआ और भोजन की भूख थी, तड़प थी कि कुछ निवाला खा लूं। आप मालिकां जी के आंगन में यही आस, असहाय वेदना से करने लगा कि, मालिक! ओ मेरे मालिक! मेरे अन्नदाता प्रभु जी, सुनो न मेरे मालिक।

उसकी असहाय पुकार, प्रीत के बोल निर्बल भगत भाव की विनय सुन, आपजी अपने आरामगाह से बाहर, नीचे बरामदे आंगन में मुहाने द्वार पर आये, देखा, केवढ़ी पर पुकारी याचक दोनों हाथ जोड़े खड़ा, झोली फैलाए रो रहा, चल सकने में निर्बल असमर्थ, उस प्यारे के विनय बोल भी पूरे नहीं निकल रहे, पर पुकार कर रहा है। वह लड़खड़ा रहा और विनती किये जा रहा। उसका हृदय अंदर-बाहर, इक-इक कोना प्रेम प्रीत भाव से भरा, जैसे कि पानी का मटका शीतल जल से भरा हो, यही उस भगत याचक प्यारे का भाव प्रेम प्रीत राग था। उसका प्रेम, उसकी प्रीत, उसकी सारी विनती प्रभु जियो रूप सतगुरु श्रवण कर रहे, वह विनती कर रहा, ओ प्रभुजियो, मेरे भगवन! आपके जागृत ब्रह्म सिद्ध भण्डार में कोई कमी नहीं, आप तो महादानी हैं फिर मुझे देने में कंजूसी क्यों कर रहे हैं। आपके सिवा कौन है हमारा। वह पुकार कर रोता ही जा रहा, प्रभुजियो! सुनो न! सच्चे पातशाह, सुनो न। उसकी प्रेम भाव भरी करूण पुकार सुन आप मालिकां जी उसे गले से लगाने के लिए आगे बढ़े।

प्रेम के तुम हो भूखे सांई, प्रेम के तुम हो भूखे भगवन जियो

सेवकों ने विनय की, सच्चे पातशाह जी! उसके कपड़े मैल से सने हैं। हुजूर महाराज जी ने सेवकों को हाथ से इशारा कर रोका। भगत का प्रेम देख, आपजी उसकी ओर बढ़े, पर वह पुकारी खुद ही दूर जाने लगा। कहने लगा, भगवन जी, मेरे शरीर पर कपड़ों पर मैल भरी है। मेरे मन पर भी जन्मों की मैल जमा है, काई धरी है, हौमें भरी है और गुण भाव प्रेम तो मेरे दिल में दूरों-दूर तक नहीं। आप निर्मल पाक पुरुख जी को मेरी मैल न छूए, मालिकां जी! मैं गंदला हूँ, बड़ा गंदला हूँ। हुजूर मालिकां जी वात्सल्य प्रेमामयी मधुरवाणी में फरमाए, नहीं प्यारे। आपकी आतम बड़ी पाक, निर्मल है। वह हथजोड़ कहने लगा, भगवन जी! मुझे तो सारा जग मैला, गंदला ही कहता है, यह कह, वह जारोजार रोए जा रहा, बस रोए जा रहा।

तू भगतन का भगत तुम्हारे, मेरे प्रीतम प्राण आधारे
तू भगतन का भगत तुम्हारे, मेरे प्रीतम प्राण आधारे

साधसंगत जी! यह भगत भगवन्त प्रेम की, सच्चे शिष्य प्रीतवान करूणावान दयालु तारणहारी भण्डारी सतगुरु भगवन्त की भावमय मनोहर लीला। आप सच्चे पातशाह जी वहीं उस प्यारे का हाथ पकड़ फर्श पर बैठ गए। शिष्य जन सेवक जन दौड़ के आसन ले आये कि सांई जी आसन लगाएं, आपजी फरमाए, यह धरत भी तो आसन ही है, विराट वचन और यथार्थ महिमा के वचन जो गहन हैं, हरे माधव प्रभु जियो की संगतों, विराट करूणा-कुर्ब भगवन्त जी की।

गुरु महाराज जी, करूणामयी निगाह से उस याचक को निहार रहे, वह भगत हथजोड़े सजदा कर रहा, सेवक जन हथजोड़ भगत भगवन्त की करूणा मेहर देख, अश्रु बहा रहे, यही भाव सबके-

