|| हरे माधव दयाल की दया ||

।। चल हंसा धाम अपने, करो संगत सदा परम हंसा।।
।। कर हंसा सो भगति, छोड़ चलो काल की जुगति।।
।। दास ईश्वर हंसन की गति सदा ही गायी।।
।। मेरे हरे माधव पुरुख, जो सोझी दीनो।।
।। न्यारा राम अरूप नामा, इह जुगति पूरे संतन ते पायी।।

प्यारे सत्संग प्रेमियों, गुरूमुख जनों आप सभी को हरे माधव हरे माधव। भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु के श्रीचरण कमलां में हम सबका नमन वंदन सजदा परवान हो। आइये आज हम सब हाजि़रां हुज़ूर सतगुरु सच्चे पातशाह बाबा ईश्वरशाह साहिब जी द्वारा उच्चारित ऊँची समझाईश की पावन रब्बी वाणी का हुकुम श्रवण करें। सतपुरुख सदा युगों-युगों सनातन काल से रूहों को परमात्मा में एक होने की राह बक्शते हैं, वे हमें याद दिलाते हैं, कि पूर्णता के मालिक, परमहंस सतगुरु की संगत-शरण में आकर ही जीवात्मा हंस गति कर गुरुमुखता को धारण करती है पर मनमुख जीव सदा बगुलों की भांति आचरण करते हैं। आपजी वाणी में फरमाते हैं-

चल हंसा धाम अपने, करो संगत सदा परम हंसा
कर हंसा सो भगति, छोड़ काल की जुगति

वक्त के पूर्ण संत सतगुरू जब भी इस धरा पे आए, सभी को चिताया कि ऐं हंस रूपी आत्माओं! आओ, पूरण सत्संगति से जुड़ो, सतगुरु नाम की बंदगी कर अपने अकह प्रभु मालिक से जा मिलो। आत्मा, उस अकह प्रभु मालिक के देश सचखंड से ही इस धरती पर आई है, उसी सचखण्ड में आत्मा की सदा अखण्ड खुशी, अक्षय सुख है।

अब प्रश्न आता है कि आत्मा रूह उस देश में कैसे जाए? साधसंगत जी! यह तभी संभव है जब आत्मा को वक्त का पूरण सतगुरु मिले क्योंकि वे ही अकह प्रभु मालिक में एक हो चुके हैं और हम सभी को उसमें एकाकार करने आए हैं, अपनी किरपा मेहर, युक्तियों द्वारा, पावन उपदेशों द्वारा जीवजगत को उस राह से जोड़ते हैं। जिस तरह एक कुशल तैराक ही किसी को तैराकी सिखा सकता है, उसी तरह परमहंस पूरण सतगुरु, हंस रूपी आत्माओं को काल की कैद से छुड़ाकर मन से पार कर अकह हरे माधव प्रभु में, सचखण्ड में पहुँचा सकते हैं। गुरुवाणी में आया-

कई जन्म भये कीट पतंगा, कई जन्म गज मीन कुरंगा।
कई जन्म पंखी सरप होयो, कई जन्म हैवर बिख जोयो।
मिल जगदीस मिलन की बरिया, चिरंकाल एहै देह संजरिया।
कई जन्म सैल गिरि करिआ, कई जन्म गरभ हिरि खरिआ।
कई जन्म साख कर उपाइया, लख चौरासी जोनि भ्रमाइया।
साध संग भयो जनम परापत, कर सेवा भज हर हर गुरमत।
त्याग मन झूठ अभिमान, जीवत मरह दरगह परवान।
जो किछ होआसि तुझ ते होग, अवर न दूजा करने जोग।
ता मिलिए जा लेहि मिलायी, कहु नानक हर हर गुन गाये।

अब सवाल यह कि काल की कैद का भाव क्या है?हाजिरां हुजूर गुरु महाराज जी फरमा रहे हैं, कि ऐ प्यारों! हमारी आत्मा ने एक तत्व से पाँ तत्व में आ, चौरासी लाख जनमों में आकर कितने दुख और तकलीफें सहन की हैं। न जाने कितने युग, बेबस पत्थर का जनम लेकर गुज़ारे हैं। जब पेड़-पौधों के आकार में हमारी आत्मा उगी, अंकुर बने पर भेड़-बकरियां चट कर गई या गाय-भैसों ने खुरों से कुचल डाला। जब कीट पतंगे कीड़े बन उड़े, तो उमर खत्म हो गई, बारिश के मौसम में देखो, कुछ समय तक पंखुडि़यां निकलीं, पर पक्षियों ने निगल लिया। अब उन पतंगों के स्तर से ऊपर उठे और पक्षियों के स्तर तक गए, पर हुआ क्या? बना कुछ नहीं वरन वर्षा, आंधी, तूफान से घोंसले का तिनका-तिनका तक उड़ गया।

