|| हरे माधव दयाल की दया ||
।। आई दीपावली जगमग चहुँओर घर आँगन।।
।। रंग रोपन घर हाट में करते, रंग रोपन घर हाट में करते।।
।। सतगुरु कहते निजघट में निज रंग मनाओ।।
।। कोई मीठा बांटत है, सब कोई दीया धूप जगमग जलाऐं।।
।। धरम की फतवा अर्धम मद हारा, जय-जयकार हुई सत्य की।।
।। घर-घर बात सब ही गाई, घर-घर बात सब ही गाई।।
।। संतो बात सुनो चित्त लाए, घट में अखण्ड दीप जलाओ।।
प्यारी साध-संगत, हमारे पुरनूर पुरुख सच्चे पातशाह जी के चरन कमलों में, हमारा सर्वस्व भाव, प्रेम, अर्पण, समपर्ण हो, संगतों को हरे माधव। इस रोशनीमय पर्व का हरे माधव हुजूर साहिबान पर सदका बलिहार बलिहार कर, भगत हृदय में बड़े प्रेम एवं नूर की दीपावली, हर क्षण मनाते हैं। जी आईये! पावन सत्संग रब्बी वाणी वचनों के अंदर जो सत्य की अणखुट रोशनी छिपी है। वे वचन सत्संग के सुनें एवं कौन से शाश्वत सुख की बक्शीश के वचन हम उठा रहे हैं, जी श्रवण करें, आप साहिबान जी सच्ची दीपावली यानि बाहरमुखता और अंतरमुखता के परम सत्य, परम नूर की महिमा के संदेश हमें बक्श रहे हैं।
फरमाया साहिबान जी ने-
आई दीपावली जगमग चहुँओर घर आँगन
रंग रोपन घर हाट में करते, रंग रोपन घर हाट में करते
सतगुरु कहते निजघट में निज रंग मनाओ
समरथ पूर्ण संत, न्यारे हरे माधव अखण्ड रोशनी से जगमग वतन से आते हैं और प्रेमा भगति, सुमति ज्ञान विज्ञान एवं आनंद अमृत कोष का संदेश देते हैं, चैतन्य धर्म का झण्डा झुलाते हैं। अधर्म यानि जिनका उद्देश्य, जीवों को अंधेरे में भरमाना, केवल तिमिर अज्ञान का झण्डा बढ़ाना है, हरिराया सतगुरु सत्य की ताकत लेके आते हैं और अधर्म का तिमिर दूर कर, चैतन्य आतम धर्म को बढ़ चढ़ कर स्थापित करते हैं, फिर ऐसे परम सत्य के प्रकाश को तमाम पाक नेक साफ दिल वाले, खुलकर, भर-भर ले जाते हैं। सिमरन बंदगी से, सेवा चाकरी से घट के काले बादल हट जाते हैं और गुरुमुख, प्यारे सतगुरु की मौज में जीता, बहता और रमता है। उनकी मौज में रहने से मन निर्मल होता है और शुद्ध श्वेत अनुभव, अमृत का सुख पाता है। दीपावली पर्व पर कौन सी नसीहत आप साहिबान जी देना चाहते हैं, फरमाते हैं-
संतो बात सुनो चित लाए, घट में अखण्ड दीप जलाओे
पूरन कामिल सतगुरु जो स्वयं शाश्वत के प्रकाशपुंज हैं, उनकी शरण में जा अपने घट की अखण्ड बाती जलाऐं, ऐ संगतों! जो वचन सत्य विलास के हम आपको समझाते हैं, आप सब स्याने समझदार हो। हमारे सनातन धर्म ग्रन्थों, पूर्व संतों, वलियों ऋषि जनों ने हर समय हर युग में परम सत्य और चैतन्य धर्म की दीपावली की ओर इशारा किया है। आप देखो, मनमुख जीव, अंतर में अहम्, घृणा, वैर, ईर्ष्या-द्वैष, विकारों के फटाके फोड़ते हैं, जिस कारण उनका अंतः करण मलीन विकारों के मैल व प्रदूषण से भर जाता है और वे अशांति अज्ञान निःरसपन, तनाव हताशा के विचारों से हर एक पल घिरे रहते हैं, सतगुरु साहिबान जी फरमाते हैं, कि ऐ प्रभु के अंश! नित्य नई दीपावली में भक्ति ज्ञान नाम का चिराग जलाओ, अंतरमुखी दीपावली की अपरम्पार महिमा से जुड़ो। हर किसी के सूने घट में, अंतर में, अनूप सत्य रूप बैठा है, उसे प्रकाशित करो। आप साहिबान जी खोल कर समझाते हैं कि हिन्दु गणना के अनुसार इस माह को कार्तिक, सिंधीयत में इसे कत्ती कहते हैं। हिन्दुमत में इसे कुछ दिनों का त्यौहार मानते हैं और सभी जनमानस के लिए हर एक दिन का मुबारक संदेश होता है, चाहे वह जीव किसी भी जाति कौम का हो, अर्थ एक है, परम सत्य की दीपावली।
