|| हरे माधव दयाल की दया ||

सतगुरु सेवा अहनिष फल देवै

हरे माधव प्रभु की प्यार साधसंगतों! स्नेहीजनों! आप सभी को हरे माधव, हरे माधव, हरे माधव। सतगुरु सच्चे पातशाह जी के श्रीचरण कमलों में हम ऐबदारों, निर्बल मिस्कीन गुनहगारों की प्रेम श्रद्धा अर्पण है, प्यारल! कबूल करें।
भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी सेवा वाणी में फरमाते हैं-

गुरु की सेवा सब सुख पूरन खाना
सेवक सेवा नित कमावै, निर्मल मन सदा नाम सेव मस्त लाये

हरे माधव सेवा भाव संतमत वचन प्रकाश 568 में सतगुरु महाराज जी फरमाते हैं, संगतां जी! हरिराया सतगुरु द्वारा बक्शी हुई प्रत्येक सेवा, सर्व सुखों की खान है, इससे जीव मनवांछित फल प्राप्त करते हैं। सेवा से आत्मिक आनंद मिलता है, साचे सतगुरु की सेवा, जीव के कर्म भार को सहज ही हल्का कर देती है। हरे माधव सत्संग में या गुरुघर में आकर हम अनेक संगतों सेवकों की मुँह ज़ुबानी सतगुरु रहमतों, सेवा के प्रताप के उनके अनुभव साखियाँ सुनते हैं कि किस प्रकार हरिराया सतगुरु की आज्ञा से सेवा कर उन्होंने लौकिक सुख भी पाए और भजन बंदगी में भी बरकत पाई। संगतां जी! साचे सेवक को चाहिए कि नितनियम से अपने तन को सतगुरु आज्ञा व श्रीचरणों की सेवा में लगाए और मन को सतगुरु नाम सिमरन की सेवा में रमाए। हरिराया सतगुरु की सेवा का सुअवसर हमें हरे माधव प्रभु की दया मेहर से ही मिलता है। देह से सेवा करवाकर वे हमारे ही औखे कर्माें को काटते हैं और मन आतम से शबद नाम जपने की सेवा करवा कर हमें निज में लीन कर देते हैं|

We get the precious opportunity of the True Master’s service with the mercy and grace of Hare Madhav Lord. By making us serve physically, He balances our karmic account and by making our mind and soul serve through meditation upon the Holy Word Naam, He merges us into the Supreme.

आप साहिबान जी ने आगे फरमायाः

साचा सेवक, सदैव अपने मन को सतगुरु श्रीचरणों से जोड़े रखता है, सदैव सतगुरु की मेहर रहमतों, लीलाओं को याद कर मन को बाहरी भटकनों, उलझनों में नहीं पड़ने देता। जिन सेवकों का तन और मन अपने हरिराया सतगुरु पर बलिहार हैं, जो सेवक सेवा के नियम कायदों पर चलने का निरंतर प्रयास करते हैं, वे अपने अंतरघट में न्यारे राम की सहज प्राप्ति कर लेते हैं। शहंशाह सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी फरमाते हैं, पूरण सतगुरु की सेवा का परम सौभाग्य पारब्रम्ह सतगुरु की दया किरपा से ही मिलता है और यह हर किसी को प्राप्त नहीं होता। सेवक को यह भाव दृढ़ करना चाहिए कि सेवा बक्शने वाले भी सतगुरु मालिक है और करवाने वाले भी सतगुरु मालिक ही हंै। सतगुरु चरणों की सेवा का भारी प्रताप देख अनगिनत जीवों के मन में सेवा करने की लालसा जगती है पर जिन पर हरे माधव प्रभुराया की रजा किरपा हो जाए केवल उन्हीं के पल्ले में यह सौभाग्य आता है, अन्य के नहीं। वे चाहते हुए भी अपने हालात, माहौल, पारीवारिक ज़िम्मेदारियों या भांति-भांति के कार्याें के कारण सेवा नहीं कर पाते। प्यारों! जिन्हें ऐसी किरपा मेहर साची सेवा की चाहिए, वे हरिराया सतगुरु के श्रीचरणों में अथक भावपूर्वक विनय कर, सेवा का निष्काम शौक रख किरपा पा सकते हैं, सेवा से जुड़ सकते हैं और जिन्हें यह सौभाग्य प्राप्त है, वे हरिराया सतगुरु से ऐसी विनय याचना करते रहें कि हे हरे माधव सतगुरु! अपने श्रीचरणों की सेवा का बल बक्शें, सेवा में नींवा भाव बक्शें।

सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी सतगुरु चरणों की साची सेवा का भाव सलीका इस सेवा वाणी में यूं फरमाते हैं-

सेवक अर्ज करो गुरु चरणन, सेवक अर्ज करो गुरु चरणन
सेवक भगत दृढ़ पावै, गुरु वचन गुरुमुख प्यारे
गुरु कहे सेवक मैं सो मानूं, वचन गुरु का दृढ़ कमावै
कहे नारायणशाह सुनो रे साधो, सेवक के जो एह गुण
सोई मेरा साचा सिख सेवक कहावै, बाकी सब करत है स्वांगा

