|| हरे माधव दयाल की दया ||

।। नाम महारस मीठा साधो, अंतर सिमरो अंतर आराधो।।
।। ऊँचा रस यह ऊँचा धन है, ऊँचा यह पद ऊँचा मद है।।
।। ऊँचा ऊँच ही देवे साधो, ऊँचा ऊँच ही देवे साधो।।

गुरु महराज की पावन ओट छाया, सत्संग, अर्श वाटिका में बैठी संगतों, आप सभी को हरे माधव, साहिबान के पावन चरण कमलों में दण्डवत अर्पण हो, समर्पण हो।

यह निजी अनुभव महारस, परम रस की, नाम महारस की वाणी भजन सिमरन के भण्डारी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी की वाणी है। वक्त का सतगुरु महारस सचखण्ड देश से आता है और उस देश का समूरा हुकुम नामा आदेश सर्व आत्माओं के लिए, एक ही सहज सरल साधन सतगुरु नाम की भक्ति का, उसके सिमरन, ध्यान का मार्ग देते हैं, क्योंकि दुनियावी समृद्धि बाहरी परम्पराओं में, बाहरी रसों में सुख नहीं है, जीव के अंदर निःरसपन, घट में आकुलता के बादल सदा घिरे ही रहते हैं, महारस के भण्डारी सतगुरु उस अमृत अमिरल रस को देने में पूर्ण समरथ है, पर शर्त है, जीव के मन का पात्र उल्टा नहीं होना चाहिए, क्योंकि अनमोल नाम रतन को साफ सुथरे प्रेम अभ्यास वाले हृदय में रखा जाता है। नाम शबद के दाता सतगुरु बक्शनहार हैं, वे रूह आतम को वह युक्ति नाम का धन बक्शते हैं और रूह उसे कमाकर, अपने निज खावन्द में मिल पाती है। प्रभु के हुकुम से, सतगुरु महारस नाम के दाते बन प्रगट होते हैं, वे सुनी सुनायी बातें नहीं करते, वे आज सच्चिदानंद नाम के भण्डारी, नाम मंत्र के अविनाशी फल का स्वाद भी अपनी परम खुमारी, परम महारस अपने निजी अनुभवों परम खुमार से अपनी वाणियों से हमें सुनाते हैं, हम गफलत में सोए जीवों को जगाने के लिए। पूरण सतगुरु अजात हैं, सर्व आत्माओं के लिए समत्व भाव से अपनी करुणा मेहर को देते हैं क्योंकि वे सर्व धर्म, जो व्यापक धरम है, सारी रचना के कुल बंदों के लिए वह एक ही है, उनके रूहानी दीवानों, जल्सों में एक दाते की, अमृत की बादशाहत के राज खुलते हैं। श्री गुरुनानक देव जी भी वचन कह समझाते हैं, उनका मत तो एक है-

खत्री, ब्राह्मण, शूद्र, वैश्य, उपदेश चहुँ वर्णों को सांझा।
गुरुमुख नाम जपे उधरे सो, कल मंह घट-घट नानक मांझा।

कुल संसार के लिए उन संतों का एक ही फरमान, पैगाम है, कि वह जो अगम अथाह की एकस ज्योति है, जो बिना बाती, बिना तेल के हर किसी के घट में जल रही है और जो कोई पूरे साधु की संगति में नाम की महिमा को सुन, भजने की युक्ति जान, उसे जपता है, नाम को गुरु परसादी जान, फिर

गुरुमुख नाम जपे उधरे सो, कल मंह घट-घट नानक मांझा

सधसंगत जी! पूरण सतगुरु हमें हरे माधव प्रभु का सच्चा मीठा नाम, उस शबद नाम के मीठे गुण एवं अभ्यास के जरिए महारस परम आनन्द की प्राप्ति का बल देते हैं, गुरु परसादी नाम सभी रसों से ऊँचा, सभी रसों से मीठा है, वह अखण्ड महारस है, उस नाम का सिमरन कर, अभ्यास कर, हमें परम आनन्द का रस पीने का पथ देते हैं, ऐसे पावन न्यारे शबद मंत्र का वे खुलके प्रचार करते हैं और बांटते भी हैं।

