|| हरे माधव दयाल की दया ||
वाणी संत सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी
।। मन बड़ा विषयों का जोगी, खिन्न-खिन्न किया हउमैं रंग का भोगी।।
।। मन ही बड़ा लोभी, मन ही झूठ रंग का रोगी।।
।। एकह नाम मन तू क्यों न, साध-संगत विचारे।।
हरिराया सतगुरु की शरण संगति ओट में बैठे प्रेमी सत्संगी जनों, आप सभी को हरे माधव, हरे माधव, हरे माधव। मन के खिन्न-खिन्न बदलते रूप को उजागर करने वाली यह रूहानी रब्बी वाणी संत सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी की अनमोल नसीहत से भरी वाणी है, जिसमें आपजी समझा रहे हैं-
मन बड़ा विषयों का जोगी, खिन्न-खिन्न किया हउमैं रंग का भोगी
मन ही बड़ा लोभी, मन ही झूठ रंग का रोगी
कुदरत प्रकृति ने तमाम इन्सानों को दो हाथ, दो पैर, दो कान, दो नेत्र और इस देही में असंख्य रोम दिए हैं, बेशक मुँह एक दिया पर उसमें दांत तो बत्तीस भर दिए हैं, परन्तु मन, मन केवल एक ही दिया है, इस मन को जोड़े नहीं दिए, दाँतों की तरह, पाँच, पंद्रह या पच्चीस मन नहीं दिए, मन को देने में प्रकृति ने कृपणता का सहारा लिया है, प्रकृति हमें एक ही मन दे पाई है, दुनियावी लोग कहते हैं, एक-आध दो मन और मिल जाते तो बहुत अच्छा होता, यह एक-एक मन अलग-अलग कार्यों या परिवार नातों में बांट देते और यह इन्द्रियां भी अलग-अलग मन पाकर व्यर्थ विषय स्वादों की खींचा-तानी नहीं करती, हमेशा मन की संगति का सुख भोगतीं पर ऐ बुद्धिजनों! अगर हमें अधिक मन मिल भी जाऐं, तो क्या हम उनका लाभ उठा पाऐंगे? कदापि नहीं।
अगर बंदे को अनेक मन मिल जाते तो उसका पहला लाभ यह कि वह भ्रमवश यह मान लेता कि एक मन से सतगुरु वचन सुनता और एक मन पूर्ण संत सतगुरु के रूहानी शाब्दिक मार से सदा बचा रहता, इस दूसरे मन की चंचलता कभी एक रस, कभी दूसरे रस पर टिकी रहती, अब दूसरा लाभ यह, कि इन्सान का मन इच्छानुसार क्रिया कलापों में पड़, भंवरों की तरह अलग-अलग मजे आनन्द लेता। प्यारे बंधुओं! एक बात सदा सत्य है, जिसे इन्सान अक्सर भूल जाता है, विसर जाता है और जो जीवन के समापन के समय ही याद आती है कि मैनें मन के संग यारी कर, अपना सारा जीवन व्यर्थ ही गंवा दिया। प्यारों! सच्चे संत अपने धर्म उपदेशों में कहते हैं, कि मन को पूरण सतगुरु भक्ति भाव में अर्पण करो, अब ऐसी सीख को सुनें, अमल करें, मन को पूरण सतगुरु भक्ति में लगा रूह का असल मुकाम प्राप्त करें।
साधसंगत जी! इस जीवन की झंझटें, तकलीफें जब उग्र हो जाती हैं, तब हमारा मन, दिलो दिमाग तनाव ग्रस्त हो जाता है और वे एक साथ, हमसे कई कार्य, तुरन्त ध्यान देने की मांग करने लगते हैं, तब हम इस विचार सोच में आ जाते हैं, कि इस कुदरत ने हमें आँख, कान, हाथ आदि जोड़े में दिए हैं, तो इस मन को देने में कंजूसी क्यों की है, कंगाली क्या थी प्रकृति में, क्या सोच विचार कर, एक ही मन देने को पर्याप्त समझा और दो-दो मन संभालने की शक्ति का अभाव देखा।
यह बात सर्वदा सत्य है, कि इन्सान जीवात्मा के लिए एक ही मन की सार सम्भाल करना अत्यंत कठिन हो रहा है। मन की चंचलता, उथल-पुथल, मन के तनाव, मन की बाहरमुखता के कारण, यह मन, जो सदा भरा है सागर जैसा, ऐसे मन के सागर का पानी खारा ही खारा बेस्वाद, निःरस है।