पहला मुबारक दिन है धनतेरस, इस दिन जनमानस पर यह बात उमड़ पड़ती है कि घर के लोग कोई नई वस्तु हाट बाजार से ले आयें, चाहे वह किसी भी धातु की हो, सोना या स्टील आदि। आम कहावत है कि इस दिन को कुबेर का दिन भी कहा गया, जिससे हमारी दरिद्रता मिटेगी और आर्शीवाद मिलेगा, यानि धन सम्पदा बढ़ेगी। संतमते में इसका भाव यह कि प्यारे सतगुरु की अर्शी हाट पर जाकर अपनी खुदी अहंकार को देकर सतगुरु प्रेमा भगति की अमोलक दात पायें। हरिराया सतगुरु के अर्शी हाट पर जाकर ऐ प्राणी सर्व प्रेम, सर्व संतोष, सर्व भजन, सर्व प्रीत की मिठास माँगे। यही साँचा सार धन है। बड़े भाग्य हैं हमारे जो जागृत सतगुरु ने धरा पर जीवजगत के लिए अर्शी हाट सजाई है, सौदा मुबारक है, वेला मुबारक है, जितना चाहे लाभ लें।
दूसरा मुबारक दिन है चौदस। इसका संदेश इस प्रकार कि आपके जीवन से असफलतायें, कष्ट, दुख, निराशायें, तकलीफें, मुश्किलें, दूर हों। हम अपने दयाल सतगुरु के श्रीचरणों की नाम-बंदगी, प्रेमा भगति में रमें कि परमार्थी राह की सभी रूकावटें दूर हों और रूह हरे माधव प्रभु में विलीन होने का गौरव, सफलता प्राप्त करे। हरिराया सतगुरु से द्वि के नरक से उबरने के लिए सदैव भजन-भाव मांगो। यह काल सागर को सुखाने वाला सच्चा अचूक युगान्तरी शस्त्र है।
तीसरा मुबारक दिन है दीपावली। इसका संदेश इस प्रकार कि इस दिन हम सात रंगों की सब्जियां बनाते हैं, जो कि आंतरिक रूहानी चक्रों का इशारा है। घर के बड़े छोटे, प्रेम चाव से प्रभु सतगुरु का स्वरूप रख, लक्ष्मी जी की मूर्ति रख दीप जलाते हैं, मोमबत्ती जलाते हैं। कभी सिक्कों को दातों में रख, सिर पर रख दूध के पात्र में रख देते हैं, मिठाईयां लाइयां परोसी जाती हैं। फिर आस पड़ोस के सभी लोग मिलकर, बाहर इकट्ठे होकर, कान्हा हाथ में लेकर जलाते हैं, बच्चे फटाके जलाते हैं।
इन सारे खेलों का अर्थ क्या हम सभी ने गौर किया है? इन जगमगाते पर्वों का हमें कौन सा संदेश पूर्ण संतों ने देना चाहा? रूहानी एकता, सतगुरु प्रेम का, कि घर के सारे लोग साधसंगत में जाकर सुमति और अमृत नाम भक्ति की मिठास का, आतम सुख खायें एवं पायें। छोटे-छोटे बल्ब लडि़यां लगाई जाती हैं, घर जगमगाता है। जब हम साधसंगत से तार जोड़ते हैं, तब संस्कारों की बल्बडि़यां हमारे जीवन में जगमगाती हैं और परलोक के चैतन्य की दीपावली की झलक मिलती है।
जिस तरह दीपावली के पूर्व घर के कोने कोने को साफ कर फिर दीप जला घर को रोशन कर दीपावली मनाई जाती है उसी प्रकार सतगुरु प्रेमा भक्ति से मन के विकारों को साफ निर्मल कर पूरण सतगुरु नाम का दीप जला आतम घट को चानण (प्रकाशित) कर अखंड आंतरिक दीपावली मनायें।
ऐ आतम! सांचे सतगुरु शबद का भजन कर फिर तू सर्वत्र आतम समभाव की अखंड दीपावली को मनायेगा, यह संपूर्ण विश्वमय मंगल भाव धारण करो।
चौथा है बढ़ या परिवा जिसे साहिबान जी ने प्रीति भोज का नाम दिया, सिंधीयत में दीपावली के दूसरे दिन को बढ़ या परिवा कहा गया, यानि आपसी बैर विरोध मिटाकर प्रीत को बढ़ाना और गले मिलना, इस परमार्थ मते में यह सीख दी जाती है, कि जैसे आप लाई बर्फी खरीदते हैं, यह सांझी मिठास है चहुँवर्णां के प्राणियों के लिए, इस मिठास की कोई कौम मजहब या जाति नहीं होती। यह प्रीतिभोज हमें यही संदेश देता है कि सभी रूहों में उस एक हरिराया सतगुरु की ही ज्योति मौजूद है। सभी जीव एक हरे माधव प्रभुताई के अंश हैं।
पांचवा मुबारक दिन है नूतन संवत वर्ष-इस दिन व्यापारी बंधुओं में नये खातों बहियों की पूजा करवा, साल का नया दिन शुरु करने की प्रथा है, जिससे कि पूरा वर्ष सुख समृद्धि से भर जाये, ऐसी आम जनमानस में भावना भरी रहती है। हाजिरां हुजूर सतगुरु साहिबान जी फरमाते हैं, अपने पुराने अभाव छोड़ो, सतगुरु से भाव की दात मांगो। अपने मारीच भाव को छोड़ विदुर भाव को धारण करो। ऐ शिष्य! हर पल नित्य नए उजाले की ओर बढ़ते रहना, यही नूतन वर्ष है। नवीनतम ऊर्जा को अपने अंदर जगाने के लिए द्वार खोलना जरूरी है और वह खुलेगा हरिराया सतगुरु की शबद बंदगी से।