जब मछली का आकार मिला, तो कितनी ही बड़ी बड़ी मछलियों ने हमें खा लिया। जब हिरन का जन्म मिला, तब लम्बी छलांग, फुर्तीला शरीर तो पाया, पर तब भी शेर, चीतों, भालूओं ने चीर-फाड़ कर, खा लिया। फिर आगे उड़े और हाथी, घोड़े, बैल बने, शक्तिशाली चर्म देह मिली, पर दूसरों का बोझ ही ढोते रहे, अपना क्या संवारा, क्या कमाया? और अब पंच तत्व की ऊँची मानव योनि में भी धन कमाने, सुख-आराम के पीछे भागते रहे और पता ही नहीं चला कि कब अंत समय आ गया। हमेशा ही मौत सिर पर खड़ी रही, काल खड़ा ही रहा। एक जनम से दूसरे जनम में आत्मा घूमती रही। आत्मा के भिन्न-भिन्न शरीरों को धारण कर छोड़ देना यानि इसी जनम और मरण को ही काल की कैद कही गई, चौरासी का फेरा कहा गया।

प्यारे सत्संगियों! याद रखो, हर एक योनि, हर एक जनम के अपने दुखड़े, तकलीफें और बखेड़े हैं, स्थाई सुख, सच्ची शांति, सच्चा आनंद किसी जामें में नहीं मिलता। इसीलिए साहिब जी समझा रहे हैं, कि इन्सानी जन्म ही एक ऐसा सुअवसर है, जिसका लाभ उठा, जीवात्मा जन्म-मरण के चक्र से छूट, स्थाई सुख, चिर थिर आनन्द को प्राप्त कर सकती है। साधसंगत जी! काल की कैद से जीते जी ही छूटना है। पूरण हरिराया सतगुरु की हुकुम आज्ञा में रह सतगुरु भक्ति द्वारा इस काल कर्म के बंधनों से ऊपर उठना है क्योंकि कर्म बंधन तो सभी को भोगने ही हैं, हंसकर या रोकर, सो सदा शुक्र कर भाणे में रहकर सतगुरु भक्ति करें। कर्म बाधक नहीं है, अज्ञानता बाधक है।
हुजूर महाराज जी फरमाते हैं कि अच्छे कर्म करने वालों को कुछ समय के लिए स्वर्ग अर्थात सोने की हथकडि़याँ और मैले कर्म करने वालों को नरक याने लोहे की हथकडि़याँ, हैं तो दोनों कैदी ही।

अगर परम पद प्राप्त करना है तो इन दोनों की कैद से, कर्मां से मुक्त होना होगा। ऐ रब के अंश! उन्हीं गुरुमुखों के कर्म लेख कट जाते हैं, जो सतगगुरु श्री चरणों की भक्ति में मन से रमे रहते हैं, श्री दर्शन करते हैं, साधसंगत में सेवा, नाम भक्ति से लिव लगाते हैं।
मन की दुविधाओं में फंसी ऐ रूह! कर्मां का खेल बड़ा पेचीदा है, सभी कर्मो का फल भोगना ही है-2 जो कर्म जीव ने पूर्व में किए, उनका फल आज भुगतना है, जो कर्म आज किए, उन्हें भी कभी न कभी भोगना ही है। काल चौरासी की जुगत तब से बनी, जब से आत्मा रूपी हंस अपने कुल-ए-मालिक से अलग हुइंर्, अब यह कर्मां का घेरा, तब ही समाप्त होगा, जब बिछुड़ी आत्मा, वापस अपने अंशी स्त्रोत अकह प्रभु में जा पहुँचे। पूरण सतगुरु की मेहर से ही अंश आत्मा अपने अंशी हरे माधव प्रभु कुल-ए-मालिक से मिलाप पाती है।
सतगुरु बाबाजी सत्संग वचन वाणी से समझा रहे हैं-

