|| हरे माधव दयाल की दया ||
‘‘अगम पुरुख जगावै, जाग आतम’’
हरे माधव प्रभु की प्यारी साध संगतों! स्नेही सत्संगीजनों! आप सभी को हरे माधव। सतगुरु सच्चे पातशाह जी के श्रीचरण कमलों में हम ऐबदारों, निर्बल मिस्कीन, गुनहगारों की प्रेम श्रद्धा अर्पण हो, प्यारल! कबूल करें।
भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी बड़ी दीनता निमाणे भाव, अजीजी भाव से समझाते हैं कि ऐ आत्मा! जागो तू :
समरथ हे आत्मा जागो तू
गुरू नाम से जागो तू, गुरू ध्यान से जागो तू
कौन है तुझे मारग देवे, गुरू पूरे बिन अंधा जग यह
अजब कहानी अलख जुबानी, कहत है यह दास ईश्वर तो
हरे माधव अमृत नाम भाव संतमत वचन प्रकाश 1187 में गुरु महाराज जी फरमाते हैं, ऐ आतम! जाग। इस जगत की ठौर, असल ठौर नहीं। इस जगत के साजो सामान में लाग न रख, जाग तू ऐ आतम! जाग।
तो आतम विनती कर उठी, हे जागन पुरुख! हम कैसे जागें क्योंकि मन की धमाचौकड़ी अंतरघट में हर पल भरी पड़ी है कि यह खाउं, वो पाउं। तो साहिब जी फरमाते हैं-
गुरु नाम से जागो तू, गुरु ध्यान से जागो तू
जो जागृत पूरण हरिराया सतगुरु हैं, उनसे सतगुरु नाम दीक्षा लो, उनसे तवज्जू लो, उन जागृत पुरुख का ध्यान तुझे जगा देगा, उसे कमा। आप देखो, यदि भगतु के माता-पिता जाग कर उसे पढ़ाते रहें पर बाबा! भगतु सो जाए, तो सोने में जो समय गया सो गया, पढ़ाने वाले मात-पिता भी पढ़ाकर चले गए। हाथ क्या आया! इसलिए कहाः
यह देही तो ऊँची देही, तरसे केते देव रे
छूट न जाए फिर यह चोला, बेला सुहावा भाने तू मेरा
बाबा! ऐसी देही के लिए तो देवगण भी तरसते हैं, हम आपको उसके हुक्म, उस देही की कद्र और देही के अंदर का सार मक्खन अर्क शब्द भाव, बंदगी भाव का ही बल दे रहे हैं। याद कर, यह देही ऊँची है, देवगण तरसते हैं। वह जामा तुझे मिला है। फिर प्यारा फरमान आयाः
कौन है तुझे मारग देवे, गुरू पूरे बिन अंधा जग यह
बिना कमाई वाले सतगुरु के न मारग आज तक किसी आतम को मिला है और न ही कोई आतम परम पुरुख में मिल पाई है। यह तो ऐसी बात भई कि बाबा! ग्वालमल जी निकले कि अपने स्नेही के मंगल कारज में जाना है और उसमें मिलना है, अपनी तार जुड़ी थी, याद कर पिपासा जगी कि सामने जाकर उनसे मिल लूँ। भगत ग्वालमल जी निकले, अपनी गाड़ी में चलते गए। कई लोगों से पूछा, सभी भले मानुषों ने कहा, ऐ भले मानुष! आपको जाना कहाँ है और मिलना किससे है? यह तो बताओ।
तो वह कुछ समय सोच में पड़ गया कि मुझे अपनों व मित्र यारों ने बताया था कि उत्तर की तरफ चले जाना, पक्का रोड है, कुछ पगडंडियां पड़ेंगी, कुछ जंगल पड़ेंगे, कुछ बीहड़ पड़ेंगे। मैं तो ये सारे नज़ारे देख आया हूँ, रास्ता तो बढ़ता ही जा रहा है पर मंजि़ल नहीं दिख रही और मंजि़ल में रहने वाला स्नेही भी नहीं दिख रहा है। वहाँ पर खड़े एक सज्जन बोले, अपने ही स्नेही से संपर्क कर पता पूछो तो हम आपको पूरा नक्शा बता देंगे। जब लोकेशन देख संपर्क साधा तो उन्होंने पूछा आप कहाँ हो? तो ग्वाल जी ने बताया कि अमुक स्थान पर खड़ा हूँ। तो स्नेही जन ने कहा कि हमने तो आपसे उत्तर की ओर जाने को कहा था पर आप तो दक्षिण की ओर खड़े हैं। इसलिए सही दिशा का पथ पकड़ो। प्रभु की प्यारी संगतों! ऐसे वचनों में बड़े भाव हैं, हमें बुद्धि दौड़ाकर समझना है। वाणी में आयाः