हरिराया सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी, तारणहार प्रभु वैद्य हाकिमों की तरह बड़े-बड़े गहबी वचन, दिव्य दृष्टान्त रूहानी प्रसंग में अक्सर सुनाते हैं, उद्देश्य ध्येय कि जीवात्माओं के दिल के अंदर का अंधेरा, दुई भ्रम हटे और सतगुरु शबद का, सिमरन भजन का सुख जीवों को मिले, और सतगुरु बंदगी प्रीत गाढी़ हो जिससे हरे माधव सत्त उपदेश तालिमों में ईमान प्यार टिका रहे। पूरण सतगुरु के वचनों में जीवात्मा की सच्ची श्रद्धा, सच्चा प्रेम और दृढ़ निष्ठता बनी रहे और लोक लाज मनमत के बहकावे में शिष्य की रूह ना बहे। रूहानी भेद गूढ़ गहबी वचन प्रसाद देकर आप सच्चे पातशाह जी! हर रम्ज से सर्वसांझी रूहों को समझाते हैं, राहें रोशन करते हैं।

साधसंगत जी! भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु के पास तत्व की दिव्य दृष्टि है, जिस तरह एक अनुभवी प्रोफेसर, स्टूडेंट (छात्रों) को बड़ी बारीकी से ज्ञान की दुनिया में खड़ा करना चाहता है, उसी तरह भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु अपनी अकह कमाई परमत्व खुमार से कमाल और नूरी जलाल का बोध प्रबोध दे हमें समझाईश बक्श रहे हैं। गुरु महाराज जी के हर एक मौज करुणा कुर्ब में मेहर रहमतें, मनोहर लीलाओं में पावन रब्बी वाणियों, पावन उपदेशों में जीव जगत का हित ही हित होता है, इसलिए सभी जीवात्माओं, सेवकों, भगतों-संगतों को अपने घट अंदर आज के फरमानों को अनुभवी दृष्टांतो, हरे माधव अमृत वचनों, हरे माधव भांगा साखी उपदेशों को सुनकर-समझकर अपने हृदय, बुद्धि, अंतर घट में बिठाना है, पावन उपदेशों से सतगुरु प्रीत बढ़ानी है, भक्ति बढ़ानी है, श्री चरणों में श्रद्धा भरोसा पुख्ता करना है।

हरे माधव प्रभु की संगतों, सिक्ख-सेवकों, बाल-गोपालों, सेवादार, दूर खड़े या निकट से निकट सेवादार, सतगुरु वचनों को हृदयगाम करें। क्योंकि भारी भजन सिमरन के भंडारी हरिराया सतगुरु ने जब-जब भी अपना नूरी जौहर कालखंड में, इस जगत में फैलाया, तब-तब काल ने अपना गहरा जाल फैलाया। लेकिन भजन सिमरन के भंडारी तारणहार दयाल सतगुरु अपनी परम पावन वचन, गहबी गूढ़ वाणियों के द्वारा, हर एक सोझी से सकारात्मक शुद्ध उपदेशों से संजीवनी प्रसाद हमें देते हैं, जिससे काल के गहरे जाल से जीव उबरे। आइये! प्यारी साधसंगतों! हरे माधव सतगुरु दयाल, हरे माधव प्रगट हजूरे परम प्रभु के सर्वसांझे पावन वचनों, निर्मल रम्जों को, हरे माधव भांगां अमृत वचन साखी उपदेशों को आत्मसात करें जी।

साधसंगत जी! आज के हरे माधव भांगां अमृत वचन साखी उपदेश 130 सतगुरु सेवा अहनिष फल देवै में, मेहर भरे रोचक दृष्टांत के माध्यम से हम सभी को सतगुरु श्रीचरणों की साची सेवा का पावन उपदेश प्राप्त हो रहा हैं। आईए सतगुरु नाम अंतर में जपकर प्रेमपूर्वक श्रवण कर सेवा में तन मन रमाएं जी।

जब से भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के रूप में प्रकाशी ज्योत प्रगट हुई है, सेवाओं के भंडार संगतों के लिए खुले हैं, प्रभाती वेले से ही संगतों के जत्थे भिन्न-भिन्न सेवाओं में हाज़िरी लगाते हैं, बुजुर्गजन अम्माएं, माताएं, भाई, बाल-गोपाल सभी अपनी-अपनी सेवाओं जैसे सिमरन सेवा, शबद कीर्तन सेवा, सत्संग सेवा, सफाई सेवा, जल सेवा, पादुका सेवा, भंडारा प्रसाद की सेवा, बर्तन धोने की सेवा, मैनेजमैंट आदि सेवाओं में सतगुरु हुकुम में नींवे भाव से रमे रहते।

