|| हरे माधव दयाल की दया ||

वाणी परमत्वमय सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी

।। पूरा गुरु भव भंजन हारा, पूरा गुरु भव भंजन हारा ।।
।। सतगुरु साचा प्रभु ज्यों न्यारा, सतगुरु साचा प्रभु ज्यों न्यारा ।।
।। पूरा गुरु भव भंजन हारा, पूरा गुरु भव भंजन हारा ।।
।। सतगुरु नावै चढ़ै जो कोई, ‘‘अमरा घट निज थांव पावै’’-2 ।।
।। भ्रम भव मेटत सगले भाई, ‘‘कोट जनम दुख छूटन छूटै’’-2 ।।
।। पूरा गुरु भव भंजन हारा, सतगुरु ऊँचा प्रभ स्यों न्यारा ।।

प्यारे हरे माधव गुरु महाराज जी की पवित्र ओट छाया में बैठ, प्रभु रूप सतगुरु का सफल सुहिणा दर्शन दीदार पा रही संगतों, आप सभी को गुरु पूर्णिमा के पावन पुनीत दिवस की अनंत अनंत बधाईयां।

हरि रूप गुरु महाराज जी के पावन श्रीचरण कमलों में हमारा प्यार, रोम-रोम से बलिहार, रग-रग से नमस्कार। सांईजी! हम मिस्कीनियों का सजदा दण्डवत कबूल हो। सभी आतम शिष्यों को पूरे सतगुरु की अपार छत्रसाल प्राप्त हो। आज गुरुपूर्णिमा के पावन पवित्र सत्संग की प्रभुमय वाणी परमत्वमय सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के भजन मुख से 29 जून 2021 को, प्रभाती वेले पौने चार बजे हरे माधव वाटिका में फरमान हुई।

सत्संग वाणी में दुखभंजन प्रभुरूप सतगुरु, प्रभ ज्यों सतगुरु साचे की महिमा सत्त-सत्त कथी गई जो आकाश की तरह अमिट सत्य है कि-

पूरा गुरु भव भंजन हारा, सतगुरु ऊँचा प्रभ स्यों न्यारा
पूरा गुरु भव भंजन हारा, सतगुरु ऊँचा प्रभ स्यों न्यारा

बाबा! पूरे सतगुरु के बिना हमारे मन अंदर का भय अज्ञान नहीं जाता, सच्ची निर्मल वाणी आई-2

पूरा गुरु भव भंजन हारा, पूरा गुरु भव भंजन हारा

ऐ आतम! पूरे सतगुरु की निर्मल छांव में बैठ भवसागर से हम पार हो पाते हैं। पूरन सतगुरु हरिराया प्रभुजियो स्यों न्यारा है, बिना पूरे सतगुरु के कोई कितने भी साधन जतन कर ले, कितने भी तप या बेहिसाब कर्मकाण्ड कर ले पर आतम को मुक्ति नहीं मिलती। साची मुक्ति तो पूरे सतगुरु की सेवा भक्ति, चरण अमृत को पीकर ही मिल सकती है, आतम हर पल सतगुरु पद का मुक्त प्रकाश पा सकती है। फिर आगे मिठड़े बोल आए-

सतगुरु नावै चढ़ै जो कोई

बाबा! पूरे सतगुरु की शरण संगति, चरण प्रीत की नाव में बैठ आतम को क्या प्राप्त होता है, फरमाया सांईजन जी ने वचन वाणी में-

अमरा घट निज थांव पावै
सतगुरु नावै चढ़ै जो कोई, अमरा घट निज थांव पावै
भ्रम भव मेटत सगले भाई, कोट जनम दुख छूटन छूटै

पूरन सतगुरु में चैतन्य परमातम रूप विराट प्रगटो प्रगट है। ऐ शिष्य आतम! आपके अंदर भी वह रूप छिपा है। शिष्य पूरे सतगुरु से अनन्य प्रेम कर, अनन्य सेवा, अनन्य भक्ति कर सतगुरु के चैतन्य परमातम रूप को अपने अंदर प्रगट कर लेता है।

संगता जी! जीव के अंदर का जो गगन कुँआ है, वो उल्टा है, वह कब से है जब से सृष्टि बनी, जब से आवागमन का घेरा बना, जब से चौरासी का फेरा बना, न मालूम कितने ही जनम हमारी आतम कहाँ-कहाँ किस-किस योनि में भटकती रही, फिर इंसानी जीवन प्राप्त होने के बाद भी वह गगन कुँआ जड़ ही रहा क्योंकि हम बाहरी रसों में पड़े रहे। सांईजन फरमाते हैं, बाबा! जीव के अंदर जो पारब्रम्ह पुरुख ने उल्टा गगन कुँआ रखा है, वह जड़ है, उसमें अमृत का सागर तो भरा है, जैसे कि पानी से लबाबलब एक विशाल डैम, पर उसके दरवाज़े बंद हैं। कालखंड में जुगों-जुगांतरों से जीवों ने मन के कहे अनगिनत बेहिसाब तप-साधन इख्तियार कर लिए अमृत को पाने के लिए, बेहिसाब उमरें गंवाई, शरीर छूटे पर आतम की बात न बनी, अमृत प्राप्त न हुआ। दर्जे ब दर्जे जन्म लिए पर मन का सागर आतम को कालचक्र मे,ं भ्रमजाल में घुमाता ही रहा, पर जब पूरण सतगुरु मिले और उन्होंने अपना कमाया अमृत मंत्र नाम आतम शिष्यों को बक्शा जिससे हर पल, हर क्षण अनन्य प्रेम, सतगुरु भक्ति का मजीठा रंग आतम पर चढ़ा, तो बातें घट में दिव्यता की बरसीं यानि जो उल्टा जड़ गगन कुँआ है, उससे अमृत बहने लगा। पूरा सतगुरु शिष्य आतम के अंदर जो गगन कुँआ है, उस कुँए के अंदर छिपे हुए अमृत को बहा देता है; इसलिए ऐ प्यारों! हरिराया सतगुरु के श्रीचरणों में जपी-तपी, सिद्ध-तपस्वी, सर्वसांझी रूहें अमृत को पीने आते हैं। निमित्त अवतारों जैसे प्रभु श्रीरामचंद्र जी, प्रभु श्री कृष्णचंद्र जी ने भी पूरण सतगुरु की राह पर चलकर अमृत को पाया। गुरुवाणी में कौल आए-

सुर नर मुनि जन लोचते, सो अमृत गुरु ते पाइ

जिस अमृत को सुर नर मुनि जन भी खोजते हैं, पूरा सतगुरु अपार दया मेहर का भंडारी, दया सिंधु सतगुरु खोजो, जो शिष्य के अंदर उस अमृत कोष को प्रगट कर देता है। शिष्य भगत उस अमृत को पाकर, सतगुरु के प्रेम में भीगकर अलग ही दुनिया में रमण करते हैं; फिर अनुभव हो पाता है कि एक परमात्मा वह है जो युगों से है, उसी ने हमें कर्म बंधनों में भेजा, उसी ने सब कुछ दिया, स्वांस दिए, जीवन दिया, उस परमात्मा ने कई उपाय विधान बना दिए, कोई कसर न छोड़ी कि यह अंश मुझसे मिल सके, और हमने सारे उपाय भी कर लिए, जप किया, तप किया, सारे के सारे बाहरमुखी साधन कर लिए पर वह तो मिला ही नहीं। संत पलटू जी वर्णन करते हैं-

पलटू जप तप के किए, सरै न एको काज
भवसागर के तरन को, सतगुरु नाम जहाज

जब सतगुरु पूरा हमें मिला, तो किसी जप-तप से नहीं मिला, वह सतगुरु परम करुणामय वात्सल्य इकरस रूप को धारण कर मिला, फिर उसने हम जीवों के कर्म बंधन काट के परमत्व में स्थित कर दिया। साधसंगत जी! पूरण सतगुरु भजन खुमार की गहन कमाई कर परमातम तत्व में, परमत्व में लीन, परमानन्द में सदा मग्न रहते हैं, सर्व सांझी रूहों के परोपकार के लिए कालखण्ड में हमारे बीच आते हैं, हमारे बीच रहते, खाते हैं, हमारे जैसे बोल बोलते हैं, साधारण से साधारण बोल कहते हुए भी असाधारण खुमारी में रास, इकरस में भरपूर मगन रहते हैं पर यह हम नहीं देख पाते क्योंकि हम शिष्यों का झुकाव बाहरमुखी है, हम बुद्धि से देखते हैं लेकिन प्यारों! जब हम पूरण सतगुरु की अंतरमुखी दुनिया में प्रवेश करते हैं नाम शबद के द्वारा, मंत्र शबद के द्वारा, प्रेम के द्वारा, प्रीत के द्वारा, अनन्य सतगुरु भक्ति के द्वारा, तो हम जान पाते हैं कि-