एह जग ठौर ठिकाना न किसका,
चल बैठ प्यारे, सतगुरु संगत नाव किनारा।

फरमाया कि तुम सब पूरण सत्संगति नाव में आओ और सतगुरु श्रीचरणों में प्रेम विश्वास को पुख़्ता कर सिमरन, ध्यान की कमाई करो, तब हरे माधव अगम लोक में ठौर पा सकते हो।

चल बैठ प्यारे, सतगुरु संगत नाव किनारा

हुजूर महाराज जी नसीहत दे रहे हैं कि प्यारों! हमारी अकह नीति को समझो, तुमने सत्य जागृत अंतरमुखी भक्ति को भूल कर, तुम खोटे सिक्कों पर अर्थात बाहरमुखी भक्ति, तीर्थ-स्नान, पूजा-पाठ, जप-तप, ज्ञान-ध्यान, होम-हवन-यज्ञ आदि में राज़ी हो गए हो, पर याद रखना, हो सकता है कि इस सिक्के से तुम्हें इस संसार में थोड़ा-बहुत सुख या अन्य पदार्थ मिल जाऐंगे, पर इस बाहरमुखी भक्ति रूपी खोटे सिक्कों के सहारे, कच्चे गुरुओं के सहारे, तुम भव सागर के पार नहीं जा सकते, तुम इस संसार से नहीं उबर सकते।
यह खोटा सिक्का केवल इसी किनारे अर्थात् इसी लोक में चलता है, उस ओर अर्थात् परम अनामि अकह हरे माधव लोक में तो केवल पूरण सतगुरु भगति और उनके द्वारा बक्शे सतगुरु नाममंत्र भजन सिमरन की कमाई ही चलती है। बिना पूरण सतगुरु के कोई भी भवसागर से न तो पार हुआ है और ना ही होगा।

मत को भरम भूले संसारा, गुरु बिन कोउ न उतरस पारा

साधसंगत जी! गुरु महराज जी की अनन्त लीलाएं करूणा कुर्ब मेहर श्रवण कर आतम में भाव-भगति के मोती पिरोए जी। जि़क्र आता है, अगस्त 2014, रविवार के दिन, आप आप हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी हरे माधव गुरु दरबार में, सत्संग दीवान में सुशोभित, आसन पर विराजमान, संगतें दूर शहरों एवं अन्य नगरों के सेवकगण आप हुजूर महाराज जी के श्री चरणों में नमन वंदन कर रहे, कोई परमार्थ के अभिलाषी, कोई संसारिक सुखों की चाह लिए, आप हुजूर महराज जी सभी पर किरपा मेहर अमृत श्री वचनों की ज्ञान गंगा उन पर बरसा रहे थे, गोंदिया (महा.) का एक शिष्य अपने परिवार के साथ, सतगुरु श्री चरण कमलों में अकीदा, दिल प्रेम से भरा, आंखे सतगुरु प्रेम में तर, दीनता प्रीत से अर्ज कर कहने लगा, मालिकां जी मेहर करें, सतगुरु जी हमारे नए घर को पवित्र कीजिए, जब तक आपजी श्री चरण घर में नहीं धरेंगे, हम नहीं बैठेंगे।

आप हुजूर महाराज जी ने मुस्कुराकर फरमाया, जब घर का काम पूरा हो जाएगा, तब आऐंगे।

वह हर बार दूर शहर से आता, अर्जियां विनय पुकार करता, शहंशाह जी! आपका घर तैयार हो चुका है, हम खादिम गुलाम हैं, तब आप हुजूर साहिबान जी फरमाते, 2-3 साल रुकोगे? वह कहता, सच्चेपातशाह! हम गुलाम हैं, सेवक हैं, मालिक आप हैं, आपने ही सब किया है, आपका हुकुम सिर माथे।

