|| हरे माधव दयाल की दया ||

।। साध-संगत में आप दयाल, मानुख देही बड़ी बड़ जान।।
।। दीया आप सब करि कृपाल, सतिगुरू रूप प्रभु इक मान।।
।। नाम बाती तिसै मांग, नाम बाती तिसै मांग ।।

सतगुरु साहिबान जी के पावन श्री चरणों में बैठी साधसंगत जियों! हरे माधव, हरे माधव, हरे माधव।

यह पवित्र रूहानी वाणी फक्कड़ मौला संत सतगुरू दयाल बाबा माधवशाह साहिब जी की है, जिसके माध्यम से आपजी हक की रसाई का भेद, कुल तमाम बंदों को दे रहे हैं, आपजी इंसानी देह में साध-संगत की सेवा, सोहब्बत की वड्यिई, महिमा बता रहे हैं।

वाणी में आया-
साध-संगत में आप दयाल, मानुख देही बड़ी बड़ जान

पूरे सतगुरू की प्रकटकला में वह खुद प्रभु करतार, प्रभु आप कृपाल, दयाल जाहिरतः हैं। जो जीव इसी भाव से साधसंगत में आते हैं, वे इस ऊँची निर्वाणी देश की चांदनी में महक सकते हैं यानि ‘‘साध-संगत में आप दयाल’’। उस हरे माधव प्रभु ने सारी रचना बड़ी बूझ-अबूझ रंगों से विस्माद रची है। प्रभु रूप सतगुरू ने सारी रचनाओं के राज़, सोई हुई रूहों के आगे खोल कर बताए। सभी रूहों की, जो एक नूर की हकीकत है, वह ब्रम्हाणों, क्षत्रियों, क्षूद्रों, वैश्यों आदि सभी धर्म एवं जातियों के लिए एक नेक हकीकत है। बड़े से बड़े पापी, अधर्मी, कुकर्मी पूरे सतगुरू की सत्संगति में निर्मल हुए। जड़ चेतन की गांठें इन्हीं पूर्ण सच्चे खुदाई दरवेशों भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु ने खोली। संगतों! इस देही के अन्दर जीवित हकीकत है, वक्त के प्रत्यक्ष पूरण सतगुरु ने उस अमृत, अजन्मे आत्मा को वह पूर्ण निर्वाणी तथ्य शबद का भेद दिया। सतगुरू बाबा माधवशाह साहिब, आपजी फक्कड़ मौलाई मौज में अलूप, अदृश्य हो एक खिन्न में कभी किसी शहर, तो कभी किसी प्रेमी भगत के यहाँ आतम स्नान का होका देते। जो उनकी इस विराट दात को, रूहानी मार्ग को मन की संगत में पड़ उलट जानते, वे आज भी खाली घड़े की तरह बने हुए हैं और जिन्होंने साहिबानों की रूहानी मौज को प्रभु की मौज माना, वे तो फिर इसी में जागे। हुजूर साहिबान जी नसीहत दे रहे हैं कि ऐ बन्दे! परमात्मा रूप सतगुरू की पसंद है कि यह इन्सान मन, वचन, कर्म में एक रूपता को धारण करने का आचरण पावन सत्संग में सीखे। आचरणहीन शबद तो संसार को धोखा, भ्रम देते हैं। ऐ बन्दे! हरिराया सतगुरु से क्या छिपा है? या क्या छिपाओगे? मौला दरवेशों ने साफ कह दिया, ‘‘जो कहा, वह करो, भीतर कुछ, बाहर कुछ मत रहो।’’ तुम्हें जाना है एक में, क्योंकि तुम एक से आए हो, इसीलिए सम्पूर्ण वेद-उपनिषद एक की भक्ति, एक की सेवा और एक की ही सारी कायनात की दुहाई दे रहे हैं।

आज हम दुनियावी परिवार में, संगत की बात करें, तो अधिकांश घर-परिवार अशान्ति, कुविचार, कुमत का गढ़ बन गए हैं। हर घर का सदस्य अपने हिसाब-किताब से, ऊँचा मान ऊँची शान धरकर अहंकार वश बड़ी-बड़ी प्रेम की बातें कहता है। सारे नाते-रिश्ते, डेबिट-क्रेडिट, लेन-देन की कश्मकश में बंधे हैं। आज बड़ी से बड़ी बातें तो बन-बुन रही हैं मगर घर बार, ग्राम नगर बिगड़े जा रहे हैं। सतगुरू साहिबान जी इस जरिए से हमें सिखा रहे हैं, घरों के हर इन्सान, हर बन्दे को देखो, वह स्वयं को ज्ञानी, शिक्षित मान, ज्ञानवान बन दूसरों को मूर्ख समझने का दावा ठोक रहा है, जिसके कारण ही आपसी बैर, वैमनस्य, मनमुटाव का फैलाव हो रहा है और सच्चे सुख-शान्ति से दूर जा रहे हैं। जो स्व सतगुरु श्री चरणों साधसंगत में प्रेम नहीं रखते और मैली भावनाओं को धरण करते हैं। उनका मन कुटिल मलीन हो जाता है और स्व ही अपना अमोलक मानुष जीवन व्यर्थ गवां देते हैं। साहिबान जी समझाते हैं, सतगुरूओं की चरण-शरण में आने से मन में निर्मलता, शीतलता आती है, फिर हर जगह हर जीव में माधव ही माधव नज़र आता है और हमें सच्चे सुख आनन्द की अनुभूति होती है, जो कि सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के पावन वचन-