पूरा गुरु भव भंजन हारा, सतगुरु ऊँचा प्रभ स्यों न्यारा

भव भंजन सतगुरु शिष्यों मुरीदों भगतों के ऊपर बेहिसाब निर्दोष त्रिवेणी बहाता रहता है। वह लेखा नहीं करता, हाँ कभी-कभार वह लेखे की बातें करता दिखाई देता है कि अमुक ये बात अमुक वो बात पर वो हमारी प्रकृति है पर पूरन सतगुरु तो अंदर से उसी तरह न्यारा, अपरस है।

सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने साची बात कही कि, पूरे सतगुरु के द्वारा वह परम अमृत मिल पाता है। सतगुरु के श्रीचरणों में भगति भाव से भीगे रहो तो वह अमृत मिलेगा। पूरे सतगुरु के श्रीचरणों की धूल माथे पर लगाओ तो आपके कर्माें के भाग उदित होंगे। सतगुरु के श्रीचरणों की सेवा करो तो न मालूम कितने ही अक्षय पुण्यों का फल अंदर में संग्रह होना शुरू हो जाएगा।

पूरन सतगुरु वह ताकत है जिसका कभी पार ही नहीं पाया जा सकता है, क्योंकि वही एक ताकत है जो अपने अंदर परमात्मा को भी धारण करके चलती है, पर उस भगवंत सतगुरु को पाना, यह इतना सरल भी नहीं और बहुत सरल भी है। सरल तब ही है जब जीव पूरण शरण में अहंकार को छोड़कर आते हैं, भोले भाव को धारण कर आते हैं, निवड़त को धारण कर आते हैं, शुद्ध प्रेम भाव से आते हैं। तभी तो गोस्वामी जी ने कहा-

निर्मल मन जन सो मोहिं पावा
मोहि कपट छल छिद्र न भावा

संतवाणी में आया-

गुरु के चरणों में धरो, चित्त बुद्ध अहंकार
जब कुछ आपा ना रहै, उतरै तब ही भार

पूरे सच्चे सतगुरु के दीवान संगत में तो केवल निर्मल मन की बात चलेगी क्योंकि निर्मल मन के द्वारा ही आप सतगुरु के सच्चे रूप को देख पाओगे।

गुरुपूर्णिमा, यानि सतगुरु श्रीचरण कमलों में अनन्य प्रेम अटूट अनन्त टिकाव। हम पूरे सतगुरु की पूजा, आराधना, उस्तत, उपासना, अरदास, विनती, भगति, बंदगी करते हैं तो हमारे अंदर भाव रस बरस पड़ता है, भगति रस उमड़ पड़ता है, हम आत्माओं का लोक-परलोक मंगलकारी होता है। हम पूरे सतगुरु की आरत कर अपनी आत्मा को तृप्त करते हैं, हम सतगुरु के तत्व नाम का सिमरन कर अपनी आत्मा की जड़-चेतन की गाँठें खोलते हैं, हम सतगुरु का तसव्वुर-ध्यान कर अपनी आतम को दिव्य रब्बी मंडलों में ले जाने का परमार्थी भंडार, गुरु प्रसाद को प्राप्त करते हैं। पूरण सतगुरु की सेवा प्रेम भाव, हित्त-चित्त से करने पर चार पदार्थाें का दान प्राप्त होता है, लोक-परलोक के समस्त सुख इन चार पदार्थों में आ जाते हैं। सो सदा इहाई सेव, सतगुरु भक्ति की चाह रखो।

चार पदारथ जेको मांगे, साध जनां की सेवा लागे
सतगुरु सेवह ता सुख पावहि, नाहिं त जाहिगा जनम गवाइ

पूरण सतगुरु के श्रीचरण कमलों की सेवा कमाने से ऐ आतम! सच्चे अमृत की प्राप्ति होती है। सतगुरु की सेवा के बिना जनम तो अकारथ ही जाता है और निगुरों का तो जा ही रहा है इसलिए स्वांसों के रहते जागो, सतगुरु श्रीचरणों की सेवा में लागो। सतगुरु की सेवा के बिना जीवन नीरस ही मानो। पानी को मथने से कोई लाभ नहीं मिलने वाला अपितु समय ही नष्ट होता है, उसी प्रकार निगुरों का जीवन अयोग्य और निकृष्ट ही है, सो संगतां जी याद रखो! आपको निष्काम सेवा भाव प्रेम से कर पूरे सतगुरु की विशेष दिव्य अनुकम्पा, दिव्य प्रसाद, सतगुरु प्रसाद को पाना चाहिए। आगे श्री गुरु महिमा में आया, पूरे सतगुरु के भोजन की सेवा करना अर्थात् पारब्रम्ह के भोजन की सेवा। आदि से यह महिमा गाई गई कि पूरा सतगुरु पारब्रम्ह का प्रगट रूप है इसलिए सतगुरु का भोजन ब्रम्हभोज कहलाता है। श्री गुरु महिमा में आया-

जो गुरु को भोजन करवावे
मनो त्रिलोकहिं न्योत जिम्हावे

जो श्रद्धा से सतगुरु को भोजन कराता है, उसे त्रिलोकी का सुख प्राप्त होता है। जब हम पूरे सतगुरु के भोजन की सेवा करते हैं तो इससे हमारे घर की, हमारे जीवन की प्रारब्ध संवरती है और हमारी सेवा के वे क्षण उस बखत उस पवित्र नाम, पवित्र प्रेम, पवित्र रंगत में लगते हैं, पूरे सतगुरु के श्रीचरणों की सेवा परमगति के द्वार खोल देती है-

तन पवित्र सेवा किए, धन पवित्र कर दान
मन पवित्र हरि भजन कर, होत त्रिविध कल्यान-2

पहला, सतगुरु नाम भजन, दूसरा सतगुरु सेवा, तीसरा सतगुरु श्रीचरणों में किया गया दान तीनों साधन परम कल्याण के साधन हैं; इसलिए सतगुरु की महानता को कभी भी बताया नहीं जा सकता। श्री गुरु महिमा में वर्णन आया-

गुरु की अद्भुत है प्रभुताई, मिले सहस्त्र गुना होय आई

सतगुरु की यह प्रभुताई है कि जो भी सतगुरु श्रीचरणों में भाव प्रेम से भेंट अर्पण करता है, सतगुरु सहस्त्र गुना उसे फल बक्शते हैं। पूरा सतगुरु, ऐ आतम! पूर्ण मुक्ति मोक्ष का सुखदाता भंडारी है। पूरे सतगुरु की महिमा संत कबीर जी ने निर्भय पद में गाई-

कबीरा हरी के रूठते, गुरु की शरणी जाए
कहे कबीर गुरु रूठते, हरी नहीं होत सहाए
गुरु गूंगे गुरु बांवरे, गुरु के रहिए दास
जो गुरु भेजे नरक में, न रखिए स्वर्ग की आस

ऐ साधक शिष्यों! हरी परमात्मा, जिसने स्वांस दिए, हर इक पदार्थ, नाते-रिश्ते दिए, अगर वह हरी रूठ जाए तो गुरु की शरणी जाओ, गुरु की शरणी जाओ, बस इससे ऊँचा कोई ज्ञान नहीं।

कबीरा हरी के रूठते, गुरु की शरणी जाए

हरी रूठ जाए तो सतगुरु की शरणी जाओ, वह हरी की नाराज़गी दूर कर शिष्य की आतम को निहाल कर देता है पर ऐ आतम! सावधान होना, सचेत होना-

कहे कबीर गुरु रूठते, हरी नहीं होत सहाए

यदि गुरु सतगुरु रूठा तो लोक-परलोक दोनों बिगड़ जाता है और हरिराया अंग-संग रहते हुए भी सहाई नहीं रहता इसलिए बाबा! पूरा गुरु जो रसाई वाला है, कमाई वाला है, महिमा उसी की कही है कबीर जी ने।

कहे कबीर गुरु रूठते, हरी नहीं होत सहाए

कहते हैं, सतगुरु पूरे के दास बनो, गुरु के रहिए दास, गुरु के रहिए दास। सतगुरु अगर नरक की ओर जाने को कहे तो स्वर्ग की आस न रखना। संगतों! यह अंधविश्वास का खेल नहीं, अनन्य प्रेम, अनन्य भक्ति, अनन्य भाव, सतगुरु के श्री चरण कमलों के ध्यान अमृत की बात है।

If the True Master commands you to walk on the difficult road, do not wish for an easy one, simply follow Him. Do not mistake it as a false belief, for His path needs to be traveled upon with immense love, devotion and pure emotion.