साधसंगत जी! उस प्रेमी भगत को, रिश्तेदार, मित्रगण सब ताना देते रहे लेकिन वह सतगुरु हुकुम आज्ञा में रह सदा शुक्र भाणे में रहता। एक दो साल गुजर गए, क्योंकि जिस पुराने घर में रह रहे थे, वह कच्चा बना था, बारिश पड़ती तो पानी अंदर गिरता, लू में गरम हवा के थपेड़े सहते, ठण्ड में भारी ठण्ड को भी सहते, मगर दिल में सतगुरु प्रीत का मौसम बना रहता, वह गुरु का प्यारा हर बार, अर्ज करता और आपजी सदा यही फरमाते अभी नहीं। भगत कहता, सच्चे पातशाह जी! घर में आपजी का आसन बनाया है, आपजी विराजें, मेरी कुटिया को पावन करें बाबाजी, मेहर करें। हुजूर महराज जी की कृपा उस भगत पर हुई।

आपजी ने वचन फरमाए, तैयारी करो, इस बार आऐंगे, आप भगत वत्सल साहिब जी उनके घर पधारे, साथ में सेवकजन संगतें भी। हुजूर महाराज जी के श्रीचरणों से उस प्यारे का घर पवित्र पावन हुआ, आप साहिबान जी श्री आसन पर विराजमान, दया मेहर कर आपजी ने श्री वचन फरमाए कि सतगुरु नाम की कमाई से आत्मा निजघर का सुख पाती है, हम नाम को जपकर, सतगुरु के नाम प्रताप से, सिमरन कर निर्मल सुख के अधिकारी बनते हैं, संसार की कोई वस्तु हमारे साथ नहीं जाती, केवल और केवल सतगुरु नाम ही सुरति का सच्चा साथी है।
जब आप गुरु महाराज जी श्री वचन फरमा रहे थे, आपजी के मुख मण्डल को निहार-निहार कर, उस प्रेमी शिष्य सेवादार की माताजी बड़े प्रेम प्रीत से, सतगुरु श्रीस्वरूप में गाढ़ा प्रेम कर, अमृत वचन श्रवण कर रही थी।

माताजी की सुरति श्री चरण कमलों के ध्यान में मगन हो गई, उत्तम प्रेम, संस्कारी आत्मा, जब सतगुरु नाम से सुरति जुड़ी, तो माताजी की रूह धुरधाम सचखण्ड के अलौकिक नजारों में डूब गई, उनकी आतम बस वाह-वाह, शुक्र-शुक्र का भाव कर रही जो माताजी के चेहरे से साफ झलक रहा था, जब पिण्ड देश में याने स्थूल शरीर में उन माता की रूह वापिस आई, तो भावुक हो उठी, आप साहिबान जी को निहार रहीं, आँखों से अश्रु बह रहे, श्री चरणों में आकर जो दीद दरस कर अंतरमुखी नज़ारे आतम ने अनुभव किए, वह माता बोल उठीं, हृदय से सदके के भाव, ‘‘सदके वन्या बाबा ईश्वरशाह तां, सदके वन्यां बाबा ईश्वरशाह तां’’ माता कहने लगी, हम सौभाग्यशाली हैं, मैंने अभी नाम सिमरन करते वक्त देखा कि आप हुजूर महाराज जी बड़े ही अलौकिक सुशोभित, सिहांसन पर विराजमान हैं, रिद्धियाँ-सिद्धियाँ आपजी के दोनों ओर चंवरे झुला रही हैं, खण्डों ब्रम्हाण्डों के मालिक आपजी के श्रीचरणों में देवी-देवा देव सेवा भाव से इर्द-गिर्द हाथ जोड़ बैठे हैं, वहाँ बैठी संगते कुछ समझ नहीं पा रही थीं, हुजूर महाराज जी ने हाथ से इशारा कर कहा, बस अब और कुछ मत कहें माताजी। माताजी ने श्रीचरणों में सर रखा, आप हुजूरों ने दया रहमत का हथ रख फरमाया, भला होगा, आंतरिक मंडलों की और कमाई करें, भला होगा। पूरे परिवार ने अर्ज किया, सच्चेपातशाह जी! नामदान की मौज जब शुरू हुई थी, तब से हमारी अर्जी विनय लगी हुई है सतगुरु नाम बक्शीश की, लेकिन नामदान आजतक हमें नहीं मिला। रहमत मेहर कर बाबाजी बक्शे हमें बक्शें, अगले दिन आप साहिबान जी ने पूरे परिवार को अमृत नाम की बक्शीश की एवं परिवार को वचन फरमाए, घर में जो नाम सिमरन का कक्ष बनाया है, वहीं बैठकर रोज भजन सिमरन किया करें, नितनेम रखें।