तन में आ माधव, मन में आ माधव
हर हंदु मां माधवु डिसां, हर हंदु मां माधव डिसां

हुजूर साहिबान जी उस प्रभु की महिमा, जो आप खुद ही हैं, फरमाते हैं कि ऐ आत्मा! पहले जो कुछ भी इन्द्रियों, मन एवं बुद्धि के द्वारा देखने, सुनने और समझने में आने वाला सम्पूर्ण चराचर जगत है, यह सब अपने परम दिव्य कारण रूप, पारब्रम्ह हरे माधव परम पुरूषोत्तम से प्रकट हुआ है। उन्हीं प्राण स्वरूप परमेश्वर में चेष्टा करता है, वे परम पुरूख परम दयालू होते हुए भी महानतम रूप हैं, छोटे-बड़े सभी उनसे भय-भाव प्रीत मानते हैं।

वेदों में आया- वज्र के समान हाथों में वज्र लिए प्रभु को देखकर सभी सेवकजन यथा विधि श्री आज्ञा में तत्पर रहते हैं, सभी देवी-देवता भी साधसंगत में आकर उस परमेश्वर सतगुरू के हुकुम सेवा को लालायित रहते हैं। प्रभु की प्यारी साधसंगत, यह केवल और केवल भारी कमाई वाले, जिन्होंने अपने अंदर परमत्व को प्रगट कर लिया, वे अपने को योग माया द्वारा छिपाये रहते हैं, जगत के मध्य रह कर अकारण किरपा बरसाते रहते हें। मंगलकारी दुखभंजन रूप धर कर दुखों को हरते रहते हैं। यह सत्संग की वाणी ऐसी कदावर शक्तियों की महिमा के बारे में बताई गई है, पर हम इन्सान कितने अबोध और नादान हैं, हम पूरण सतगुरु की साध-संगत की महिमा देख-सुन के भी अनदेखा कर देते हैं, सतगुरु की निन्दा कर बड़े खुश हो जाते हैं पर उसका हिसाब तो उसी तरह उभर आता है, जैसे मरा हुआ प्राणी जल के ऊपर उभर आता है, ‘‘जिनकी आत्मा दीन-धर्म छोड़ मन के संग लग मैली हो चुकी है-2’’ वे न सेवा, न सिमरन, न ध्यान से जुड़ पाते हैं और ना ही सतगुरू से प्रेम, ना ही उनके वचनों में श्रद्धा भाव रखते हैं, वे मन का संग कर खुद के ही बैरी बन जाते हैं, क्योंकि उनका सुख, चैन उड़ जाता है, जिसे गुरुवाणी में कहा गया-

संत का दोखी सदा अपवित
संत का दोखी किसी का नहीं मित
संत का दोखी महाअहंकारी, संत का दोखी सदा भिखारी
संत के दोखी को नाहीं थांउ
नानक संत भावै तां लाए मिलाए

कठोपनिषद में पूर्ण परमात्मा रूप सतगुरू की उस निराली आन्तरिक दिव्य निगाह का बखान आया, जैसे मैल रहित दर्पण में उसके सामने आई हुई वस्तु का प्रतिबिम्ब स्पष्ट प्रतिबिम्बित होता है, उसी तरह पूर्ण अमृत अनुभवी सतगुरू के विशुद्ध अंतःकरण में परमेश्वर विलक्षण एवं स्पष्ट दिखाई देते हैं और सभी रूहों को इसी में विलीन अर्थात विलय कर दिव्य तत्व, विशुद्ध तत्व, ब्रम्ह तत्व का अनुभव करा उसी अमृत में मिला लेते हैं, जहाँ से वे खुद ज्योर्तिमय हुए हैं।
भजन सिमरन के भंडारी पूरन सतगुरू की महिमा अनन्त है, उनकी दया रहमत से, उनके सत्संग में आने से ही मन में निर्मलता आती है और हमें आत्म ज्ञान प्राप्त होता है।

पूरन सतगुरू की संगत सभी जीवों के अन्दर उस चैतन्य का फूल खिला देती है। आज मन माया के घेरों ने इन्सान को घेर लिया, परन्तु वे जीव बड़े धनभागी हैं, जिनके अन्दर का आन्तरिक दरवाजा समरथ पूरण सतगुरु की संगत से निखरा और निखर रहा है।

सतगुरू बाबा नारायणशाह साहिब जी, बड़ी सुंदर नसीहत देते हैं कि काल माया ने इस संसार को इस कदर भ्रमों में उलझा दिया है, कि यह मूढ़ इन्सान उस साहिब सतगुरू की करूण कला को समझ ही नहीं पाता, इसीलिए बारम्बार सत्संगों में जि़क्र आते हैं, उन जीवों के बहु ऊंचे भाग हैं, जिन्हें साध-संगत की संगत मिली है। आखिर क्यों पूरण संतों ने इन्सानी जन्म और साधसंगत की महिमा बढ़-चढ़ कर गाई है? क्योंकि उन्हें उत्तम ज्ञान विवेक मिला ‘शबद नाम’। फिर उनकी दृष्टि काग दृष्टि नहीं हंस दृष्टि बन गई, जो खुद को हाड़-मास का पुतला समझते थे, अब वे खुद को उस करतार का अंश स्वच्छ पवित्र आत्मा समझने लगे। हे प्यारों! बड़ा भारी फर्क है, अगर ऐसी संगत में आकर परमार्थ का पूरा भरपूर लाभ न उठाया, तो अपनी देही के अंदर छिपे हरे माधव परम प्रभु का खज़ाना नहीं पा सकोगे, सतगुरु श्री चरणों से प्रेम साचा रखो, तन से नहीं मन से भी जुड़ो। हुजूरों ने फरमाया-बड़े भाग्य से यह मनुष्य तन मिला है, देवी-देवता भी इस जामें के लिए तरसते हैं, देवों के पास रिद्धियां-सिद्धियां तो हैं, पर वह अमृत आनन्द देने वाली सतगुरु साधसंगत नहीं है, जिससे वे अपना हित कर लोक-परलोक की निज सम्पदा पा सकें।