जिक्र आया, एक बंदा सतगुरु प्रेम में भीगा, हर रोज हरे माधव गुरु दरबार साहिब में सेवा को आता। कई माह बीत गए, वह भलीभांति, नित नियम से प्रेमपूर्वक सेवा में हाजिरी देता परन्तु उसके मन-माथे पर निराशा, तनाव, उदासी की लकीरें तनी रहती। क्योंकि उसके व्यापार में रोजाना के काम-काज से जो धन मिलता, उससे घर-परिवार का गुजारा भी बमुश्किल हो रहा था। सेवा करते-करते वह मन ही मन सतगुरु साहिबान जी के श्री चरणों में यही पुकार करता कि हे दया के सागर! मैं बड़ा दुखी हूँ, मेरी आर्थिक कमाई से परिवार का गुजारा भी ठीक से नहीं हो पा रहा, मैं सेवा भी मन लगाकर करता हूँ, रोज़ हाजिरी लगाता हूँ, कभी जी नहीं चुराता। हे दयानिधान! मुझे कोई राह नहीं सूझ रही, मैं मन की वादियों में भटक रहा हूं, मुझ दीनहीन पर दया करो साईं, दया करो।
वह सेवक जब भी हाज़िरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के श्रीचरणों में आता, बस यही विनय पुकार करता और हुजूर साहिबान जी दया रहमत कर अक्सर यही वचन फरमाते, ‘‘सेवा कन्दा कयो, भलो थींदो’’-2 अर्थात सेवा करते रहना, भला होगा।

साधसंगत जी! हरिराया सतगुरु घट-घट के जाननहार, सर्वत्र सबकी मनोव्यथा, सबके जन्मों-जन्मों के कर्मकोष भली भांति जानते हैं, उन्हीं कर्मों के रोगों को देखकर ही रूहानी औषधि अर्थात् परमार्थी सेवा करवा कर्मकोष को हल्का करते हैं। हुजूर महाराज जी फरमाते हैं, ऐ प्यारों! करम तो सभी को भोगने हैं लेकिन सतगुरु सेवा, सतगुरु भगति से करमों का प्रारूप बदल जाता है। सो प्यारों! सतगुरु आज्ञा, सतगुरु वचनों को शिरोधार्य कर, जी हुजूरी में रहें। चाहे मन लगे न लगे हुकुम आज्ञा में रहने में ही जीव का भला है।

संगतां जी! समय बीतता गया, वह सेवक तन से तो सेवा करता लेकिन मन निराशा की गहरी खाई में गिरता ही चला जा रहा था। साधसंगत जी! जीव जब पूरण साधसंगत शरण में आता है, सेवा में तन-मन लगाता है तो काल शैतान उसे भरमाने का प्रयास करता है। अब काल ने उसके मन में भ्रम के फुरणे डाल दिए। काल का तो यही कार्य है, दयाल सतगुरु की राह से जीवों को हटाना, भिन्न-भिन्न चालों के द्वारा अर्थात् मन में नकारात्मक विचारों, लहरों को बनाना। सो वही उस सेवक के साथ हुआ। उस सेवक के मन में सेवा के प्रति अरूचि वाले भाव, शक संदेह वाले, तर्क-वितर्क वाले भाव आने लगे। एक दिन ऐसा आया जब उसने मन ही मन सोचा कि मैं इतने समय से गुरुघर में सेवा कर रहा हूं लेकिन मेरी हालत तो दिनोदिन बिगड़ती ही जा रही है, मैं कल से सेवा में नहीं आऊँगा। वह सेवक उस दिन मन की उलट भावना में बह गया, अंतर मन में सेवा और हरिराया सतगुरु के प्रति भी उलट भाव, सौंसे, मलीन विचार आ गए। सो उसने मन में सेवा में न आने का निर्णय लिया।

जैसे ही वह हरे माधव दरबार साहिब से जाने लगा, उसे एक आवाज़ आई, प्यारे! ओ प्यारे! क्या हो गया? कहाँ जा रहे हो? उसने पलट कर देखा तो कोई न था, सोचा! शायद मेरे मन का वहम है। वह आगे बढ़ा तो फिर से आवाज़ आई, ऐ मित्र! कहाँ जा रहे हो? उसने फिर पलट कर देखा और आवाज़ की दिशा में बढ़ा तो देखा, गुरुघर के सामने, दीवार के पास जो प्लेटफाॅर्म बना है, जहाँ पानी के मटके रखे हंै, यह आवाज उसमें से आ रही थी। वह सेवक बंदा चैंक गया, कि मटका कैसे बोल रहा है? वह घबरा गया, इतने में मटके में से पुनः आवाज आई, ‘‘मित्र! मंै बोल रहा हूँ, तुम क्यों घबरा रहे हो? प्यारे! मैंने देखा कि तुम सतगुरु दरबार की सेवा छोड़कर जा रहे हो, मन में सेवा के प्रति प्रेम भाव नहीं रहा, मन में यह अप्रेम क्यों? सेवा का फल नहीं मिल रहा इसीलिए! अभी से थक हार गए।’’ सतगुरु सेवा से तो कण का फल मण मिलता है, सब्र धीरज, श्रद्धा भरोसा रखो। वह बंदा मटके को आश्चर्य से देख रहा कि, इसे मेरे मन के भावों का कैसे पता! वह आश्चर्य से देख रहा, घबरा रहा। मटके ने कहा, ‘‘ऐ मित्र! सतगुरु श्री चरणों की सेवा बंदगी की वादी बड़ी घनी है, इसे समझ पाना कोई सरल खेल नहीं। तुमने तो अभी इसमें प्रवेश ही किया है। सतगुरु श्री चरणों में आकर उनकी रज़ा भाणे में रहना ही ऊँची सच्ची परम सेवा है, रज़ा में अर्थात् जीवन में दुख-सुख जो भी आए भाणे में रहकर, सेवा करने से ही सेवा फलीभूत होती है।’’ वह सेवक अभी भी घबरा ही रहा था कि मटका कैसे बोल रहा है, पर हिम्मत कर उस सेवक ने पूछा, ‘‘यह सब आपको कैसे पता है।’’ तो मटके ने मुस्कराकर कहा, ‘‘प्यारे, वह सब रहने दो, सुनो! आज मैं तुम्हें अपने जीवन की यात्रा सुनाता हूँ।’’