तू भगतन का भगत तुम्हारे, मेरे प्रीतम प्राण आधारे
भगतन पाया तेरे भगत का भण्डारा, तिन भगतन का तू एको प्यारा

आप मालिकां जी ने सेवक कैलाश को अंदर से भोजन प्रसाद और पानी की घाघर लाने को कहा। आपजी ने उस याचक को घाघर से हाथ धुलवाए और उसके बाद आहार निवाला खाने को दिया। याचक ने जब भोजन प्रसाद खाया, तो आप मालिकां जी ने वात्सल्य करूणामयी दृष्टि से निहार कहा, सुनो भगतां जी! जाओ हमारे अर्शी परम रूहानी बाग में, वहाँ त्रिवेणी गंगा के झरने बह रहे हैं, उसमें नहाकर आओ, पूरे शरीर का मैल उतर जायेगा, फिर तुम मेरे आंगन में बैठ, केवल सूखी रोटी ही नहीं, छत्तीस प्रकार के व्यंजन इस शरण में पा लोगे।

जाओ प्यारे! त्रिवेणी बह रही है, अपनी इस मैल को उतार आओ। वह बंदा गया, तिल तिल कर अपनी मैल धोई, रत्ती रत्ती, पल पल जो मैल उसने कई वर्षों से शरीर में रखी थी, धो दी। वह ऐसा नहाया कि रोम-रोम साफ स्वच्छ निर्मल हो गया। फिर आपजी ने उसे साधसंगत में बिठा मीठे पकवान भी खिलाये, भंडारा प्रसाद खिलाया। साधसंगत जी! हरे माधव प्रभु जी की मौज लीला अनन्त करूणा-कुर्ब मेहर संगतों पर सदैव बरसती है, हम जीव स्वयं आंखों से ऐसी करुणा मेहर देख रहे हैं, स्व अनुभव कर रहे हैं, सतगुरु विमोहक लीला सुन-सुनकर तो मन की मैल तो अवश्य धुलती है। तू भगतन का, भगत तुम्हारे। प्रभुजियो की अंशी आत्माओं! प्रभु पारब्रम्ह ने अनन्त सृष्टि बेशुमार मण्डल बनाये हैं, शुमार नहीं। प्रभु का हुक्म है कि आतम निर्मल स्वच्छ हो, सब अपने निज घर आयें, रूह स्थूल सूक्ष्म और कारण मन के अन्धाधुन्ध गल्तान में उलझ कर मैली हो गई है। जब प्यासी रूह ने याचक बन अपने मालिक से पुकार की, ऐ पारब्रम्ह! तू निर्मल अज सच्चिदानंद परधामा का रूप धरकर आ, जिसकी संगति से जुड़ हम भी निर्मल हो सकें, सर्व आत्माओं का निबेरा हो। रूह आत्माएं, द्वि अज्ञान और कितने ही काल के रंगों में फंस मैली हो गई, रूह को तड़प हुई, अपने पिरी प्रभु जियो से मिलने की, जैसे उस याचक को भूख लगी, उसी प्रकार आतम रूह को भी भूख लगी, निज घर जाने की, प्रत्यक्ष पूरण संत सतगुरु की शरण की चाह तड़प जगी, भूख लगी, तो विरह और पुकार भी रूह ने की, तब परमात्मा ने पुकार सुन अपने नूर को, पूरण सतगुरु को इस धरा जगत में रूहों को पाक निर्मल करने के लिए, एकस में सराबोर कर अपने निज घर ले आने के लिए भेजा, सच्चे दयाल सतगुरु पुरुख धरा पर प्रगट हुए। रूहों के लिए सतगुरु भगति त्रिवेणी संगम झरने, सेवा सत्संग सिमरन के बहाए जिसमें रूह आंतरिक गोते लगाए और जन्मों-जन्मों की मैल उतर जाए, जिससे रूह अपने मालिक की छांव संगति, उसके आशियाने (आंगन) चरण छांव में बैठ, छत्तीस प्रकार के व्यंजन अर्थात् पूर्ण आत्मिक भोजन, साची भक्ति, परम आनंद को नित्य पाए। जिन रूहों को भजन सिमरन की कमाई वाले सतगुरु मिले और उन्होंने सतगुरु भक्ति की कमाई की, फिर वे ही पहुंचे निजघर। कमाई वाले सतगुरु की शरण दीवान में सर्व आत्माएं आती हैं, हुजूर महाराज जी, उनके मैले कर्मों को जन्मों-जन्मों के रोगों को न देख शरण पनाह बक्शते हैं। जीव शरण में रह जब उस त्रिवेणी में गोते लगाता रहता है तो परम सुख पाता है, भवसागर से पार हो जाता है-