निचली से निचली योनियों में फिरते-फिरते युगों पे युग बीते, तब जाकर दया, मेहर से यह मानुष देही मिली, पर हमने ना तो संगत की, ना ही इसमें टिककर सत्संग किया और ना ही सतगुरु दर्शन का पूरा-पूरा लाभ कमाया, क्योंकि यह इन्सान त्रिगुणी माया से बांवरा, अहंकारी हो गया है। पूरे सतगुरू की दया मेहर से कुछ सौभाग्यशाली रूहें ही इस सार तत्व को समझ चौथे पद पर टिकने की युक्ति प्राप्त कर मुक्ति पा लेती हैं। सतगुरू साहिबान जी, शरण में आई हुई संगत के, माया मोह के जाल को जला देते हैं।

आज आप देखो, इन्सानों के अवगुणों ने किस कदर इसे गिरा दिया, वह जिसका पाता है, उसी को नहीं भजता, क्योंकि अभी वह अपने ही मन का नौकर-चाकर है। जो सतगुरु भगति या आज्ञा में नही रहता, बंदगी नहीं करता, उनकी दशा कबीर जी ने अपनी वाणी में कही-

कबीरा सोया क्या करे, उठी न भजे भगवान
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान
एवं
कबीर ते नर अंध है, गुरु को कहते और
हरी रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर

दरवेशों ने अपने अंदाज में साफ कह दिया-

जो बजाना बिदेह बगरना अज़ तो बिस्तानद अजल।
खुद ही मुन्सिफ बाश-ए-दिल ई निको या आँ निको।।

ऐ गफलत में पड़े इन्सान! तू अपनी जिन्दगी उस प्रभु सतगुरू के हवाले कर दे अन्यथा यह काल इसे बल पूर्वक छीन ले जाएगा। रे मन! तू न्यायकारी बन, गफलत में सोना और फिर शमशानों में सोना, यही तेरी किस्मत बन जाएगी, चिरकाल तक दुखों, कष्टों में तुझे घिरना होगा। भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु की दया मेहर से यह इन्सान हानि के सौदे से बच, लाभ कमाना सीखा। याद रख! जो सच्चे पूरण सतगुरु की मेहर रहमत नहीं समझते, फिर उनके लिए तो काल का कहर लागू ही है। संत रविदास जी ने भी ऐसो के लिए वाणी में कहा-

साध का निंदक कैसे तरै, सरपर जानहु नरक ही परै
जे ओह अठसठि तीरथ न्हावै, जे ओह दुआदस सिला पुजावै
जे ओह कूप तटा देवावै, करै निंद सभ बिरथा जावै
निंदक सोध सोध बीचारिआ, कहु रविदास पापी नरक सिधारिआ

ऐसे घटों-दिलों में अब तक जो बीता सो बीता, पर अब तो चेतो! अब समझ के उठने की बारी है। पूरण संत सतगुरू तुझे गुनाहों के दलदल से निकाल कर अमृत पिलाना चाहते हैं, मगर ऐ जीवात्मा! तू मैली संगति, कुमति में पड़ उनकी रम्ज़, कल्याणकारी वचनों को समझ नहीं पाता, अपनी मनमति से चलता है। यह काल अपनी बाज़ीगरी जगत में मन के सर चढ़ इस कदर नचाता है कि वह भ्रमवश सोचने लगता है, कि मैं तो सच्चा सिख सेवक हूँ, वह खुद को सच्चा सेवक मान, दोष सतगुरु पर करता है, अपने मैल ेकर्मों को न देख बड़बड़ करता है। अब प्यारे! आप जरा स्वयं विचार करो, कि कौआ अगर हिमालय पर्वत पे जा बैठे, तो वह गरूढ़ थोड़े ही बन जाता है? भले ही कौआ मन में यह धारणा कर ले, कि मैं गरूढ़ बन गया। सो मन के कहे प्यारों! न बहो, जे सतगुरु झिड़कै मारै तो कहिए जी शुक्र ही मालिकां जी।

साहिब के दरबार में, कमी काहू की नाहीं।
बंदा मौज न पावही, चूक चाकरी माहिं।
द्वार धनी में पड़ा रहे, धक्का धनी का खाय।
कबहूँ धनी निवाजहीं, जो दर छोड़ न जाय।

ऐ जीवात्मा! पूर्व दिशा में आप जितना आगे चलते जाओगे, पश्चिम दिशा उतना ही दूर होती जायेगी। इसी प्रकार सतगुरु भक्ति पथ पर जितना अग्रसर होते जाओगे, काल माया का असर पीछे छूटता जायेगा।

O Soul! The further you move in the east direction, farther the west will be. Similarly, the more you move forward on the path of Satguru Bhakti, the effect of illusion maya will be left behind.