सभी के मन की हालत यही है, फिर राजा क्या महाराजा क्या। सबके मन में अपने-अपने राग अपने-अपने सकंल्प विकल्प होते हैं, जब हमारे मन को हरिराया सतगुरु प्रेम का सच्चा रंग लग जाता है, जैसे गोपियों को लग गया था, तब मन प्यारे सतगुरु की सेवा में शांत होकर, उसका आनन्द पाता है, सिमरन-बंदगी से जुड़कर यह मन, सच्ची शान्ति को पाता है, सतगुरु के प्रेम में भगतों का मन इतना रंग जाता है, जितना गोपियों का रंग गया।
साधसंगत जी! जब श्री कृष्णचंद्र जी ने ब्रज की विरह प्रेम में भीगी गोपियों को समझाने सांत्वना देने के लिए उद्धव को द्वारका से ब्रज भेजा, तो उद्धव ने गोपियों को, जिनका मन प्रेम में डूब चुका था, ऐसे प्रेमामय रंग को उतारने के लिए ब्रह्मज्ञान का उपदेश समझाया और कहा, अब तुम निराकार निर्गुण की बंदगी में लग जाओ, इससे तुम भवसागर पार कर लोगे, क्योंकि सर्वव्यापक पारब्रह्म से वियोग होना सम्भव ही नहीं, यह सुन गोपियों ने रंगे मन भरे स्वरों में उद्धव से कहा-
उधौ मन न भये दस बीस
एक हुओ सो गयो स्याम संग, को आराधै ईस
उधौ मन न भये दस बीस
सिथिल भई सबही माधौ बिन, जथा देह बिन सीस
स्वासा अटक रही आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस
तुम तो सखा स्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस
सूर हमारै नंद नंदन बिन, और नहीं जगदीस
हे उद्धव! मन तो हमारा एक ही है, दस-बीस थोड़े ही हैं कि एक किसी को दें और दूसरा किसी और को। मन तो एक ही था, वह भी प्रीयतम श्याम माधव के साथ चला गया। अब निराकार निर्गुण से प्रेम हम किस मन से करें?
एक हुओ सो गयो स्याम संग, को आराधै ईस-2
उद्धव! तुम जो उपदेश दे रहे हो, उस उपदेश को हम अपने भीतर स्थान कहाँ दें, वह स्थान रूपी मन तो हमारे श्याम के पास है, हमारे माधव के पास है। अतः तुम्हारा यह उपदेश हम धारण नहीं कर पायेंगे। जैसे शीष के बिना देह किसी काम की नहीं, ऐसे ही हमारी इंद्रियां भी अब शिथिल हो गई है, क्या पता किस क्षण माधव श्याम हमें दर्शन देने आ जाएं, बस उसी एक पल के लिए हमारे प्राण अटके से पड़े हैं। उद्धव! तुम हमारे माधव के सखा भी हो और योगियों में शिरोमणी भी, तुम योग से निराकार निर्गुण ईश्वर को खोजते हो, हम कौन से निर्गुण ब्रम्ह का विचार अपने भीतर लाएं, विचार तो मन में उठते हैं पर अब हमारा मन है कहाँ! उसका संचालन तो अब माधव श्याम का हो गया है, अब तो मन उन्हीं के आसरे है, उन्हीं के सहारे है। तुम किस भवसागर से पार होने की बात कर रहे हो उद्धव, किस जनम-मरण के पार जाने की बात कर रहे हो, जब तक माधव न चाहें तब तक जीवन मरण का कैसे कुछ हो, सब कुछ तो उनकी चाह भर रह गया है अब, प्रेम विरह से भरा जीवन तो मृत्यु से भी अधिक कष्टदायी है पर ये प्रेम पूरण आनंद रस भरा भी है क्योंकि वियोग विशेष योग ही है। मन वहाँ माधव मोहन के पास है तो कैसी दुर्दशा, वहाँ तो हर पल आनंद रस ही है न। इतना भर समझ लो कि वे ही अब हमारे हैं, और हम अब उनके ही हैं। दशा-स्थिति का अब कोई विचार नहीं, बस एक उनका आधार ही तो है, दूसरा ईश्वर किसे कहें। हमारे माधव बिन कोई ईश्वर नहीं और नहीं जगदीस।
माधव श्याम रंग में रंगी गोपियों की बात सच्ची थी, क्योंकि सर्गुण स्वरूप में उनका अगाध गहरा प्रेम था, सर्गुण प्रभु की सच्ची संगति कर, उनके मन ने अमृत रस को पी लिया था, अब भला वे अनदेखे, अज्ञात, अन्जाने रूप की उपासना क्यों करने लगीं?