गुरुप्रसादी नाम मंत्र की प्रसादी बड़ी से बड़ी ऊँची पावन निर्मल चीज है, भगतजन ऐसे न्यारे नाम को घोंट-घोंट कर, जप कर पचाते हैं, कमाते हैं और अमृत आनन्द की खुमारी में, महारस में लीन रहते हैं।

नाम महारस मीठा साधो, अंतर सिमरो अंतर आराधो

वक्त के पूरे सतगुरु जो हरे माधव लोक, सचखण्ड अमृत देश से आते हैं, वे आनन्द अमृत रूप् हैं, खुद पा चुके हैं, वह अमृत नाम के जरिए हमें भी साचा अमृत देना चाहते हैं-

ऊँचा ऊँच ही देवे साधो, ऊँचा ऊँच ही देवे साधो

वे प्रेम, दया, विरद के वशीभूत होते हैं। हाजिरां हुजूर गुरु महाराज जी ने फरमाया, यह मारग जीते जी मुक्ति का मारग है, मरने के बाद का नहीं, आतम तो अविनाशी ही है, लेकिन जीव नहीं जानते, यह नाशवन्त परिवर्तनशील दुनिया है पर जीव बेखुद बेखबर मोह माया के लहरों में उलझ गया है, मद अहंकार विकारों का जीव पर असर पड़ गया है, आज संसार में इंसान अशांत है, बेचैन अस्थिर डोल रहे हैं, जब सतगुरु अमृत नाम के रूहानी भण्डार खोलते हैं, तो वे कहते हैं, कि नाम की सेवा से जुड़ो, उसे कमाओ साध-संगत में आकर, फिर तुम आनन्द, शांत, सरल रूह की बैठक पाओगे। साधसंगत जी! जीवन दुर्लभ है और यह देही अमोलक है, इस अवसर का फायदा उठाकर हम सतगुरु की पनाह में नाम को पाकर, उसे कमाकर, अकाल पुरुख पारब्रम्ह में विलीन होने का, उस परमानन्द में लीन होने का गौरव हासिल कर रहे हैं,

कुल-ऐ-मालिक सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी अपनी प्यारी वाणीयों में आतम की परिपूर्ण यात्रा के विषय में फरमाते हैं कि प्यारे सतगुरु के बक्शे गुरुनाम के सिमरन से रूह निर्मल होकर निजघर की प्राप्ति कर सकती है। आपजी ने वचन विलास कह अपनी वाणी में नूर की रोशनी बक्शी-

कलयुग मन मलीन कर दीनो, नाम बिना सब बिरथै कामा।
ज्पओ नाम ध्यावओ नाम, पाओ साचे गुरु से।
टवर सारे जतना सब काल के मतना।
भरम छोड़ो नाम जपो, भरम छोड़ो नाम जपो।
क्हे माधवशाह सुनो भाई संतों,मैं तो बात सदा सार की कहूँ।

कहा, सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी ने इस कलिकाल में जीवों के घटों में मैलापन सा भर गया है,

कलयुग मन मलीन कर दीनो, नाम बिना सब बिरथै कामा।

ऐ प्यारों! वक्त के साचे पूरण सतगुरु से साचा शबद कमाओ, जिससे तुम्हारे अंतर में भ्रम का जो मैलापन है, वह दूरों-दूर हो जाएगा। साची सार बात एको थी, एको ही रहेगी,

अवर सारे जतना सब काल के मतना।
भरम छोड़ो नाम जपो, भरम छोड़ो नाम जपो।
क्हे माधवशाह सुनो भाई संतों, मैं तो बात सदा सार की कहूँ।

ऐ प्यारों! जब न्यारे मीठे सतगुरु नाम को हम अंदर ही अंदर कमाते हैं, उस खावन्द प्रभु का नूर प्रगट जलाल हम देखते हैं, तब मैल, विकार भाग निकलते हैं, अंतर घट निर्मल हो जाता है।

ऐ जीवात्मा! मन का स्वभाव है उसे जो भा गया, उसी की मांग करेगा। सो प्यारों, मन को सतगुरु नाम का महारस चखाओ, वह संसार से विमुख होकर उसी की चाह मांग करेगा, उसी में रमा रहेगा।

O Soul! Its the nature of mind to demand what pleases it. So, please your mind with the supreme elixir of Satguru Naam, your mind will estrange from the worldly desires, it will always urge for the elixir and remain engrossed in it.