सतगुरू साहिबान जी समझाते हैं, कि यह सारा पसारा माया की रचना का है, जो इन्सान को मोह अहम में फंसाकर भ्रम धोखे में धसा देती है, जिससे यह इन्सान नेत्रहीन होकर भ्रम मूलक रचना में भटककर अपना मूल ही गंवा देता है। तब वक्त के जागृत सतगुरू ही आकर उसे उस ओर ले जाना चाहते हैं, जहाँ सुख है, भ्रम टूटता है, बढ़ता नहीं।

हाजिरां हूजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी रब्बी वाणी में फरमाते हैं-

अवर सगली छोड़ो रे मनुवा
करो सार साचे गुरू शबद भजना
ऐह स्याणप ही है मनवा तू धरो
मनमुख तू काहे विष पीवत हो
अमृत नाम गुरू नाहीं तू जीवत हो
साध सतगुरू कर्म को ठुकराते जग एह सारा
काल कर्म अपनाता जग एह सारा
दास ईश्वर पर दया धरो
चित्त में देवो चिन्तन गुरू चरण प्रीता
मन से झूठा रंग उतरे, सांचा रंग लागे

पूरण संत सतगुरू तो हमें इन्सानी देही की कद्र करा हम दुनिया के बंदों को चिता रहे हैं, ऐ नादान इंसान! क्यों तू सिमरन भजन को भूल मन माया से प्रेम कर बैठा है, हर क्षण मन के कहे माया काया के यतन करता फिर रहा है। प्यारे! वक्त के पूरण हरिराया सतगुरु का फरमान तो सत्य ही होता है, कि नाम सिमरन सच्ची सेवा के बगैर इस इन्सान को लोक परलोक में शर्मसार होना पड़ता है, चौरासी की माया काल के अनन्त दुख कष्ट सहने पड़ते हैं। परन्तु आज तो इन्सान माया-काया की चमक देख भटक रहा है, हम जरा गौर करें, नूर की रोशनी का भेद देने वाले आला सतगुरू दया पे दया, कृपा पे कृपा करना नहीं छोड़ते, वे तो हमें प्रमाद अज्ञान की नींद से जगाते हैं, चिताते हैं कि ऐ रूह! चंद दिन की यह रोशनी है, फिर घनघोर काली घटाऐं काल की। हम तो तुझे समझाते हैं, चिताते हैं, परन्तु अफसोस! कि तू रिश्ते नातों के प्यार में उलझकर वाह-वाही चापलूसी में पड़ पूरण संत सतगुरु की रम्ज को नहीं समझता।

जो सहजोबाई ने बड़े सुंदर ढंग से चिताया-

आय जगत में क्या किया, तन पाला के पेट।
सहजो दिन धन्धे गया, रैण गई सुख लेट।।

प्यारे बुद्धिजनों! हम जरा विचार कर देखें, कि खाने-पीने सोने तथा इन्द्रि भोगों की पूर्ति में पशु-पक्षी भी दिन रात डटे रहते हैं, परन्तु इस इन्सान ने उच्च कोटि की बुद्धि पाकर भी व्यर्थ के कार्यों में जीवन खपा दिया है और संत सतगुरूओं के ऊँचे रहनुमाई वचनों को न समझकर, मन की गवाही को सुन, दुखों के घेरों में उलझकर उल्टे मुँह जा गिरा है और सारा समय मन में व्यर्थ तानो-बानों निंदा के फुलके पचाते रहता है, जरा विचारों प्यारों! फिर भी पूरण सतगुरु की दया कितनी अपार है, जो सच्ची मानवता व सर्वहित की चाहना रखने वाले हैं, वे हमारे अवगुणों को न देख केवल मेहर पर मेहर, दया पर दया अथाह ही अथाह करते हैं। सत्य है न संगतों?

हमेशा याद रखना, पूरण सतगुरू चाहे किसी भी जाति, धर्म या किसी भी देश-प्रदेश से आए हों, उनका परम लक्ष्य तो एक ही है, अज्ञानता में डूबे हुए मानव को ज्ञान रूपी परम रोशनी प्रदान करना। आप देखो, स्वांसों रूपी पूँजी हर पल घटती जा रही है और हमने स्वासों की कद्र भी नहीं की, देही की उमरिया बीती जा रही है और हाथ से स्वर्ण अवसर निकलता जा रहा है। इसीलिए हे बुद्धिजनों! अब भी चेतो! अब भी जागो! क्योंकि जब जागो तभी सबेरा, अतः बन्धुओं! अपने अनमोल स्वांसों की कद्र करते हुए पूर्ण सतगुरू साहिबान जी की चरण-शरण ग्रहण कर सेवा, सत्संग, सिमरन, ध्यान से अपने अनमोल मानव जीवन को सफल बनाऐं।

हाजि़रां हुज़ूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी की शरण संगत में एक बंदा आया, उस बंदे में बड़ा प्रेम, पछतावा, विरह तड़प का फूल खिला नज़र आ रहा था, वह बंदा रोकर कह उठा, कि आज मेरी आँख खुल रही है, मैं सतगुरु सांई नारायणशाह साहिब जी की संगति में तीस साल रहा, पर मेरे अंदर मनमुखता कूट-कूट कर भरी थी, मेरे हृदय के अंदर न सतगुरु प्रेम, न लौ और न ही श्रद्धा थी, दूरों-दूर तक, अभाव ही अभाव था। मैं केवल सेवा में तन से जुड़ा था, बाहरी मान-शान के लिए जुड़ा था, मेरा मन सतगुरु चरणों में प्रेम नहीं रखता, बस अपनी मनमति से सेवा करता रहता। जब मैं बेटे की शादी की तारीख लेने सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी की शरण में आया, तो साहिबान जी ने अपनी मौज में, तारीख सात, मंगल कार्ज के लिए निकाल दी। यह सुन मैं खुश होकर, घर की ओर चल पड़ा, जब कुछ दूर आगे गया, तो एक माई पानी का घड़ा सिर पर लिए आ रही थी, जैसे ही मैं आगे बढ़ा, तो वह घड़ा माई के सिर से नीचे गिर पड़ा और टूट गया, जिससे मेरे अंदर वहम भर गया, सतगुरु श्री चरणों से मेरा प्रेम श्रद्धा पुख्ता न थी, मैं मूरख उल्टी मति का था, मुझमें बड़ा अहंकार भरा था, मेरा मन सतगुरु के प्रति उलट भाव रखने लगा। मैं वापस बाबाजी के पास आया और सतगुरु बाबाजी से कहने लगा, बाबाजी! आपजी ने तारीख तो सही दी थी, पर रास्ते में मैंने मटका फूटते देख लिया है, यह तो बड़ा अपशगुन है, मैं बड़ा अभागा हूँ, मेरी तो किस्मत ही फूट गई। कृपया मुझे कोई दूसरी तिथी दीजिए। सतगुरु मालिकां जी ने कड़क रूहानी फटकार लगाई, खूब रूहानी मार भी दी और सिन्धी में अल्फाज़ कहे-

