|| हरे माधव दयाल की दया ||
।। मैं बात कहूँ सदा, भगति कमाओ गुरुमुख प्यारे।।
।। भगत धन ही सार धना है, गुरुमुख हरि भगति कमावो।।
प्यारे सत्संग प्रेमियों! प्यारे सतगुरु बाबल दयाल की पावन ओट छाया में बैठी संगतों हरे माधव।
यह मीठी पावन वाणी सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी द्वारा फरमाई अमृतमयी वाणी है। आपजी तमाम कुल दुनिया को समझाते हैं, कि भक्ति धन सबसे सच्चा धन है, सनातन काल से जो भी साहिब के मुल्क में पहुँचे, उन्होंने पहली बात यह जानी, कि प्रत्यक्ष सतगुरु शरण ही सर्वोपरि है और उसी में सच्ची श्रद्धा, प्रेम बिठाकर, उन्होंने भाव भक्ति का प्याला पिया। आज हर इन्सान सुखी होने की गहरी इच्छा रखता है, आम तौर पर हर एक शख़्स सुखी होना चाहता है और दिन-रात इसी फिकर में गला जाता है, कि कहीं से उसे सुख की कुंजी मिल जाए। बिचारे इन लोगों को दिन-रात, आठों पहर मन भरमाता फिरता है और वे उस सुख की कुंजी को खोजते हुए अनेक पुरुषार्थ करते नज़र आते हैं। दुनिया तमाम में साधन तो भिन्न-भिन्न हो रहे हैं, यतन अलग-अलग हैं, पर सबका उद्देश्य एक ही है, कि सुख, चैन, आनन्द, शान्ति का कोई सामान मिल जाए, पर बड़ी हैरत वाली बात है, इतने यतन पुरुषार्थ होने पर भी, इक क्षण का सुख नसीब नहीं। हर किसी को चिन्ता खा रही है, सुलगा रही है।
राजे-महराजे, बच्चे, युवा, वृद्ध, अमीर-गरीब, यहाँ तक कि जोगी, जपी-तपी, ज्ञानी, हर एक जीव, इन संतापों, दुखों की अग्नि में ईधन की तरह, जल रहे हैं। यदि नसीब से किसी को थोड़ा बहुत सुख मिल भी रहा है, तो भी वह दुखों से खाली नहीं है, समझाने का भाव यह कि कुल दुनिया में नज़र निगाह डालें, तो कोई भी ऐसी जगह नहीं बची है, जहाँ दुख संतापों रूपी भ्रम के बादल न घिरे हों।
आम तौर पर ऐसे ख्यालात इन्सान के अंदर भरे रहते हैं, कि धन की गठरी मिल जाए, तो मैं सुखी हो जाऊँ, यतन भी करते हैं, उसे पाने को और मान बैठे की सुखी हो जाऐंगे और जैसे ही कुछ कमाया तो संदेह चिन्ता आ उभरी, कि कहीं कोई उड़ा न ले, चैकीदार खड़े कर दिए, फिर सारे बेगाने दुश्मन नज़र आने लगे। सैकड़ों फिकरों अन्देशों को दिल में रख बड़ी आस थी, कि सुखी हो जाऐंगे, पर उल्टी जान, मुसीबत में पड़ गई, क्योंकि तृष्णा ने पांव फैला दिए, अंदर में तृष्णा उठी, आशा इस तरह बढ़ गई, कि दिन-रात उसी दुनियावी चीजों की याद में रहते, उसे कमाने का ख्याल भी पुख्ता होता गया।
हम जन लोग बाहरमुखी भक्तियां करते हैं, पर सुख कहाँ टिका है, वह तो केवल तभी मिलेगा जब तुम समरथ सतगुरु की शरण में खाली होकर बैठो, भाव-भक्ति के सेवक बन बैठो और अपने अंदर इस बात का लोकन-अवलोकन करो, तभी तुम्हें यह मालूम होगा कि यह बात सौ प्रतिशत से एक सौ एक प्रतिशत सत्य है।
रूहानी कवि भी कहते हैं-
दीन कहे धनवान सुखी, धनवान कहे सुखी राजा हमारा।
राजा कहे महाराजा सुखी, महाराजा कहे सुखी इन्द्र प्यारा।
इन्द्र कहे ब्रह्मा जी सुखी, और ब्रह्मा कहे सुखी सिरजनहारा।
विष्णु कहे इक भक्ति सुखी, बाकी सब दुखिया है संसारा।