युगों-युगों से हम पर्व मनाते आ रहे हैं, पूर्ण जागृत संतों ने यह वचन जनमानस में फैलाये, कि प्रभु के अंश याने सारे लोग असफलता, निराशाओं से ऊपर उठें और चैतन्य धर्म की ओर जुड़ें, जिससे चैतन्य समृद्धि अवश्य ही हर एक जीवन में उमड़ेगी। समरथ पूर्ण संत इतने दयालु कुर्बदार होते हैं, सत्य की रोशनी, महिमावान महिमा से हमें जुड़ने का बल देते हैं। हम बड़े खुशनसीब भागां वाले हैं कि हमें वक्त के जागृत सतगुरु की शरण ओट प्राप्त है, जो कि अखण्ड सूर्य की रोशनी का बल देते हैं, जिससे कि हर एक आत्मा, कैण्डिल की तरह, दीप की तरह जगमगा उठे।
We all are immensely fortunate to have been blessed with the shelter of Lord True Master of the present time who enlightens all the souls with eternal light.
साहिबान जी, सत्संग वाणी में कौन सी नसीहत पवित्र वचनी में हमें दे रहे हैं, आईए श्रवण करें, जी आगे-
।। दीपावली में घर आँगन चमके, सतगुरु साधसंगत में आतम घट अंतर चमके।।
।। परम सत्य की बात बड़ी विस्मादे, आतम निज रंग अमीठे पाते।।
।। घट में जब सत्य का दीप जगे, घट में जब सत्य का दीप जगे।।
।। पूरे संतन तब दीपावली नित्त क्षण-क्षण मनाई।।
।। भाग्य भागां हैं हमरे ऐसे सतगुरु पुरुख की छांव है पाई।।
।। आओ संगतो सतगुरु शरण मनाऐं दीपावली।।
।। कर विचार मनुआ तू यह, कर विचार मनुआ तू यह।।
।। पकड़ सार धर्म की, यह बात समझावै।।
।। दीपावली सतगुरु संग नित्त मनाऐं।।
हुजूर साहिबान जी फरमाते हैं, जिस तरह दीपावली में हम घरों की साफ सफाई करते हैं, उसी तरह अपने घट अंतर से विकारों रूपी कचरे को हटा, उसे अमृत नाम रूपी दीये से रोशन करें, तभी हम वास्तविक दीपावली मना पाते हैं।
दीपावली में घर आँगन चमके
सतगुरु साधसंगत में आतम घट अंतर चमके
पूरे संतन तब दीपावली नित्त क्षण-क्षण मनाई
भाग्य भागां हैं हमरे ऐसे सतगुरु पुरुख की छांव है पाई
आओ संगतो सतगुरु शरण मनाऐं दीपावली
हरे माधव पीयूष वचन उपदेश 339 में फरमान आया कि जब असुरी हउमें अज्ञान का जोर बढ़ता जाता है, बुरी असुरी प्रवृत्तियां चहुँओर प्रबल होती जाती हैं, लोग भगतजन सुमति वाले, चैतन्य धर्म की परिभाषा भूल जाते हैं, केवल शब्दाधिक बातों तक वह चैतन्य धर्म सीमित हुए जाता है, तब ऐसे चैतन्य पुरुख सतगुरु प्रगट होकर, चैतन्य धर्म का परम सत्य का वट वृक्ष, झण्डा काल के नगर में स्थापित करते हैं, जहाँ-जहाँ जब-जब कमी हुई, परमेश्वर न्यारे हरे माधव पुरुख का यह विधान युगान्तरी एवं जुगान्तरी है। जब जीव को ऐसे हरिराया सतगुरु की शरण ओट मिल जाए, तो सर्वस्व अर्पण समर्पण कर शरण में टिक जाना चाहिए, वचन आज्ञा पर बलिहार हो जाना चाहिए।
आप सभी देखो प्यारे सत्संगियों! जब हम पूजा अर्चना के लिए परिवार समेत बैठते हैं, आम जनमानस में चर्चित है कि चाहे सारी सामग्री पूजा अर्चना में दुरुस्त हो, यदि कचरी जिसे सिंधी में मितेरा कहते हैं, उसे सभी हाटडि़यों पर नहीं रखते, तो पूजा अधूरी मानी जाती है। प्यारे सत्संगियों! आप ज़रा गौर करें, कि अगर कचरी-मितेरा पूजा में सम्मिलित नहीं है, तो पूजा पूरी नहीं मानी गई। आप हाजि़रां हुजूर साहिबान जी बड़े प्रेम से इसका भाव समझाते हैं, कि ऐ सत्संगी! मितेरा का भाव है ‘‘मैं तेरा‘‘ यानि परिपूर्ण समपर्ण, अगर आपने लम्बी सेवा की पर मितेरा वाला भाव न हुआ, मैं तेरा का भाव, पूर्ण समपर्ण का भाव पुख्ता नहीं किया, तो सेवा पूरी नहीं मानी जाएगी, अगर आपने सिमरन भजन ध्यान किया, उसमें हरिराया सतगुरु के लिए मैं तेरा वाला भाव न रखा, मितेरा वाला भाव पुख्ता नहीं किया, तो वह भी पूरा नहीं माना जाता।