पूरे परिवार ने हुजूर महाराज जी की आज्ञा का पालन कर भजन सिमरन का अभ्यास निरंतर जारी रखा। कुछ दिनों के बाद उस सेवादार की माता जी ने शरीर छोड़ दिया, सभी के मन दुखी। परिवारवालों के दिलों में भिन्न-भिन्न कच्चे विचारभाव, कुछ संकीर्ण भाव संशय उमड़ने लगे कि अभी कुछ दिन पहले ही गुरु साहिबान जी पधारे थे, नामदान भी मिला और अब अचानक हमारी माताजी ने शरीर छोड़ दिया। कुछ दिन बीतें, कच्चे विचारों से घिरे परिवार सभी के मन में कच्चे ख्याल आने लगे, परिवार वालों का नाम भगति में, सिमरन में मन न लगता। कुछ दिन बीते, कच्चे विचारों से घिरे परिवार के एक सदस्य ने एक दिन सोते समय अमृतवेले यह दृश्य देखा कि सतगुरु सच्चे पातशाह बाबा ईश्वरशाह साहिब जी बहुमूल्य माणिक रत्नों के आसन पर सुशोभित हैं, उस वक्त सूर्य देव का प्रकाश भी लज्जित दिखाई दे रहा था, श्री चरणों में हमारी माता अम्मां बैठी थीं, चारों ओर आनन्द दायक आभा के चक्र घूम रहे हैं, तभी उस प्यारे की नींद खुल गई, वह झटके से उठ खड़ा हुआ, सुबह होते ही घर में तथा मित्र इष्टों को नींद वाले अलौकिक दृश्य की बात बताई।

यह सब सुन सभी के दिलों में साधुवाद उत्पन्न हुआ, कच्चे भाव दूर हो गए, सतगुरु मेहर से मीठी प्रेम की लहरें, श्री चरण कमलों में गाढ़ा प्रेम पैदा हुआ। सभी हुजूर मालिकां जी का बारंबार शुक्राना करने लगे कि हमारी माता को हरिराया रूप सतगुरु बाबा जी ने अपने श्रीचरणों में ठौर दिया, हमारी माताजी की आतम का आवागमन काट दिया और हम थे कि अपने मनों में भिन्न-भिन्न कच्चे विचार, सौंसे ला रहे थे। पूरे परिवार ने उसी समय सिमरन कक्ष में बैठ अरदास कर भजन सिमरन किया। प्यारी साधसंगत जी! जिन रूहों ने भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु की मेहर से, सतगुरु भक्ति, नाम बंदगी की, वे रूहें मुख ऊजल होकर दरगाह में जाती हैं, उनके पूरे कुल का उद्धार हो जाता है।
जिनका परिवार पूरण साधसंगत, भजन सिमरन, सतगुरु भक्ति से जुड़ा है, वे सब वड्भागी हैं। प्यारों! भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु अपने प्रेमी भक्तों की सार संभाल स्वयं करते हैं। जो भक्ति भाव से भरे हैं, उनकी रूह को मुक्तता के देश में अपना हाथ पकड़ कर ले चलते हैं पर हम अज्ञानी जीव उनके पूरण परमेश्वरी रूप को नहीं पहचान पाते। ऐ रब के अंश! जानने के लिए पूरण सतगुरु भक्ति ही आतम का मीठा सोपान है। जिनकी आतम गुरु नाम संग जागी है, उनके लिए हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी द्वारा फरमाई हरे माधव वाणी में आया-

सो जन होवै वड्भागी, जो सतगुरू नाम दृढ़ावे अनुरागी
गुरूमुख नाम सदा सुख दाता, एक चित्त होय जो ध्यावै सो सच समाता
दास ईश्वर सतगुरू चरण संगत का बौरा, इक मन इक चित इक ठौरा
धन धन सो सो जन वड्भागी, जिनकी आत्म नाम गुरूमत संग जागी

गुरु महाराज जी फरमाते हैं, जीव का यह स्वाभाव है कि वह हर समय किसी न किसी का सिमरन अथवा चिंतन करता ही रहता है, एक पल के लिये भी वह खाली नहीं रहता। संत सतगुरु समझाते हैं कि ऐ प्राणी! तुझे सिमरन चिंतन मैडीटेशन तो अवश्य करना है, लेकिन ऐसी शाश्वत वस्तु का जिससे तेरा यह लौकिक और परलौकिक जीवन भी संवर जाये। वह शाश्वत वस्तु है सतगुरु नाम।