उद्धव जी ने अनुमान कर लिया कि गोपियों के मन सर्गुण प्रभु में एकाकार हो गए हैं, उनके मन में प्रेम का रंग लग गया है, उनकी सराहना करते हुए वे द्वारका वापिस लौट आए और गोपियों की तरह मन को, सुंदर सलोने माधव श्याम के रंग में रंगकर, उद्धव भी अनन्य प्रेम में डूब गए, मन की झंझटों तकलीफों से सदा के लिए मुक्त हो गए, यह पहला मौका था, उस वक्त उद्धव जी ने केवल एक मन देने के लिए कुदरत प्रकृति का उपकार माना, प्यारे सत्संगियों! हमारे जीवन में भी ऐसा अवसर आये, कि केवल एक मन देने के लिए, हम कुदरत प्रकृति का आभार, उपकार माने। ऐसी सतगुरु भगति करो, ऐसा प्रेम करो मन आतम से कि रूह सदा सतगुरु प्रेम ऐसे मगन हो जाए जैसे श्रीकृष्ण के प्रेम में गोपियां। अपने सतगुरु प्रेम में रूह को अनन्य प्रेम से भर दो, सच्ची प्रेमा भगति को हृदय से भर दो।
साधसंगत जी! सतगुरु सच्चे पातशाह जी समझाते हैं, ऐ मन! छोड़ दुनिया की झूठी प्रीत, तू सच्चे सतगुरु की संगत में गुरुमुख बौरा बन, तू अपने मन चित्त में सतगुरु प्रेम को बैठा, हरिराया सतगुरु नाम बंदगी से मन आतम को सच्चा अमीरल महारस मिलता है, जिससे मन दुनियावी क्षणभंगुर रसों से विरक्त हो जाता है। जो कि आगे आप सतगुरु साहिबान जी अगली सत्संग शबद की वाणी में सच्ची नसीहत दे रहे हैं, जी आगे-
।। मन तू, जनम-जनम का रोगी।।
।। मन रे, खाक का रूप तुझे भाया है।।
।। प्रेम धरो रे मनुआ नाम स्यों, पाओ पद निर्वाना सतगुरू संग नाम के रंग।।
सतगुरु हूजूर बाबाजी भटके रोगी मन को, जो कि जनम-जनम का मैला, गफलत में सो रहा है, उसे समझाते हैं कि ऐ मन! इस खाक रचना से और खाक शक्लों सूरतों से तुझे इतना लगाव हो गया है, कि तू अपना अनूप रूप ही भूल गया, ऐ मन! तू प्रगट रूप अनूप सतगुरु की शरण संगत में मन को पाक निर्मल करने का भेद जान, मन को सदा सतगुरु नाम के सिमरन में लीन करने का अभ्यास करो।
प्रेम धरो रे मनुआ नाम स्यों, पाओ पद निर्वाना सतगुरू संग नाम के रंग
ऐ प्यारों! मैली संगति से बचो व सात्विक विचार, सात्विक भोजन, सात्विक जीवन जियो, मीठी वाणी बोलों। नियम कायदों का पालन करते हुए सतगुरु श्रीचरणों की सेवा करो, क्योंकि इससे मन पर अंकुश लगा रहता है।
आप हाजि़रां हुज़ूर सतगुरु साहिबान जी निज वाणी में समझाइश दे रहे हैं-
मन मेरे तजो झूठ का संग, मन मेरे करो शबद सिउ संग
मन मेरे तजो दम्भ का खम्भ, मन मेरे तजो नीच का संग
दास ईश्वर पर कृपा करो दयाला, देवो पूर्ण शबद सिउं प्रीत
तिस महिं लागे हमारा चीता, तिस महिं लागे हमारा चीता
हुजूर साहिबान जी फरमाते हैं, कि मन को बाहरी रंगों से हटा, भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु की शरण संगत में सेवा बंदगी कमाओ, कमाते-कमाते फिर यह होगा कि तुम्हारी सुरत प्रभु साहिब में मिलकर एक रूप हो जाएगी।