एक परमात्मा वह है जिसने जनम-मरण के फंदे बनाए, एक जीवनमुक्त परमात्मा है जो अजन्मा कर देता है, और वह है सच्चा पूरन सतगुरु पर वे इस धरा जगत में योग माया पर्दाें को ओढ़कर, अपनी मौज लीलाओं से मलोखड़ी रूप धारण कर खुद को छिपा कर चलते हैं। उनकी मौज अलस्ती होती है, कभी झिड़प फटकार देना, कड़क से कड़क वचन कहना भी सतगुरु का मृदुल स्वभाव होता है पर इसलिए नहीं कि वह क्रोधी है, वह तो मौज-ए-बहार में रत पारब्रम्ह परमेश्वर ही है, अनन्त है, वह शिष्यों को अनंत प्रकाश की ओर ले जाने का सच्चा, निर्मल, दिव्य, अलौकिक शाश्वत मारग देता है, और बेहिसाब अपार अपरंपार करुणा मेहर की बूंदें बरसाता है। सतगुरु उस अमृत को किस रूप में बरसा देता है, यह उसकी मौज है, कभी मौन रहकर नूरी निगाह से, कभी वचन-वाणी फरमाकर, कभी छड़ी की मार से, रूहानी झिड़प से भी दुखों-कष्टों को हर लेता है, यह पूरे सतगुरु के अपार-अपरंपार गुणों की महिमा है। इस वास्ते गोस्वामी तुलसीदास जी पूरन गुरुदेव की महिमा की बढ़ाई बड़ी से बड़ी महान से महान कथी-

को बरनै मुख एक, तुलसी महिमा संत
जिन के विमल विवेक, सेस महेस न कहि सकत
हरी हर आदि जगत में, पूज्य देव जो कोय
सतगुरु की पूजा किये, सबकी पूजा होय

गुरु गीता में भगवान शंकर ने माता पार्वती से कहा है-

सप्तसागरपर्यन्तं तीर्थस्नानं फलं तु यत्
गुरुपादपयोबिन्दोः सहस्त्रांशेन तत्फलम्

यानि सात समुद्रों के भी पार, सर्व तीर्थाें में स्नान करने से जितना फल मिलता है, वह फल श्री सतगुरुदेव की चरण धूल, पूजा-अर्चना-ध्यान के फल का हज़ारवां हिस्सा है।

संगता जी! सतगुरु बेहिसाब भंडारों का, बेहिसाब रहमतों का अपार सिंधु है। उनकी रहमत कभी दायरों में नहीं चलती कि अमुक शिष्य सिंधी है, मराठी है, सिख-गुजराती है या अमुक जाति-वर्ग का है, क्योंकि पानी तो केवल और केवल एक ही बात जानता है, प्यासे को तृप्त करने की। पानी निर्दोष है, हो सकता है पानी भी कभी दोषी हो जाए पर सतगुरु परम ब्रम्ह निर्दोष रूप है, सर्वमांगल्य भाव से सर्व सांझी रूहों का उद्धार करता है, इसलिए ही तो इस परम सत्ता के लिए एक ही बात कही गई, निर्दाेष परम प्रकाश यानि गुरु पूर्णिमा। शिष्य और उसकी आतम का जीवन, चिरंकाल से गहन अंधेरों से घिरा है, जब शिष्य सतगुरु के गूढ़ मारग पर चलकर, सतगुरु की शरण संगति में आकर, मौज और प्रेम में वर्तण कर निर्दाेष प्रकाश की गहन वादियों में प्रवेश करता है, तब उसके अंदर भी जो गूढ़ गुफा है मन की, बुद्धि की, चित्त की, असंख्य संकल्पों-विकल्पों की, उसमें प्रकाश भरना शुरू हो जाता है। शिष्य की आतम आनंदित हो जाती है, भावमय बन जाती है, आतम की तारें अदृश्य दिव्यता से जुड़ जाती हैं। भगतां जी! सतगुरु के विछोड़े में भी हमारे अंदर भाव बनते हैं, और सतगुरु के मिलने में भी हम परम तृप्त होते हैं; यानि विछोड़े में भी परम तृप्ति और मिलने में भी परम तृप्ति। याद रखो! यह परम तृप्ति किसी अन्य साधन के द्वारा कदापि प्राप्त नहीं होती, वह तो प्राप्त होती है सतगुरु से अनन्य प्रेम कर, प्रीत कर।

साधो सतगुरु बल-बल जाऊँ, सतगुरु जीअरा हित चित्त प्यारे
साधो सतगुरु बल-बल जाऊँ, सतगुरु ऊँचा प्रभ स्यों न्यारा

इसलिए योगियों, जपियों, तपियों ने एक ही बात कही, ‘पूरा सतगुरु खोजो, पूरा सतगुरु खोजो’ क्योंकि पूरे सतगुरु के द्वारा ही हम इस दुनिया में रहते हुए उस दुनिया में स्थित हो जाते हैं, जो शाश्वत दुनिया है, तभी पूरण सतगुरु की पावन संगति पर भारी बल दिया गया, गुरुवाणी में वचन आए-

बिसर गई सब तात पराई, जब ते साधसंगत मोहे पाई
जो प्रभु कीनो सो भल मानियो, एह सुमति साधू ते पाई

सारी तातें मन की बिसर गईं, न मालूम कितनी मन की तातें दिन-रात पड़ी रहती हैं, ये वस्तु, वो वस्तु, प्यारी संगतों! पर जब सतगुरु की शरण में आते हैं, सतगुरु के प्रेम, सतगुरु की निर्मल संगति से जुड़ते हैं तब हम उसी तरह हो जाते हैं जैसे एक भंवरा। भंवरा केवल और केवल फूलों पर ही बैठता है, फूलों पर बैठकर अपना पराग चुनता रहता है। इसी तरह प्रेमी शिष्यों की दशा है-

प्रीत लगी तुम नाम की, प्रीत लगी तुम नाम की
पल बिसरै नाहिं, पल बिसरै नाहिं

परमात्मा की महिमा को आंका जा सकता है पर सतगुरु की महिमा को कैसे!

साधो सतगुरु बल-बल जाऊँ, सतगुरु ऊँचा प्रभ स्यों न्यारा

गुरुपूर्णिमा पावन दिन, प्यारे सतगुरु की महिमा, अपार उस्तत, धन्य-धन्य के भाव, बस साधुवाद के भाव, बल-बल जाऊँ के भाव, मिस्कीनिया भाव सदा घट में धारें, इसी से आतम का उद्धार, निबेरा होता है और अनवरत फल प्राप्त होते हैं। संगतां जी! अगर हम कल्पवृक्ष के नीचे बैठे हैं पर वृक्ष की छाया का भान नहीं, खड़े हैं बहुत सालों तक, उसके फलों को भी खा रहे हैं, तो हमें यह इल्म तो हो, यह ज्ञान तो हो कि यह फल कितनी पौष्टिकता से भरे हैं, ऐ प्यारों! हमारा संपूर्ण जीवन जो कार्बनडायौक्साइड से भरा था अर्थात् मनमति काग प्रवृत्ति विचारों से भरा था, वो ऑक्सीजन युक्त हो रहा है यानि निर्मल, हंस वृत्ति, गुरुमुख वृत्ति वाला हो रहा है, पूरण सतगुरु रूपी कल्पवृक्ष की शरण छांव में।

