।। हरे माधव दयाल की दया ।।

वाणी संत सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी

।। यह मन डोले खिन्न-खिन्न, मूल गवाये खिन्न-खिन्न ।।
।। सतगुरु संगत भक्त न धारी, बड़-बड़ यह मन भुलाना ।।
।। कहे माधवशाह सुनहो संतों, मन अंदर सब महंतो ।।
।। बिन सतिगुरु शरणायी, इह मन बड़ा औखाई ।।

यह पावन वाणी सतगुरु सच्चे पातशाह बाबा माधवशाह साहिब जी की रूहानी रब्बी वाणी है, जिसके माध्यम से संत बाबाजी इस मन की दुनिया का असल रूप हमें दिखा रहे हैं । बाबाजी फरमा रहे हैं अपने मन को शुद्ध करो, क्योंकि इसी मन ने अमन प्रभु हरि दयाल से निकलकर मालिक के हुकुम से इस रचना की बिछात बिछाई । इसी काले मन के कारण आज दुनियावी, सांसारिक रिश्तों में खटास, मुल्कों के मुल्क, कौमों की कौमें आपस में बैर पालकर दुखी हैं । इसलिए सतगुरु, शिष्य को चिताते हैं कि इस मन के कहे में मत आना, ऐ प्यारे इसी काले मन के कारण इंसान, इंसान नहीं, शैतान बन जाता है, गुरुमुख, गुरुमुख नहीं, मनमुख बन जाता है और तो और शिष्य सतगुरु का नहीं, काल का गुलाम बनकर, अपना दीन धर्म छोड़ काल संग डोल रहा है । सिद्धों ने रिद्धियाँ-सिद्धियाँ पाईं, पर मन के कारण उलझकर कुल रूप साहिब की मस्ती में नहीं भीगे । हर समय युग में पूर्ण पुरखों ने धरा पर आकर बड़ी अनोखी स्वांग लीलाएं धर जीवों को डांट-फटकार कर रूहानी झिड़प से इस काले मन की काली बादशाहत से निकाल अमृत नाम सिमरन-ध्यान, सेवा के ज़रिये आत्मा को उस अमृत के महारूप, 'हरे माधव रूप' में मिलने का होका दिया, जो आज जग जाहिर है ।

इन आंखों से जो हम यह पूरी रचना देख रहे हैं यह बड़ी मनोमय दुनिया है, जो कि बड़ी ही विचित्र अटपटी, खट्टी-मीठी, मैली-कुचैली है, इसका भेद हमें हुज़ूर साहिबान जी दे रहे हैं । जिस तरह यदि इस मन को खिन्न-खिन्न पल-पल निंदा में लगाओ, तो यह उसी में मगन रहेगा, ठीक उसी तरह अगर इसे सतगुरु साध-संगत की हुज़ूरी में जोड़ो, तो यह नाम रूपी अमृत में रमा रहेगा ।

जो रूहें सतगुरु नूर साध-संगत से जुड़, मन की अनसुनी कर दिन-रात अनदिन चरण अमृत प्रेम में रमी हैं, वे इस लोक-परलोक की असल सम्पदा का अनुभव कर लेती हैं, आतम अमृत को पी लेती हैं, इस मन को निर्मल, पाक, अयोनिज तो केवल पूरे साधू संत सतगुरु की संगति ही कर सकती है । जब बन्दा ऐसी रूहानी महफ़िल से जुड़ा तो उसके मन की जो दशा कल्पों से बाहर की ओर लगी थी, वह आंतरिक अन्तरमुखी होकर परम लक्ष्य को प्राप्त कर परम नूर में समा गई । याद रखना प्यारों! वह निज का अनुभव अंदर में ही होगा, रूह को अमरता की पदवी सतगुरु की संगत से ही मिलती है, ना की मन की संगत से । जब तक इस मन को साध-संगत की जी हुज़ूरी में नही रमया, तब तक मैला कुचैला यह मन तुम्हें वहमों-भ्रमों में भरमाता फिरेगा ।