जिन्होंने पूरन सतगुरु की संगति पाई, फिर सतगुरु नाम से जुड़कर उनका मन परम ज्योति स्वरूप हुआ। पहले उनके मन की दशा जो मलीन थी, वह साफ हुई, दिन-रात दुनियावी पदार्थों की मन की जो चाह, अभिलाषा थी, ‘‘खपे अन्या खपे, खपे अन्या खपे’’ के भाव थे, दुनियावी चाह, ‘‘और चाहिए, और चाहिए’’ के जो भाव थे, जिस कारण कारण अंदरूनी अंतरमन की हालत अविवेकी हो गई थी, वह पूरण सतगुरु के वचनों से खुदाई विवेक से भर उठी। मन को सतगुरु वचनों की खुराक मिलने से सतगुरु वचनों के अमृत प्राप्त होने से मन शुद्ध हुआ।
साधसंगत जी! सुख के रूप संत पुरुख, अमृत की बात कहते हैं, लेकिन हमारे मन की जन्मों-जन्मों की ऐसी दशा है कि हमारी सोच विष को ही चाहती है। हमारा यह मन पूरण सतगुरु चरणों में आकर भी भौतिक पदार्थ ही चाहता है। मेहरबान सतगुरु जी समझाते हैं, ऐ रब के अंश! तुम शरण में आकर भौतिक सुखों की मांग करते हो अर्थात् सारी मांगे दुख की करते हो पर तुम्हें ध्यान नहीं कि अगर तुम पेड़ के नीचे बैठे हो, तो तुम्हें छाया स्वाभावकि ही मिलेगी, तुम चाहो या न चाहो। ऐ प्यारे! सुखरूप सतगुरु से सुखसार सतगुरु नाम की भक्ति की याचना करो, बाकी सारे भौतिक सुख तुझे पूरण सतगुरु मेहर से सहज ही मिल जायेेंगे, मिल रहे हैं।
यह बात सत्य, सत्य ही है सत्संगियों! सुखसार सतगुरु के नाम की भक्ति से ही मन वश में होता है, अन्य साधनो से नहीं। सत्संग वाणी में आया-
मन तू, जनम-जनम का रोगी
अर्थात् मन चंचल है एक क्षण के लिए स्थिर नहीं बैठता है, आप इसे चाहे अपने शरीर की गुफा में बंद करो या सात तहखानों में बंद करो, तो भी यह मन बंद नहीं होता, उड़ता ही रहता है बाहर के विचारों में, मैले विचारों में। आप देखो, इस स्थूल जग में आकर यह जीव स्वतंत्र कहाँ है, मन इन्द्रियों के लुभावने विषयों ने, इसे गुलाम, बावरां, मदफिरा बना दिया है, हर समय उन्हें पकड़ने की होड़ में चलता रहता है, छोड़ना ही नहीं चाहता। यह मन जब दुखी रहता तब भटकता रहता है पुछाणों में, बाहरमुखी कर्मकाण्डों में पर ऐ सत्संगी! दुख-सुख हमारे ही कर्मां का फल है, नित साधसंगत में आ भाणा मान दुख-सुख को स्वीकार करें, शुक्र-शुक्र कर सेवा करें फिर यह मन भी तुम्हारा हर परिस्थिती में सम रहेगा, दौड़ेगा नहीं, भटकेगा भी नहीं केवल एको टेक एको विश्वास सतगुरु श्री चरणों में पुख्ता कर बंदगी भगति करें।
सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी, मन की दशा जो बड़ी जर-जर है, उसका आईना दिखाते हुए सच्ची राह भी भूले मन को दे रहे हैं कि मन की नित्य स्थिति यह है, कि जीव अपने मूल की पहचान नहीं कर रहा है, कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया, जाना कहाँ है। आपजी ने फरमाया-
यह मन डोले खिन्न-खिन्न, मूल गवाये खिन्न-खिन्न
सतगुरू संगत भगति न धारी, बड़-बड़ यह मन भुलाना
कहे माधवशाह सुनहो सन्तों, मन अन्दर सब महन्तो
बिन सतगुरू शरणायी, इह मन बड़ा औखाई
आप साहिबान जी समझाते हैं, कि इन्सानों के मन तो धुऐं की तरह बदलते रहते हैं, जैसे कि आकाश में बने बादलों के घने आकार, वैसी ही इन जीवों के मन की मौखिक दशा है, जीवों के मन हैं नदी की धाराओं की तरह, अंदर थिरता-स्थिरता ही नहीं।