सांईजन ने फरमाया, बाबा! समस्त प्राणियों पर चिरंकाल से मन माया की जो छाया है वह दुखों से भरी है, कष्टों से भरी है, कलेषों से भरी है, अज्ञान अभाव की निद्रा से भरी है। पूरे जागृत प्रगट सतगुरु की जो निर्मल छाया है वह अमृत आनंद से भरी है, मनमोहक है, दुखों को हरने वाली, कष्ट नासनी संगति छांव है। संगतां जी! कई प्रेमी शिष्यों ने निज अनुभव कह सुनाया कि जब हम अपने थांव स्थान पर रहकर सतगुरु का तसव्वुर ध्यान करते हैं, या फिर सतगुरु श्रीचरणों में आते हैं, पावन दर्शन को पाते हैं तो हमारे मन के नकारात्मक विचार सकारात्मक हो जाते हैं और हमारे बेहिसाब कष्टों का निवारण हो जाता है। संगता जी! सतगुरु की वाट चौखट पर, सतगुरु की राह पर, सतगुरु के श्री चरणों में रहने पर, ऐसे अनवरत खेल, मेहर कुर्ब के होते रहते हैं, कभी सेवकजन लिपिबद्ध कर पाते हैं, कभी अलिपिबद्ध रह जाते हैं।

सांईजन ने फरमाया, बाबा! समुद्र के किनारे बैठ आप विचार करें कि लहरें कितनी हैं, तो क्या यह संभव है? समुद्र की लहरें कैसे गिनें, वह हमारी बुद्धि से परे है, समुद्र की लहरें तो अपनी मौज से उठती रहती हैं, बहती हैं, अपने वेग में चलती हैं, ऊफान होता है सुनामी होती है, इसी तरह हरिराया सतगुरु की मौज, करूणा कुर्ब दया मेहर अनंतो अनंत है। सतगुरु विराट बेहिसाब महासमुद्र पारब्रम्ह हैं, वे अनवरत अपनी मौजें मेहर रहमतें बरसाते रहते हैं, लीलाएं करते रहतें है, वे कभी फक्कड़ बनते हैं तो कभी आम साधारण इंसानों की तरह खुद को छिपा भी लेते हैं, खुद रिद्धी-सिद्धी के भण्डारी होते हुए भी कभी खेतों में किसानी रुप धारण कर स्व ही खेती करते हैं, कभी ज्ञानी रूप, कभी ध्यानी रूप, गहन रुपों को धारण कर गूढ़ से गूढ़ दिव्य मंडलो की बातें वचन प्रसाद बक्श देते हैं। कभी धनवंतरी रूप बन आंतरिक और शारीरिक तंदुरुस्ती के नुस्खे मौज में बता देते हैं, कभी घने जंगलों में हिंसक पशुओं के बीच विचरण करते हैं, कभी बाल-गोपालों संग क्रीड़ा मौज करते हैं, कभी मनमोहक नटराजन लीला कर निराकार रूप धर अपने भगतों शिष्यों के कष्ट हर लेते हैं, कभी अभ्यासी शिष्यों को घट अंतर अपना आलौकिक रूप दरसा देते हैं। यह सब उनकी परमत्व मौज है; इसलिए सतगुरु की महिमा को कहना उसी तरह है कि-

शारद नारद वेद कथा कह न सके तत्व पूरे सतगुरु की कथा
न को कह सका ब्रम्ह विष्णु महेशा, सब थक हारत हैं
न कह सकत सतगुरु पूरे की सत्त कथा
साधो काल भी कालह धूनै धूनै सर धूनैै सतगुरु द्वार पड़ै
साधो सतगुरु की महिमा को कह न सकत
कहे दास ईश्वर तज सतगुरु शरणां अहम चतुराई
मूरत सतगुरु धर सतगुरु ध्यान धर प्रीत पीवत रहो

पारब्रम्ह सतगुरु की बेपरवाही अलस्ती मौज, वडयाई, महान उस्तत को सत्संग वाणी में यूं गाया गया, जी आगे-

।। सतगुरु शाहे बेपरवाहे-2, अचला एको रास रसाये-2 ।।
।। सतगुरु सिमरनो ध्यानो लावो, आतम एको माहि समाओ-2 ।।
।। सतगुरु साचा भव भंजन हारा, सतगुरु ऊँचा प्रभ स्यों न्यारा ।।
।। पूरा सतगुरु रमे विलासो, पारब्रम्ह तिन वासो-2 ।।
।। पूरे सतगुरु चरना ध्याना, विमल पद पाओ वासा-2 ।।
।। पूरे सतगुरु बिन सबहै करम, ज्ञान जप तप ध्यानी फीका-2 ।।
।। पूरा गुरु भव भंजन हारा, सतगुरु ऊँचा प्रभ स्यों न्यारा-2 ।।

सांईजन जी हरे माधव वाणी में सतगुरु महिमा का बखान कर फरमाते हैं-

सतगुरु शाहे बेपरवाहे, अचला एको रास रसाये

संगता जी! सर्वशक्तिमान जो नहीं कर सकता वह सतगुरु पुरुख कर सकता है। पूरा सतगुरु बेपरवाह अचला एको तख्त पर सुशोभित रहता है, ऐ आतम! पूरे सतगुरु की शरणी जाकर सतगुरु नाम भक्ति कमा, सतगुरु के प्रीत का मजीठा रंग अपनी आतम पर, मन पर लगा चकोर की न्याई; कहा-

सतगुरु सिमरनो ध्यानो लावो, आतम एको माहि समाओ

सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने फरमाया कि हरिराया सतगुरु के श्री चरण कमलों में शिष्य को प्रेम भाव, सहस्त्रो-सहस्त्रो सत्कार प्रीत के भाव धारण करने हैं, पूरे सतगुरु के श्रीचरणों में समर्पण भाव और प्रेम रखेंगे तब सतगुरु की लीलाएं समझ आती हैं, उनके सत्संग वचन वाणियाँ हमारे मन आतम में भक्ति-भाव बढ़ाती हैं। जब तक भाव और प्रेम नहीं, तब तक आतम मन में सोझी नहीं आती। पूरण सतगुरु में जब भाव प्रेम, समर्पण पूरा होगा, लीलाएं समझ आयेंगी तब सांची भक्ति बढ़ती है। निमित्त अवतार प्रभु श्रीकृष्ण चंद्र और प्रभु श्रीरामचंद्र जी ने भी जब नित्य अवतार हरिराया सतगुरु में भाव और प्रेम रखा, समर्पण की याचना से शरणागत हुए तब ही गुरु ने शरण में लिया। निमित्त अवतार भी नित्य अवतारों की उस्तत अराधना अनुग्रह करते हैं। गुरुपूर्णिमा यानि नित्य अवतारों का गुणगान, पूजन वंदन, ध्याना, चरण सेवा चरण प्रेम एवं उन्हीं में अर्थात् निर्गुण की दिव्य रोशनी में लीन होने का मारग पाना। निमित्त अवतारों ने भी इस करणी को अपने जीवन में ढाला। प्रभु श्रीरामचन्द्र, प्रभु श्रीकृष्णचंद जी या अन्य जो भी निमित्त अवतार हुए, उन्होने नित्य अवतारों की अपार भूरी-भूरी प्रशंसा बढ़ चढ़ कर की, कि मोक्ष और मुक्ति तो केवल वह नित्य अवतार पूरण तत्वदर्शी, पूरण सतगुरु ही दे पाते हैं।

सतगुरु ऊँचा प्रभ स्यों न्यारा, सतगुरु ऊँचा प्रभ स्यों न्यारा

गुरुवाणी में कौल आए-

कहु नानक प्रभु इहै जनाई
बिन गुरु मुकति ना पाइए भाई

गुरुपूर्णिमा यानि पूरण प्रकाश का भंडार ही सतगुरु का, वह ऐसा प्रकाश पुंज है जो भूत, वर्तमान और भविष्य में हमेशा जगमगाता रहता है।