वह निराश बंदा डरा सा, लड़खडाती जुबान से बोला, ‘‘हां-हां बताओ।’’ वह मटका बोला, ‘‘मैंने अपने जीवन में जितने दुख, कष्ट, यातनाऐं सही हैं, उसका तो बस हरे माधव प्रभु ही साक्षी है।’’ सेवक बोला, ‘‘यातनाऐं? दुख-कष्ट आपको? वह कैसे?’ तभी मटके ने कहा, ‘‘प्यारे! जब मैं मिट्टी के रूप में था, कई वर्षों तक जंगल में रास्ते पर पड़ा था, तब रोज़ चिलचिलाती धूप मुझे तपा देती, ठंड के मौसम में दिन-रात ठिठुरता रहता, बारिश आती, तो कीचड़ बनकर इधर-उधर भटकता रहता, आते-जाते हिंसक जीव, वन्य प्राणी मुझे अपने पैरों के नीचे रौंदते हुए निकल जाते, यही मेरा जीवन था, रोज़ दुख कष्ट सहना, कोई मेरा हाल पूछने वाला भी न था।’

‘‘एक बार उस घने जंगल की राह से हरिराया सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी का आगमन हुआ, जब सतगुरु साहिबान जी के श्रीचरण कमल मेरे ऊपर पड़े, तो मेरा भाग्य ही बदल गया। हाँ, यह सब मुझे बाद में पता चला कि सतगुरु श्री चरण कमलों का प्रताप कितना गहरा, करूणा मेहर से भरा रहता है’’ सेवक बोला! ‘‘वह कैसे?’ मटके ने कहा, ‘‘क्योंकि कुछ समय बाद एक कुम्हार वहां आया और उसी स्थान से माटी खोद खोदकर मुझे अपने घर ले आया। मुझे इसमें भी बहुत पीड़ा हुई, असहनीय दर्द सहना पड़ा, फिर उसने मुझे अपने पैरों से कुचल-कुचलकर चाक पर चढ़ाया, एक ढांचे में डाला और अंदर-बाहर से मार-मारकर मेरा हाल बेहाल कर दिया। इतने में भी उसकी प्रक्रिया पूरी नहीं हुई।’ सेवक ने पूछा, ‘‘फिर क्या हुआ?’ मटके ने कहा, ‘‘उसने मुझे चाक से उतारकर धूप में तपने के लिए छोड़ दिया, मैनें उसी समय प्रभु से विनती की, हे प्रभु! यह तेरी कैसी लीला, इससे अच्छा तो मैं वहीं जंगल में पड़ा रहता, वहाँ तो पैरों के नीचे कुचला जाता था, वहां कम से कम इतने दुख तो न सहने पड़ते। मैं दुख में रोता-पुकारता ही रहता।’

साधसंगत जी! हरिराया सतगुरु हमें कब किस समय, किस मेहर, नियामत, खुशी बक्शना चाहते हैं, यह तो केवल वे ही जानते हैं, उन्हें ज्ञात है हमारे पूर्व कर्मों के लेखे-जोखों का। सेवक का भला किसमें है, यह सर्वज्ञ जाननहार हरिराया सतगुरु से छिपा नहीं परन्तु जीवों का मन जल्दी ही भ्रमों, सौंसो में आ जाता है, पूरण सतगुरु की मौज के प्रति मन में उलट विचारों से भर जाता है।

सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी अनमोल वाणी के जरिए नसीहत देते-

मन के जीते जीत है, मन के हारे हार

सेवक ने मटके से पूछा, ‘‘फिर क्या हुआ? जब तुम पुकार रहे थे, क्या कुम्हार को तुम पर दया आई?’ मटके ने दुखी वाले स्वर में कहा, नहीं, नहीं ‘‘उस कुम्हार ने मुझे धूप में तपाने के बाद भट्टी में डाल दिया, मुझे लगा अब तो मेरा अंत समय निकट आ गया है, मैं आग की लपटों में झुलसता रहा, फिर प्रभु मालिक से पुकार करने लगा लगा, हे प्रभु! इस कुम्हार को तो मुझ पर दया नहीं आ रही, पर तू तो सबका रखवाला है, तुझे मेरी इस दशा पर दया नहीं आ रही, मैंने ऐसा कौन सा गुनाह किया है, मुझे किस जनम के कर्मोें की ऐसी घोर सजा मिल रही है, मुझे इस पीड़ा से निकाल ऐ मालिक, मुझ पर दया कर, मुझे बक्श दे मेहरबान, मुझे बक्श दे। मैं इतनी यातनाऐं, कष्ट पर कष्ट झेल रहा था, मन में भ्रम सौंसे भी आते कि यह कैसा प्रताप है सतगुरु जी के श्रीचरणों का कि, जिनके श्रीचरणों में आने से मुझ माटी को भारी कष्ट मिल रहे हैं। ऐसे उलट ख्यालों मेें मैं बहे जा रहा था, पर कुछ दिन बीतने के बाद कुम्हार ने मुझे भट्टी से बाहर निकाला और रात में भूसे के ढेर पर रख दिया, तब चंद्रमा की शीतलता से मुझे कुछ आराम मिला और सुबह होते ही उसने मुझे अंदर-बाहर पानी से धोया, तब जाकर मेरे हृदय को कुछ ठंडक मिली, मुझे खुशी मिली, मैं शीतल हुआ।’