श्री रामचरित मानस बालकाण्ड में कथन आया-

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका, भए नाम जपि जीव बिसोका

चरों युगों, तीनों काल भूत भविष्य वर्तमान तीनों लोकों, ब्रह्मा लोक, मतस्य लोक, पाताल लोक ऐसे मीठे सतगुरु नाम का सिमरन कर, जीव शोक संताप से रहित हुए हैं।

भगवान श्री कृष्णचंद्र जी श्री भगवत गीता में फरमाते हैं-
त्द्विद्धि ,प्रणि पातेन, परिप्रश्नेन सेवया।
डपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं, ज्ञानिनस्तत्व दर्शिनः।
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोध्मेवं यास्यसि पाण्डवं।
येन भूतान्यशेषेण दृक्ष्यस्यात्मन्ययो मयि।

हे अर्जुन! आध्यात्मिक गूढ़ज्ञान को, पूर्ण तत्व दर्शी ज्ञानी, पूरण सतगुरु की शरण संगत में जाकर समझ, उनको भलीभान्ति दण्डवत प्रणाम कर एवं उनके श्रीचरणों की सेवा, सरलता पूर्वक शुद्ध मन से करने से, वे परम तत्व के जानकार, पूरण ज्ञानी पूरण सतगुरु हस्ती, तुझे तत्व ज्ञान का उपदेश देंगे, जिसे सुन तू उसे कमा, फिर तू मोह विकार को नहीं प्राप्त होगा और ऐसे गहरे ज्ञान के द्वारा तुम्हें अपने, फिर मेरे और समस्त प्राणियों में, आनन्द दायक सच्चिदानन्द रूप परमात्मा दिखेगा।

सत्संग की शबद वाणी में अमृत नाम की महिमा का बखान यूं किया गया, जी आगे-
।। न्यारा शबद यह प्यारा शबद है, भगत जनों के साथ यह धन है।।
।। गुरु की मति से पावो साधो।।
।। मन की मति से न सिमरौ नाम, गुरु की मति से सिमरौ नाम।।
।। नारायणशाह यह कहते साधो।।

न्यारे संत सतगुरु न्यारे देश की राह बक्श रहे हैं, कि गुरु का प्यारा भगत, गुरुप्रसादी अमृत नाम को बड़े चाह प्रेम बड़े अभ्यास से कमाता है तो सहज समाधि के द्वारा नाम के नाद में मिलकर, अनाम में एक हो जाता है, फिर उस जीव के सारे मनोरथ पूरे होते हैं, वह सच्चे मायनों में सूरमा है, धैर्यवान है, वह सुमति का धनी हो जाता है,

पूरा सतगुरु अमृत शबद नाम का रूप् होता है, साधक शिष्य को जब नाम का दान बक्शते हैं, तो आतम को मीठे नाम से तार जोड़ने की युक्ति विधि सिखाते हैं, जिसका अभ्यास कर भगतजन कह उठते हैं, मुझ दीन पर प्यारे सतगुरु दयाल ने अपार मेहर करूणा कर, ऐसा अमर नाम मंत्र शबद बक्शा, उनकी मेहर से मैं अंदरूनी शीतलता आनन्द दायक अमृतमय लोक में पहुँच, पावन पवित्र परमानन्द में लीन हो गया। सच्चा ध्यान सतगुरु के स्वरूप् का ध्यान है और साचा प्रेम, साची भक्ति, सतगुरु प्रेम है।