पूरण सतगुरु आपके अंदर सदा विराजमान होते हैं, हर पल आपके अंग-संग रहते हैं। शिष्य कहीं भी हो, चाहे उनकी शरण में हो, नगर में हो या दूर किसी अन्य शहर-गांव या देश में हो, सच्चा सतगुरु अपनी दिव्य दृष्टि कमाल से शिष्य के अंग-संग रह अपना प्रकाश मेहर बरसाता ज़रूर है और न मालूम हमारी कितनी ही कमियों अवगुणों को देखकर भी वह अपनी गोद में हमें रख लेता है। दयाल सतगुरु हमारे अनवरत दुखों को हरता रहता है पर वह दर्शाता नहीं, दिखाता नहीं। हाँ! कभी-कभार वह अपनी मौज-ए-बहार में, मौज-ए-खुमार में, मौज-ए-पारब्रम्ह में रत, कुछ कण ज़िक्र कर देता है ताकि शिष्य जाग सकें, मन में भाव भगति बन सके। संगतां जी! बाहरी सूरज की रोशनी, कुछ समय, चंद घंटों के लिए रहती है फिर उसके बाद चाँद निकल आता है पर पूरा सतगुरु वह प्रकाशी ताकत है, वह करुणा का सैलाब, अपार सिंधु है जिसके प्रकाश की कोई सीमा नहीं, उनके मेहर करुणा वातसल्य बरसाने का कोई समय नहीं, कोई तिथि नहीं। दयाल सतगुरु हर पल दया मेहर अदृश्य-सदृश्य रूप में बरसाता जाता है। अगर सतगुरु दिखाई भी देता है कि वह सोया है उस वक्त भी वह जागृत पुरनूर है। ऐसे सतगुरु महिमा का फरमान श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम में आया-

गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं, शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः

अर्थात् सतगुरु में दिव्य विराटता होती है, जब सतगुरु शरण में हम शिष्य भाव से रहते हैं तो सतगुरु अपनी मौन नूरी दिव्य निगाह से हमारे मन के प्रश्नों का उत्तर, आतम जिज्ञासाओं का हल हमारे चित्त मन में दे देते हैं। यह विराट दिव्य महिमा है परमत्व सतगुरु की; शिष्य कुछ पूछता नहीं और सतगुरु अपने भजन मुख से कुछ बोलते नहीं। सतगुरु आत्मज्ञान के लहराते महासागर हैं जो शिष्य रूपी चाँद को देख छलकते हैं; शिष्य उनसे आत्मज्ञान, आत्मप्रकाश, आत्म आनंद को पाकर निर्मल बुद्धि, शुद्ध हृदय से अपने अंदर परमान्द रस को प्रगट करने में सक्षम हो जाते हैं। ऐ प्यारों! ऐसे परमत्व सुखरूप सतगुरु की शरण मंे आकर, उनका पल्ला कसकर पकड़ लो, समर्पण कर दो पूरा का पूरा, केवल यही भाव मन में, ऐ मेरे गुरु महाराज!

तेरी शरण सदा सुखकारी, तेरी शरण सदा सुखकारी

हरे माधव भांगा साखी वचन उपदेश 735 में ज़िक्र आया, 18 अक्टूबर 2009, रविवार को, बारिश का समा था, मूसलाधार बारिश अनवरत चालू थी, प्रभात समय गुरु दरबार साहिब में शबद-कीर्तन आतम भोजन का प्रवाह भी चल रहा। हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी परम खुमार में तखत पर विराजमान। आपजी सेवकों से फरमाये कि प्रीत प्रेम राग वाले भजन-वाणी गाएं। शबद-कीर्तन का प्रवाह लगभग सवा एक घण्टे तक चलता रहा आपजी अचानक उठे और परम मौज में बाहर की ओर चल पड़े, ना श्रीचरणों में पादुका पहनी, बस चलते ही जा रहे। श्रीचरणों में कीचड़, कंकड़-पत्थर भी लग रहे पर आपजी बस चले जा रहे परमत्व खुमार में। भजन सिमरन के भंडारी परमब्रम्ह को प्रगट कर चुके बेपरवाह सतगुरु की मौज को जगतधारी आम संसारी जीव कैसे समझ सकते हैं, यह इंसां की बुद्धि से परे है। आप साहिबान जी चलते-चलते एक भगत की कुटिया के बाहर आंगन में बैठ गए, सेवकों से आपजी ने फरमाया, दरवाज़ा मत खटखटाना। संगतां जी! उस कुटिया में एक प्रेमी विरही भगत श्रीदर्शन की तड़प में, शुद्ध भोले मन से प्रियतम सतगुरु को याद कर रहा, सिमरन भजन की पंगत में बैठ सतगुरु नाम का सिमरन, जप कर रहा, उस भगत का शुद्ध भाव से जपना मन की लाग सतगुरु श्री चरणों में जिससे उस भगत की सुरत श्रीचरण कमलों का ध्यान कर, गुरुपद में टिकी,

भोला भाव भगवंत मिलाया

सांईजन, उस प्रेमी भगत की विरही सुरत को दर्शन बक्शने अपने तन की तनिक सुध न रख उसकी कुटिया की ओर आए। वहीं आंगन में बैठे-बैठे आपजी ने ब्रम्हवाक्य फरमाए, चलो छोड़ो श्रीचरणों को, उठो। तीन-चार बार आपजी ने यही ब्रम्ह वाक्य फरमाए।

आपजी के यह वचन सुन सेवकजन कुछ समझ न पा रहे। संगतों! ऐसे पूरण समरथ सतगुरु की समरथा को समझना दुष्वार ही दुष्वार होता है। कुछ समय पश्चात् आप सांईजन जी ने जैसे ही चरण कमलों का प्रताप खींचा तो वह शिष्य अंदर से बेचैन हो उठा, उसकी सुरति, जो गुरुपद में स्थित थी, श्रीचरण कमलों के ध्यान से जुड़ी थी, उसे वैसी महक आई कि मेरे सच्चे पातशाह जी कहीं बाहर तो नहीं, वह विचलित हो उठा, जैसे साँप विचलित हो उठता है अपनी मणि के गुम हो जाने पर। वह भगत प्रेम से दौड़ा-दौड़ा बाहर की ओर बढ़ा, ज्यों ही दरवाज़ा खोला, सतगुरु सच्चे पातशाह जी को अपने आंगन में देख ज़ारोंज़ार रो पड़ा, झर-झर नैना बरस पड़े और वह श्रीचरणों में लेट गया। आप सांईजन की पोषाक भीगी हुई, श्रीचरणों में माटी लगी और पत्थर कांटे भी चुभे थे। सांईजन के श्री कमलों को देख वह जारोजार रोए जा रहा, भगत को सारी बात समझ में आई। उसके आँसु नहीं थम रहे। साहिब जी ने वात्सल्य भाव से कहा, चरण कमलों को बड़ा कसकर पकड़ के बैठे थे, हमें पैदल ही आना पड़ा, गाढ़ी प्रीत जो जुड़ी थी। वह प्यारा अपने आँसुओं का मरहम बनाकर श्री चरण कमलों से कांटे निकाल रहा। प्यारी संगतों! भगवन्त की समत्व मेहर का कौतुक इससे बड़ा क्या हो सकता है। प्रेमी शिष्यों भगतों जिनकी तार प्रेम भाव में डूबी रहती है, उन पर हरिराया सतगुरु की मेहर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप बरसती ही रहती है क्योंकि सतगुरु तो भाव प्रेम का भूखा है।

प्रेम के तुम हो भूखे सांई, तुम हो भाव के दाता गुसांई
प्रेम का सदा जो अमृत चाखे, तिन भगतन का तू एको प्यारा
दास ईश्वर विनती करे एह, सतगुरु दाता प्रेमी जन मेलो
धूल तांकी जर जर जीवां, चरण कमल तेरे धोइ धोइ पीवां

हरे माधव यथार्थ प्रेमाभाव संतमत वचन उपदेश 314 में फरमान आया, शिष्य को अपनी प्रेमा भगति, अपनी सारी लाग लपेट, सभी नाना विचार, सुरति का सारा ठहराव सतगुरु चरण कमलों के ध्यान में लगाना चाहिए। जब शिष्य, आंतरिक गुरु पद में, भाव प्रेम सागर में लीन होता है तो उसे कुछ सुध नहीं होती, न जगत की न शरीर की, बस भौंरे स्यों, प्रेम सतगुरु चरण कमलों का, इस अवस्था की केवल एक ही सत्ता शिष्य के अंदर स्थापित प्रगट होती है।

A devotee must fixate his love, devotion, attachment, thoughts and consciousness in the Lord True Master. When the devotee dives deeper into the ocean of love for True Master, then he cares about nothing, neither his body nor this world; he, like a bumblebee, remains engrossed in love for his True Master. This is the only state he dwells in.

सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने फरमाया, भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु की सर्गुण रूप की उपासना कर हम दिव्य निर्गुण रूप की दिव्य दात तक पहुँचते हैं। प्रगट सर्गुण रूप सतगुरु अपनी निर्गुण कला को, निर्गुणी समत्व प्रकाश को हम जगतधारी जीवों पर वात्सल्य करुणामय हो बक्शते हैं और अपार बिरद का परमत्व प्रगट कर हमारी आतम को भजन प्रीत, प्रेम के साथ इकमत करते हैं। सर्गुण रूप सतगुरु दिव्य दात को मनोहर लीला, गहन कुर्ब का भाव भंडार प्रगट करता है जिससे कि कालखंड में, मनमाया के रेशों में फंसी रूह उबर सके।

हरे माधव भांगा साखी वचन उपदेश 175 में ज़िक्र आया, हरे माधव महराज, सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब परम भजन प्रकाश की खुमारी में बैठे, इंदौर शहर का एक मिस्कीनिया गोला परिवार आया, सतगुरु नाम भक्ति के अनन्य प्रेम, अनन्य सेवा में भौंरे बने हुए अपना बालक लेकर आए, नीर बह रहे हैं, विनय विनती के गहरे मिठड़े बोल कह रहे हैं कि सच्चे पातशाह! हमारे इस बालक को कई दिनों से बुखार है, न दवाएं असर कर रही हैं न चंगा हो रहा है, किरपा मेहर करें। आप साहिबान जी फरमाए, भला होगा, भला होगा, आप इसे डॉक्टर के पास ले जाएं।

वे परिवार जन कई बार आप साहिबान जी के श्रीचरणों में अरज विनय ले आते रहे पर हर बार आपजी उन्हें फरमाते कि डॉक्टर को दिखाएं। एक बार, गुरुवार के दिन हरे माधव गुरु दरबार साहिब में आप सांईजन परमत्व खुमारी में विराजमान, संगतों की कतार में वह मिस्कीनिया परिवार भी आया और पुनः विनती की। आप स्थित प्रज्ञ सच्चे पातशाह समत्व करुणामय अपने अंदर एकस स्थिति पुरुख में लीन, परिवार जनों की विनय सुन कहा, बाबा! दवा करो हाकिमों के पास जाओ, तो चंगा होगा। वे कहने लगे, सच्चे पातशाह जी! सब करके देख लिया, आप दया मेहर करें। संगतों! पूर्ण पुरुख करुणामय दुखभंजन वात्सल्य एवं समत्व प्रकाश को इक रूप में धर बैठे, जिसको गीता में श्रीकृष्णचंद्र जी ने कहा, स्थित प्रज्ञावान।

विनय सुन, दुखभंजन सतगुरु ने वात्सल्य प्रेम, करूणा की दृष्टि बालक पर बरसा बालक को दोनों हाथों से गोद में उठा लिया और बगल में रखे नैपकिन (छोटा टॉवल) जिससे गर्मी में कभी-कभी आपजी मुख पोछते, वह बालक के ऊपर रखकर कहा, ‘‘ठीक है माई भला चंगा होगा, ठीक है माई भला चंगा होगा’’। हुजूरों ने बालक के पिता से पूछा, दवाएं कहां है? पिता ने हाथों में दिखाते हुए कहा, जी ये हैं बाबाजी। बालक के पिता से आपजी ने दवाएं ले, सम्मुख सेवा में बेटा कैलाश, उसे आपजी ने फरमाया, जाओ ये दवाएं बाहर एक कूकर जिस पात्र में पानी पीता है उसमें डाल दो, वह कूकर पीए। फिर सांईजन जी ने उस परिवार को हुकुम फरमाया, जाओ इस टावल से इस बालक के हाथ पांव शीतल जल से धोकर पोछते रहना। संगतों! कुछ दिनों के बाद वह बालक चंगा भला हो गया। सो संगतों! दयाल सतगुरु करूणा कुर्ब कर, मेहर कर, शिष्यों के कष्टों को दूर कर सतगुरु अपनी देह पर चुकाते हैं।

उस बालक का बुखार दयाल सतगुरु ने अपनी देह पर ले लिया। कुछ दिनों तक आपजी की देह को अत्यधिक पीड़ा तकलीफ रही। उस वक्त वर्सी पर्व के कार्यक्रम थे। वर्सी के सत्संग दीवान में कई-कई घण्टों तक आपजी श्रीआसन पर विराजमान, रहती, शरीर तपा हुआ, फिर भी आपजी समत्व योग को धारण कर दया मेहर कर रहे, और दीनदयाल सतगुरु जी ने मोकलाणी के दिन भी सभी संगतों को दर्शन बक्शे, सभी सेवाओं की निगहबानी कर, सेवकों को मार्गदर्शन देकर, और जिन संगतों की नाम मंत्र दीक्षा के लिए अर्ज़ी लगी थी, उन संगतों को दोपहर के समय ही नाम मंत्र दीक्षा बक्शकर एकांत में चले गए। दो-तीन दिन के बाद आपजी के देह की पीड़ा कम हुई। सो संगतों! समत्व योग से भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु के करूणा कुर्ब अथाह ही अथाह हैं। संगतां जी! जिस कूकर ने उस पात्र से पानी पिया, वह कूकर रोगी था, चल नहीं पाता, कुछ दिनों के बाद सेवदार ने देखा कि जिस पात्र में बालक कैलाश ने दवाएं रखी थी, वह कूकर उससे पानी पीकर कुछ समय के बाद दौड़ने लगा। जब आपजी शाम के समय तखत संदुल पर बैठते तो प्रेमियों से कहते कि कणाह प्रसाद लाओ, रोटी लाओ और उस कूकर को खिलाओ। संगता जी! दयाल सतगुरु की मेहर का वर्णन बालक भी चंगा हुआ और उस कूकर के भी कष्ट हर लिए। इन सबमें गहराइयों में देखें किस तरह दयाल सतगुरु पुरुख दुखभंजन सतगुरु मौज खेल लीलाएं कर कष्ट हर लेते हैं।

सतगुरु होइ दयाल तां दुख न जानिऐ
सतगुरु होइ दयाल तां हर रंग माणीऐ
सतगुरु होइ दयाल तां जम का डर केहा
सतगुरु होइ दयाल तां सद ही सुख देहा

कुछ दिनों बाद जब वह प्रेमी परिवार, मिस्कीनिया भाव से जब बालक को सतगुरु श्री चरणों में लेकर आए तो विनय पुकार के मिठड़े बोल कहे, हे दुखहरण सतगुरां! हे भगत वत्सल! हे परमत्व पारब्रम्ह पुरुख! हमें चरण भक्ति, नाम भक्ति, प्रीत भक्ति का अटूट वरदान बक्शें। हम श्रीचरणों से न डिगें, हमें पावन सतगुरु भक्ति का अगाध प्रेम बक्शें क्योंकि समस्त पठशास्त्र इस दात को पाकर हमें इंसानी जनम सफला करने के लिए ही चिताते हैं, मेहर करें।

संगतां जी! ऐसे दुखभंजन हरिराया सतगुरु पर बलिहार-बलिहार जाएं, सद् कुर्बाने जाएं। हरे माधव वाणी में करुणावान बेअंत महिमावान सतगुरु की सिफत गाई गई, जी आगे-

।। सतगुरु चौसठ चौरस काटे-2, घट दया करूणा बरसे-2 ।।
।। सतगुरु नामह समरथ प्यारे, काल सदा डर डर खाये-2 ।।
।। साधो सतगुरु बल-बल जाऊँ, सतगुरु जीअरा हित चित्त प्यारे-2 ।।
।। साधो सतगुरु बल-बल जाऊँ, सतगुरु ऊँचा प्रभ स्यों न्यारा-2 ।।
।। धर पकड़ो गुर चरनां प्यारे, मानुख देहि सो तारे-2 ।।
।। कहे ‘‘दास ईश्वर’’ चरनां चित्त लावां, ऐह जिन्दा प्रभुराया-2 ।।
।। पूरा गुरु भव भंजन हारा, सतगुरु ऊँचा प्रभ स्यों न्यारा ।।