बाबा! ठाकुर खे न मञी, ठिकरन ते विश्वास था कयो।
ठिकरन खे मञीदव त ठिकरअ थींदव।

साहिबान जी ने नसीहत दी, पूरण सतगुरु में सच्चा प्रेम भरोसा, इकनिष्ठता टिकाओ, वरन् काल का जाल अपना भ्रम का दुकान खोले ही बैठा है, मन में सतगुरु के प्रति, उनकी मेहर में भ्रम सौंसे न पालो। लेकिन, मैं अज्ञानी, मूर्ख मन में शक-शुभा लिए, दूसरी तिथि निकलवा, विवाह कार्ज किया, पर उस दिन से ना तो मेरे मन में, जीवन में और ना हीं मेरे घर परिवार में सुख-शान्ति आ सकी। मैं सतगुरु मेहर वचनों में न चला, जिसका करड़ा हिसाब मुझे और मेरे परिवर को भी देना पड़ा।

वह बंदा ज़ार-ज़ार रोकर हाजि़रां हुज़ूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी से विनती करने लगा, फरियाद करने लगा, जब से आप सच्चे पातशाह जी ने मेहर करूणा, सत्संग, सेवा के भण्डार खोले हैं, मैं भी मेहर पाने गुनाहों को बक्शाने, श्रीचरणों शरण में आया हूँ। हे बाबाजी! मुझे बक्शीए, हम तो भूलणहार हैं, आप सदा-सदा बक्शणहार हो। बाबाजी! जिस सात तारीख पर मुझे वहम हुआ था, सतगुरु सांई नारायणशाह साहिब जी द्वारा फरमाई गई, उसी शुभ तारीख में मुझे आपजी द्वारा नामदान की बक्शीश हुई। इतने सालों बाद मेरे कानों में सत्संग का एक वचन पड़ा, कि ‘‘पहले तो तुमने पाया नहीं, अब पाने का दौर है।’’-2
आप सतगुरु साहिबान जी फरमाए, प्यारे! सुबह-शाम सत्संग में नित नियम से आना सीखो, सत्संग का कोई न कोई एक वचन, कण तुम्हारी जिन्दगी को बदल देगा और तुम्हारे अंदर की उलझन को शून्य कर देगा।

सच ही है, हम जीव भ्रमों-वहमां में फंस असलता से दूर हो जाते हैं। तभी संत पलटू जी कह उठे-

भरमि भरमि सब जग मुआ, झूठा देवा देव।
ऐसे मूरख लोग खबर ना करें आपनी।
सिरजनहारा छोडि़ पूजते भूत भवानी।
पलटू इक गुरुदेव बिनु दूजा कोय न देव।
भरमि भरमि सब जग मुआ, झूठा देवा देव।

ऊँचे भाग्य ऐसे मुरीदों के जिन्हें पूरे भजन सिमरन के भंडारी प्रत्यक्ष सतगुरु की संगति मिली, जो सत्संग अमृत वचन का अमृत पीते हैं, उनसे प्रेम दृढ़ होकर बैठाना, क्योंकि वे साहिब हरि की मूरत में लीन हैं, उनके दर्शन करना हरि के ही दर्शन करना है, उनकी नजदीकियां, एक है बाहरी, और एक है आंतरिक, इस राह में प्रेम एवं सच्ची मोहब्बत को बिठाना अनिवार्य है, फिर सहज रूप से ध्यान बंदगी भी अनिवार्य हो जाती है, क्योंकि सच्चे मुरीद, साध-संगत, प्रेमियों के घट अंतर में, प्यारे सुहणे की छवि छाया हमेशा रहती है।
आगे साहिबान जी अपनी अमृतमयी सत्संग वाणी में फरमाते हैं-

।। महिमा बड़ी बड़ महान, सतिगुरू सत्संग आत्म निज स्नान।।
।। कहे माधवशाह सुनहो संतों, मैं फक्कड़ होय कहूँ इक बाता।।
।। बिन सतगुरू संगत सब माया बाता, इक लाओ इक ध्यान रमाओ।।

कुल मालिक सतगुरू बाबा माधवशाह साहिब जी अपनी फक्कड़ मौलाई मौज में फरमा रहे हैं, कि सतगुरू साध-संगत के बिना सब माया है, सब काल का पसारा है, इसीलिए साटिक ध्यान लगाकर सतगुरू रंग में रंगे रहना है।