भवसागर भगत ही पार होवे, तब ही काल सिर धुन-धुन रोवे

सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के हरे माधव वचन उपदेश 113 में परम वचन आए, ‘‘ऐ शिष्य आतम! निर्गुण सतगुरु जो कि, सर्गुणमय रूपों को धारण कर, धरा पर आते हैं तब उनकी प्रीत की डोर, भगत भाव की डोर को थामना ही एकमात्र सच्ची तपस्या है और जो इस कला को साध ले तो वह सर्गुण निर्गुण की लीला अनुभव कर लेता है यानि पूरण सतगुरु के रूप में समाहित हो पाता है। जिनके प्रारब्ध कर्म ऊँचे हो, उन्हें ही पूरण सतगुरु की चरण-शरण नसीब होती है। भजन सिमरन के प्रताप की भारी ज्योत के दर्शन दीदार प्राप्त होते हैं। ऐसे ही कुछ भगत प्यारों को स्वप्न में सतगुरु साहिबानों के अदृश्य ताकत का फरमान हुआ, जाओ प्यारों! अब वह दात पाने का समय है, वे गुरुमुख परिवार जो कि भिन्न-भिन्न शहरों में रहते, गोंदिया, सागर, सिवनी आदि, सभी इक रसता के धनी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह जी की पावन पतित चरण-शरण में नामदान प्रभुता की भगति दात लेने श्री हुजूरी में सपरिवार आते। उन्हीं भगतों में से, 10 नवम्बर, सन् 2013 दिन रविवार को हाजिरां हुजूर सच्चे पातशाह जी की शरण में इक भगत विशम्भर उम्र 85 वर्ष, जबलपुर शहर का, माधवनगर कटनी, भजन प्रताप की भारी प्रगट ज्योत के दर्शन को हुजूरी में आया और विनती करने लगा, सच्चे पातशाह जी! अंतरमुखी भगति की राह पर जो भगतिवान रूहें जुड़ती हैं, उन्हें कभी अपनों के ताने, कभी सामाजिक बंधन, कभी रिश्तें-नातों के ताने, कभी जिम्मेदारियों के कटाक्ष आदि सुनने को मिलते हैं। यह सब देख हम अधीर व्याकुल हो उठते हैं, मन पर भारीपन रहता है। हुजूर जी, क्या वे भगतिवान रूहें इस भगति की राह को छोड़ दें?

आप साहिबान जी फरमाए, माता शबरी को क्यों याद करते हो, माता मीरा को क्यों याद करते हो, भगत प्रहलाद या ऐसे ही अनेक भगतों को या गुरुघर के अनेकों प्रकाशी भगतिवान आत्माओं को आप बड़े आदर प्यार से क्यों याद करते हो? क्योंकि प्रभु रूप सतगुरु की भगति श्रीचरण सेवा में, इन पावन आत्माओं ने पूर्ण समर्पण भाव अपनाया। हम कच्चों को याद नहीं करते, बाबा! जो पत्ते पेड़ से थोड़ी हवा के झोंको से गिरकर अलग हो जाते हैं फिर वे सूख जाते हैं, यहां कच्चों की नहीं है बात, आज पक्कों की बात है। ऐसे भगतों को याद कर हम परम अमृत आतम ठण्डक पाते हैं। इन्होंने, भगति मारग पर सतगुरु मत में अपने जीवन को अर्पण कर दिया और सच्ची दिव्य भगति की मस्ती में सांसारिक तानों-बानों की तनिक परवाह नहीं की। भगतां जी! ताने, लोक-लाज या अन्य भगति राह में रूकावट हैं, यह सब कालखण्ड के खेल हैं। बाबा! सतगुरु भगति की राह पर, काल अपनी दुनिया का प्रभाव दिखाता है। आप जीवन जगत में देखो, अगर बच्चे, बूढ़े या भाई-माईयां धन या सांसारिक, भौतिक किसी भी वस्तु पदारथ या कोई भी कारज पर आगे बढ़ने का मन बना लेते हैं, तो पूरी तन्मयता से अपने लक्ष्य की ओर दौड़ पड़ते हैं परवाह ही नहीं करते। जब काल की इन अस्थायी चीजों को इकट्ठा करने में न अपनों की, न रिश्ते-नातों की, न तानों की, न लोक-लाज की चिंता, तो बाबा! परम भगति, आलौकिक भगति की राह में जिसे हिम्मत हो वो चले, वरन् कई आत्माएं इस लोक-लाज के कारण, कष्ट तानों के कारण भगति की राह को छोड़ देते हैं और बारंबार चौरासी के चक्कर में फिरते रहते हैं।