‘‘ऐ सेवक! उस दिन से लेकर आज तक मैंने तपिश पीड़ा देखी ही नहीं, अब वह मुझसे कोसों दूर रहती है, मुझे चाहे धूप में रखा जाए या छांव में, मैं शीतलता से सदा भरपूर होता हूँ। मुझमें गरम पानी भी डाला जाए तो मैं उसे बदले में ठंडा पानी ही देता हँू, अब मैं अंदर-बाहर से शीतल हो गया हूं, मेरा स्वभाव आनन्द शीतलता से भर गया है और मुझे यह अनुभव हुआ कि जब हरिराया सतगुरु ने मुझे अपने पावन चरण कमलों की धूलि से धन्य किया, तभी से मेरा भाग्य बदल गया, दुखों की काली बदली छंट गई और सुख का सवेरा हुआ, सारे दुख संताप मिट गए, मन से सौंसे दूर हो गए और सतगुरु की करूणा मेहर बरसती गयी। मेरा अहोभाग्य कि कुम्हार ने मुझे बाज़ार में बेचा तो एक सेवक ने खरीद कर मुझे हरे माधव दरबार साहिब में सेवा में दे दिया और उस दिन से मुझमें शीतल जल भरकर यहाँ रखा जा रहा है।’’ संगतों को अमृत जल मिलता है।

‘‘जब मैं यहां आया तो मैंने हरिराया सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के दर्शन किए, मैं खुशी आनंद से भर गया, धन्य-धन्य हो उठा कि आप साहिबान जी की श्रीचरण रज मात्र से मुझ मूल्यहीन मिट्टी को सुंदर मटके का आकार मिला और दूसरों को बेअंत शीतलता का भंडार मिला। आज मुझे गुरुघर की, साधसंगत की सेवा का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।’’ और अब ‘‘मुझे बड़ी ग्लानि होती है कि मैंने अपने सतगुरु के प्रति भ्रम सौंसा शक को पनपने दिया। हरिराया सतगुुरु तो दयाल करुणावान हैं, उन्हें ज्ञात है, हमारा हित किसमेें है, हमारे प्रारब्ध कर्मों के अनुसार हमें दुख कष्ट तो मिलते हैं, परन्तु उनकी दया मेहर विरद प्रतिपालना वाला हाथ, हमारे सिर पर सदा रहता है। सतगुरु की मेहर करूणा का हाथ अदृश्य रूप से हमारा सहारा बना ही रहता है।’’

‘‘ऐ प्यारे मित्र! तुम तो बडे़ ही भागांवाले हो जो स्वर्णिम मानुष शरीर में हो, मैं तो एक तत्व जड़ रूप होकर भी स्वयं को वडभागी मानता हूँ कि भले ही अनगिनत कष्टों, दुखों के बाद, जड़ रूप में ही सही, हरिराया सतगुरु के श्रीचरणों की सेवा मिली है। मैं अपने सतगुरु की सेवा कर आगे ऊँची योनि को प्राप्त कर सकूंगा।’’

‘‘तुम्हें तो पंच तत्व का बुत, शिरोमणी मानुष देही मिली है, सतगुरु श्रीचरणों की सेवा का सौभाग्य मिला फिर भी केवल दुनियावी दुखड़ों, तुच्छ सी माया के कारण तुम इस परम सौभाग्य से वंचित होना चाहते हो! प्यारे! सतगुरु सेवा भक्ति की राह में जीवात्मा को पूर्व कर्मों के अनुसार जीवन में जो दुख कष्ट प्राप्त होते हैं, यह भी हरिराया सतगुरु का गुरु प्रसाद ही जानो, सतगुरु महाराज जी तो सभी जीवात्माओं से सेवा करा पूर्व कर्माें के भार को हल्का कर देते हैं जिससे जीव आंतरिक उन्नति सहज ही कर पाता है। तुम भाणे में रहो, क्योंकि हरिराया सतगुरु को अपने प्रत्येक बच्चांे, जीवात्माओं की सुध है और वह परमपिता करुणावान दयालु अदृश्य-सदृश्य रूप में सेवकों की संभाल करते है।’’