तभी हुज़ूर साहिबान जी चिता रहे हैं, प्यारे! इस मन की बड़ी ही विचित्र उल्टी गति है, यह मन जो इन्द्रिय साम्राज्य का राजा कहलाता है, इसका वास तो इस शरीर के भीतर है, फिर भी यह इच्छाऐं, चेष्टाएं बाहर ही बाहर कर रहा है। समस्त मायावी विकारों, विचारों का मूल गढ़ यह मन ही है । उल्टे या सीधे, बुरे या औखे कर्म कर स्वयं ही प्रेरक दायक बन जाता है । यह मन रेगिस्तान की तरह बीहड़ रंग दृष्टियों से भरा है । यह पर्वत की भांति कठोर और अहंकारी है । इसे सतगुरु साध-संगत की सेवा, सिमरन-ध्यान के द्वारा निर्मल व पाक बनाया जा सकता है ।
संत कबीर जी कहते हैं -
कबीर मन पर्वत भया, अब मैं पाया जान ।
 तांकी लागी प्रेम की, निकसी कंचन खान ।

संत जी ने यह बात खोल कर समझाई कि मुझे सतगुरु प्रेम नाम की जब संगत मिली, तब मैंने जी हुज़ूरी का आसरा पाकर इस बात की गांठ बांध ली, की अगर इस मन को सतगुरु प्रेम की तांकी लगा दें, तभी इस मन से कंचन की खान निकलेगी, क्योंकि यह मन जिसके द्वारा बनाया गया है, वो सतगुरु प्रेम रूप हैं, वे ही साकार रूप में आकर के इस मन कु मनमति रूपी उन्मादी लहरों को खत्म कर प्रेम की खुमारी, नाम भक्ति की खुमारी भर देते हैं । यह मन जो कोयलों की खानों की तरह है, जो काले कुचले विचार सदा धारण किया रहता है, उस मन पर भी वे दया के सागर दयालू दाता अपनी महर किरपा बरसाते हैं, जिससे अंतर मन में दिव्य स्वर्ण रूपी रूहानी गुण, रूहानी फूल निकलने लगते हैं ।

यह मन उस मतवाले बंदर की तरह है, जो रोग द्वैष, जन्म-मरण, यश-अपयश की टहनियों में बैठ बड़ी खुशी का मान कर लेता है । फिर अगर मान की टहनी उसके मनमति अवगुणों के भार के कारण टूटी, तो फिर यह उल्टी राह यानी उल्टी चाह को थाम लेता है । प्यारों! यह मन तो पल में देश, पल में विदेश की सैर कराता है । तभी तो संतों ने इसे काल, शैतान का रूप कहके हमें चिताया है । इस मन को वश में करने के लिए सभी पूर्ण संतों ने फरमाया है की सेवा के द्वारा इस मन को निर्मल करें, तभी सिमरन ध्यान से यह अपने मालिक के रूप को जान, हरे माधव ज्योतिर्मय महासुन्न में जा मिल सकता है । प्यारे! नित्य सतगुरु सत्संग में जाने से इस मन को ठोकर लगती है तथा उसका रूप स्वरूप सच्चे सतगुरु के सानिध्य में परिवर्तित होता है । यह मन बड़ा अफीमी एवं शराबी की तरह मशकरा बन उस मनमति को धारण कर अपनी मस्ती में झूमता है । अगर इसे सतगुरु की संगत समझाए, तो यह मन बड़ा अभिमान में फूला खुद को भला, औरों को बुरा मान बैठता है, इतना ही नहीं, जो परमेश्वर निज कैफियत, पारब्रम्ह की अभेदता के मालिक हैं, हमारा मन माया के वशीभूत हो, उनमें भी शंका, शुभा, अप्रेम, अश्रद्धा के भाव धारण कर लेता है । सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी हमें वाणी के ज़रिये सिख रहे हैं -

कथा करन सब मन के संगा, जानत न आतम रंगा ।
कहत नारायणशाह सुनो भाई साधो,
सतगुरु नूर जिन पाया, सोई नाम खुमार पछाने ।