शिव जी ने भी माता पार्वती जी से भगतिवान रूहों के लिए कहा,
उमां कहूँ मैं अनुभव अपना, सत्य हर भगत जगत सब सपना

सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के भी परम प्यारे वचन आए-
सिरु डिने साजन मिले, त पूरो सिरु कयां इख्तियार

वह प्यारा झोली फैलाए विनय अर्ज करने लगा, साहिबान जी, हमें अंतर में सतगुरु भगति का निर्मल फल प्राप्त हो, ऐसी मेहर करें। न आप हमें विसारें, न हम आपको विसारे, बिसरो नाहिं मोहे प्यारे, सच्चेपातशाह जी यह काल हमें न डिगाए, ऐसी दया मेहर करें। आप हरिरूप सतगुरु जी की भगति, खुशी, आशीष मेहर रहमतें पूरे कुल परिवार पर बरसती रहें। हे प्रभुजी! हमारे दोषों, गुनाहों अहम के भावों को न देखें, क्योंकि हम बेशुक्रे जीव, दात प्यारी विसारिया दातार के दोषों से भरे हैं। हमें अपनी दया मेहर के साए में रखें। गुरु महाराज जी, विनय अर्ज है, जिज्ञासा है कि, हम अज्ञानी जीव कैसे जानें की पारब्रम्ह पुरुख की खुशी, व छत्रछाया में हम आत्माए जी रहीं है कि नहीं? जीवन स्वांसों की गति उस रंग में भर रही है कि नहीं? हम कैसे जाने कि पारब्रम्ह हम भगतों को याद करता है कि नहीं? वह हमसे प्रसन्न है या हमसे नाराज है?

आप सच्चे पातशाह जी ने उस प्यारे से वचन फरमाए, भगतां जी! अगर जीवों से पारब्रम्ह हरिराया की नाराजगी होती भी है तो वह उसका निवाला, दाना-पानी, खाना-पीना उन्हें देना, बरसाना बंद नहीं करता, ना ही वह अपने नन्हें बच्चों को शारीरिक कष्ट संताप देता है। वह सूर्य की रोशनी, चांद की शीतलता का प्रभाव उन पर बंद नहीं करता, उनके जीवन में वह सब कुछ करूणामय पारब्रम्ह देता जाता है। बस वह हरे माधव हरिराया एक कण, जिसे मंण भी कहे, फिर इसे तंण भी कहें, ये वचन गूढ़ हैं।

बाबा! जब पारब्रम्ह नाराज होता है तो बस वह वक्त, वह समां, वह आलौकिक घडि़यां, पावन सतगुरु साचे की संगति से, शरण से जीव को महरूम दूर कर देता है, बेशक वह दूर भी नहीं करता पर, काल का चक्र जारी हो जाता है, ऐसे जीवों के मन शक, शुभा, सौंसे के कारण उनके चित्त में अहम, मैलापन, शंकाएं जन्म ले लेती हैं, जिससे मन का टिकाव सतगुरु श्रीचरणों में नही रहता, सो ऐसे जीव भटकन के सफर में चल पड़ते हैं। काल के गर्त में आ, साधसंगत, सतगुरु श्रीचरणों की सेवा से दूर हो जाते हैं। ऐसे जीवों को भगतों की संगति नहीं भाती। मनमुखों की संगति में काल के खेल गलत संगति में ही उन्हें आनंद आता है। सतगुरु मेहर दातों को विसार नमकखुआरी, बैरी, मनमुख, निंदक बन फिरते हैं।