इस संसार में सच्चे भगत सुखी हैं, क्योंकि सुखों के देश की कुंजी हथ लग गई, उनके बराबर कहाँ कोई सुखी है। इन्सान बाहर से दुनियावी दृष्टि से कितना ही भला चंगा दिखाई दे, पर अंदर की हालातें इतनी खुशगंवार नहीं होती हैं, जिसकी बदौलत फूल कंाटे बन जाते हैं, पानी जहर बन जाता है और हरियाली भी पतझड़ बन जाती है। इस राह पर चल भक्त जनों को, संसार दुनिया की तरफ से, भारी कष्ट और दुख उठाने पड़ते हैं, पर सच्चे भगत परवाह कहाँ किया करते हैं। भक्ति में रंगी आत्माओं को दुनिया के लोगों ने कितनी तकलीफें दीं, पर जिनके अंदर सतगुरु भक्ति प्रेम की ज्योत जल गयी, उन्हें तो फिर अंदर-बाहर नूर का प्रकाश ही दिखता है, फिर वे दुख में भी सुख देखते हैं।
भक्ति के रंग में रंगे भगत जन कोई इच्छा कहाँ रखते हैं, उन्हें तो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पदार्थों की चाह तक नहीं होती और मुक्ति की इच्छा को, वे पालते ही नहीं, क्योंकि वह मुक्ति तो पूर्ण संतों के चरणों की दासी है, भगत जन तो रिद्धियों और सिद्धियों की भी कामना कहाँ करते हैं, उन्हें तो स्वर्ग वैकुण्ठ भी नहीं भाता। आवागमन से छूटना भी वे कहाँ चाहते हैं, वे तो बस मालिक साहिब के भक्ति प्रेम में लवलीन होकर, मतवाले होकर भक्ति में डूब जाते हैं, यही मस्ती परम आनन्द का अकूत भण्डार है और उन्हें वह सहज सतगुरु मेहर से मिल जाती है।
भगत तो कहता है, मैं मुक्ति छोड़ने को तैयार हूँ, मगर प्यारे भगवन मैं तुझे छोड़ने को तैयार नहीं, तू अपनी मुक्ति सम्भाल किसी और को दे देना, मुक्ति पाने के लिए तेरे दर पर और भी भिखारी हैं, मुझे तो बस तू ही काफी है। बेशक तू हमें हज़ारों-लाखों बंधनों में बांध ले, तू प्रेम के कितने हिंडोले सजा ले, फिर भी हमें उस राह ले चल, क्योंकि भक्ति के अलावा, जितने भीे मार्ग हैं, वे मुक्ति को चाहते हैं, याने वे केवल साहिब का उपयोग करते हैं, साधन की तरह या माध्यम की तरह, पर भगत तो कहता है, ऐसी वो सुहानी घड़ी आ जाए, जिसमें मैं ना रहूँ, केवल तुम ही तुम रहो, अब जिन्हें भक्ति से नहीं केवल मद खुदी से प्यार है, वे कहते हैं, ऐसे क्षण आ जाऐं, जहाँ केवल मेरी चले, मैं ही रहूँ, पर सतगुरु भगत कहता है, मैं ही सारा मैला हूँ, मिट जाऊँ मैं तेरे चरणों में और केवल तू ही तू रहे। अब भगत की मुक्ति भी बड़ी फलीभूत होती है, अनूठी है उसकी भक्ति, उस सतगुरु भगत की मुक्ति भी बड़ी अनूठी है, जिसे वह उस भगवन में खोजता है और भगवन भगत में समा जाते हैं।
तभी शहंशाह सांई नारायणशाह साहिब जी ने हमें यही भक्ति की रीत सिखानी चाही, प्रसाद मेहर से देनी चाही, सिन्धी में अल्फाज़ आए-
तन में आ माधव, मन में आ माधव, हर हंद मां माधव डिसां
कि नालो मां तुहिंजो जप्यां, कि नालो मां तुहिंजो जप्यां।
भगत मालिक में मिलकर फरियाद करता है, ऐ मालिक! अब तू ही बता, कैसे मैं अपने अहम को खो दूं, न्यौछावर बलिहार कर दूं, भगत झुकता है, अपने को बिखेर देता है, भगत नाजुक हो जाता है, ज्ञानी योगि महंत एवं कच्चे भगत अकड़े हैं, सिद्धि की तलाश में भटक रहे हैं, पर सतगुरु भगत सिर्फ अपने को खोने चला आता है, हुज़ूर सतगुरु की पनाह में पाता है हरे माधव कुल-ऐ-वतन की दुनिया का गौरव।
सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी से एक प्रेमी भगत गोले ने अर्ज किया, कि हे गरीब नवाज! शिष्य को पूरण सतगुरु की शरण में कैसे रहना चाहिए?