पूर्ण सतपुरुख हमें सेवा, सत्संग, सिमरन, ध्यान के नियमों में ढालकर इस मन पर अंकुश लगाने का आसरा व बल प्रदान करते हैं । हम देखते हैं मन के हुक़ूमरामी, ज्ञान-ध्यान, जप-तप, योग-सन्यास, आत्मा तथा परमार्थ की बड़ी से बड़ी बहारी ज्ञान से ओत-प्रोत चर्चा करने में सभी मग्न हैं । इस मन के फंदों में सभी रटे जा रहे हैं रटियल तोतेकी तरह । सतगुरु साहिबान जी हमारे मन को शुद्ध निर्मल कर उसे निज कैफियत, परम मुकाम में मिलना चाहते हैं, पर इंसान के इस मन ने उसे अंदर से मनमुखी दरिद्र बना दिया है, यह कुबोध को हर क्षण धारण करता आ रहा है । आप बाबाजी फरमाते हैं, इस मन की दशा कौऐ की तरह है, यह मन रूपी कौआ सदैव कांव-कांव करता रहता है, कभी तो ये मन खुदा की मौज में भी दखल कर देता है, फिर कभी-कभी उसकी महिमा भी गाता है, कभी उसकी निंदा कर अपराधी बन जाता है, यह सारी दशा इस मन मनीराम की है । काल इस मन को अपने झूले में झूलता फिराता है तथा चौरासी के चक्कर में अटकाता रहता है, उसे साध संगत में कभी नहीं टिकने देता । जिस तरह अगर शरीर में तीर लगे, और टूटकर नोक शरीर के अंदर बैठ जाए, तो वह आसानी से बाहर नहीं निकलती, उसे बाहर निकालने के लिए चुम्बकीय पत्थर की आवश्यकता होती है, उसी तरह आज इंसान के मन में सतो, रजो, तमो संस्कार हैं । जब इंसा अविवेकी होकर, भटककर दुखी परेशान होता है, तो वह भ्रमों-संसों में पड़कर अपना जीवन नर्क बना देता है और बगैर सतगुरु साध-संगत के यह मन इंसाको गिरा ही देता है । इस मन को वश में करने का सबसे सरल व उत्तम उपाय है, कम बोलो, सदा नाम जपो तथा सदैव इस मन को सेवा में रमाये रखो । अक्सर साहिबान जी हमें इस मन की दशा का हाल सुनाते हुए फरमाते हैं की आज इंसा का मन यूं है "जैसा नचावै, वैसा -जीव नाचे।"

जिस तरह समुद्र में लहरें उठती एवं शांत होती हैं, ठीक उसी तरह हमारे मन में भी इच्छाओं, आकांक्षाओ रूप तरंगे लहराती हैं । दुनिया के हाट बाजार, नौकरियां, सरकारी दफ्तर तो आठ दस घंटे खुलने के बाद बंद हो जाते हैं, पर ऐ भक्तों! इस मन की दुकानदारी तो युगों-युगों से चौबिसों घंटे निरंतर चलती रहती है, इसमे कभी ताला लगा ही नहीं, सभी इन्ही विचारों में बहे जा रहे हैं । सच्चे संत तो करुणा, प्रेम, दया के अपार दाता हैं, वे हमें सदैव सहारा देते हैं, आत्म बल प्रदान करते है, पर हमारा मन तो बड़ा कुटिल है, जो सतगुरु प्रेम में न लगकर भौतिक सुख-सुविधाओं के पीछे भागता फिरता है । हुजूर साहिबान जी रूहानी वाणी में फरमाते हैं, जी आगे -

पूर्ण सतगुरु संत समझाते हैं, "जां का मन जागा, संग साधू पूरे, धूरी मांगे भक्त पूरे" जिसका मन साध संगत की सेवा, नाम सिमरन से जागृत हो चुका है, वह गुरुमुख सदैव गुरु चरणों की धूरी अर्थात चरण-शरण ही मांगता है । फिर आपजी ने फ़रमाया "इस मन की सुनत है सदा, मैला मन कुचला, प्रेम न धारे" अर्थात मन जो कि मोह माया लोभ, लालच में पड़कर मैला हो गया है, उसमें सच्चे सतगुरु के सच्चा प्रेम समाहित नहीं हो सकता, अतः बाबाजान अज्ञानी मन को समझाते हुए फरमाते हैं, "मन तू रूप है उसका, सतगुरु जां का हर भेद सुणाये ।" है मन तू पूरन सतगुरु का ही अंश रूप है, तब क्यों नहीं तू सिमरन-ध्यान से अपनी लिव लगाकर उसी में एकाकार हो जाता ।

शहंशाह सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी, जीव के मन की दशा का वर्णन करते हुए फरमा रहे हैं "इह मन बड़ा औखाई" की यह मन बाद औखा है, चालाक है, जो वायु के वेग से भी अधिक चंचल है, जो खिन्न में यहां, खिन्न में वहां डोलता है, इस काले मन पर बिना पूरन सतगुरु की चरण-शरण में आये लगाम कसना सम्भव नहीं है । वाणी में भी आया है,"बिना सतिगुरु शरणायी, इह मन बड़ा औखाई।"