कौन है तुझे मारग देवे, गुरू पूरे बिन अंधा जग यह
अजब कहानी अलख जुबानी, कहत है यह दास ईश्वर तो
हरिराया सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी, तारणहार प्रभु वैद्य हाकिमों की तरह बड़े-बड़े गहबी वचन, दिव्य दृष्टान्त रूहानी प्रसंग में अक्सर सुनाते हैं, उद्देश्य ध्येय कि जीवात्माओं के दिल के अंदर का अंधेरा, दुई भ्रम हटे और सतगुरु शबद का, सिमरन भजन का सुख जीवों को मिले, और सतगुरु बंदगी प्रीत गाढी़ हो जिससे हरे माधव सत्त उपदेश तालिमों में ईमान प्यार टिका रहे। पूरण सतगुरु के वचनों में जीवात्मा की सच्ची श्रद्धा, सच्चा प्रेम और दृढ़ निष्ठता बनी रहे और लोक लाज मनमत के बहकावे में शिष्य की रूह ना बहे। रूहानी भेद गूढ़ गहबी वचन प्रसाद देकर आप सच्चे पातशाह जी! हर रम्ज से सर्वसांझी रूहों को समझाते हैं, राहें रोशन करते हैं।
साधसंगत जी! भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु के पास तत्व की दिव्य दृष्टि है, जिस तरह एक अनुभवी प्रोफेसर, स्टूडेंट (छात्रों) को बड़ी बारीकी से ज्ञान की दुनिया में खड़ा करना चाहता है, उसी तरह भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु अपनी अकह कमाई परमत्व खुमार से कमाल और नूरी जलाल का बोध प्रबोध दे हमें समझाईश बक्श रहे हैं। गुरु महाराज जी के हर एक मौज करुणा कुर्ब में मेहर रहमतें, मनोहर लीलाओं में पावन रब्बी वाणियों, पावन उपदेशों में जीव जगत का हित ही हित होता है, इसलिए सभी जीवात्माओं, सेवकों, भगतों-संगतों को अपने घट अंदर आज के फरमानों को अनुभवी दृष्टांतो, हरे माधव अमृत वचनों, हरे माधव भांगा साखी उपदेशों को सुनकर-समझकर अपने हृदय, बुद्धि, अंतर घट में बिठाना है, पावन उपदेशों से सतगुरु प्रीत बढ़ानी है, भक्ति बढ़ानी है, श्री चरणों में श्रद्धा भरोसा पुख्ता करना है।
हरे माधव प्रभु की सर्वसांझी संगतों, सिक्ख-सेवकों, बाल-गोपालों, सेवादार, दूर खड़े या निकट से निकट सेवादार, सतगुरु वचनों को हृदयगाम करें। भारी भजन सिमरन के भंडारी हरिराया सतगुरु ने जब-जब भी अपना नूरी जौहर कालखंड में, इस जगत में फैलाया, तब-तब काल ने अपना गहरा जाल फैलाया। लेकिन भजन सिमरन के भंडारी तारणहार दयाल सतगुरु अपनी परम पावन वचन, गहबी गूढ़ वाणियों के द्वारा, हर एक सोझी से सकारात्मक शुद्ध उपदेशों से संजीवनी प्रसाद जीव जगत को देते हैं, जिससे काल के गहरे जाल से जीवात्माएं उबरे। आईये! प्यारी साधसंगतों! हरे माधव हरिराया सतगुरु दीनदयाल, हरे माधव प्रगट हजूरे परम प्रभु के सर्वसांझे पावन वचनों, निर्मल रम्जों को, हरे माधव भांगां अमृत वचन साखी उपदेशों को आत्मसात करें जी।
हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी किरपा मेहर कर इस हरे माधव भांगां अमृत वचन साखी उपदेश 119, अगम पुरुख जगावै जाग आतम द्वारा हम सभी जीवों को जीवन में उन्नति हेतु सार उपदेश दे रहे हैं, सात्विक जीवन, भक्तिमय जीवन, अमूल्य मानव जीवन को जीते जी, समय रहते संवारने की राह रहे हैं। आईए प्रेम मन से श्रवण करें जी।