आपजी ने गन्ने का उदाहरण दे समझाया, जब छेदीलाल किसान गन्ना उत्पन्न करता है, वही गन्ना स्व को टुकड़े-टुकड़े रत्ती-रत्ती करवाता है, उसी गन्ने को उठा मशीन में पिरवाकर पुनः कढ़ाव में औटने को डालता है, फिर आगे अपना तन जलाकर मीठा गुड़ बनता है, फिर उसी मीठे गुड़ से तेज अग्नि के ताप से होकर खांड (खन्ड्रु) में बदलता है, फिर ताप से गुजर वह शक्कर कहलाता है, शक्कर से भी अग्नि में जलकर मिश्री बनाता है, फिर मीठी बर्फी एवं मिठाई कहलाता है। ऐसे ही हर एक जीवात्मा के अंदर रब माधव की अमीठी चासनी भरपूर है, जो शिष्य, सतगुरु वचनों, हुकम आज्ञा सेवा में रहकर, अहंकार खुदी के टुकड़े कर सतगुरु प्यारल को अर्पण हो जाता है, उस सच्चे शिष्य के अंदर वह रब्बी चासनी प्रगट हो पड़ती है, जीवन आनंदमय, मंगलमय बन जाता है।
आप गुरु महाराज जी बड़े करूणा वचनों से समझा रहे हैं कि इस प्रकार गन्ना अपने को मिटाकर सबके मन को भाता है। जो शिष्य अपने इष्ट सतगुरु को सदा अंग-संग और हर ज़र्रे में व्याप्त समझता है, वह जब भी प्रेमामय हृदय से सतगुरु चरणों में पुकार करता है, प्यारा सतगुरु, प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप में उसे दीद दरस दे समस्त दुखों का निवारण कर देते हैं। जो शिष्य अनन्य भाव से तन्मय होकर सतगुरु चरणों में पुकार करते हैं, सतगुरु उन्हें अपने दर्शनों की अमोलक दात से नवाज़ कर निहाल कर देते हैं। सच्चा भगत सदा अपने सतगुरु की रहनुमाई एवं सोहबत की ही याचना करता है, अन्य भौतिक पदार्थाें की मांग कभी नहीं करता। कोई भी सेवक, भक्ति की चरम अवस्था को तभी प्राप्त कर सकता है जब उसके हृदय में अपने सतगुरु के प्रति अनन्य प्रेम, अनन्य श्रद्धा, अनन्य विश्वास पुख्ता हो।
सच्चे शिष्य नींवे भाव से साधसंगत की सेवा कर अपने हौमे को, खुदी को फनां कर देता है, सतगुरु चरणों में प्रेम निह पुख्ता रखता है, यश-अपयश, मान-अपमान में सम रहता है, सदा गुरु हुकुम को अंतर-बाहर से शिरोधार्य कर, अपने करमानुसार दुनियावी दुखों को भी मीठा भाणा मान सेवा में टिका रहता है, वही शिष्य सतगुरु आशीष कृपा से भवजाल भव सागर से तर जाता है।
सतगुरु का भगत सदैव भक्ति में रंगा फरियाद करता है, तू मेरी सुन, मैंने पाप करम करने में कभी कसर नहीं की थी, मैंने तो भूल करने में भी कभी कोई कसर नहीं छोड़ी, तो अब तू भी अपने फज़ल करम की इंतिहा जरूर कर देना, अब तू प्रेम करूणा करने में कोई कंजूसी मत करना, क्योंकि जब मैंने पाप कर्म करने में कंजूसी नहीं की, तो तू करूणा बरसाने में कंजूसी मत करना, क्योंकि मैंने भी खता की इंतिहां कर दी थी।
भगत भक्ति में डूब बड़ी मीठी बातें करता है, सतगुरु को अपना सब कुछ जान, सारे राज कह देता है, कि मैं तुमसे क्या छिपाऊं, मैंने तो ऐसे लेख लिखे हैं, याने पाप ही पाप कर्म किए हैं, किए भी पूरी तरह से हैं, इसे करने में मैंने कभी कुछ न सोचा, किए भी तो आखिरी तक किए हैं, इंतिहां ही कर दी थी। भगत कहता है, अब तुम्हें मेरा ध्यान रखना है, तुम अपने प्रसाद की पूर्णता में कंजूसी मत करना, तेरी करूणा में कोई कमी न पड़ जाए, मैंने तो अहंकार मद को भरने में कोई कमी नहीं की, तू भी करूणा में कंजूसी मत करना।