सतगुरू साहिबान जी हर रोज, हर घड़ी हमें तालीम देते हैं, कि इस देही के अन्दर जो दरवाजा बन्द है, उसे खोलो, वे हम पर दया, मेहर कर हमें बल प्रदान करते हैं, हमारे अन्दर, जो कभी परिवर्तन होने वाला मुल्क नहीं है, उसकी ऊँचाई, उसकी कैफियत के जाम पिलाते हैं। हम तो अभी भी मन के गुलाम हैं, परन्तु भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु तो सदा ही अमरता का होका देते रहे हैं और दे रहे हैं, जो समझ के जगे, वे ही आत्मा के देश में तगे, नहीं तो सभी काल के द्वारा ठगे।

हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी फरमाते हैं, प्यारे साधसंगत शरण में रहने वाले शिष्यों को अपने अंतर में विदुर भाव मीरा भाव को धारण करना है, असूरी मारीच भाव नहीं, शिष्य जब प्यारे सतगुरु में शुद्ध निर्मल भाव से जुड़ता है, वही उनके शाश्वत प्रसाद, अमीरल प्रसाद को पाता है।

मराठी बोल में समझाया गया, हरिराया सद्गुरुंच्या वचनांला अनुसरुन रहा आणि भक्ती रूपी खरा रत्न प्राप्त करा, हीच आत्मेची अस्सल संपत्ति आहे जी सदैव साथ राहील.

अर्थात् हरिराया सतगुरु के वचनों के अनुकूल रहो और भक्ति रूपी सच्चा धन प्राप्त करो। यही आतम की असल संपत्ति है जो सदा साथ रहेगी।

आप साहिबान जी हमें समझाते हैं कि साधसंगत शरण में आकर, पूरे सतगुरु के श्री चरणों में हमें कैसे भाव रखने हैं? और खुलासा करते हुए आप फरमाते हैं कि हमें सतगुरू जी से सदैव यही विनती करनी है कि हमें ऐसी सद्बुद्धि प्रदान करें, जिससे हम आपको परम परमेश्वर, सुखकारी प्रभु साहिब परमात्मा मानें, श्री चरणों से साचा प्रेम रखें, हृदय से जुड़े, बुद्धि से नहीं। तभी हमारे अन्दर के सारे पाप रोग, खाक होंगे। ऐ रब के अंश! अगर हम पूरण सतगुरु को एक आम ज्ञानी बुद्धिवक्ता के रूप देखते या निहारते हैं, तो हमारी उस अविनाशी साहिब से प्रेम प्रीत, भाव की डोरी कैसे जुड़ेगी? फिर हम अमरता, अकरता दुनिया में कदम रख अकदम हो जाते हैं। साधसंगत जी! वह करुणा निधान बेअंत अगोचर हरिराया प्रभु, जीव मण्डल का उद्धार करने पूरन सतगुरु, हरिराया रूप सतगुरु बन, विराट करूणा दयालरूप सतगुरु बन धरा पर प्र्रगट होते हैं। वे केवल और केवल करुणामय रूप बनकर अंतर की साफ निर्मल एको पूर्ण सच्चाई के सब अलौकिक भेद प्रगट करते हैं। आप देखो, जैसे समुद्र का ऊफान, लहरें कभी बंद नहीं होतीं, इसी तरह कमाई वाले पुरुनूर सतगुरु के विराट दिल, विराट आतम से करुणामय लहरें अमृत रूप में अनवरत बहती हैं।

प्यारी संगतों! आप सब देखो, पूर्ण संतों को रूहों शिष्यों की सम्भाल की खातिर कितनी पीड़ा तकलीफ उठानी पड़ती है, अमृत नाम का दान देकर शिष्य के पेचीदे कर्मों का बोझ, अपनी देह के ऊपर उठा लेते हैं। पूरण सतगुरु अकारण शिष्यों संगतों पर करूणा मेहर बरसाते ही रहते हैं। जिक्र आता है, हजि़रां हुजू़र सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी, सत्संग दीवान में सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के परम वचनों का भेद उठाकर समझाइश दे रहे थे। सत्संग का दौर, वचन अमृत बरस रहे थे, आपजी ने फरमाया कि सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने कभी ये नहीं कहा, कि हम जाऐंगे, उन्होंने अजन्मी बात कही, बाकी वचन यथार्थ गूढ़ हैं, बंदगी करो, और जानो, अंतरघट में उतरो पहचानो। उस दिन सत्संग में, शहर का एक नामी गिरामी बंदा आया था, धन धान्य से भरपूर, सत्संग दर्शन कर पिपासा जगी की, हुज़ूरों से मुझे नाम दान लेना है, जब भी दण्डवत हो निकट आता, मुख से शब्द न निकलते, भूल जाता, आँखों से झरझर आँसूं बहते, वह विनती ही न कर पाता, बस चरणों में आ, दर्शन कर इक टिक निहारता ही रहता, नामदान की चाह बढ़ गई, गुरुचरणों के एक अमुक सेवक से कहा, कि मुझ पर बाबाजी की कृपा करवाओ, नाम दान दिलवाओ, मैं विनती नहीं कर पाता, हर बार आता हूं, यही चाहत लिए, आप सतगुरु चरणों में मेरी अर्जी लगाऐं। अमुक सेवादार आप साहिबान जी से विनती करता, नामदान के लिए, आपजी कहते अन्या न, भाण्डे में कचरो आ याने अभी नहीं, दिल रूपी भाण्डे में कचरा भरा है। वह बंदा अमुक सेवादार से रोज सतगुरु चरणों में अर्ज करने को कहता, जब अमुक सेवादार श्रीचरणों में विनती करता तो बाबाजी हर बार उसे यही कहते बड़े भारी कर्म हैं इसके, कटीले कर्म हैं इसके। मन ही मन वह बंदा प्रेम विरह में तड़प रोज उलाहना देता कि हे सच्चे पातशाह आपके चरण कमलों में आकर औखे कर्म अगर बाकी रहें, तो आप ही बताओ, इस दुनिया के तख्त पर ऐसा कौन सा थांव है, ऐसी कौन सी जगह है, जहाँ हम अपने भारी कर्मों को हल्का करें, दया मेहर करें।