न्यारा शबद यह प्यारा शबद है, भगत जनों के साथ यह धन है
गुरु की मति से पावो साधो

हाजि़रां हुज़ूर सतगुरु बाबाजी प्यारी हिदायती रसीली वाणी में महारस परम रस अनाम अजन्मे निराले रस की बात कह रहे हैं-
सतगुरु मेरे निज रंग लिया निज लीन्हा।
शबद नाम दे के मन भंग किया, आतम निज रंग दिया।
यहाँ के रंग काले, ठग करम हैं काले।
वेद कुरान कहत पाक खुदाए।
दास ईश्वर गाए हरे माधव पुरुख विधाते।

आप सच्चे पातशाह जी ने फरमाया, मुझ पर प्यारे सतगुरु की मेहर भरी परम अमृत महारस की बारिश व्यापक रूप में हो रही है, हुजूर जी कह रहे हैं, सतगुरु खुद अनाम महारस रूप है, जब शिष्य उनके प्रेम, सेवा, सत्संग, गुरु प्रसादी मीठे शबद के जोड़ से जुड़ता है, तो वह अपने अंदर गुप्त भेद को जान लेता है, वह परम मीठा शबद अति कोमल संगीत की तरह, नाद धुन की तरह, नित्य अंदर बरस रहा है, जब सतगुरु दयाल दात बक्शते हैं, तो साधक की लिव ऐसे मंत्र नाम से जुड़कर आवाज में मग्न होती है, फिर उस अमृत को पीकर रूह आनन्दित परम मस्ती में रंग जाती है, आपजी ने कहा-

आतम निज रंग दिया सतगुरु मेरे ने

मुर्शिद महबूब ने सुमति का दान बक्शा, तो भ्रम अवज्ञा की दीवारें गिर गई और सृजनहार प्रगट हो उठा, आतम रूपी ज्योति श्रुति रूपी नाम से जुड़ परम साहिब में मिल गई। कहा सच्चे पातशाह जी ने,

मन की मति से न सिमरौ नाम, गुरु की मति से सिमरौ नाम
नरायणशाह यह कहते साधो

सधसंगत जी! पूरण सतगुरु से शबद को सुनने का विचार जान लो, बल युक्ति आसरा पा लो, जब आप गुरु प्रसाद नाम को कमाओगे, शुरु में मन के संकल्प-विकल्प फुरणे उभरेंगें। सतगुरु को याद कर पावन शबद को जपते रहो, कसकर पकड़ लो, फिर मीठे नाम को कमाते-कमाते, यह शबद हमें अमृत की धारा में पहुँचा देता है, फिर सदा आनन्द विनोद की तरंगे दिल में बहती हैं और अंदर बाहर व्यापकता की बस्ती दिखती है, इस गुरुप्रसादी अदित्य धुन की साधना में रंग उस दाते का अंतरमुखी गुणगान करते रहो, फिर महारस का परम पद सहज मिल जाता है, फिर अनन्द रूप् परमानन्द रूप हरि हर हरे माधव प्रभु हृदय पट में आकर बस जाता है।

सधो जग यह सब सपना है, दुख सुख धूप-छांव है न्याई
मया ठगी सब को ठगे, भ्रम जाल बणाया
अन्तर आतम राम न सूझे, बाहर घट के ना पाया
ओस की बूँद ज्यों जगत है, देही मांस की है काया
रावण बाली बल बड़ा, तिन भी काल खाया
खोजो सतगुरु तत्व का भेदी, भेद बतावे सारा
सध-संगत के बनो बौरे, सेव नाम बचन कमावौ
छास ईश्वर करे विनती, दया करो, हरे माधव पुरुख अपारे

हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी फरमाते हैं, ऐ प्राणी! यह संसार जगत मिथ्या है, जीवनकाल में दुख-सुख, धूप-छांव स्यो हैं, इस मायाकाल की नगरी में जीव अपने घट के साहिब अमृत से दूर है। मोह, माया और अहंकार में जीव संसार के झूठे सुखों में खोया है, जो ओस के समान है।

रावण बाली बल बड़ा, तिन भी काल खाया
खोजो सतगुरु तत्व का भेदी, भेद बतावे सारा

आप देखो! श्रावण के दस सिर थे, जिसने देवों-त्रिदेवों, काल को भी अपने हाथ में रखा था, लेकिन वह समरथ सतगुरु की शरण, पनाह से दूर था।