यह सब सुन उस सेवक बंदे की आंखंे भर आईं, सतगुरु महिमा मेहर सुन, भाव प्रेम की अश्रुधारा में जैसे उसके सारे दुख संताप, मन के सौंसे, निराशाऐं बह गईं। वह बंदा मटके के पास नीचे बैठकर दोनों हाथों से मटके को दुलारने लगा, हृदय से उस मटके का आभार प्रकट करने लगा और बोला, ‘‘ऐ मित्र! तूने मुझे विमुख होने से, सतगुरु श्रीचरणांे से दूर होने से बचाया है, सतगुरु सेवा में, रजा भाणे में जीवन जीने की राह बतायी है, अब मैं आखिरी स्वांस तक सतगुरु श्री चरणों को नहीं छोड़ूंगा, चाहे जीवन में कितने ही दुनियावी दुखों के तूफान आ जाऐं, तकलीफें आकर घेर लें, तो भी मैं सतगुरु सेवा बंदगी भगति नहीं छोड़ूंगा, हरिराया सतगुरु के श्री चरण कमलों को कभी न छोड़ूंगा। मैं अपने प्रारब्ध कर्मों का भुगतान सतगुरु श्रीचरण हुजूरी में रह, भाणा मान शुक्र-शुक्र कर, श्री चरण कमलों की छांव में, ठंडक में ही जीवन पर्यन्त पूर्ण समर्पण भाव से सेवा कर जिन्दगानी बिताऊंगा, अपने सतगुरु की भक्ति कमाऊँगा, सतगुरु की भक्ति कमाऊँगा।’’

हरिराया सतगुरु बाबल के श्रीचरणों में यही पुकार है, अंतर हृदय से-

चरण कमल भरोसा तेरा, चरण कमल भरोसा तेरा
मैं चरण कमल का बंदा हूं, सेवक मैं मन का मंदा हूं
चरण कमल गंगा स्यों निर्मल, मेरे घट में आये बसे जी
दास ईश्वर हरि जी मांगै, सतगुरु चरण होए बसेरा

उस सेवक ने मटके को देख कहा, ‘‘कितने माह बाद आज मेरे मन को ठंडक मिली है, आत्मा तृप्त हो गई है, मैं तो अकारण ही थक हार गया था, मन के कहे भटक रहा था। मैं अब जान गया कि मैं बड़ा ही वड्भागी हूँ जो मुझे भजन सिमरन के भंडारी हरिराया सतगुरु की ओट छाया मिली है, अब मुझे भला किसका भय।’’

वह बंदा पुनः प्रेमाभाव से नितनेम से सेवा करने लगा, प्रेमभाव से मन को सतगुरु भक्ति में रमाता। कुछ दिनों के बाद आप गुरु महाराज जी, गुरु दरबार साहिब में तख्त पर विराजमान हुए, वह बंदा रोते-रोते आपजी के श्रीचरणों को पकड़ बस रोऐ जा रहा था। दया रहमत का सर पर हाथ रख, सांईजन फरमाए, अब तो विमुख नहीं होगे न, अब तो सेवा छोड़ के, सतगुरु चरणों से मुंह मोड़ के नहीं जाओगे न।’’ यह वचन सुन आश्चर्य से सतगुरु जी को निहारने लगा और बस रोए जा रहा, हथ जोड़ यही अंतर में विनय कर रहा, ‘‘हे मेरे बाबल, बक्शो। आपके श्री चरणों से जुड़े रहें, यह मन हमें न भुलाए, भाणा मान सत्त-सत्त कर सेवा बंदगी में जीवन गुजारें, ऐसी दया रहमत करें, शरीर छूट जाए पर श्रीचरण ना छूटे’’। वह बंदा रोए जा रहा, उसे अंतर में यह आभास हुआ कि यह सब आप सतगुरु मालिकों की मौज लीला थी, मेरे भटके मन को राह देने के लिए आपजी ने मटके के रूप में मुझे सोझी बक्शी और मुझे विमुख होने से रोक मेरा मन जीवन संवार दिया, श्री चरणों में नतमस्तक हो शुक्राना कर रोए जा रहा। सांईजन ने फरमाया, बाबा! जैसे-जैसे सतगुरु की सेवा में रमोगे, दुनिया का रंग उतरना चाहिए; जैसे-जैसे सतगुरु प्रभु भक्ति और सेवा के सागर में डूबोगे, माया के द्वंद मोह के पर्दे गिलाफ ज़रूर उतरने चाहिए; यह होना भी चाहिए हर इक सिक्ख-सेवक के साथ। प्यारे! पतंग जैसे-जैसे आकाश की ओर ऊपर उड़ती है, निचली दुनिया से संपर्क नहीं हो पाता, ये सतगुरु सेवा का गूढ़ भाव वचन है। वह बंदा हथ जोड़ कहने लगा, सच्चे पातशाह! सतगुरु श्रीचरणों की सेवा में यह मन तन डूबा रहे, मेहर करें।

आपजी ने मेहर का हथ रख फरमाया, प्यारे! सेवा करो भला होगा, भला होगा।

साधसंगत जी! जीव जब-जब मन के हाथों बहने लगता है, काल के वेग में आ जाता है, हरिराया सतगुरु भिन्न-भिन्न रम्जों युक्तियों द्वारा करुणा कुर्ब मेहर कर, जीव को चिताते हैं, सजग करते हैं, जिससे जीव मन के प्रबल तेज वेग में बह न जाए, शिष्य को सच्ची रूहानी राह से जोड़े रखने के लिए कभी वचन उपदेशों द्वारा, कभी रूहानी झिड़प, कभी स्वांग लीलाओं द्वारा दया मेहर बक्श साची राह से जोड़े रखते हैं, विमुख होने से बचाते हैं जिससे कि शिष्य संवरे। उस प्यारे के मन पर जब काल का प्रभाव बढ़ रहा था, आप हरे माधव प्रभु सतगुरु जी ने अदृश्य रूप से करुणा कुर्ब मेहर लीला द्वारा उसे चिताया, मेहर बरसाई, वह बंदा चेत गया और आज भी वह बंदा भोला बनकर नित्य नियम से गुरुघर में सतगुरु श्रीचरणों से साचा प्रेम प्रीत रख, सच्चा भरोसा अकीदा रख साची सेवा करता है। आज उसका कार्य व्यापार भी फलीभूत है एवं अंतर में सच्चा सुख भी प्राप्त है, सारा परिवार भी सतगुरु श्री चरणों की सेवा में रमा है।

Always follow the commands of Lord True Master in all possible ways. Consider your pain and sufferings as Lord`s will, stay engaged in Sewa, this is the duty of a true disciple.