प्राचीन समय की बात है, एक राजन ने राजदरबार में सभा बुलवाई। सभी मंत्रीमंडल, विद्वान एवं अन्य अधिकारी गण सभा में उपस्थित हुए। राजन ने भिन्न-भिन्न प्रतियोगितायें आयोजित कीं जिसमें सबसे अधिक बलवान, सबसे बड़ा कलाकार, सबसे बड़ा गायक, सबसे बड़े ज्ञानी आदि को इनाम दिया।
फिर राजन ने अपने हाथ में एक छड़ी उठा ली। तो एक दरबारी ने पूछा, राजन! यह छड़ी किस प्रतियोगिता के लिए है। राजन ने कहा, मैं यह छड़ी उसे देना चाहता हूँ जो सबसे बड़ा मूर्ख होगा।
सभा में बैठे सभी लोग बड़े विद्वान व बड़े पद ओहदे वाले थे। सभी एक से एक चतुर और वाक-पटुता में माहिर थे, अब वह छड़ी कौन ले, सभी स्वयं को ज्ञानी मान रहे और अपने ज्ञान का प्रदर्शन करने लगे। उस सभा में एक दरबारी ऐसा भी था जो पूरण सतगुरु का शिष्य, गुरुमुख सत्संगी था। वह सब देख-सुन मुस्करा रहा किंतु शांत, मौन था, तभी एक दरबारी ने राजन को उस गुरुमुख बंदे की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘महाराज! यह सबसे बड़ा मूर्ख दिख रहा है क्योंकि एक तो यह ज्ञान की कोई बात कर नहीं रहा और ऊपर से हम जो कह रहे हैं, उसे सुनकर हँस रहा है। लगता है इसे कुछ समझ में नही आ रहा, यही सबसे बड़ा मूर्ख है महाराज। यह छड़ी आप इसे ही दें।’’ उसकी बातें सुन अन्य दरबारी भी हामी भरने लगे कि हाँ महाराज! यही सबसे बड़ा मूर्ख है।
राजन ने उसे बुलाकर छड़ी देते हुए कहा, ‘‘इसे अपने पास रख लो और याद रखना! जब तुम्हें तुमसे भी बड़ा मूर्ख मिले, यह छड़ी उसे दे देना।’’
उस भोले गुरु प्रेमी ने, चुपचाप छड़ी ले ली। साधसंगत जी! जो सतगुरु की प्रेमा भगति में मस्त रहते हैं, श्री चरणों की सेवा नितनेम से करते हैं, दीवाने भौंरे बने रहते हैं, उन्हें दुनियावी तर्क-वितर्क नीरस प्रतीत होते हैं। वे आंतरिक मस्ती में भीगे रहते हैं। दुनियावी कर्त्तव्यों का पालन करते हुए, सतगुरु भगति में सराबोर रहते हैं। अक्सर अन्य लोगों को ऐसे गुरुभगत मूर्ख लगते हैं, उन्हें ताने-बाने देते हैं कि तुम्हारे पास कुछ काम नहीं, बस सारा दिन बांवरे से बने फिरते हो, जब देखो सतगुरु सेवा में जाते हो और कोई काम नहीं है या अन्य शिकायतें, पर प्यारों! हम सभी को सतगुरु प्रेम में रंगना चाहिए, नितनियम से सेवा बंदगी में लगना चाहिए, जो इस राह से सच्चे मन से जुड़े हैं, उन्हें ताने-बाने नहीं देने चाहिए। ऐसा कर हम अपने कर्मां के भार को बढ़ा रहे हैं।
आगे आया, जब राजा ने उसे छड़ी दी तो, उस गुरुमुख प्रेमी के मन में तनिक भी अपमान का भाव न था। अब वह हर पल उस छड़ी को अपने साथ रखता, उसने निश्चय किया कि जो सबसे बड़ा मूर्ख होगा, यह उसी को दूँगा। जब भी वह राज दरबार में आता, तब राजन एवं अन्य सभी दरबारी उसका मज़ाक उड़ाते कि तुझे अभी तक तुझसे बड़ा मूर्ख नहीं मिला यानि तू ही सबसे बड़ा मूर्ख है। वह बड़े ही सरल सहज शब्दों में कहता, नहीं, अभी नहीं मिला। जिस दिन मिलेगा, तत्काल ही यह छड़ी मैं उसे सौंप दूँगा।
कुछ महीनों बाद, राजन का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा, असाध्य रोग हो गया, बीमारी बड़ी ही जटिल थी जिससे वह दिन-प्रतिदिन दुर्बल होता जा रहा था, 68 वर्ष की आयु, शरीर साथ नहीं दे रहा। बड़े से बड़े वैद्य आए पर राजन को रोग मुक्त न कर सके, वे जान गए कि राजन का अंतिम समय निकट है इसीलिये दवा असर नहीं कर रही, राजन अब मृत्यु शैया पर पड़े थे, मृत्यु किसी भी रोज़ दस्तक दे सकती थी।