सो जन होवै वड्भागी, जो सतगुरू नाम दृढ़ावे अनुरागी

इसलिये नाम का सिमरन मैडीटेशन हर घड़ी, हर पल, स्वांस-स्वांस में करना है, क्योंकि जीवन की घडि़याँ तो निरंतर बीती जा रही हैं, अगर यह मौका गंवा दिया तो जन्म-जन्मों तक पछताना पड़ेगा। सो जीते जी, साधसंगत जी जीते जी, आतम को नाम संग जोड़ों, उठो, नया सेवरा है, सतगुरु भक्ति से जुड़ो। यह जो दुर्लभ जनम तुम्हें प्राप्त हुआ है इसे आलस्य एवं भटकने में मत गंवाओ, सतगुरु भजन सिमरन करो।

धन धन सो सो जन वड्भागी, जिनकी आत्म नाम गुरूमत संग जागी

साधसंगत जी! आतम जन्मों-जन्मों से सुप्त अवस्था में है। जब तक आपकी आतम नहीं जगी तब तक जन्मों-जन्मों का संसा नहीं टूटता और बाहरमुखी भक्ति, ज्ञानी-ध्यानी आतम को जगाने का जागृत अवस्था का तुझे मारग नहीं दे सकते।  वक्त के जागृत हरिराया पूरण सतगुरु के बिना कोई भी तुझे जगा नहीं सकता। आप हाजिरां हुजूर सच्चे पातशाह जी पावन हरे माधव वाणी द्वारा आतम को जगाने की सोझी बक्श रहे हैं-

समरथ हे आत्मा, जागो तू जागो तू-2
गुरू नाम से जागो तू, गुरू ध्यान से जागो तू
जग ना तुझको है जगाए, ज्ञानी-ध्यानी नाहिं मारग देवे
जनम जनम का टूटे न संसा, जे तू जागे नाहीं रे
यह देही तो ऊँची देही, तरसे केते देव रे-2
छूट न जाए फिर यह चोला, बेला सुहावा भाने तू मेरा
छोड़ के तू मान झूठा, साची सेव कमा ले
मैल धोवे नाम रंग ते, आतम तीरथ न्हावो गुरू शबद से-2

कौन है तुझे मारग देवे, गुरू पूरे बिन अंधा जग यह
अजब कहानी अलख जुबानी, कहत है यह दास ईश्वर तो

हरिराया सतगुरु की सत्संगति से जुड़ने वाले शिष्य जब सतगुरु नाम में पुख़्ता अभ्यासी हो जाते है, सांची सेवा कमाते हैं तब उनके मन पर चढ़ी विकारों की मैल धुल जाती है, मन आतम निर्मल हो जाती है।

छोड़ के तू मान झूठा, साची सेव कमा ले
मैल धोवे नाम रंग ते, आतम तीरथ न्हावो गुरू शबद से

ऐ रब के अंश! यह सब अजब वड्याई पूरे सतगुरु की है। पूरे साधू का उत्तम गुण यह कि, भजन सिमरन की भारी कमाई कर, अकह पारब्रह्म को अंतर में प्रगट कर लेते हैं अपने घट-अंदर आत्मिक बोध के परम सूर्य का अनुभव कर लेते हैं और जब पूरण सतगुरु की संगति जिन आत्माओं को भायी, तो यह अनुभव उन्हें हो गया, कि किस तरह सूक्ष्म रूप से सतगुरु हमारे अंग-संग है, तब रूह का द्वैत से निपटारा हो गया और बहुमूल्य सांचा मारग रूह को मिल गया, जिसके सामने बहुमूल्य रतन, हीरे-मोती मामूली पत्थरों के समान तुच्छ हैं। फिर रूह का अकह हरे माधव प्रभु से मिलाप हो गया और वह भौतिक सुखों से ऊपर उठ, अमृत नाम आतम आनन्द से भर जाती है, वह दीन नम्र बन जाती है।

कौन है तुझे मारग देवे, गुरू पूरे बिन अंधा जग यह
अजब कहानी अलख जुबानी, कहत है यह दास ईश्वर तो