भगत कहता है, ‘‘मैं तो पात्र नहीं, पापी हूँ, बड़ा महा पापी हूँ।
ज्ञानी जन कहता है, ‘‘देर क्यों हो रही है, तुम्हारी करूणा में, मैं तो तैयार साफ पात्र हूँ।’’
योगी जन कहता है, ‘‘मैं शुद्ध, महाशुद्ध, बिल्कुल पूरा तैयार हूँ, अब जो भी देरी हो रही है, तेरी तरफ से हो रही है।’’
और भक्ति में रंगा, सतगुरु भगत कहता है, ‘‘मैं तो बिल्कुल तैयार नहीं हूँ।’’
इसीलिए ऐ मालिक! मेरी तरफ से तू निश्चिंत हो जा, मेरी कोई मांग ही नहीं हो सकती, मैं तो तुझसे केवल इतना निवेदन कर रहा हूँ, कि मैंने पाप कर्म करने में कोई कमी नहीं की, मुझसे ज्यादा पापी, बुरा बंदा खोजने से भी नहीं मिलेगा, क्योंकि मैं तो पाप कर्म ही करता था और मैं कर ही क्या सकता था, पर ऐ मेरे सुहणे प्यारल! तू करूणा बरसाने में कोई कमी कसर मत करना, तू करूणा ही कर सकता है, तू करूणा ही बहा सकता है, करूणा ही दे सकता है। ऐ मेरे करूणावान मालिकां! और तू कर ही क्या सकता है।
भगत अपने को कुपात्र, अपात्र मैला गंदला घोषित करता है, उसकी पात्रता भी यही है, वह खुद को असफल, विफल घोषित करता है और उसकी सफलता भी यही है, वह खुद को हारा हुआ मानता है और यही उसकी विजयश्री है।
शुद्ध सार भक्ति तो सदा फल स्वरूप है, भक्त भक्ति का हिसाब किताब बहियां नहीं बनाता, वह कहता है, मेरे किए कुछ होता ही नहीं है, क्योंकि भगत के पूर्ण समर्पण की अनूठी दुनिया है, वह कहता है, मुझसे जो तू करवा रहा है, मैं कर रहा हूँ, वरन मेरी कहाँ कोई गिनती औकात है। वह इश्क प्रेम, बंदगी भक्ति में इस कदर पूरा भीग गया, कि उसने सूनी जिन्दगी में नूर से भरी भक्ति का प्याला पी लिया।
सतगुरु सांई नारायणशाह साहिब जी चतुर भगत जो बड़े प्रेम से भक्ति की चाह रखते, गुरुदेव के चरणों में वह विनती सिन्धी में पुकार भी बड़े प्रेम भाव से करते-
दे् भगति पहंजे चरनन जी, बाबा माधवशाह, सतगुरु ईश्वरशाह।
कान्हे कमाई करमन जी, कान्हे कमाई करमन जी।
दर तुहिंजे ते अथम वाडायो, फुरनन खां सांई जिन्दु छडायो।
नासु कजो काफूर सभेई, दुख जा दुशासन आहेन घणेई।
रहबर बणजी राह देखारियो, जियण कला छा आहे सिखारयो।
चाह संगत खे दरशन जी, दे् भगति पहंजे चरनन जी।
सो सत्संग प्रेमियों! जिस प्रकार ग्रीष्म ऋतु में तालाब, चश्में सूख कर खाली हो जाते हैं और वर्षा ऋतु में वे लबालब भर जाते हैं, उसी प्रकार हम भी हउमें, अहंकार हटा, फानी दुनिया से मोह त्याग, दिल का हुजरा साफ कर, सुपात्र बनें, करूणामयी बाबल की रहमत भरी अमृत वर्षा में भीग, सच्चे सेवक भगत बन सकें। सतगुरु चरणों में हम भक्तों की सदा यही पुकार है कि हे सच्चे पातशाह! अपने चरणों की भगति का वरदान बक्शो, हमारे कर्माें की कोई कमाई नहीं, बस आपकी ही रहमत का आसरा है, दया करो गुरुवर, मेहर करो।
।। कहे नारायणशाह सुनो भाई भक्तों सतगुरु शरण पड़ो।।
।। भगति सदा तुम मांगो, हरे माधव धाम तुम जाओ।।
हरे माधव हरे माधव हरे माधव