हरिराया सतगुरु जी फरमाते हैं, सतगुरु प्रसाद, चरण भगति, सेवा, निह-प्रीत से जो दुर्लभ से दुर्लभ पदवी और जो दुर्लभ से दुर्लभ दिव्य पारस है, देह के अंदर होते हुए भी जीवात्मा उससे कोसों दूर है। आपजी ने सिद्ध ज्ञान गोष्ठी में यथार्थ वचन फरमाए कि बाबा! चारों युगों तक यानि तेरालिस लाख बीस हज़ार बरस भी पूरे सतगुरु बिना साधक शिष्य ध्यान लगा के बैठे तो भी वह परमत्व प्रसाद नहीं पा सकता। जब भजन-सिमरन के भंडारी सतगुरु की नूरी निगाह हुई, वह फल जो पिपासुवान को तेरालिस लाख बीस हज़ार बरसों तक नहीं मिला, वह सहज मिल पाता है। पूरे सतगुरु ने तवज्जूह दे अपनी कमाई का कण अर्क शिष्य की आतम में क्या रखा, आतम के अंदर निहचल अनुभव झर-झर प्रगट हो उठा, पूरे सतगुरु ने उस शिष्य की आतम के अंदर अपना निहचल रूप प्रगट कर दिया, निहचल रूप में लीन कर दिया आपै आप, सो कहा-

सतगुरु चौसठ चौरस काटे, घट दया करूणा बरसे

साधसंगत जी! पूरे सतगुरु ने सर्वमांगल्य, समत्व रूप में अमृत नाम का महादान सर्व आत्माओं को बक्शा है, दुनिया की कोई भी अनमोल वस्तु इस महादान से बड़ी नहीं हो सकती और इस महादान को पाकर सतगुरु श्रीचरणों में शिष्य के अंतरमन में बल-बल जाऊँ के भाव उमड़ पड़ना लाज़मी है, जो कि वाणी में आया-

साधो सतगुरु बल-बल जाऊँ, सतगुरु जीअरा हित चित्त प्यारे
साधो सतगुरु बल-बल जाऊँ, सतगुरु ऊँचा प्रभ स्यों न्यारा

सांईजन ने फरमाया, काल पुरुष के भ्रम जाल, डर जाल का सारा भय, पूरे सतगुरु की भक्ति, चरण-ध्यान से उड़ता जाता है, फिर आतम सत्त रूप में भावमय, भक्तिमय हो पाती है; फिर सतगुरु अमृत का महाप्रसाद घट ही घट बह उठता है, कहा-

सतगुरु नामह समरथ प्यारे, काल सदा डर डर खाये
साधो सतगुरु बल-बल जाऊँ, सतगुरु जीअरा हित चित्त प्यारे

संगता जी! हरे माधव यथार्थ संतमत वचन पूरण दर्शन उपदेश 856 में फरमान आया, हरिराया सतगुरु का पावन दर्शन, उनका तेजोमय मुखड़ा, उनकी मुस्कुराहट भी शिष्य की आतम को आनंदित कर देती है, मन की अशांत धूल उड़ा देती है, बेचैनी से हटाकर चैन देती है। आतम को अभाव से हटा भक्ति भाव को गाढ़ा करती है, उनकी शरण छांव में पावन दर्शन करते-करते आपै आप सतगुरु की किरपा मेहर से, उनके द्वारा बक्शा हरिराया का नाम भी चित्त में, स्वांसों स्वांस हम जपने लगते हैं। यह उनकी अथाह मेहर है कि हमें अपनी अध्यात्मिक आभा में, शरण छत्रसाल में बिठाया हैं।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने बालकाण्ड में गुरु सतगुरु की चरण धूलि की को यूं कथा-

बन्दउ चरण सरोज गुरु, मुदमंगल आगार
जेहिं सेवत नर होत है, भवसागर से पार
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन
नयन अमिअ धृग दोष बिभंजन

पूरण सतगुरु महाराज के श्रीचरणों की रज धूल कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन हैं जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाले हैं। पूरे सतगुरु के श्रीस्वरूप को निहारकर हमारे अंतःकरण में उसके वियोग-विरह में कभी पुकार तो कभी उलहना, डोरापे भी उमड़ पड़ते हैं पर उसमें भी हमारी आतम को आनंदित चैन सुख का गुरुप्रसाद प्राप्त होता है। गुरु प्रसाद का प्रकाश तो अथाह है, सतगुरु के माधुर्य परमानंद मुखड़े को हम जितना निहारते हैं, हमारा रोम-रोम, हमारी आतम मन के अंदर अलौकिक-सी बिजली दौड़ पड़ती है, सुरति और निरत सतगुरु ध्यान की पंगत में बैठ जाती है, यह सुखद भाव गुरु प्रसाद है। हरिराया सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी की अध्यात्मिक शरण, छत्रसाल में पावन दर्शन, परम माधुर्य परमानंद में नित्य हाजिरी देकर शिष्य संगतें निज कल्याण के मारग पर चल अपने भाग्य पर इठलाते हैं। सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी ने शिष्यों के लिए दिव्य मोती वचन फरमाए, प्रथम कमाई वाले पूर्ण सतगुरु के हुकुम में सदा अपना सीस झुकाए रखो, ऐसे ढोलण की आज्ञा की भट्ठी में खुद को पकाओ, सतगुरु के वचन अपने दिलो ज़हन में बिठाओ, कानों से सतगुरु के वचन श्रवण करो फिर उन वचनों का मनन करो तो मन शुद्ध होगा, भगति भाव बड़ेगा। यथार्थ बात यह, कि पूरे सतगुरु की सुहेली नज़र के याचक बनो, इससे आपके घट अंतर के पर्दे खुलेंगे, आपका दिल आतम आनंदित हो उठेगा।

संगतां जी! कई शिष्य आतम पूर्व जन्मों के कर्म, पुण्य प्रताप न होने के कारण सतगुरु की साधसंगत, पूरण शरण से जुड़ नही पाते, पूरे सतगुरु के देह रूप के दर्शन नहीं कर पाते; लेकिन पूरण सतगुरु अपने भजन अलौकिक मंडलों की समरथता से अपना प्रभुमय रूप भजन प्रकाशी रूप उन आत्माओं पर बरसाते हैं और उन्हें सूक्ष्म रूप या अलौकिक रूप में दर्शन दीदार बक्शकर उनकी आतम को प्रगट ज़ाहिर पूरण साधसंगत की ओर मोड़ देते हैं, बाबा! जैसे पतंग को आकाश में उड़ाना हो तो डोर कसकर पकड़नी होती है, फिर वह पतंग आकाश की ऊँचाइयों में मस्त होकर लहराती है, वैसे ही बिछड़ी आत्माओं की तार को, उनके पूर्व जन्मों के भारी कर्म प्रारब्ध के लेखों को हरिराया सतगुरु मेट कर, हल्का कर पूरण शरण में लेखे लगाते हैं। जीव अपनी प्रारब्ध कर्मानुसार भिन्न-भिन्न जाति वर्गो में जन्म लेते हैं, कभी सिंधी, कभी गुजराती, कभी मराठी, कभी जैनी या अन्य जाति वर्गो में, पर आतम तो एक ही है। पूरा सतगुरु भी परम पुरुख एकोमय है जो सर्वमांगल्य भाव से सर्वसांझी आत्माओं का उद्धार करते हैं।

हरे माधव भांगा साखी वचन उपदेश 431, सर्वमांगल्य भाव में ज़िक्र आया, अमरावती महाराष्ट्र का एक बुजुर्ग मराठी बंदा, उम्र 70 बरस, जिसे हाजिरां हुजूर सतगुरु साहिबान जी द्वारा नामदीक्षा प्राप्त, उसने अपना अनुभव सुनाया कि कुछ वर्ष पूर्व अमरावती के सहकार नगर ग्राउंड पर हरिराया सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी की पावन हुजूरी में सत्संग दीवान सजा था, मुझे मेरा मित्र सत्संग श्रीदर्शन को लेकर आया, मैं प्रथम बार ही हरे माधव सत्संग में आया, हज़ारों संगतों के हुजूम में मैं भी बैठ गया। जैसे ही मैंने सम्मुख श्रीआसन पर विराजमान हरे माधव महाराज जी के दर्शन किए, उस वक्त मैंने जो प्रताप देखा मैं कह नहीं सकता, यह तो बस मेरी आँखें, आतम मन ही जानता है। जब मैंने पावन दर्शन किया तो देखा कि ये तो वही ब्रम्हमूरत हैं जिन्हें मैं स्वप्न में मेरे विट्ठला के साथ देखता हूँ। मेरा रोम-रोम भाव भगति में डूब गया। मैं केवल मराठी भाषा ही जानता हूँ, मुझे हिंदी या सिंधी भाषा का ज्ञान नहीं है। वहाँ पर जब सेवको द्वारा हिंदी भाषा में सत्संग उच्चारण हो रहा, मुझे वहीं पर भाव प्रेम में बैठे हर एक शब्द मराठी में सुनाई देने लगा। हरे माधव सतगुरु महाराज जी के दर्शन कर मुझे विट्ठला के दर्शन हुए।

जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी

आगे उस प्यारे ने बताया, मैं बचपन से ही विट्ठला भगवान का अनन्य भक्त हूँ। जब मैं सतगुरु श्रीदर्शन के पहले, शरण से पहले विट्ठला की पूजा करता, उन्हीें को भजता पर कुछ वर्षो से मुझे विट्ठला के संग एक आलौकिक दर्शन होते, हर बार भजन प्रीत में मुझे ऐसी अलौकिक ब्रम्हमूरत के दर्शन होते। मैं यही सोचता कि आज तक मुझे ऐसे साकार रूप के दर्शन नहीं हुए, ये कौन महापुरुख हैं, जो मेरे विट्ठला के संग हैं। स्वप्न में कई बार विट्ठला का स्वरूप एवं हरे माधव बाबाजी का स्वरूप संग साथ देखता था, इन पावन दर्शनों के पश्चात् में हरे माधव सतगुरु महराज जी के श्री चरणों से जुड़ गया।

जब-जब भी आप साहिबान जी की दया रहमत अमरावती में होती, मैं श्रीदर्शन करने साध-संगत में आता। एक बार मेरे परिवार वालों ने कहा, जब भी हरे माधव महाराज जी आते हैं, तुम सत्संग सुनने जाते हो, तुम्हें तो हिन्दी समझ में नहीं आती, फिर क्यों जाते हो। मैंने परिवार वालों से कहा, दुनियाभर में कथाएं, सत्संग हो रहे हैं लेकिन आतम का उठाव, बंदगी में कहाँ हो रहा है, मैं तो हरे माधव महाराज जी के पावन दर्शन करने जाता हूँ, आप बाबाजी के सत्संग दीवान में एक तरफ पूरण रब्बी वाणी, पूरण सत्संग की बर्खा होती है, मथे हुए अनमोल वचन सेवकजनों द्वारा फरमाए जाते हैं, दूसरी ओर श्री आसन में हुजू़र गुरु महाराज जी परमत्व में लीन, खुमार में अडोल विराजमान होते हैं जिससे कि, संगतों की आतम पावन दर्शन कर, वचनों को श्रवण कर अंतरमुखी हो जाती हैं। बेशक! मेरे जैसे कई भक्तों को हिंदी या सिंधी भाषा नहीं आती, लेकिन आतम को अतुल्य अमृत आनन्द मिलता है, दर्शन दीद का और जो आनन्द मुझे विट्ठला के नाम जप से प्राप्त होता, वह गुरु महाराज जी के दर्शन तेजोमय मुखड़े का निहारकर, शरण छत्रसाल में मिलता है। वह प्रेमी भगत बस यही महिमा बारंबार मराठी में कर रहा-

सुखाचा सद्गुरु सुखरूप खेचरु
स्वरूप साक्षातकारु दाखविला
विट्ठल पहातां मावकले मन
ध्यानी भरले नयन तन्मय जाले
मी मांझे होते हे मजमाजि निमाले
जक जक गिकिले जयावरी
तेथे आनंदी आनंदु वोकला परमानंदु
नाम्या जाला बोधु विट्ठल नामें

हे मेरे सतगुरु विटठ्ला, हे सतगुरु खेचर! तू सुख देने वाला है और सुखरूप ही है। तूने मेरा अहंकार नष्ट कर दिया, मेरा मन अस्त हो गया, तूने मुझे पारब्रम्ह से मिला लिया जैसे नदिया सागर में मिल जाती है। मेरी आँखें आपके ध्यान में तन्मय हो गईं, अब चहुँओर आनन्द ही आनन्द है, यह सारा प्रताप आप सतगुरु महाराज जी के पावन दर्शनों का है।

साधसंगत जी! हरिराया सतगुरु महाराज बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के पावन दर्शन द्वारा आत्माओं को अतुल्य आनन्द प्राप्त होता है, यह सब आप पूरन सतगुरु हरे माधव बाबाजी की गहन भजन सिमरन की कमाई, अपार मेहर, सर्व कला द्वारा ही हम सभी जीवों को मिलता है, चाहे हम किसी भी जाति कौम मज़हब के हों।
एक प्यारे ने विनय अर्ज की, हे मालिकां जी! सतगुरु की पूजा में, सतगुरु सेवा, सतगुरु सिमरन, सतगुरु भक्ति, सतगुरु से अपार प्रेम का क्या परम महातम है? आप मालिकां जी भजन मुस्कुराहट में वचन फरमाए, विश्व भर में जितने भी दीपक, मोमबत्तियां हैं आप जला लें, क्या उसकी रोशनी, उसका प्रकाश सूरज के प्रकाश की बराबरी कर सकेगी? वह प्यारा हथजोड़ कहने लगा, नहीं बाबाजी! नहीं कर सकेगी।

फिर आपजी फरमाए, और दिन के समय, जब सूरज चढ़ा हो, सर्वत्र प्रकाश हो तो वह दीपक मोमबत्तियां कितना भी जलें, क्या दिन में दिखाई देंगे? क्या उस वक्त उस प्रकाश का कोई महत्व है? वह हथजोड़ कहने लगा, नहीं बाबाजी! कोई महत्व नहीं।

हुजूर जी ने परमत्व गहन निर्भीक वाणी में फरमाया, पूरन सतगुरु की पूजा, सेवा, सिमरन, भक्ति, प्रेम का यही महातम है, ये सब सूर्य के समान हैं, बाकी सारे के सारे साधन, जप-तप, कर्मकाण्ड एवं अन्य सभी उपाय मोमबत्तियों के समान हैं, सब तुच्छ से प्रकाश हैं। सतगुरु के चरण कमल, अपार प्रकाश के प्रगट पुण्ज भंडारी हैं।

मानुख देहि सो तारे, सतगुरु ऊँचा प्रभ स्यों न्यारा

जैसे महासागर का कोई थाह नहीं रहता, ऐसे ही अथाह होते हैं भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु। बेअंत सतगुरु की कथा कहना इसी तरह है मानो सूरज को दिया दिखाना। ऐसे कमाई वाले बेअंत सतगुरु के श्रीचरणों में टिक जाना, कहा-

धर पकड़ो गुर चरनां प्यारे, मानुख देहि सो तारे

सेवकजनों ने हथ जोड़ विनती की, हे सतगुरु दयाल! हम अज्ञानी शिष्य, आपकी क्या वडियाई करें, आपके श्रीदर्शन मात्र से अगणित पापी तर जाते हैं, आपकी आरती के लिए कैसे दीपक जलाएं, जब स्वयं आपसे अनगिनत सूर्य भी प्रकाश पाते हैं। आपके श्रीचरणों को कैसे धोयें जब सारे समुद्र आपके श्रीचरणों में समाए हैं। आपके सम्मुख कौन से फूल चढ़ायें जब सारे लोक-परलोक आपकी फुलवारी हैं, कौन सा भोग लगाएं जब आपके चरणों में चारों पदार्थ उपस्थित हैं। कुबेर आपका भंडारी है और माया आपकी पनिहारी, आपकी आरती के लिए कौन से बाजे बजायें जबकि आप तुरिया अवस्था के पार, सुन्न शिखर पर सुशोभित हैं, जहाँ अविरत शब्द का शाही बाजा बज रहा है।

हे मेरे मालिकां जी! आपके पावन श्रीचरण कमलों पर सब कुछ न्यौछावर, न्यौछावर, न्यौछावर। बस दामन फैलाए भाव भरी यही विनय, चरनाां चित्त लावो सांई जी, हमें अपने चरण कमलों की सच्ची प्रेमा भगति, साचा प्रकाश बक्शो दया करो हरे माधव बाबाजी, मेरे सतगुरु दातार जी।

।। कहे ‘‘दास ईश्वर’’ चरनां चित्त लावां, ऐह जिन्दा प्रभुराया-2 ।।
।। पूरा गुरु भव भंजन हारा, सतगुरु ऊँचा प्रभ स्यों न्यारा ।।

हरे माधव   हरे माधव   हरे माधव