सारे नगर में उदासी छाई थी, राजन भी जीवन से निराश हो आँख मूँद लेटे रहते, नींद भी न आती, शरीर में पीड़ा जो थी। एक दिन जब राजन के सभी सम्बन्धी, रानियाँ, राजकुमार, मंत्रीमंडल उनके निकट बैठे थे तभी वह गुरुमुख भगत वहाँ आया, राजन को नमस्कार कर निकट ही बैठ गया, उसके पास वह छड़ी अब भी थी। उसने कहा, ‘‘महाराज! हम सभी की यही प्रार्थना है कि प्रभु आपको स्वस्थता बक्शे।’’
राजन ने दर्द से कराहते हुए कहा, ‘‘अब तो जाने की तैयारी है बस।’’
गुरुभगत ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, ‘‘महाराज! आप कहाँ जाने की बात कर रहे हैं?’’ राजन ने कहा, ‘‘अब यह देश छोड़ कर जाना है, यहाँ से कूच करने की तैयारी है।’’ गुरुभगत ने भोले भाव में पूछा, ‘‘महाराज! यूं तो जब भी आप किसी यात्रा पर जाते हैं तो हम सभी को पूर्व में सूचना दी जाती है और सारे साजो सामान की, निर्वाह हेतु खाद्यों की तैयारी, परन्तु इस बार कोई सूचना ही नहीं, कोई तैयारी भी नहीं। ऐसा क्यों महाराज?’’ राजन ने समझाते हुए कहा, ‘‘अरे भोले भाई! जिस यात्रा पर मुझे अब जाना है, इसमें पूर्व समाचार देने का समय ही नहीं होता, बस एकदम चल देना पड़ता है।’’ गुरु भगत कहने लगा, ‘‘महाराज! तनिक यह तो बताने की कृपा करें कि आखिर कितनी दूर, किस देश में जाना है, कितना समय लगेगा?’’ राजन ने कहा, ‘‘मुझे ज्ञात नहीं कि कहाँ जाना है, कितनी लम्बी यात्रा है, समय कितना लगेगा, अनुमान लगाना कठिन है।’’
फिर गुरुभगत ने कहा, ‘‘ठीक है महाराज, तो फिर मैं अभी जाकर आपका रथ तैयार करवाता हूँ।’’ राजन ने कहा, ‘‘ऐ भोले मानुष! इस यात्रा में कोई रथ, कोई सवारी साथ नहीं जा सकती।’’ गुरुभगत ने पूछा, ‘‘पर क्यों महाराज! आप इस देश के राजन होकर अपनी यात्रा पर रथ में नहीं जाएंगे, ऐसा कैसे हो सकता है?’’ राजन ने दर्द भरे स्वर में कहा, ‘‘यह परलोक का सफर है, इसमें दुनियावी सवारी काम नहीं आती। गुरुभगत कहने लगा, महाराज मुझे तो ज्ञात है कि वेदां-उपनिषदों में आया है कि जो लोग पूरण सतगुरु भक्ति और नाम बंदगी सेवा में लगते हैं, उनके लिये दिव्य सवारी का प्रबंध होता है, ऐसों की आतम को परमात्मामय सतगुरु, दया मेहर कर स्वयं लेने आते हैं। राजा निराश हो कहने लगा, लेकिन मुझे तो इसकी आशा ही नहीं क्योंकि मैंने तो भक्ति सेवा सुमिरन, कुछ किया ही नहीं अपितु जीवन पर्यन्त मैं धन पद एकत्र करने और नगरों को जीतने में ही लगा था, दुनियावी माया, परिवार, वैभव, वंश के सुख में लिप्त था।’’
गुरुभगत ने पूछा, ‘‘तो फिर महाराज! अवश्य ही महारानी जी, राजकुमार या अन्य मंत्री, दरबारी आदि आपके साथ चल सकते हैं न?’’ राजन ने कहा, ‘‘नहीं! परलोक की यात्रा में कोई भी साथ नहीं जा सकता, अकेला ही जाना पड़ता है।’’ गुरुभगत ने कहा, ‘‘आपने यह समूरा जीवन जिनके मोह प्यार में बिताया, इनमें से कोई भी साथ नहीं चल सकता? और आपकी इतनी विशाल सेना का क्या, क्या ये भी सभी यहीं रह जायेंगे? क्या इस परलोक यात्रा में कोई आपका साथ नहीं देगा? कोई भी नहीं?’’