पूरण सतगुरु नाम का सिमरन अभ्यास कर, शिष्य जब अंदर से जुड़ते हैं, तो अकह हरिराया प्रभु, जो अंदर समाया है, उसे निहारने की सोझी आ जाती है, यह सब उन्हीं खुश किस्मत वालों के साथ होता है, जिन पर असीम किरपा होती है, जिनका धुर दरगाह से लेख लगा है। वे ही ऐसी पावन संगति का मूल्य जानते हैं, बाकि तो खोटे सिक्के याने मनमुख बगुले हैं। सो नित्य साधसंगत में आकर गोता लगा मनमुख बगुले की वृत्ति को हंस वृत्ति में बदलने का यतन करो आसरा मांगो।

संगतों! प्रगट सतगुरु ऐसी अथाह ताकत का हाजिर रूप है, वह नाम शबद का दान देकर शिष्य के अंतर दिव्य रूप में बैठ जाते है। हर क्षण हर पल वह अमृत नाम रूप में सूक्ष्म रूप से हमारी सार-संभाल करते हे। हमें आतम बल प्रदान करते हैं और जब शिष्य भगत नाम की कमाई व सतगुरु से सच्चा प्रेम करते हैं, तो हरिराया सतगुरु लोक-परलोक में उनकी रसाई करते है।

पूरन संत निर्विकारी सुखों के भण्डारी हैं, अक्षय भण्डार के मालिक हैं, वे अजन्में हैं और अजन्मी ताकत ही बक्शते है, अब इस संसार में हम देखें, जिसके पास जो होता है, वह वहीं बांट सकता है। जिसकी आंखों में जो तस्वीर है, वह उसे ही बयां कर सकता है। हरिराया रूप सतगुरु भजन सिमरन के भण्डारी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी परम मुक्तता के भण्डारी जीवात्माओं को नाम का सुख मुक्तता का प्रसाद अमीरल रस भरभर कर दे रहे हैं।

Perfect True Master is the treasurer of flawless joy. It is quite obvious that one shares whatever one possesses, one can describe whatever one beholds in one’s eyes. The treasurer of Bhajan Simran and supreme liberation, His Holiness Satguru Baba Ishwar Shah Sahibji mercifully bestows the beings with the holy ambrosial prasad of salvation.

प्यारी साधसंगत जी! पूरन सतगुरु रूह आतम के कल्याण वास्ते जगत में प्रगटे हैं, पर हम जीव अक्सर सतगुरु चरणों में आकर तन के सुख, भौतिक पदार्थो की माँग करते हैं, याने आतम के शाश्वत सुख को छोड़, क्षणभंगुर दुनियावी सुख की ओर गमन करते हैं, प्यारे सतगुरु हमें हर बार चिताते हैं, ताकीद करते हैं, कि दुख-सुख देह का धर्म है, जो कर्मों के अनुसार सभी जीवों को भोगना ही है। सुखो में शुक्र-शुक्र करें, दुखों में सत्त-सत्त भाणा मान सतगुरु भक्ति, भजन सिमरन करें।

गुरुमुख संगतों! पूरा सतगुरु वड् वड्यिरा शहंशाह, सर्व कलाओं से भरपूर दातों को देने वाला दातार है, जब हम गुरुचरणों से प्रीत निह रख, नाम बंदगी का कसकर अभ्यास करते हैं, तो देह के दुख, संसार की सारी परेशानियां तकलीफें तुच्छ सी मालूम पड़ती हैं।
ज्यों-ज्यों गुरुभक्ति गाढ़ी होगी, तन की पीड़ा और संसार के कष्ट भी मीठे प्रतीत होंगे, हर पल मन में यही ख्याल उमड़ेगा कि सब मेरे सतगुरु प्यारल की दया मेहर भाणा है।

सो प्यारी साधसंगत जी! शरीर सबका छूटना है, आत्मा अजर अमर है, अब जो नाश्वान है, उसकी मांग का क्या फायदा, जो अविनाशी रूह आतम है, उसके कल्याण की विनती याचना करें, सतगुरु भगति, सत्संग नाम सिमरन, भजन, ध्यान बंदगी में बरकत की याचना करें। कि हे सतगुरु दयाल! शरणी रूहों को आतम बल बक्शो, निष्काम सेवा, शबद नाम के अभ्यास में ऊँची बरकत बक्शो, अपने श्री चरणों में सदा जोड़े रखें बाबाजी, अपने श्रीचरणों में सदा जोड़े रखें।