कहे माधवशाह सुनहो सन्तों, मन अन्दर सब महन्तो
बिन सतगुरू शरणायी, इह मन बड़ा औखाई
फरमाया कि, मन अंदर सब महन्तो। तुम हरिराया सतगुरु की शरण में जाकर खुद जानना कि मैं कौन हूँ, मेरा आतम रूप क्या है, जब आप सुख रूप शरण में सतगुरु नाम को कमाते हैं, अपने आप को भी जानना शुरू कर देते हैं कि मैं देही नहीं आतम रूप हूँ। सतगुरु चरणों की सेवा में मन को रमाते हैं, तब हमें अपार सुख मिलने लगता है। सेवा करते-करते भी नीवें भाव प्रेम से सेवा न की, तार अंतर से नहीं जोड़ी तो यह मन साधसंगत सेवा में भी दूसरों के अवगुण ही निहारता है। आत्मिक मार्ग पर चलने वाले शिष्य भी मन में संशय रखने के कारण मलीनता के गर्त में गिर जाते हैं। ऐ रब के अंश इस राह में, मन में संशय भ्रम न पालें। स्वयं को इस मलीनता के गर्त में गिरने से बचाएं।
प्यारों! हाजिरां हुजूर सच्चे पातशाह जी फरमाते हैं, आप साधसंगत में आकर चाहे कोई भी सेवा कार्य करें, चाहे बर्तन धोने की, जल सेवा की, साफ-सफाई की, भण्डारा बनाने की, साधसंगतों को भण्डारा खिलाने की, संगतों को बिठाने की, पादुका जोड़ा घर की, प्रसाद वितरण की, कारसेवा की या मैनेजमैंट की, वाणी-वचनों की सेवा, जो कुछ भी आपको सतगुरु की दया मेहर से सेवायें मिली हैं, मालिकों की दया मेहर से आप भी वह सेवा कर परम आनंद प्राप्त कर सकते हो क्योंकि सेवा से ही तो मन निर्मल होता है, नियम कायदों पर गुरुमति से सेवा करते-करते, भजन-सिमरन बंदगी करते-करते हमारा मन अमन हो जाता है। इस मन को बस में करने के लिए ही सतगुरु जी ने सेवा के दायरों का विस्तार किया है। आप हम सब जहाँ भी हैं, जिस नगर शहर में रहते हैं, सतगुरु सेवाओं से जुड़ अपने मन की तार हरिराया सतगुरु से जोड़ने का यतन करें।
सतगुरु साहिबान जी ने, सतगुरु प्रेम व नाम सिमरन की सिफत को सत्संग वाणी में यूं बयां किया, जी आगे-
।। कहे नारायणशाह सुनहो प्यारों, मन तू सदा आराध नाम को।।
।। रूप तू हो जा सतनाम को, हरे माधव पुरुख तू राता।।
पुरनूर शहंशाह सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी प्यार से समझाइश दे रहे हैं, आओ प्यारों! पूरण शरण में सतगुरु भक्ति में आओ, मन को टिकाओ। तमाम रचना में देही के अंदर मन की सर्कस लगी है, पाँच चोरों ने अंतरमन में अखाड़ा बना लिया है और इंद्रीय स्वादों के पीछे लग, मन मैले कर्मों की ओर बहता जाता है, क्योंकि हमारे कर्मों का सम्बन्ध मन से है, मन का सम्बन्ध कर्मों से है और यह मन आत्मा को अपने साथ जन्म-मरण के फेरे घुमाता है। यह मन कितने युगों से अविनाशी आत्मा की ज्योत को ढकता आया है अमर बेल आत्मा पर मन की छाया पड़ी है, मन नित्य बदलता ही रहता है। चिरंकाल से जो विभिन्न प्रकार के मलीन संस्कार मन के अंदर एकत्र हैं, उन्हीं संस्कारों के कारण जीव अपनी वर्तमान दुःखपूर्ण अवस्था को प्राप्त हुआ है। जीवन में दुख की घड़ी, व्यापार में उतार-चढ़ाव, रिश्तों-नातों में खटास आयी तो हम मन के कहे पहुँच जाते है, पुछाड़ो