ऐ प्यारे! ऐसे जीवों पर यह पारब्रम्ह की नाराजगी की निशानी समझना चाहिये। इसलिए ऐ प्यारों! हरिराया की अंशी आत्माओं, जो हर रोज नाम बंदगी, अंतरमुखी सेवा, प्रीत बंदगी की राह पर चलते हैं, सतगुरु श्री चरणों में वे बड़े भागां वाले, अपार खुशनसीब हैं। करूणामय पूरण साचा सतगुरु पारब्रम्ह अपनी अंशी रूहों से बेहद खुश प्रसन्न तब जानो, जब जीव का कर्त्तव्य भगति धर्म हो, पल-पल, क्षण-क्षण भाव भगति से भरा हो, उसका शुकराना भांणा सत्कार भाव पिरोता रहे, सतगुरु की रहमतों को याद कर भगति को बढ़ाता है क्योंकि, साधसंगत जी! सतगुरु की सेवा पारब्रम्ह की सेवा, सतगुरु की भगति पारब्रम्ह की भगति है। रूहानी कवि ने कौल कहे हैं-

सतगुरु की मोहब्बत, प्रभु की मोहब्बत
सतगुरु की नाराज़गी, प्रभु की नाराज़गी
सतगुरु की सेवा, प्रभु की सेवा
सतगुरु से कपट, प्रभु से कपट

संगता जी! हर पल सतगुरु मेहर, किरपा को याद करते रहो, पारब्रम्ह की दया बरसती रहेगी। इतने सारे वचन सुन पूरा परिवार जारोंजार रो पड़ा। प्रेमी सेवादार पानी का गिलास सभी को देने लगे। वह प्यारा विनती अरदास कर, जारोजार रो-रोकर भाव भगति से कहने लगा, सांई जी, सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के समय हमने केवल दुनियावी चीजें ही मांगी, सेवा तो की पर सतगुरु भगति की दात न पाई। उस समय हुजूर जी इशारे करते, अभी वो समय नहीं, अभी जीव का मन, कर्म कालखण्ड में उलझा रहेगा। आगे चलकर, भगतिमय दिव्य ज्योत प्रगट होगी, वही तुम्हें भगति का दान सर्व आत्माओं को भगति का दान देगी। आज 48 साल पहले का वचन पूरा होता हुआ मैं देख रहा हूँ। आप सच्चे पातशाह जी हमें भी भगति का दान दीजिए, जो आप प्रभुजियो सर्व आत्मओं को बक्श रहे हैं, भगति रसायन की दात से पूरे कुल परिवार को भगतिमय अक्षय सुख फल बक्शें, दया मेहर करें, सच्चेपातशाह जी, श्रीचरणों से दूर न करना, आप हमें साधसंगत शरण का सुख, पावन वेला, पावन घडि़यों से महरूम न करना। विनय अर्ज है झोली फैलाए, सच्चे पातशाह जी,

भगति दान मोहिं दीजिए, गुरू देवन के देव
और नहीं कछु चाहिए, निस दिन तेरी सेव

हे सतगुरु दयाल! आपजी के श्री चरणों में सारी संगत आपसे यही विनय पुकार कर रही हैं, कि हमें मन की उलझनों से दूर कर, सच्ची भक्ति का बल बक्श, निष्काम सेवा की भावना बक्श, प्रेम और भाव का इत्र बक्श, नाम बंदगी में बरकत बक्श सच्चे पातशाह जी, आपकी दया मेहर आशीष का हाथ सदा सर पर बना रहे, भगति दान मोहिं दीजिए, गुरु देवन के देव। मेरे सतगुरु जी मेरे माधव जी।

। कहे माधवशाह सुनहो रे प्यारों, भगतन का सतगुरु दाता प्यारा।।
।। भगतन पाया तेरे भगत का भण्डारा, तिन भगतन का तू एको प्यारा।।

 हरे माधव   हरे माधव   हरे माधव