हाजिरां हुज़ूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी, गुरुदरबार साहिब में तखत पर विराजमान, तभी एक बंदा दिल का भोला, साफ नेक दिल निर्मल शुद्ध भाव से श्रीहुज़ूरी में आया और एक मितेरा श्री चरणों में रख दिया। आपजी ने मितेरा उठा, उस बंदे को बुलाया और फरमाए, पहले भी तो तुमने सतगुरु साहिबान जी को मितेरा दिया था, पर मितेरे के पीछे सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने जो कौल कहे थे, क्या उस गहरे राज को समझ पाए? वह बंदा विस्मादमय हो, हथ जोड़ खड़ा रहा। आपजी फरमाए, मितेरे का भाव यह, कि मैं तेरा। जब तक जीव अपने अहम को गला, निमाणे भाव से पूर्ण समर्पण नहीं करते, तब तक ये मितेरे किस काम के। अभी तक मितेरा ही लाओगे? यह वचन सुन वह बंदा ज़ार-ज़ार रो पड़ा और कहने लगा बाबाजी! यही कौल वचन मुझे सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने उस वक्त कहे थे, जब मैंने उनके हाथ में मितेरा दिया।
बाबाजी! कितने परम हुक्म नामें और सत्य के संदेश आप साहिबानो ने दिये, मैं तेरा। जब मैं अपने अंतर में देखता हूँ, कि इतने बरस से मैं सेवा चाकरी में हूँ, पर अंतर में वह भाव नहीं लाया, कि ‘‘मैं तेरा’’, सतगुरु श्रीचरणों में प्रेम न रखा, बेअर्थ जमावडे़ अंतर में रहते हैं, शक-शुभा की लहरें उमड़ती रहती हैं, साहिब जी दया करें, बहुत समय से मैं चरणों में तो रह रहा हूँ, पर मैं तेरा का भाव धारण न कर सका, इस भाव की बक्शीश करें, दया करें।
गुरु साहिबान जी फरमाए, ऐ प्यारे! यह बक्शीश तो सभी को मिल रही है, दिल का पात्र खोलो, अपने चित्त में निर्मल भाव बनाकर चरण हुजूरी में टिकना चाहिए और हर पल इसी भाव को पुख्ता करना चाहिए, बाबाजी मैं तेरा। जिन-जिन सत्संगी बंदो ने यह भाव रखे हैं, उन्हें वे दरगाही दातें, जो सतगुरु के हथ हैं, मिल रही हैं। प्यारे सतगुरु ने उन्हें निर्मल प्रेमाभक्ति की दात बक्शी है, सेवा सिमरन ध्यान से उन्हें नवाजा़ हैं।
सतगुरु साधसंगत में आतम घट अंतर चमके पात्रता जीव को रखनी है, मेहर करुणा सतगुरु की अनन्त अनन्त बरस रही है। हाजि़रां हुजूर मालिकां जी पूर्ण कुल मालिक होते हुए वचन वाणी में फरमाते हैं-
जी सब कुछ तेरा मेरे माधवे जी, जी सब कुछ तेरा मेरे माधवे जी
सब कुछ तेरा कुछ न मेरा, मेरे दाता सतगुरां
दास ईश्वर विनती करत है, जी सब कुछ तेरा कराया
मेरे हरि राय मेरे प्यारे, सब तेरी अकुलाई
सत्संग वाणी की अगली तुक में समझाया गया, जी आगे-
।। वाह-वाह अचरज अनन्त खुशीयाँ , वाह-वाह अचरज अनन्त खुशीयाँ।।
।। सतगुरु शरण मनाओ सार दीपावली,सतगुरु शरण मनाओ सार दीपावली।।
।। हरे माधव पुरुखा की ज्योत जगमगाई, हरे माधव पुरुखा की ज्योत जगमगाई।।
।। कहे दास ईश्वर मेरे पुरुखा सतगुरु प्रभुराया ने अनहद की बक्शी दीपावली।।
।। आओ संगतों मनाऐं परम सत्य की दीपावली।।
हाजि़रां हुज़ूर साहिबान जी फरमाते हैं, ऐ प्रभु के अंश! तुम्हारे अंदर परम सत्य का नूर खिल रहा है, अगर आप जागृत सतगुरु की सोहब्बत संगति में जाकर नाम का भजन गाढ़ा करोगे, तस्सवुर ध्यान में रहकर रूह के मैले गिलाफों को हटाकर अंतरमुखी भक्ति में रुख करते रहोगे, तो आपको एक दिन अंतर में हर एक मण्डल जगत में न्यारे स्वरूप का दर्शन होगा।
वाह-वाह अचरज अनन्त खुशियां, वाह-वाह अचरज अनन्त खुशियां
हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी ने हरे माधव पीयूष वचन उपदेश 238 में फरमाते हैं, भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु की शरण में रहते हुए हर एक शिष्य का लक्ष्य ऊँचे से ऊँचा शाश्वत होना चाहिए, अब जिन्हें चहुंओर अपने प्रभुवर का निर्मल अनुभव होता है, उसकी खुशी अक्षय सुख आनन्द का फिर ठिकाना ही कहाँ, वह परम आनन्द में विभोर होकर भगवन का प्रेमी कभी हंसता है, कभी रोता है, कभी नाचता है, कभी शाश्वत स्वरूप में एक होकर शांत हो जाता है, उसके जीवन में रबियत परिपूर्ण हो जाती है, इस भक्ति का दिया, जिस नेक आत्मा के अंदर जला वह रूह सर्वथा पूर्ण हो इक रस में मिल जाती है।
हाजि़रां हुज़ूर सतगुरु बाबा ईश्वशाह साहिबान जी समय-समय पर अपनी रूहानी व्यस्तता से समय निकाल जीव कल्याण हेतु, भिन्न-भिन्न स्थानों पर जाकर रूहानी ज्ञान, रूहानी दया-मेहर की आशीष लुटाते हैं। कुछ वर्ष पूर्व, अमरावती (महाराष्ट्र) में आपजी के परमार्थी सत्संग दर्शन से गुरु प्रेमियों का अपार सैलाब दर्शन अमृत वचन प्राप्त करने को उमड़ा। वहाँ पर अकोला शहर के प्रेमियों ने आप साहिबान जी के श्री चरणों में विनय पुकार की कि अकोला की धरती को सुहिणे चरण कमलों से कृतार्थ करें।
आप साहिबान जी ने उनका प्रेम दीनता, श्रद्धा, शुद्ध भोले भाव को देख अर्जी विनय स्वीकार की। अकोला में प्रेमी बंदों के साथ कटनी के सेवादारों ने मिटिंग कर आप हुज़ूर जी के पवित्र सत्संग वचनों का कार्यक्रम सुचारू रूप से हो, इस वास्ते आपस में बैठ विचार किया, कि सतगुरु साहिबान जी के रहवास हेतु कौन सा निवास स्थान तय किया जाए। प्रेमी सेवादार आपस में उपयुक्त स्थान देखने गए, किन्तु किसी को भी संतोष न हुआ, उचित स्थान न मिलने से निराशा हाथ लगी, तब एक गुरुभगत ने कहा, आप मेरे साथ चलें एक बड़ी सी हवेली (बंगला) बना है, मेरे ख्याल से वह बड़ी उपयुक्त रहेगी। आप सब वह देख लीजिए, वह नगर के जाने-माने सेठ की है पर वह गुरुमुख सत्संगी नहीं है, अनुयायी भी नहीं है, किन्तु मेरी उससे जान पहचान है। सभी गुरुमुख सत्संगी वहाँ गए और अपने मन की बात बंगले के मालिक को बताई, कि हमारे सतगुरु देव जी का नगर आगमन हो रहा है, अगर बाबाजी की मौज होगी तो कुछ दिन अकोला में आराम फरमाऐंगे, जिससे कि यहाँ की संगतों को दर्शन एवं सत्संग अमृत वचनों का लाभ मिलेगा, सेवा करने का उत्तम सौभाग्य मिलेगा जिससे हमारे इस नीरस जीवन में उत्साह खुशहाली आयेगी। अगर आप हमें अपनी बड़ी हवेली, सतगुरु साहिबानों के रहवास हेतु कुछ दिनों के लिए देवें, तो सभी जीवों को उत्तम लाभ आशीष दया मेहर प्राप्त होगी, आप यह हमारी विनय मानें। पर घर का मालिक बाहरी कर्मकाण्डों में उलझा था, पूरे सतगुरु की रहनुमाई उनकी शरण सत्संगी में अभी भीगा न था, वह खीज कर कहने लगा, आप यह सब क्या कह रहे हैं, मैंने तो अभी इस मकान का मोहर्त भी नहीं करवाया है, एक हफ्ते बाद मेरे मित्र रिश्तेदार आऐंगे, तो हवन यज्ञ करवाकर मोहर्त करवाऊंगा, उसके बाद ही रहने के उपयोग में लाऊंगा, भाई! मैं ऐसे नहीं दे पाऊँगा।
प्रेमियों के बार-बार विनय अनुग्रह करने पर आखिरकार घर के मालिक ने मकान की चाबी दे दी, सतगुरु साहिबान जी शाम के समय नगर में पधारे। गुरु भक्तों संगतों को आत्मिक खुशी का ठिकाना न था, घरों में दीप जलाए थे, झूम रहे थे, नाच रहे थे, भजन गा अनन्त खुशियां मना रहे थे, रात को सत्संग में साहिबान जी विराजमान हुए, संगतें दर्शन पा निहाल हो रही थीं। सत्संग में घर का मालिक एवं उसका परिवार भी आया हुआ था।