काल की काली शक्ति से रावण ने सत्य शक्ति से वैर विरोध एवं मनमति में पड़, पूर्ण साधूजनों के साथ उनकी शान में, उनकी मौज में बड़ा मैला खेल किया, सो रावण आज कहाँ? लेकिन ऐ मन! तू विचार कर इस काल ने सभी को अपना आहार बना लिया है। अब सतगुरु पूरे की शरण से अमरा तत्व को पाकर काल माया की गुपशुप की नगरी से पार हो जाएं। गुरुमुखजनों सतगुरु शरण सुखकारी है। तू सतगुरु के सच्चे हाट में जाकर सच्चे सौदे का हुनुर सीख, जिस व्यापार के लिए तुझे मालिक ने भेजा है, वह सौदा सीख, विषय विकारों मैं-मैं की प्रेरणा के आधीन हो, हम जिन्दगी बसर करते हैं, हम हर एक सम्भव यतन पुरजोर से करते हैं, लेकिन सारे व्यर्थ बह जाते हैं, अहंकार विकारों के रस की मस्ती में। हम प्राणियों से अनेका अनेक मैले पाप हो जाते हैं,

मया ठगी सब को ठगे, भ्रम जाल बणाया

इन्हीं पापों के कारण बार-बार इस दुनी जहान में हमें धक्के खाने पड़ते हैं। इसीलिए बार बार हिदायत दी जाती है कि स्वांस-स्वांस अमृत नाम का सिमरन करते रहें।

ऐ बंदिया! यह शरीर घड़े के समान है, जिसमें से स्वांस रूपी बूंदे एक-एक कर बहती जा रही हैं, इसलिए स्वांसों के रहते सतगुरु नाम बंदगी कर, आवागमन से छूटने का यत्न कर।

O being! This body is like a pitcher, from which the droplets like breath are dripping one by one. So while you have breaths, make efforts to get rid of cycle of births by meditating the Satguru Naam.

रूहानियत की राह में रूह को सुरति को, केवल गुरुमति याने प्यारे सतगुरु के बक्शे मीठे अमृत नाम को, सतगुरु चरण-शरण में गुरुमुख बन रसीलेजन बनकर कमाना है। प्यारे! गुरुप्रसादी नाम की कमाई के बिना, दुनियाभर के सारे वाचकी ज्ञान तो निरर्थक है, क्योंकि दुनिया इसी राह पर चल रही है, लेकिन ऐ रब के अंश! आप सब हरे माधव पावन ग्रंथ पढ़, सत्संग सुनकर आतम मंथन करो, हरे माधव प्रभु की वाणियों को सुनकर आतम को नाम शब्द से जोड़ो, सतगुरु मत को हियरे में धारो। हरे माधव प्रभु की अर्शी वाणियों, दरगाही वाणियों को श्रवण कर, उच्चारण कर हृदय में सच्ची शीतलता, आनंद, परम रस को प्राप्त करो, नितनेम से वाणियों का श्रवण कर, अमृत रस में भीगने का फायदा उठा, आत्मिक ऊर्जा को बढ़ाओ, जिससे आपके मन अंतर की निगेटविट, पॉजिटविटी में बदल जाएगी। अगर जीव पावन सतगुरु प्रभु के नाम का सिमरन नहीं करते, दुनियावी धन, मान, सम्पदा, मायावी पदार्थ इकट्ठे करने में उमर लगा देते हैं, तो अंत में उन्हें रोना पड़ता है, पछताना पड़ता है, अगर आप साध-संगत में जाकर पावन नाम को सम्भाल लेते हो, फिर वह अंतकाल में हमारा सहाई होता है।
अंतर के अमृत खजाने का भेद बाबाजी सत्संग की शबद वाणी में खुलासा कर रहे हैं, जी आगे-

।। अंतर सुख है बाहर दुख है, अंतर साच है बाहर झूठ है।।
।। अंतर जुगति पाओ गुरु से साधो ।।
।। दास ईश्वर पर कृपा करो, देवो साचे नाम का ध्याना।।