सतगुरु साहिबान जी ने कितनी ऊँची तालीम दी, "सतगुरु पूरा खोजो, सतगुरु पूरा खोजो", सतगुरु साध-संगत में मन को मोड़ो, इस संसार में मन की करणी शुद्ध कर सिमरन-ध्यान में जुड़े रहो, सेवा की पावन धुन रमाए रहो, यह मन फिर निर्भव कीअनुभूति कर उस सोहब्बत में आ सकता है । अंतः करण की चोपाल में इस मन की धमाचौकड़ी दिन-रात लगी रहती है ।

तभी हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी ने मन की बिछाई बिछात का खुलासा किया -
यह मन का तंदा बढ़ चढ़ मढ़ै, बहु भ्रम तंदा ।
बहु जुग जुगो जग, मन संग धारी बड़ी यारी ।
मांगे रस रसायन सारे, जोगी जपी तपी मन के हुए ज्ञानी ध्यानी ।
दास ईश्वर मांगे दान पुरुख दाते ।
हम तुमरे तू हमरो, इस मन से अब तू छुड़ाए ।
शरण पड़े तेरे द्वारे, हरे माधव अगम टीकाओ ।

हुजूर साहिबान जी इस मन की तंगदिली का जिक्र-ए-बयान वाणी के जरिये समझा रहे हैं कि जिन्हें उस हरे माधव अकह प्रभु प्यारे मालिक से मिलने का शौक है, तो वो अपने मन में दीनता, दया, प्रेम की कड़ी जोड़े, क्योंकि इस मन की दशा को समझना, तो बहारमुखी ज्ञानियों-ध्यानियों जपी-तपियों के बस की बात नहीं है । हमारे मन की रोशनी तो ऐसी है जैसी बहारमुखी बंदों की ।

संगतों! पूरन सतगुरु एक एको असीम से असीम, बेअंत से बेअंत सत्त महाविराट सागर से, काल जीव मण्डल के मध्य प्रगट होते हैं, पूरन सतगुरु किसी कौम, किसी जाती वर्ग विशेष के उत्थान प्रोग्रेस के लिए नहीं आते, पूरन हरि रूप सतगुरु समस्त भूमण्डल के मंगलकारी उद्धार के लिए प्रकाशमय रूप में प्रगट होते हैं और फिर जिन्हें पूरन सतगुरु की शरण पनाह, प्रेमामय भक्ति, अमृतनाम का महादान मिला, वे भाग्यशाली हुए ।

आप सतगुरु बाबाजी ने जब से आंतरिक परम रोशनी, नाम बन्दगी, सतगुरु भक्ति का पूरन प्रकाश, विदेही ज्योतिमय रूप बन, जगत शिष्य जीवों के बीच प्रगट किया, हंस संगतों के जत्थे परमार्थी चैतन्य उपदेश के भंडार खजाने, आपजी से सत्संग वचन प्रकाश के जरिए भर-भर कर रूहें ले जाती और आज भी हाज़िर हुज़ूरी असंख्य रूहें प्राप्त कर रही हैं ।

सो प्यारी संगतों! हमें चाहिए कि हम सतगुरु साधसंगत में आयें, शांत चित्त होकर स्वांसों-स्वांस नाम जपते हुए यह रियलाइज़ करें की हम पारब्रम्ह स्वरूप महा विराट सतगुरु की शरण ओट में हैं, अब इस मानुख जनम को उनकी बन्दगी सेवा संगत में लगा, बंधनमुक्त सतगुरु से शाश्वत मुक्तता का प्रसाद पाकर अपने मन की गुलामी से बाहर आयें । हे मेरे सतगुरु हुज़ूर मालिकां जी! दया कर हमें इस मन की बेड़ियों से आज़ाद कर अपने संग साथ हरे माधव लोक की यात्रा पर ले चलें, मेरे सतगुरु जी, मेरे हरे माधव बाबाजी।

।। कहे माधवशाह सुनहो संतों, मन अंदर सब महंतो ।।
।। बिन सतिगुरु शारणायी, इह मन बड़ा औखाई ।।

हरे माधव  हरे माधव हरे माधव