प्यारी संगतों! सेवा करते समय मन में नम्रता, प्रेम और भाईचारा धारण करें, इससे हरिराया सतगुरु की रहमत आशीष प्राप्त होती है। सतगुरु चरणों की सेवा में आलस्य कदापि नहीं करें। सेवक को सदा अपने सतगुरु की आज्ञा में वर्तण करना चाहिए। जीवन को बिरथा न गंवाओ, सदा सतगुरु भक्ति सेवा बंदगी में, नींवे होकर जीवन को रमाओ, सदैव याचना करते रहो कि, ‘‘सांई जी, श्रीचरणों से निभ आए’’-2। सतगुरु चरणों को कभी छोड़ना नहीं चाहिए। हे प्यारों! लोकमत-मनमत का खेल तो सत्मार्ग पर होगा ही! काल का काम एक मन के द्वारा पूरा नहीं हो पायेगा, तो वह कई मनों की ताकत यानि परिवार या समाज के द्वारा जीव को परमार्थ राह से विमुख करने का प्रयास करेगा लेकिन जो सेवक लोकमत मनमत में नहीं आता और अपने हरिराया प्रभु सतगुरु के श्री चरणों में विश्वास समर्पण पूरा रखता है, वह लौकिक सुख भी माणंता है और उसका परलोक भी सुहेला होता है, तभी संतवाणी में आया-

हरी सेवा कृत सौ बरस, गुरु सेवा फल चार
तो भी नहीं बराबरी, बेदन कियो विचार

पूरण सतगुरु श्रीचरणों की सेवा से मलिन मन निर्मल हो जाता है, सब पीड़ायें दूर होती हैं, सूखा हृदय भगति रस से सराबोर हो जाता है। पूरण सतगुरु की साधसंगत में अकीदा रख पक्के विश्वास और पूर्ण समर्पण निह के साथ सेवा चाकरी करे। हरिराया सतगुरु प्रतिपल अपने शिष्यों, भक्तों की संभाल कर रहे हैं। एको हरिराया सतगुरु ही हैं जो जीवात्मा के सच्चे सहाई हैं, इस लोक में और परलोक में भी। संगतां जी! सबसे ऊँची सेवा है सतगुरु हुक्म का पालन करना। सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी के प्यारे वचन, जो जीव मन-माया के वशीभूत हो या मद अहम में आकर हरिराया सतगुरु श्रीचरणों से विमुख हो जाते हैं, काचे सेवक हरिराया सतगुरु की निंदा कर, निंदक वैरी हो जाते हैं, उनकी दशा बड़ी कष्टदायी होती है, लोक-परलोक दोनों में ही उनकी आतम रूह ठोकरें खाती है, निन्दक, द्रोहीं, वैरियों का सारा जीवन दुखों से भर जाता है। अंत समय में भी उनकी मृत्यु बड़ी पीड़ादायी होती है, नर्काें के खुह में डुबोए जाते हैं, आवागमन के फेरों में आते हैं, हाजिरां हुजूर सांईजन ने सत्संग वाणी में फरमाया-

काचा सेवक अधोगत पायी, काचा सेवक अधोगत पायी

पूरण संत सतगुरू शिष्य भगतों को मनमाया के दलदल से निकाल कर अमृत पिलाना चाहते हैं, कभी प्रेमयुक्त मीठे वचनों के द्वारा तो कभी रूहानी झिड़प मार के द्वारा, मगर शिष्य मैली संगति, कुमति में पड़ उनकी रम्ज, कल्याणकारी वचनों को समझ नहीं पाता, अपनी मनमति से चलता है। यह सब काल की बाजीगरी है कि उसे अपनी सेवा का अहंकार हो जाता है और भ्रमवश सोचने लगता है, मैं तो सच्चा सिख सेवक हूँ। यदि सतगुरु झिड़प फटकार दे तो वह अहं मद में पड़, खुद को सच्चा सेवक मान, सतगुरु पर दोषारोपण करता है, अपने मैले कर्मों को न देख बड़बड़ करता है। प्यारे! मन के कहे न बहो, जे सतगुरु झिड़कै मारै तो कहिए जी शुक्र ही मालिकां जी, क्योंकि-

साहिब के दरबार में, कमी काहू की नाहीं
बंदा मौज न पावही, चूक चाकरी माहिं
द्वार धनी में पड़ा रहे, धक्का धनी का खाय
कबहूँ धनी निवाजहीं, जो दर छोड़ न जाय