हाजि़रां हुज़ूर सतगुरु साहिबान जी समझा रहे हैं, कि जीव के घट अंदर ही परम अमृत आनन्द का स्त्रोत है, जिसका भेद वक्त के देहधारी कमाई वाले रहबर ही देते हैं।

सतगुरु सांई नारायणशाह साहिब जी भी प्यारे परम वचनों के भेद दात हमें दे रहे हैं-

गगन चढ़ नाम लौ धर, पाई आतम निज सहज की राई।
क्हे नारायणशाह सुनहों भक्तों, चढ़ गगन संगत साधू संग।
पाओ नाम अराई।

आपजी समझा रहे हैं, कि ऐ आत्मा! तेरे निज घर में केवल नाम की महिमा है और नाम को तू कमा, आपजी ने कहा-

गगन चढ़ नाम लौ धर

ऐ रूह! तू नौ द्वारों से निकल कर ऊपर चढ़, वहाँ मीठे अमृत सतगुरु नाम की ध्वनि अनहद नाद की झंकार हो रही है, अपनी तव्वजू लौ को वहाँ टिका, बिठा। उस हरे माधव प्रभु की आंतरिक दरबार में वह नाद सदा गूंज रहा है, बज रहा है, उस नाद को श्रवण कर, अंतर अमृत की झिम-झिम रस धार को प्रगट कर।

सतगुरु, रूहों को, अमृत नाम की प्रसादी देकर, उन्हें हंस बनाते हैं और हम जब ऐसे प्यारे गुरु प्रसादी नाम को, गुरु संगत में जपते हैं, तो दिव्य आनन्द की प्राप्ति होती है, फिर उस नाम को कमाकर, गुरुमुख जन अंदर का अंधेरा मिटा लेते हैं। पावन प्रभु का प्यारा नाम दिव्य प्रकाश रूप है और उसे शबद के जरिए ही पाया जाता है, यह गुरु प्रसादी न्यारा नाम पारब्रम्ह पुरुख का रूप है, जो जीव के अंदर हउमें, मद, मोह, ममता गहरे अंधकार को काटने की अचूक दवा है, इसीलिए सत्संगियों! नम को कमा, हम सब सारे झूठे जगत के झंझटों से मुक्त होकर, सच्चे अमृत आनन्द के भागीदार बनें।

सूफीमत के दरवेश कहते हैं, बड़े प्यारे कौल वचन-

चश्म बंद ओ गोश बंद ओ लब बबंद।
गर न बीनी सर्रे हक बर मन बखंद।

ऐ मुरीद! यह बात सुनो, पहले मुर्शिद महबूब की पनाह में पाक दिल होकर रहना, फिर उनसे सच्चे मंत्र कल्में की तहजीब को सीखना, अपने होंठ, आँख, कान पुख्ते बंद करना, फिर तुम देखोगे, कि तुम्हें उस रब्बल का भेद, उसका इल्म ना हो तो हमसे कह देना। उनकी पनाह में तुम बड़े नूर की दुनिया देखोगे, यह अनुभव हर किसी मुरीद को हो सकता है, बशर्ते! जे इस कौल पर ईमान लाए और मुर्शिद आजम में अपना ईमान अकीदा पुख्ता करे।

सतगुरु सांई नारायणशाह साहिब जी ने फरमाया, कि सुरत शबद गुरुनाम के अभ्यास से रूह सतगुरु के सतलोक में जाकर बस सकती है। आपजी ने अपने जीवन काल में अंतरमुखी साधना के गहरे अमृत प्रसाद की महिमा, हर रम्जों बहुविधियों से आवाम संगतों को देनी चाही, पर जीव भूले बाहरमुखी, आज फिर वही गहरे वचन भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी, गुरुसाहिबानों की अंतरमुखी तालिमों को, मनोहर बेखुदी वचनों को प्रेम, करूणा से सुहणे वचन खोल-खोलकर जगाने के ख्यालात से समझते हैं, कि प्यारे! अब तो जागो, आपजी ने सिंधी वचनों की वाणी में फरमाया-