राजन ने बड़े ही दुखित स्वर में उत्तर दिया, ‘‘हाँ भाई! इनमें से कोई भी मेरे साथ नहीं चल सकता। मैं अपने साथ, किसी अपने को नहीं ले जा सकता।’’
वह गुरुभगत कुछ देर चिंता में बैठा, फिर पुनः पूछा, ‘‘महाराज! इस यात्रा में खर्च हेतु आप कितना धन ले जायेंगे और क्या-क्या सामग्रियाँ लेकर जायेंगे? यह विशाल राज्य, सोना-चाँदी, रतन-माणिक, और महाराज! यह हीरों से जडि़त सिर का ताज, यह तो आप पहन के जायेंगे ना?’’ राजन ने कहा, ‘‘ये सब यहीं धरे के धरे रह जायेंगे, इनमें से कुछ भी साथ नहीं ले जाऊँगा, यह मेरा मुकुट, मेरा सिंहासन जिसके लिये मैंने इतने युद्ध लड़े हैं, यह भी सब यहीं रह जायेंगे। मेरे भारी खज़ाने में से एक आना तक साथ नहीं जाना, खाली हाथ जाना है कुछ न चलेगा।’’
गुरुभगत ने कहा, ‘‘महाराज, यदि आप इस यात्रा पर अकेले व साधारण रूप में ही जायेंगे तो फिर वहाँ आपको पहचाना कैसे जायेगा? आप जहाँ जाते हैं वहाँ आपका भव्य अभिनंदन होता है, फिर यहाँ आपका अभिनंदन कैसे होगा?’’ राजन ने कहा, ‘‘भाई! मैंने मेरे ऐसे कोई कर्म नहीं हैं जिस वास्ते वहाँ मेरा स्वागत अभिनंदन हो।’’
गुरुभगत ने कहा, ‘‘यह कैसे हो सकता है? जीवन पर्यंत आपने मान प्रतिष्ठा अर्जित की है, आप सम्राट हैं, आपके पास लाखों एकड़ जमीनें हैं, आपके एक इशारे पर अन्य नगरों के राजा एकत्रित हो आदेश का पालन करते हैं, सर झुकाये खड़े रहते हैं, ऐसे महान सम्राट का वहाँ अभिनंदन तक न होगा?’’ राजन ने लाचारी भरे स्वर में कहा, ‘‘अभिनन्दन तो वहाँ उनका होता है जिन्होंने वक्त के पूरण सतगुरु का नाम सिमरन भजन किया हो। मेरे जैसों का स्वागत करने वाला वहाँ कौन है?’’ गुरुभगत ने चिंतित होते हुए कहा, ‘‘तो फिर महाराज! सर्व सुविधाओं के बिना, इस यात्रा के बाद आप रहेंगे कहाँ? अन्य कुछ नहीं तो कम से कम एक आलीशान महल तो होगा ही आपके लिए?’’ राजन की आँखें नम हो गईं, वह कहने लगा, ‘‘मैंने समय रहते, अपनी स्वस्थता रहते, सर्व सुविधायें रहते उस लोक के लिए कोई बंदोबस्त ही नहीं किया।
यह सत्य है, अहंकार, मैं-मैं वाले जीवों को, माया में आसक्त प्राणियों को परलोक में ठिकाना नहीं मिलता। चौरासी में भटकना पड़ता है। और जो सतगुरु के निंदक द्रोही होते हैं, उन्हें तो कठोर से कठोर दण्ड दिए जाते हैं।’’ राजा के मुख पर अत्यंत निराशा और चिंता के भाव दिख रहे।
गुरुभगत ने बड़े ही शांत स्वर में कहा, ‘‘महाराज! यह तो अत्यंत चिंता का विषय है, क्या अब इसका कोई प्रबन्ध नहीं हो सकता?’’ चिंतित राजन कहने लगा, ‘‘अब तो समय हाथ से निकल ही गया, वह कैसे आयगा? स्वांसों के रहते, जब देह पुष्ट थी तब तो मैं जीवन भर मायावी चीजों को पाने की होड़ में था, उनको एकत्र करने में सारा जीवन गंवा दिया अब तो चाहकर भी कुछ हाथ न आएगा। गुरुभगत ने कहा, हे राजन! आपको सब ज्ञात था कि जीवन की अंतिम यात्रा में किस सार वस्तु, साचे धन की आवश्यकता है पर जागृत न हुए सुत्ते ही रहे, अब तो आपके पास स्वांसे भी कम हैं।’’ यह सुन राजन जारों-जार रो रोकर पश्चाताप करने लगा।
गुरुभगत ने बड़े नम्र भाव में कहा, ‘‘मुझे क्षमा करें महाराज, पर आप यह अपनी दी हुई छड़ी मुझसे वापस ले लीजिये।’’ राजन ने आश्चर्य में पूछा, ‘‘यह क्यों?’’ गुरुभगत कहने लगा, ‘‘महाराज! मेरे विचार से आप ही इस छड़ी के योग्य हैं। ऐ राजन! यदि आप प्रभु मालिक की भजन बंदगी का सुख, पूरण सतगुरु नाम की कमाई करते तो आप उज्जवल मुख होकर बड़े आत्मिक आनंद से सतगुरु नाम के विमान पर सवार होकर अकह प्रभु के धाम जाते। पूरण सतगुरु की रहमत से पारब्रह्म अकह लोक में स्थान मिलता, पर अफसोस, आपने इसका कोई प्रबन्ध नहीं किया, जो संग साथ जाना था, उसे न कमाया। यदि स्वांसों के रहते स्व को सतगुरु की शरण सेवा, दर्शन में रमाया होता तो आप कर्म बंधनों से सदा के लिए मुक्त हो जाते। संतवाणी में भी आया है-
कबीर दरसन सतगुरु का बड़े भाग दरसाए
जो होवे सूली सजा कांटे ही टर जाए
पर आपने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। अमूल्य स्वांसें पाकर उन्हें सतगुरु बंदगी में नहीं लगाया, हष्ट-पुष्ट देही पाकर उसे कुछ पलों के लिए भी सतगुरु की सेवा में न रमाया, अपार धन भंडार, जमीनें पाकर भी गुरुचरणों में दान कर पुण्य न कमाया। संत कबीर जी कहते हैं कि जब तक देह है, जीव को अपनी कमाई को पूरण संतों की संगति राह, सेवा में दान करना चाहिए, देही के रहते ही दान में अपना धन लगाना चाहिए, क्योंकि जब देह ही नहीं रहेगी, तो तुम्हें कौन कहेगा दे और फिर-फिर तो यह देही नहीं मिलनी-
कहै कबीरा देय तू, जब लग तेरी देह
बहुरि न देही पाइए, अब की देह सो देह
हे राजन! आपने तो स्वांसों का तन, मन, धन तीनों का सदुपयोग नहीं किया, अब तो सिवाय पछताने, रोने के और कुछ न मिलेगा, अब आप ही बताईये महाराज, जब समय स्वांस और तन साथ था, आपने मन के कहे जीवन व्यापन किया, अब भला इस संसार में आपसे बढ़कर मूर्ख और कौन होगा?