प्यारे! मछली जल में रहे, उसके लिए यही उचित है और शिष्य सतगुरु श्रीचरणों में रहे, यही उसके जीवन की जीत है। इसी से शिष्य आतम को जीवन का सार अमृत प्राप्त होता है। पूरण साधसंगत की नित सेवा व भगति से आपका हृदय निर्मल हो जाता है और निर्मल हृदय में ही अकह हरे माधव प्रभु विराजते हैं। सतगुरु की आज्ञा में रहकर, बिना किसी इच्छा के, स्वयं को दास मानकर की गई सेवा से सच्चा अहनिष फल आनंद, सुमति एवं भजन-बंदगी में अमृत मिलने लगता है।

आप हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिबान जी भगत वेष से ही सतगुरु श्रीचरणों की सेवा, साधसंगत की निष्काम भाव की अणखुट सेवा कर अक्षय फलों को माण कर आज तमाम आतम जीवों के लिए यह अक्षय फल, सेवा का महातम अपने भजन मुख से वाणी, सत्संग वचनों के द्वारा प्रगट करते हैं। जो सेवा के दिव्य दात में स्व महक कर, रंग कर, रच कर प्रभुमय पुरुख में एक हुए, वे ही हमें सेवा का सच्चा निर्मल पथ प्रगट करते हैं। जिस वृक्ष में भारी फल लगे हैं अवश्य ही उसकी जड़ भारी पौष्टिक कमाई से भरपूर होगी। आपजी यानि जीवन मुक्त सेवा के अणखुट प्रताप की मूरत हाजिरां हुजूर बाबाजी सेवा के फल को अपनी वाणी से यूं प्रगट कर रहे हैं-

सेवा ऐसी नित करो, निहकामी होय सदा पर परवाने हर धाम होय
सतगुरु शरण इह सेव ते, सबहु परम गत पायी
काचा सेवक अधोगत पायी, इह करो तू सदा विचारा
‘दास ईश्वर’ ऐसी सेव सदा मांगै, ज्यों सेव करावै तैसी हौं करीये

आज तक भी आप साहिबान जी स्व सेवादारों के साथ खड़े होकर नींवी से नीवीं सेवायें भी अपने पावन कर कमलों से, समत्व मौज में करते हैं। हरे माधव वाटिका में, चाहे कोई भी मौसम हो, आपजी प्रतिदिन सुबह स्वयं खड़े होकर सेवकों, बाल-गोपालों को माटी धान के रोपे बनाने के लिए सेवा करवाते, ट्रैक्टर से पूरे खेत की जुताई, पूरे खेतों में निगहबानी और संभाल के लिए सेवादारों को राह देते। कई बार हम शिष्य भगत यह विराट सेवा का रूप देख पाते हैं और कई बार आपजी यह लीला, विराट सेवा का कुर्ब छिपाकर करते। यह समस्त जीवजगत पर अद्भुत कुर्ब है कि परिपूरण हरिराया रूप होकर भी आपजी गुरुमत की प्रभुमय वादियों से गुज़र कर, हमारे लिए आदर्श मर्यादा कायम करते हैं, कि हम भी इसी तरह, सतगुरु चरणों की निष्काम सेवा, प्रेमा भक्ति में रमें।

प्यारों! जब भारी कमाई वाली ताकत के साए में, उनकी छाँव में बैठो तो अनायास ही मंगलकारी छाया एवं फल मिलेते ही हैं, लेकिन हम छांव से अलग हो जाते हैं क्योंकि हमारी भावना, हमारे औखे करम आड़े आ जाते हैं, पर हमें घबराकर ऐसी मंगलकारी छांव को छोड़ना नहीं है, टिकना है। शिष्य चाहे भला हो या मैला गंदला हो, हरिराया सतगुरु की शरण में टिके रहने से आज नहीं तो कल उसका निबेरा ज़रूर होता है, सतगुरु शरण सदा सुखकारी हितकारी है। हम सभी आत्माओं को सच्चे पातशाह, हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी की पावन ओट शरण प्राप्त है। सतगुरु श्री चरणों में मोल तो केवल सच्चे भाव व नम्रता से की गई सेवा का ही होता है। अब हम सबका यह कत्र्तव्य, धर्म है कि ऐसी कीर्ती भाव, भगति भाव, अंतरमुखी भजन रस का हम शौक रखें। सच्चे सतगुरु की ओट को कस कर पकड़ना, मन काल की तिरकण में न बहना। सो विनय अर्ज है, हे हरिराया सतगुरु जी! हम सभी सुत्ती आत्माओं को जागन का बल बक्शें, सेवा, सत्संग, सिमरन, प्रेमाभक्ति का आसरा सच्चा सबल, बल दें, विनय प्रार्थना सच्चे पातशाह कबूल हो, माफियों की आस हर पल लगी रहे, श्री चरणों में निभ आए। मेहर दया करें बाबाजी! हम पर मेहर बरसाओ, रहमत बरसाओ। हे मेरे सतगुरु! प्रकृति की सब शक्तियां आपकी सेवा के लिए लालायित हैं, फिर भी आपने मुझ जैसे तुच्छ जीव को सेवा प्रदान की है, आपकी अति कृपा है।

‘दास ईश्वर’ ऐसी सेव सदा मांगै, हरे माधव पुरुखा पियारे
ज्यों सेव करावै तैसी हौं करीये, ज्यों सेव करावै तैसी हौं करीये

हरे माधव   हरे माधव   हरे माधव