आप सतगुरु मालिकां जी ने वहाँ सत्संग में वचन फरमाए, कि ऐ प्रभु के अंश! साहिब प्रभु ने जो भी आपको दुनियावी चीजें दी हैं, अगर आप उनमें अपनी सुरत फंसाते हो, तो मायावी जगत में आपको फिर-फिर आना पड़ता है, अगर आपने गुरु प्रसादी नाम के साथ अपनी तार जोड़ ली, तो सच्चा घर जो सच्चा महल आपके अंतर में है, उसमें आप पहुँच सकते हो, दुनियावी मायावी धन आना-जाना है, इसीलिए सच्चे धन से तार जोड़ो। सतगुरु की साध-संगत में ही आपको उत्तम जीवन जीने का ज्ञान मिलता है, क्योंकि वे आपको अपने रूहानी सद्उपदेशों के द्वारा हमेशा सावधान करते हैं, चिताते हैं। जहाँ-जहाँ पर साध-संगत का जल्सा होता है, आप सब देखो, वहाँ का वातावरण पवित्र निर्मल हो जाता है, हर किसी को यह लगता है, कि यह वचन मेरे लिए हो रहे हैं, उन वचनों को श्रवण कर मैले मन की चंचल वृतियां स्थिर, शांत और निर्मल हो जाती हैं, मायावी मारग से हट अंतरमुखी गुरुमत का जो भक्ति मारग है, जीव उसपे चलने लगते हैं, इसीलिए पूर्ण सतगुरु, साध-संगत का समागम जगह-जगह करते हैं। जीव का धर्म है, मायावी व्यापार-धन्धों विचारों से मोह हटा पूर्ण संत हस्तियों के वचनों को जीवन में ढालें और उस सत्संगति से जुड़ आतम कल्याण की ओर रुख करें।
साधसंगत जी! हुजूर साहिबानों के परम वचन, उस सेठ के दिल में उतरने लगे, वह मन ही मन मंथन करने लगा, शायद गुरु साहिबान जी मेरे अंतर के भावों एवं कठोर कुबुद्धि मद को देख मुझे ही संबोधित कर यह वचन कह रहे हैं, पर सत्संगियों! पूर्ण संत सतगुरु हमारी तरह मायावी नहीं होते, वे अपनी खुमारी में रबियत रंग में रंगे वचन फरमाते हैं, तभी हमें भान होता है, कि ये वचन शायद हमारे लिए हैं, जिस प्रकार दर्पण में सबको अपना चेहरा स्पष्ट दिखता है, दर्पण तो एक ही है, उसी प्रकार अमृत वचन पूरे एको एकस हैं, पर सभी के अंतर के छिपे चहरे दिखते हैं और हमें लगता है कि शायद हमारे लिए हैं।
सत्संग के पश्चात दर्शन चरण स्पर्श संगतें कर रहीं थी, वह बंदा, मकान मालिक भी प्रेम विभोर हो झूम रहा था, हुजू़र साहिबान जी की निर्मल छवि को निहार-निहार आनन्दित हो रहा था, आप साहिबान जी के सुहणे दरस को वह इक टिक निहारने लगा, सेवकों से बार-बार उठके कहता, कि सम्मुख जाके कब दर्शन होगे, सभी लोग कहते सेठ जी, अभी रुकिए, क्या हो गया है आपको, जो बार-बार उठ रहे हैं, वह हाथ जोड़, अश्रुधारा बहाए कहने लगा, भाई! मॅैं तो हुजूर साहिबान जी के दर्शन कर निहाल हो रहा हूँ, मेरे अंदर पता नहीं, क्या हो रहा है।
उस सेठ की आँखों से अभी भी अश्रुधारा बह रही थी और दिल के खाने में भारी अनुराग उमड़ रहा था, रूहानी दृष्टि से उसे देख यह कहना उचित होगा, कि उस सेठ के अंदर जो शक-शुभा मैले विचार थे, वे सब धुलकर भक्ति का रूप ले रहे थे, निर्मल हृदयरूपी दर्पण में वह सच्चे पातशाह जी की रूहानी पावन छवि का दीद कर रहा था, साहिबान जी ने उसे बुलाया, वह न्याजवंद हो, हाथ जोड़ कुछ बोल कह रहा था, हे सतगुरु जी-
बहुत जन्म बिछड़े थे तुमसे, इह जन्म तुम्हारे लेखे
बहुत जन्म बिछड़े थे तुमसे, इह जन्म तुम्हारे लेखे
वह रो भी रहा था और यह पुकार भी कर रहा था, वह अपने दिल की स्थिति इसी तरह बयां कर, हाथ जोड़ कहने लगा, माफी दीजिए शहंशाह सरकार, माफी दीजिए शहंशाह सरकार, माफी दीजिए शहंशाह सरकार।