हे महादानी सतगुरु! अब तू ही कोई उपाय बता, मैंने तेरे रहमों करम के, मेहर करूणा के बड़े-बड़े कौतुक देखे सुने हैं, मुझे भी कोई ऐसा संजीवनी उपाय बता मेरे मालिक, जिससे यह मलीन मन, शुद्ध निर्मल हो जाए, श्री चरणों की भक्ति की प्रीत के सिवाय, मन आत्मा में किसी और के लिए जगह शेष न रहे, लबालब भरा हो मेरा दिल तेरे चरण कमलों की प्रीत से। मैं इस विनय के भी काबिल तो नहीं मेरे मालिक, पर तू तो दया का भण्डारी है, समरथवान है, यह अर्जी कुबूल फरमा मेरे सच्चेपातशाह, कुबूल फरमा।

दयालु दातार करुणावान आप मालिकां जी ने सेवादार को आज्ञा फरमाई, ठीक है! इस बार नाम दीक्षा जो कि शनिवार को है, उसमें संगतों के साथ इसे भी बिठा दें। फिर आपजी ने फरमाया, नामदान के पश्चात कुछ दिन हम एकांत में रहेंगे, रविवार के सत्संग में भी नहीं आऐंगे और विश्राम करेंगे, बाबाजी ने सत्संग के जो अन्य नगरों के दौरे थे, वे भी स्थगित करा दिए। आप साहिबान जी ने उस बंदे को अमृत नाम का दान दिया, रात्रि के समय उसी दिन आप साहिबान जी को हल्का सा बुखार निकला, सुबह होते-होते बुखार बढ़ गया, बड़ी भारी तकलीफ शरीर में होने लगी, रातभर आपजी ने विश्राम नहीं किया, सुबह आपजी वाटिका से गुरु दरबार साहिब आए, तकलीफ अधिक थी, सो सेवादार महेश ने पापाजी अम्मांजी एवं गुरु माताजी को बुलाने के लिए बेटा कैलाश को कहा, आपजी ने महेश को फटकार दी, कि नहीं नहीं, किसी को मत बुलाओ, कुछ नहीं है, हमें तो बड़ा सुख मिल रहा है, दर्द नहीं। कुछ देर पश्चात पापाजी, अम्मांजी, माताजी एवं आशु बहन आए, सेवादार महेश ने माताजी से बताया, कि मालिकां जी ने कल से भोजन ग्रहण नहीं किया, रात भर बाबाजी के देह में अत्यधिक पीड़ा थी, पीड़ा के कारण रात भर विश्राम नींद भी नहीं कर पाए।

आपजी की देह की पीड़ा देख, सभी बड़े ही चिंतित हो गए, माताजी ने विनय की, कुछ तो भोजन लीजिए, खिचड़ी दाल जो आपजी आज्ञा करें, अम्मां जी ने कहा, भोजन पश्चात् विश्राम कर लीजीए। आप बाबाजी ने कहा, अभी ठीक है, अम्मां भोजन की भी अभी आवश्यक्ता नहीं है, ठीक है सब। माताजी आपजी की विराट सहन शक्ति, करुणा विरद का रूप देख हथजोड़ विनती की, आप बाबाजी को इतनी पीड़ा है और आप कह रहे हैं, सब ठीक है! गुरु माताजी व आशु बहन रोने लगे, आप बाबाजी ने फरमाया, रोएबो आ छा? पापाजी एवं अम्मांजी भी द्रवित हो उठे, अम्मां जी ने आप मालिकां से कहा, सारा समय संगतों की ही फिकर रहती है, स्वयं को इतनी तकलीफ देते हैं, कुछ तो आराम भी किया करें। आपजी ने अम्मां जी से कहा, जी अम्मां, सबका भला हो, सबका भला हो।

प्यारी साधसंगतों! वह शिष्य जिसे हुजूरों ने अमृत नाम का दान दिया, वह सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब के समय चरण कमलों में भेटा हुआ था, वहीं पलता बढ़ता पर इसका मन गुरु भक्ति, गुरु सेवा में न रमा, गुरु वचनों में प्रेम नहीं, मन में अभाव, सतगुरु में शक शुभा की भावना और मन ही मन में सतगुरु की लीलाओं एवं जो पहनावा पोषाक थी, उसमें वह मजाकिआ भाव रखता, बाबा नारायणशाह साहिब जी अक्सर इसे प्रेम से समझाते, इनके माता पिता को बुलाकर कहते, अपने बच्चे को ले जाओ, हमें इसे अपना शिष्य नहीं बनाना। बाहर जाकर वह बंदा, सतगुरु के प्रति बड़े गंदले बोल कहता रहता याने जिस थाली में खाता उसी में छेद करने की प्रवृत्ति रखता और अपने कर्मों को औखा करता। इसी वास्ते उस समय सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने पूरे परिवार को दीवान चरण कमलों से बाहर कर दिया। प्यारी संगतों! शिष्यों में, सतगुरु के प्रति यह मैला गुण नहीं होना चाहिए, अगर यह मैला गुण मन में है, तो शिष्य उसे जल्दी निकाल फेंके, उसे पनपने न दे क्योंकि यह मैला गुण, शिष्यों को बड़े ही औखे भारी हिसाब दिलवाता है। शिष्य, सतगुरु के चरण कमलों में मैले कर्मों को हल्का कर, निर्मल होने के लिए आते हैं और इसके विपरीत अगर हम मन में सतगुरु के प्रति असुरी विचारों को अपनाते हैं, तो मैले कर्म और अधिक बनाते हैं, फिर उनका भुगतान वह स्वयं उनका कुल कई जन्मों तक करते हैं, पीढि़यों तक करते हैं।