राजन फूट-फूटकर रो पड़ा, अफसोस करते हुए, हाँ! मुझसे बड़ा मूर्ख कोई नहीं है।’’
वह गुरुभगत, राजन को छड़ी सौंप, प्रणाम कर वहाँ से चला गया। राजन के दुख का कोई पारावार न था, इसी दुख में कुछ दिन बाद राजन की मृत्यु हो गई और उसकी रूह आतम का अवागमन का सिलसिला जारी रहा, क्योंकि जीवन स्वांस रहते असल कमाई न की, केवल बाहरी विषय भोगों को ही सत्य मान उसी का चिंतन जीवन पर्यंत किया, जिससे चौरासी के फेरों में आवागमन में आना पड़ा।
प्यारी साधसंगत जी! सांईजन जी ने, इस दृष्टांत साखी उपदेश का भाव कि राजन के अनुसार गुरुभगत मूर्ख था, सुत्ता था, किंतु वास्तव में सुत्ते मूर्ख प्राणी तो वे हैं, जो जीवन पर्यंत सोए रहे, माया की नींद में। जन्मों की माया की नींद से जागना जरूरी है, आतम को जगाना ज़रूरी है, जो पूरण सतगुरु भगति से नहीं जुड़ते, समय स्वांस रहते नहीं जागते, उन्हें अंत समय पछताने के सिवा कुछ हाथ नहीं आता। सो, अब जगाए कौन? साधसंगत जी! जब तक जागृत कमाई वाला पूर्ण सतगुरु नहीं मिला, तब तक जन्मों की माया की नींद से, गफलत से जीव नहीं जाग पाता। जब जीव को जागृत सतगुरु मिला, उन्होंने जागृत दीक्षा जागृत तव्वज्जु, जागृत वचन बक्शे फिर जीव इनसे जुड़ जन्मों की, माया की गफलत की नींद से जाग जाता है।
भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी ने जीव जगत को चिताने के लिए इस रब्बी वाणी में फरमाया-
साधो जग यह सब सपना है, दुख सुख धूप-छांव है न्याई
माया ठगी सब को ठगे, भ्रम जाल बणाया
रावण बाली बल बड़ा, तिन भी काल खाया
खोजो सतगुरु तत्व का भेदी, भेद बतावे सारा
साध-संगत के बनो बौरे, सेव नाम बचन कमावौ
दास ईश्वर करे विनती, दया करो, हरे माधव पुरुख अपारे
भजन सिमरन के भण्डारी पारब्रह्म में एकाकार पुरुख सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी कितनी करूणा, कितने प्यार और कितने सत्कार से हमें समझा रहे हैं कि यह जगत के सारे साजो सामान स्वप्न की न्याई है। इंसां जब नींद से सुबह प्रभात उठा तो मालूम हुआ यह तो नींद थी और जो नींद के समय हम राजन थे, महाराजन थे, ऐसे थे, वैसे थे, सारा का सारा स्वप्न ही था और यह सब प्यारी संगतों हमें कैसे भान हुआ, क्योंकि जगाने वाली ताकत मिली। जब दिव्य होश का साहूकार साचा सतगुरु जागन पुरुख मिला, तो सारी मात्राएं काल माया की समझ आ गई।
आपजी फरमाते हैंः
रावण बाली बल बड़ा, तिन भी काल खाया
रावण ज्ञान का प्रकांड-विद्वान था, काल उसके खूंटे से बंधा था, समस्त देवत्व शक्तियां उसके भय से बंधी रहतीं पर यह काल उसे हर बार कहता, ऐ रावण! मैं तेरा ग्रास जरूर करूंगा, सो वही हुआ। सच्चे पातशाह जी फरमाते हैं, बाबा!