में भटकते है दर-दर। मन के कहे हम हठधर्मों में लग जाते हैं। साधसंगत जी, काल हमारे मन पर अस्त्र चलाता है, दुखों के। दुनियावी दुख-कष्ट देकर मन को भरमाता है और यह मन हमें पूरण सतगुरु की साध-संगत से दूर करना चाहता है क्योंकि भजन-सिमरन के भण्डारी पूरण सतगुरु काल मन की हर एक चाल को जानते पहचानते है, इसीलिए दया मेहर करुणा वचनों द्वारा कभी-कभी सख्तियों से काम लेते हैं जिससे हमारा मन न भरमें। प्यारों उन वचनों पर चलें अपने मन को सौंसो भ्रमों से उबारें।
गुरु महाराज जी फरमाते हैं वह परम प्रभु हरे माधव अक्ले कुल है, सर्वज्ञ एको परमानंद अखण्ड सुख शांति, परम आनन्द का स्त्रोत है, अनन्त स्त्रोत है। आप हम सभी सच्ची सुख शांति परम आनन्द ही चाहते हैं, पर मन ने हमें बाहर जोड़ दिया।
ऐ प्यारों! उस परमानन्द का कुल स्रोत तो अंतर में है और हमारे मन की तलाश बाहर ही बाहर है, ऐ मन! जो बाहरी जड़ पदार्थों में हमें सुख शांति की तुच्छ सी अनुभूति होती है, वह सब हमारी आत्मा का प्रतिबिम्ब ही है, जब तक हम उन बाहरी संस्कारों से जुड़े रहते हैं, तो एकाग्रता व सुख की अनुभूति होती है और जब एकाग्रता भंग हुई, तो दुख की लहरें शुरू हो जाती हैं। साधसंगत जी, सौभाग्यवश हमें भजन सिमरन के भण्डारी समरथ रूप पूर्ण सतगुरु मिले तो इस मन को उनकी की शरण संगत नाम में टिका, सेवा का सुख माण सकते हैं, जो परमानन्द रूप है, वह हरे माधव अक्ले कुल तो सर्वज्ञ है, और ऐसे सर्वज्ञ सतगुरु की ओट मिले तो मन को बड़ी अखण्ड शांति, थिर सुख मिलता है। इस वास्ते संत कबीर जी भी कह रहे हैं-
हरिजन मिले तो हरि मिले, मन पाया विश्वास।
हरिजन हरि का रूप है, ज्यों फूलन में बास।
लव लागी कल ना पड़ै, आप बिसरजनि देह।
अमृत पीवै आतमा, गुरु से जुड़ै सनेह।
हरिजन मिले का भाव क्या? यानि उस प्रभु हरि का प्यारा सच्चा लाडला पुत्र, पूरा सतगुरु वह हरि जैसा है, वह हरि का जन है, उस हरिराया का भेजा हुआ नूर है।
ऐ मन! तू उनकी शरण ले, ओट ले, पनाह ले, क्योंकि वह पूरन रहबर अविनाशी, अडोल, अजन्मा है, जो ऐसी पोषाक पहन कर सतगुरु रूप में धरा पर उतरा है, पर याद रखना, वह देही की पोषाक का मोहताज नहीं है, वह उसकी अपनी निज अमृत की हकीकत, निज स्वराजता है यानि वह प्रभु के देश का, उसके बाग का फूल है, उसमें खूशबू प्रभु की है।
ज्यों फूलन में बास
ऐ शिष्य! अगर तेरा पूरन सतगुरु से मिलना हो जाए, तुम्हारे मन में सच्चा मिलन हो जाए, अगर उसका प्रेम जाग्रत हो जाए, तो तुम अपनी समूरी इच्छा, सतगुरू की इच्छा में विलीन कर देना, फिर तुम सुख-दुख लाभ-हानि में सतगुरु की मौज को स्वीकार करना सीख जाओगे, हउमें, अहंकार को छोड़, तुम उस ऊँचे विरले सतगुरु प्रसाद के पात्र बन जाओगे, समर्पण भाव, बस अर्पण कर देना खुद को। बस तुम सतगुरु श्री चरणों में स्व खुदी को, अहम को अर्पण कर देना, यही पुकार सदा करना-
तू मेरी ओट बल बुद्ध भगवन, तू मेरे प्राण आधारे
तू मेरी ओट बल बुद्ध भगवन, तू मेरे प्राण आधारे