हरिराया सतगुरु शरण में जो आते हैं, वे सतगुरु की रहमत किरपा से निहाल हो जाते हैं, जीवन में आपने सब कुछ कमा लिया, पर सतगुरु मेहर किरपा न कमाई तो समझिये, आपने अब तक कुछ नहीं कमाया, तुलसीदास जी ने रामायण में कहा है-

संत समागम हरि कथा तुलसी दुर्लभ दोय
सुत दारा अरू लक्ष्मी पापी के भी होय

अर्थात् पुत्र, पत्नी, धन तो पापी, पुण्यात्मा सभी को हो सकता है। कहा दुर्लभ दोय यानि पहला सतगुरु शरण और दूसरा सत्संग दुर्लभ ही मिलता है, जहां सतगुरु सेवा, सतगुरु भगति जीव कमाता है, और इसका फल अमिट है। क्योंकि सब कुछ सुत दारा अरूलक्ष्मी, सब यहीं छूट जाना है, चलना तो केवल और केवल सतगुरु नाम भगति है, सो उसे कमाए।

प्यारी साधसंगतों! मालिकां जी की अपार करूणा कुर्ब रहमतें हम जीवों पर बरस रही हैं, बरखा की तरह। मेघ मौसम बेमौसम बरसते हैं, कुल मालिक प्रभु रूप सतगुरु की मेहर रहमतों की बरखा, हर पल अनवरत बरसी जा रही है। हरे माधव पंथ का मत यह कि रूह उन पद, उन मंडलों में रसाई करे जहाँ कोई भी शब्दों के भेद न हों। आप हुजूरों ने हरे माधव रूहानी पंथ की नींव रख आत्माओं को सोझी दिखा, आत्माओं को सच्चा नाम बक्श कर, अंतरमुखी निजता की राह दी है, हर पल हम सभी का आनन्ददायक मंगलकारी खुशीयां बक्श रहे हैं, आपजी की किरपा मेहर से अनगिनत रूहें उन आंतरिक मंडलों में रसाई की राह पर चल रही हैं।

हरिराया सतगुरु एक शरीर नहीं हैं, वे एको पारब्रम्ह की एको ताकत हैं, जो मानव तन के भीतर रहकर भक्तों को जागृत आंतरिक पथ से जोड़ते हैं, रूहों को हरे माधव चैतन्य लोक में पहुंचने का बल प्रदान करते है। आइये साधसंगत जी, आप हम सभी प्यार सिदिकमय अर्ज करें, हुजूर महाराज जी! हम आप से यही विनती कर रहे हैं कि आप हमें अपने धुरधाम हरे माधव अनामि लोक ले चलिए, क्यांकि तेरा देश निर्मल से निर्मला है पर हम सब बडे़ ही मैले भारी गंदले हैं, अवगुणों से भरे हैं। हथजोड़ दामन फैला, बस इतनी अर्ज विनय करते हैं कि तेरे श्रीचरणों की भजन बंदगी में यह मन भीगा रहे, बाबाजी यह मन भीगा रहे।

सच्चे पातशाह जी! हम गुनी अवगुनी जैसे भी हैं, तुम्हारे हैं हमारे अंतरघट में बहुत अंधेरा है हम मैले गंदले जैसे भी हैं तुम्हारे ही हैं हमें इस जन्म मरण के घरों से उबारों। गुरुमहराज जी हमारी न कोई बंदगी भगति सच्ची है न ही हमारा मन निर्मल है। हम मुख से क्या विनय करे आप घट पट के जाननहार हमारी मन की दशा को भलीभांति जानते हैं, हम जन्मों-जन्मों से भटके हैं हमारा रोम-रोम यही पुकार कर रहा है, मेरे माधव दीन मुरारे मोहिं तू उबार अबकी बार उबारो, दया करो मेरे सतगुरु जी, मेहर करो मेरे माधव जी।

।। दास ईश्वर हंसन की गति सदा ही गायी।।
।। मेरे हरे माधव पुरुख, जो सोझी दीनो।।
।। न्यारा राम अरूप नामा, इह जुगति पूरे संतन ते पायी।।

हरे माधव   हरे माधव  हरे माधव