खोजो सतगुरु तत्व का भेदी, भेद बतावे सारा
साध-संगत के बनो बौरे, सेव नाम बचन कमावौ
दास ईश्वर करे विनती, दया करो, हरे माधव पुरुख अपारे
सांसारिक धन यदि खर्च हो जाए तो उसे फिर से कमाया जा सकता है परंतु यह जनम स्वांसों की पूंजी खर्च हो गई तो दोबारा नहीं मिलेगी। अतः स्वांसों के रहते कुछ सांचा सौदा कमा लो जो खर्च नहीं होता, बढ़ता ही जाता है। ऐ प्यारों! यह शरीर घड़े के समान है, जिसमें से स्वांस रूपी बूंदें एक-एक कर बहती जा रही हैं। इसलिए स्वांसों के रहते पूरण सतगुरु नाम बंदगी कर आवागमन से छूटने का यत्न कर। ऐ जीव! तुम तत्वभेदी अगम पुरुख सतगुरु की शरण में जाओ, उनकी साधसंगत, सेवा, नाम में प्रीत रमाओ, वे तुम्हें जागने का समूरा भेद बक्श देंगे।
साध-संगत के बनो बौरे, सेव नाम बचन कमावौ
सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी, हरे माधव यथार्थ संतमत वचन प्रकाश 150 में प्यारे वचन फरमाते हैं, ऐ प्राणी! जग में जीवन उत्तम, सर्वोत्तम उसी का मानो जिस प्राणी के हृदय में सच्चे सतगुरु की भगति, अमृत नाम बसा है, क्योंकि स्वांसो के बिना शरीर नहीं चलता, पूरण सतगुरु नाम भगति के बिना आत्मा जागृत नहीं हो पाती, बंधु! सार वस्तु तो यही है। हरिराया सतगुरु के शबद नाम का भजन करो, सच्चे सतगुरु की छाँव में बैठ प्रीत का प्याला पियो। बीते हुए कल के व्यर्थ विचारों से अपना आज व्यर्थ मत गंवाओं। हर दिन नया सवेरा है उसका लाभ उठाओ। हरिराया सतगुरु के अमृत वचनों को जीवन में उतार कर अपना आज और आने वाला कल संवारों।
Don`t ruin your present with the worthless thoughts from past. Each day is a bright day, utilize it. Adorn your present and future by imbibing the pious sermons of Lord Satguru in your life.
शहंशाह सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी, परम मुक्त जीवन मुक्त होकर, आपजी ने सम्पूर्ण जीवन खुद को योग माया से पूर्ण कर जीव कल्याण के बेहिसाब कौतुक किये और परमत्व विनोद खुमारी में यूं वचन भी कह दिए कि जीव हमारी गत-मत नहीं जान पाये, आगे चलकर वह परम ज्योत प्रगट होगी, वह भजन सिमरन के भारी प्रकाश प्रगट होगें, जो दिव्य मुख से खुमारी में हमारी इन लीलाओं का, परम वचनों का खुलासा, रहमतों का रूप प्रगट करेंगे। वे दिव्य वचन आज सत्य, सत्य, सत्य, प्रकाशमय हो रहे हैं। हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी सतगुरु पातशाहियों की लीलाओं, परम वचनों के भेद आपै आप परम भजन मुख से प्रकट कर रहे हैं। सर्व सांझी रूहों, भगतों-शिष्यों पर अनंत रहमते बरसा रहे हैं, संजीवनी वचन प्रसाद हम जीवों को बक्श रहे हैं, हमें चिताने जगाने के लिए।
गुरुमहाराज जी, अक्सर सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी के यह परम वचन सत्संग फरमानों में खोलकर समझाते हैं-
उथ जाग मुसाफिर जियरा तोखे निंड्री न ओढ़े
वेठो आहीं वाट खां पहिंजो मुँ मोड़े
वाट लह जाए ओहड़ी, प्यारा देश अगम जी
वचन आए,
‘‘उथ जाग जियरा’’
ऐ जियरा! जागो, उठो अपनी आतम की तार उससे जोड़ो जो तेरे घट में है। फिर आपजी ने फरमाया,
‘‘निंड्री न ओढ़े’’
ऐ रब के अंश! तुम गफलत की नींद में सोए, इन्द्रियों की दुनिया में विचर रहे हो, विचरते-विचरते उम्र जा रही है, मौत रूपी नींद हर पल तुझे आगोश में लेने के लिए आतुर है। आपजी फरमाते हैं, हमारे वचनों का सत्कार करो, तोंखे निंड्री न ओढ़े।
‘‘वेठो आहीं वाट खां पहिंजो मुँ मोड़े’’