जो कोई निन्दह साधु को, संकट आवै सोई।
नरक माहिं जन्मै मरै, मुक्ति न कबहु होई।

उस असुरी शिष्य एवं उसके परिवार ने जो औखे मैले करम किए, सतगुरु चरणां से दूर रहकर, भारी दुख भोगे। परिवार में जो भी संतान होती, वह असामान्य होती, तनाव आदि बढ़ गया, और भी कई तरह से उसके पूरे परिवार को औखे, निन्दा के कर्मां का भुगतान करना पड़ा। कई बरसों का वक्त गुज़रता गया, हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी की सिफत सुन, बारगाह में वह शिष्य कुछ माह से नित्य सत्संग वचनों में हाजि़री देता, साधसंगत में आकर, पावन दर्शन पाकर, उसका अंतःकरण में नाम बंदगी, चरण बंदगी की लालसा जगी, वह अपनी भूलों, मैले कर्मां के लिए क्षमाप्रार्थी, याचक बन हुजूर सरकार जी की शरण आया। हुजू़र बाबाजी ने देखा कि अभी उसके कर्म भारी कटीले हैं, अमृत नाम दान की बख्शीश के योग्य नहीं है, पर जीवों पर करुणा बरसा रहमत दातों का भण्डार लुटाना भारी कमाई ववाले पूर्ण सतगुरुओं का अनोखा बिरद है, आप बाबाजी ने उस शिष्य के औखे कर्मां का भार अपनी देही पर लेकर उसे अमृत नाम की बख्शीश दी। दया मेहर का विराट कुर्ब ऐसा कि पूरे परिवार की स्थिति सुधरने लगी। शरण में आए जीवों पर अथाह मेहर करूणा का मींह बरसाना, यह महिमावान दयालुता हमारे साहिब हरे माधव बाबाजी की है।

जो शरण आवै तिसु कंठ लावै, एह बिरद स्वामी संदा

साधसंगत जी! दयाल सतगुरु हमारे औखे करम अपनी देह पर ले लेते हैं, यह उनका बिरद है, अपने भगतों पर दुख तकलीफ नहीं आने देते हैं, ऐ सतगुरु के प्यारों! हमारा भी तो दायित्व है, अपने पूरण सतगुरु के प्रति, दयालुता कुर्ब के प्रति कुछ फर्ज़ निभायें, हमारा वह फजऱ् क्या है, सतगुरु नाम का सिमरन, सतगुरु चरणों की सेवा, सतगुरु प्यारे की बंदगी और उनकी साधसंगत। सतगुरु श्री चरणों में पुख्ता प्रेम रखना। पूरण सतगुरु का सत्संग वह आईना है जहाँ पर सत्संगी अपने अवगुणों को देखकर सुधारने की कोशिश करता है और उसकी यह कोशिश ही उसे एक दिन गुरुमुख बना देती है। हमारा खुद को सुधारना भी किसी सेवा से कम नहीं, यह भी एक बंदगी है।। प्यारों! सतगुरु श्रीचरणों की सेवा भी तभी फलीभूत होती है, जब आपका सतगुरु श्री चरणों में प्रेम श्रद्धा, विश्वास पुख्ता हो। उनकी आज्ञा, उनकी मौज में खुद को ढालना, सतगुरु श्री आज्ञा में, मन में किन्तु-परन्तु की लकीरों को न आने देना। हमें दयाल सतगुरु द्वारा बताई राह पर चल साधसंगत की सेवा में सत्संग में आकर सतगुरु नाम सिमरन में नित्य नियम रखना है। सदा सतगुरु के हुकुम आदेश में चल सिमरन ध्यान करते रहना चाहिए, जिससे कि इह लोक सुहेला, परलोक सुहेला होता है।

साधसंगतों! आप हम सब वड्भागी हैं, हमें भजन सिमरन की भारी कमाई वाले पूरण सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के श्रीचरणों की चरण छाँव सेवा बंदगी का सौभाग्य मिला है, नाम शब्द का महादान मिला है। प्यारों आपका, आपके परिवार के किसी भी सदस्य का सतगुरु श्री चरणों से जुड़ना अर्थात् पीढ़ीयों तक, जन्मों तक उसका फल सभी को मिलता है। सो सदा श्री चरणों से जुड़ने की याचना करो, अंत वेले तक श्रीचरणों मे निभ आए, सच्चे पातशाह जी मेहर का हथ सदा रखना।

सो हमें चाहिए कि अपने मान-अभिमान को छोड़कर, पद गरिमा को भूलकर सतगुरू श्री चरणों में नीवां, निमाणा होके आऐं और मन में हमेशा यही भाव हो कि हे मेरे परमपिता सतगुरू देव जी सदैव आपके श्री चरणों में प्रेम-प्रीत बनी रहे, मन में कभी ‘मैं’ का भाव न आए, ऐसी सद्बुद्धि बक्शना मेरे सतगुरू जी, मेरे बाबल जी।

।। कहे माधवशाह सुनहो संतों, मैं फक्कड़ होय कहूँ इक बाता।।
।। बिन सतगुरू संगत सब माया बाता, इक लाओ इक ध्यान रमाओ।।

हरे माधव    हरे माधव    हरे माधव