साधसंगत जी! परमार्थ राह पर चलते-चलते सिमरन अभ्यास करते मन में कई रूकावटें आती हैं, उससे घबराना नहीं है मन में जो रूकावट आती हैं, सत्संगों वचनों को सुनने से निवारण अवश्य ही प्राप्त होते हैं। आप सभी ध्यानपूर्वक सत्संग वचनों को सुन अमल में लाए जी।
हाजिरां हुजूर संत सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी से एक जिज्ञासु प्रेमी बंदे ने मन के विषय में अजऱ् विनय की, हे सच्चे पातशाह जी! मन की चंचलता हमें सिमरन में बैठने नहीं देती, यह मन हमें बार-बार बाहरी विचारों की ओर ले जाता है। हमें सिमरन अभ्यास में मन ही नहीं लगता दया करें, वचन बल बक्शें।
आप बाबाजी ने मुस्कुराते हुए प्रसंग समझाइश देकर समझाया, प्यारे! सतगुरु मालिकों द्वारा बक्शा गया नाम सिमरन, साटिक ध्यान, Meditation, वह औज़ार है, उपकरण है जिससे आपको अंतरघट में निजता का, परम अमृत का कुँआ खोदना है, इसके अंदर अकह हरे माधव साहिब विनोद कर रहा है। जीव के मन पर कर्मां की, निज स्वभाव पर विकारों रूपी मिट्टी की परतें चढ़ी हैं, उन विकारों रूपी मिट्टी की परतें खोदनी हैं, हटानी हैं, सतगुरु नाम के सिमरन ध्यान की कुदाली चलाकर क्योंकि जन्मों-जन्मों से उन कर्मां के कुछ विकारों रूपी मोटी परतें, मीठे जल स्त्रोत को दबाए रखती हैं, उन परतों को हटाना है। साधसंगत जी, आप देखें, कुआँ जब खोदते हैं बीच-बीच में कभी-कभी खुदाई के वक्त, भारी पत्थर भी आ जाते हैं और बड़े-बड़े लोग, हार मानकर अपना रुख बदल लेते हैं, है न प्यारे! पर जीव को सब्र, धीरज रखके चलना है, इस अंतरघट की राह पर पत्थर का भाव है अहंकार। जब वह भारी पत्थर हट जाते हैं, खुदाई वाले सबमर्सिबल पम्प लगाते हैं, तो आप देखो शुरू में गंदले पानी को बहुत घण्टों तक बाहर निकालना ही पड़ता है। फिर कुछ समय बाद हमें साफ अमृत जल मिलने लगता है। बेटा! ऐसे ही जब सतगुरु नाम सिमरन अभ्यास करते हैं तो मन यह बाहर दौड़ता है पर आप निरंतर अभ्यास करते ही रहें, सतगुरु मेहर किरपा से अंतर का साहिब अमृत भी प्राप्त होगा। सतगुरु सांई नारायणशाह साहिब जी अक्सर सिंधी वचनों में फरमाते-
डे टुबी लहु टोल, असली ऐन अंदर जा खोल-2
ऐ प्यारे! जब आप नाम के सिमरन में बैठते हो, कुछ समय आपके मन में व्यर्थ के तनाव युक्त अशान्त विचार आते हैं, तब आप अभ्यास से उठें नहीं, नाम का जाप करते रहें, सतगुरु को पुकार-पुकार कर नाम का जाप करते रहें। अंतर में गोते लगाते रहें, धीरे-धीरे विचार शून्य होने लगेंगे। अगर ये विचार आपको फिर बाहर ले जाते हैं, तो आप उठके सत्संगों के विचारों के ग्रंथ पढ़ सकते हैं या हरे माधव वाणियां सुन सकते हैं जिससे आपका मन अरदास एवं प्रेम भाव से भर जायेगा, फिर शांत मन से नाम का जाप करें, अभ्यास पुख्ता होकर करते रहें, अंतर में सतगुरु नाम गाढ़ा करते रहें जिससे आपको नाम का महारस प्राप्त होगा।