आपजी इक रस अवधूती खुमारी में फरमा रहे हैं, ऐ जीयरा! ऐ आतम! एक ही सच्ची राह, पथ है, अपने अंतर घट में जाओ। आप लोगों ने असल वाट राह से मुख मोड़ा है, असल वाट को खो दिया है, जाओ ऐसे अगम पुरुख सतगुरु की शरण में जहां पर आप असल वाट राह से जुड़ोगे और आप सभी का जागना होगा। ऐ रब के अंश! ऐसी दिव्य शरण छाँव में अंतरमुखी भगति और रहमत से दुख-दर्द भी दूर होंगे, जीवन सफला-सफल होगा।
’’वाट लह जाए ओहड़ी, प्यारा देश अगम जी’’
ऐसे अगम पुरुख की शरण जाओ, अगर आप योग्य हो, खरे हो पात्रवान हो तो वे जरूर भर देते हैं, अगर आप अयोग्य हैं, तो योग्य होने की विनती न्याजवन्ता, निमाणां भाव ही श्रीचरण कमलों में आपको जोड़े रखता है, मेहर किरपा से आप खरे योग्य पात्रवान होते जाओगे।
साधसंगत जी! संसार क्षणभंगुर है, स्वांसों का पिटारा कब पूरा हो जाए, खबर ही नहीं फिर क्यों मैले कर्म कर स्वांसों को बिरथा गंवा कर अपना मानुष जीवन व्यर्थ गंवा रहे हो, साचे कर्म कर। ऐ मनुवा! स्वांस बहते जा रहे हैं चाहे कितना भी मूल्य दे दो, जीवन की एक स्वांस भी नहीं बढ़ा सकोगे, इन अमूल्य स्वांसों की कद्र कर, सारा दिन संसार की उलझनों में, माया के सौदे कमाने में गुजार देते हो, क्या इसी वास्ते पारब्रम्ह ने उत्तम जीवन दिया है।
ऐ प्यारे! हरिराया सतगुरु हमें ये नहीं कहते कि, सांसारिक दायित्वों, कर्मो से अपना ध्यान हटाओ या कर्त्तव्य धर्म भूल जाओ, बस आप हर कर्म को प्रभु मालिक की सेवा जान कर करें, कर्म करते समय हरे माधव हरिराया की भाव भगति को अपने जीवन, मन आतम में भरते रहें जिससे उस हरिराया की अनन्य भगति का प्रसाद, आपके अंतर मन में बरस पड़ेगा और आप जो भी कर्तव्य कर्म करते हैं, उन में अहम भाव या मोह विकार मन पर हावी नहीं होगा।
हरिराया सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहब जी हरे माधव पीयूष वचन उपदेश 1045 में जीवन शरीर की क्षणभंगुरता के वैराग्य वचन बक्श रहे हैं, ध्यानपूर्वक श्रवण करें जी। आप सब देखो! जिन आंखो से बालपन एवं युवावस्था में सैकड़ों किलोमीटर दूर नगर या वस्तु पदार्थ कुदरत को निहार लेते थे, ऐसा समां भी आया वृद्धावस्था का, जब उन आंखों से हम बगल में बैठे अपनों को ही नहीं पहचान पाते। बाबा! जिन पैरों से बहुत तेज़ चल लेते थे, दौड़ लेते थे, खेलकूद कर लेते थे, फिर वह समा भी आया जब चलने के लिए छड़ी का सहारा एवं उठने-बैठने के लिए अपनों का सहारा लेना पड़ा। स्व विचार करें, जीवन बहता जा रहा है, स्वांस बहते जा रहे हैं, फिर भी सुध नहीं। जागो, अब तो जागो।
आप हम सभी का परम कर्त्तव्य बनता है कि जो वचन टॉनिक, टेबलेट वचन प्राप्त हुए, उन्हें नित्य नियम से, परहेज के साथ-साथ आत्मसात करें। स्वांस व्यर्थ न गवाएं, सतगुरु नाम का सिमरन करें। इक पल भी हरिराया सतगुरु को न बिसारें। इक स्वांस, इक पल का भी भरोसा ना कीजिए, जीव द्वारा स्वांसों को लेना और छोड़ना, यह सब हरे माधव प्रभु की बक्शीश है। अगला स्वांस लेंगे या नहीं यह सब गुप्त है।
सो! सदैव यही विनती करें हरिराया सतगुरु सच्चे पातशाह जी के पावन श्रीचरणों में, हे सतगुरु बाबल! मेहर करो कि हम आपके साचे वचनों को ग्रहण कर अपनी आतम को जगाएं, सतगुरु भगति को कमाएं। जब तक इस तन में स्वांसें रहें, वे आपके श्रीचरण कमलों में समर्पित रहें, इक स्वांस भी व्यर्थ न जाए। हे मेरे हरे माधव बाबल! यह जीवन आपका, यह स्वांसें आपकी, दया कर हमें अंतवेला तक अपने श्री चरणों के साए में छुपाए रखना, अपनी चरण-शरण से निभाए रखना। ऐसी मेहर करना मेरे मेहरां वाले दातार, अपनी दया रहमत बनाए रखना।
कौन है तुझे मारग देवे, गुरू पूरे बिन अंधा जग यह
अजब कहानी अलख जुबानी, कहत है यह दास ईश्वर तो
समरथ हे आत्मा, जागो तू जागो तू |
हरे माधव हरे माधव हरे माधव