आप अंतरयामी सतगुरुजी ने रूहानी मुस्कुराहट बिखेरते हुए पूछा, किस बात की माफी? वह बंदा कहने लगा, हे मेरे भगवन! जब प्रेमी बंदे एवं सेवकजन मेरा घर मांगने आए थे... आप साहिबान जी ने उसे बीच में रोकते हुए कहा, क्या आप सेवक नहीं हैं, तब वह बंदा जार-जार रोकर कहने लगा, बाबाजी! मैं कहाँ था पहले सेवक, पर आपके दीदार दरस कर, वचन सुन सेवक हुआ हूँ, पहले तो माया पद का गुमान था, अकड़ थी, मेरी विनती सुने सतगुरु दयाल मेरा भ्रम था, कि घर का मोहर्त एक हफ्ते के बाद यज्ञ हवन करवाकर उपयोग में लाऊंगा, बाबाजी जिन देवी देवताओं की मुर्तियां रख पूजा अर्चना करता था, उन देवों के देव ने नर रूप धर स्व जो कृपा की है और मेरे नगर में पधारे हैं, मैं भाग्यशाली हूँ। मेरे घर का मोहर्त तो तब ही हो गया जब आपजी के सुहिणे चरण कमल इस धरा पर पड़े।
प्यारी संगतों! मोहुर्त का दिन यानि शुभ दिन कहा जाता है, सूर्य रूप सतगुरु में तो अशुभ अंधेरा होता ही नहीं है, जब सतगुरु के चरण कमल पड़ते हैं, वही उत्तम से उत्तम मोहुर्त है। संतवाणी कहती है-
प्रथम देव गुरुदेव जगत में, और ना दूजो देवा
गुरु पूजे सब देवन पूजे, गुरु सेवा सब सेवा
गुरु इष्ट गुरु मन्त्र देवता, गुरु सकल उपचारा
गुरु मंत्र गुरु तंत्र गुरु है, गुरु सकल संसारा
बिन गुरु जप तप दान व्यर्थ व्रत, तीर्थ फल नहीं दाता
लक्ष्मी पति नहीं सिद्ध गुरु बिन, वृथा जीव जग जाता
जीव का मन, उसे तरह-तरह की बाहरमुखी पूजाओं में भरमाता है पर सदैव याद रखो, सिर्फ एक देव को खुश करो, प्यारे सतगुरु देव को क्योंकि देने वाला एक प्रभु सतगुरु देव ही है, उन्हीं से मांगो, उन्हीं को पूजो, एक सतगुरु देव की पूजा में सभी देवों की पूजा आ जाती है। ऐसी पूजा की रीत से जुड़ो जिससे खुदाई विवेक, उत्तम विचार जगे, चित्त में निर्मल शांति भरे। संत कबीर जी कहते हैं, सतगुरु दर्शनों को कभी भी खाली हाथ न जायें-
कबीर दरसन सतगुरु को, खाली हाथ न जाए
यही सीख बुध लीजिए, कहे कबीर समुझाय
कहा, सतगुरु दर्शन को जब सतगुरु चरणों में जायें तो खाली हाथ न जायें, फिर कहा, अपनी कमाई का दसवंत परमारथ संगति में लगाओ-
दान दिए धन ना घटै, नदी न घट्टै नीर
अपनी आँखों देखिए, यो कथ कहै कबीर
कि जब तक देह है, तू अपनी कमाई को पूरण संतों की संगति राह में दे। युगों-युगों से परमार्थी राह में दसवंत की सेवा की सीख शिष्यों को दी गई। पर संत कबीर जी कहते हैं-
धन का दान देए से, मन बहाए नीर
सतगुरु देत न सकुचिए, सो सीख कह कबीर
हमारे मनों की दशा कैसी है, हम शुक्राराने भूल जाते हैं, सांसारिक कार्यों में लाखों करोड़ों खर्च करने में नही थकते, पर जब सतगुरू देव से सब कुछ पाकर दान करते हैं तो आंसू बहने लगते हैं।
“धन का दान देने से मन बहाए नीर”
हमारा मन रो उठता है, कई रातों तक हम सो नही पाते, हम स्वयं सोचें कैसा चक्र है यह काल माया का। सतगुरु चरणों में माया-धन का दान करते वक्त हमारा मन कैसे-कैसे कच्चे विचार बनाने लगता है। प्यारों! सतगुरु मालिकां को हमारे धन की आवश्यक्ता नहीं, रिद्धियाँ-सिद्धियाँ भी उनके चरणों की दासियाँ हैं, दान से तो हमारा ही भला है और जीव धन माया पाता भी इन्हीं की किरपा से है। गुरूघर के इतिहास भरे पड़े हैं कि अनगिनत जीवों ने गुरु साहिबानों के श्रीचरणों से सतगुरु भक्ति के साथ-साथ दुनियावी धन-पदार्थ भी पाए, सब सतगुरु की रहमत से। संत रहीम जी कहते हैं-
तब ही लो जीबो भलो, दीबो होए न धीम
जग में रहिबो कुचित गति, उचित न होए रहीम
कि जीना तब तक ही भला है जब तक परमार्थ में दान करते रहो क्योंकि रहीम जी कहते हैं, बिना दान के जीने वालों का संसार में जीना व्यर्थ है। संत कबीर जी भी कहते हैं-
जो जल बढ़ै नाव में, घर में बढ़ै दाम
दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम
यदि नाव में जल बढ़ने लगे और घर में धन बढ़ने लगे तो ऐ सयानेजन! उसे दोनों हाथों से खाली करना चाहिए अर्थात् साधसंगत की सेवा में दान करना चाहिए। सतगुरु चरणों में दान से कभी भी कमी नहीं होती।
साधसंगत जी! वह बंदा विनय कर कहने लगा, बाबाजी, मैं अरबों खरबों की संपदा का मालिक हूँ, पर हृदय कठोर मद अहम से भरा था। आपजी के दरस वचन सुन, मेरा मन मोम की तरह पिघल गया है, आपके वचनों से मुझे दृष्टि मिली है, कि आप सत्य असत्य की परख कराने आए हो, मेरे हृदय के अंदर धरती आकाश सा अंतर कैसे आ गया। बाबाजी यह सब आपकी कृपा दया मेहर का भण्डार है, जो आप जीवों के हृदय में प्रेमा भक्ति का दीपक जलाकर आत्मिक धन से मालामाल कर रहे हैं। वह बंदा मराठी में पारब्रह्म सतगुरु के आगे नतमस्तक हो, अपने दिल के स्नेहयुक्त बोल गाने लगा-
सतगुरु चे चरणी ठेविला मस्तक, देउनियां हस्तक उठविले।
उठविले मज देउनियां प्रेम, भावार्षे सप्रेम नमस्कारी।
नमस्कारी प्याला सद्गुरु रायाला, तुका म्हणे बोला नाम वाचे।
उस सेठ ने मालिक जी के श्री चरणों में परिवार कुल कुटुम्ब सहित विनती की, मालिकां जी! सदा आपके श्रीचरणों में तन मन धन से सेवा करें, हमें प्रेमा भक्ति नाम दान की दात बक्शें, शबद कीर्तन एवं संगतों सेवादारों का भण्डारा भी बक्शें।
साहिबान जी ने फरमाया, क्यों सेठ जी भण्डारा क्यों? तब उसने कहा, बाबाजी मोहुर्त जो हो गया है। आपजी ने कहा, आपके रिश्तेदार, मित्र जो आने वाले थे, तो सेठ ने कहा, बाबाजी अब आप ही मेरे माता-पिता, रिश्ते-नाते हो। सतगुरु का रिश्ता तो अटूट है, क्योंकि वह धुरधाम तक सदा अंग संग है, ऐसे अजन्मे से हमारा अजन्मा नाता है।
प्यारी साध-संगतों! भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु की इक पल की संगति का जीव पर भारी असर पड़ता है, सो हम नित्य सिमरन सेवा ध्यान निर्मल सतगुरु दरशनों का कितना लाभ अंतर में उठाते हैं उसका लोकन-अवलोकन करें। सतगुरु दयाल तो सदा मेहरबान है, सतगुरु दयाल तो सदा मेहरबान है।
भाग्य भागां हैं हमरे ऐसे सतगुरु पुरुख की छांव है पाई
आओ संगतो सतगुरु शरण मनाऐं दीपावली
अपने भाग्यों की भला क्या गिनती करें, जो ऐसे हरिराया सतगुरु मालिकां जी की ओट छांव पाई है। हुजूर सतगुरु मालिकां जी, हमें सभी कुरीतियों, भ्रमों-वहमों, कर्मकाण्डों से निकाल हर त्योहर हर पर्व के वास्तविक सार रूहानी अर्थां को सहज रूप से खोलकर समझाते हैं। प्रत्येक पर्व को हमें आंतरिक रूप से मनाने की ऊँची युक्ति बक्शते हैं। आज आप हम सभी पारब्रम्ह सतगुरु की शरण में दीपावली का रोशनीमय पर्व मनाने एकत्रित हुए हैं। संगतों! जिनके हृदय में सतगुरु नाम और प्रेमा भक्ति बस गई, उनके लिए नित्य उत्सव है, नित्य मंगल है, नित्य रोशनी है, नित्य सौभाग्य है, नित्य दीपावली है।
O devotees! Those who have True Master’s holy word and loveful devotion in their hearts, experience eternal celebration, eternal prosperity, eternal enlightenment, eternal fortune, eternal Diwali.
आज के इस पावन पर्व पर, दोनों हथ जोड़ विनती है प्यारे सतगुरु मालिकां के श्रीचरणों में, हे मेरे माधव पुरुख परमेश्वर हमारे घट में सुत्ते दीये को चानण करो, आपजी अखण्ड चानण की रोशनी नूर के जलाल को सभी घटों में प्रकाशित करते हैं, हम पर भी ऐसी बक्शीश की बारिश करें कि हम नित्य सच्ची दीपावली, शाश्वत दीपावली मनायें। यही विनय प्रार्थना है मेरे मालिकां जी! घट में चानण करो मेरे माधव दयाला, घट में चानण करो मेरे माधव दयाला।
।। कहे दास ईश्वर मेरे पुरुखा सतगुरु प्रभुराया ने अनहद की बक्शी दीपावली।।
।। आओ संगतों मनाऐं परम सत्य की दीपावली।।
हरे माधव हरे माधव हरे माधव