साधसंगत जी! जब आप सत्संग में बैठते हैं, सतगुरु अमृत वचन सुनते समय दर्शन करते हुए सतगुरु नाम के जाप को गाढ़ा करें, क्योंकि दर्शन, सत्संग और नाम सिमरन से मन की पकड़ रूह पर कमज़ोर होने लगती है। मन एवं मानसिक विचार शान्त होते हैं और इस बात का लाभ आप उठा कर आप नाम का जाप करते रहें, अभ्यास नित करते रहें। साधसंगत जी! ऐसी समझाइश वचनी को हम सभी अपने जीवन में ढालें और मन में दृढ़ निश्चय के साथ सदा सतगुरु नाम को जपें।
मन तू सदा अराध नाम को
साहिबान जी समझाते हैं कि न्यारे पुरनूर सतगुरु की शरण में अकीदा और दिल में उनका सच्चा प्यार पुख्ता हो, हृदय में श्रद्धा धारण कर संगति में बैठें। ऐ रूहों! प्यारे सतगुरु के प्रेम में मन को रमाऐ, मन को अहम खुदी के रोग से हटाना, प्रभुराया रूप प्रगट प्यारे सतगुरु में समा जाना यानि अपनी झूठी हस्ती को फनां कर देना, यही संतमत का अचूक बाण है, मन को जीतने का।
साधसंगत जीयो! सतगुरु साहिबान जी के परम वचन हम सभी अभ्यासी रूहों के लिए परम चैतन्य के वचन हैं, उनके पवित्र पावन दर्शन में चैतन्य की झलक छिपी है, सो आज इसी पल से अपने जीवन में, सत्संग के दिव्य वचनों को अमल में ला, मन की संगति छोड़, आंतरिक चढ़ाई की ओर बढ़ें। प्यारों! आज आतम जीवन की कुंजी जीव जगत को मिल रही है, पूरण सतगुरु भक्ति की कुंजी मिल रही है, सेवा, चाकरी, शरण की कुंजी मिल रही है, सतगुरु जी के प्रेम की कुंजी मिल रही है। उस कुंजी से घट अंतर अणखुट अमृत आनंद के खजाने को पाए।
गुरु महराज जी समझा रहे हैं, जिस तरह क्रीड़ा मैदान में गेंद, चहुं दिशा में घूम-घूमकर सभी का ध्यान अपनी ओर घुमाए रखती है, उसी प्रकार हमारा मन हमारे ध्यान और तवज्जु को जगत मैदान में सदा भटकाए रखता है। पूरण साधसंगत में रहकर ध्यान और तवज्जु हेतु एकाग्रता वाला संपूर्ण सुख प्राप्त करें।
ऐ रब के अंश! हरे माधव प्रभु को घट अंतर सुनने के लिए आपको मन के शोर को बंद करना होगा, हरे माधव प्रभु को घट अंतर सुनने के लिए आपको मन के शोर को बंद करना होगा। ऐ जीवात्मा! मन का स्वभाव उसे जो भा गया, उसी की मांग करेगा। सो प्यारों, मन को सतगुरु भगति प्रेम का महारस चखाओ, वह संसार से विमुख होकर उसी की चाह, उसी की मांग करेगा और उसी में रमा रहेगा।
सो विनती है भजन-सिमरन के भण्डारी पूरण सतगुरु के श्रीचरणों में, सच्चे पातशाह जी,
मेरे मन का चंदन, तेरे नाम का सिमरन
मेरे मन का चंदन, तेरे नाम का सिमरन है
मन को इसी से महकाना है,
मन आंगन में सतगुरु, तेरी भगति का अखण्ड दीप जलाना है
मन आंगन में सतगुरु, तेरी भगति का अखण्ड दीप जलाना है
मन में तेरे सुंदर स्वरूप को ही बिठाना है
मन में तेरे सुंदर स्वरूप को ही बिठाना है
तेरे दर्शन की चाह में ही, तेरी याद में ही दिन रैन बिताना है
पल-पल स्वांसो-स्वांस सिमरन को ही कमाना है
मेरे मन का चंदन, तेरे नाम का सिमरन है
मन को इसी से महकाना है, मन को इसी से महकाना है,
दया करें मेरे माधव जी, मेहर करें मेरे सतगुरु जी।
।। कहे नारायणशाह सुनहो प्यारों, मन तू सदा आराध नाम को।।
।। रूप तू हो जा सतनाम को, हरे माधव पुरुख तू राता।।
हरे माधव हरे माधव हरे माधव