सुरत मिली शबद सां गगन उडाणी
मिले पहिंजे सतगुरन सां राणन जी राणी
जिथा किथा वयूं त वाधायूं वरी।
दुख दर्द गम फिक्र सब वया टरी।
सुहणों सुहणों सतगुरु डिसी नेण प्या ठरी।
दुख दर्द गम फिक्र सब वया टरी।

आप हाजिरां हुजूर गुरु महाराज जी फरमा रहे हैं, कि अविनाशी प्रभु का अंश ऐ सुरति! तू गुरुप्रसादी शबद के सिमरन में रंग जा, फिर साटिक गगन में टिकने का अभ्यास कर और जितनी भी दुई के नजारे दिखें, उन्हें हटाती चल। प्यारा सतगुरु परम दयाल है, अंदर तुम्हें वह आसरा देता है, पर कहते हैं, पहले सतगुरु नाम के सिमरन का अभ्यास पुख्ता करो।

आपजी गूढ़ वचनों के भेद खोल समझा रहे हैं, कि सुरत और मन अमृत गुरुप्रसाद का सिमरन करते हुए, दोनों आँखों के मध्य टिक एकाग्र हो जाते हैं, ऐ सुरति! ज्ब तक तुम्हें अंदर कोई स्वरूप् दिखाई नहीं देता, एकाग्र हुए मन दोनों आँखों के मध्य, रूह को अगर वहाँ कोई आधार नहीं मिलता, फिर नौ द्वारों में दुनियावी भोगों की ओर, यह मन दौड़ा देता है, इस रूहानी अंतरमुखी साधना का आधार पूरे सतगुरु के द्वारा बक्शा, मीठा अमृत नाम है।

सिमरन की गहरी गूढ़ अवस्था भी ध्यान है, लेकिन अभ्यासी को सबसे ज्यादा जोर नाम के सिमरन पर देना चाहिए एवं सिमरन प्यारे सतगुरु के स्वरूप् का ध्यान टिकाते हुए करना चाहिए, क्योंकि साहिबान जी समझा रहे हैं, इस मन की आदत है, हर पल सोचने की याने दुनिया के भिन्न-भिन्न विचारों को याद करना याने सिमरन करते रहना, अगर ध्यान, सिमरन एवं मन की शक्तियां इकट्ठी होकर इस राह में लगें, तो ऐसे सिमरन में रमने से, यह मन शांत भाव में बैठता जाता है। सिमरन की अवस्था पक जाने पर अभ्यासी की हालत यह हो जाती है, कि सिमरन न केवल अपने आप चलता है, अपितु देही का रोम-रोम फिर सिमरन करता है।

सतगुरु की मेहर से वह सुरत, नाम शबद का रूप् ही हो जाती हैं, मन की मलीनता से दुख दर्द गम फिर सब हट जाते हैं, लूं लूं से बधाईयां मिलना शुरू हो जाती हैं, अंदरूनी रूहानी तरक्की से समूरा आधार सुरत निरत को ऐसे अभ्यास में लगा, जपाता है। फिर रूह अंदरूनी प्रकाश गुरु प्रसादी शबद के आसरे, दुखों दर्दों एवं काल पर आतम विजय हासिल कर देती है, दुनिया के बंधन कट जाते हैं।

आपजी ने वचन कह दिए-
जिथा किथा वयूं त वाधायूं वरी।
दुख दर्द गम फिक्र सब वया टरी।

और आपजी ने वचनों में कहा-
सुरत मिली शबद सां गगन उडाणी

सुरत आतम गगन की चढ़ाई प्रत्यक्ष सतगुरु के बक्शे गुरु नाम उनकी रहनुमाई वचन संगति में लौ लगाकर ही गगन में उड़ती है, क्योंकि कमाई वाला सतगुरु यह जानता है, किस तरह रूह को हंस गति देना है और फिर हंसों को आकाश में उड़ाना है, लेकिन प्रेम पुख्ता होना, वचनों में ईमान, अकीदा पुख्ता होना।

गुरुमुख नाम का अभ्यासी, अपने अंतर में अंदरूनी चढ़ाई शुरू होने पर, वह गुरु का प्यारा अभ्यासी गगन मंडल वतन में विचरने उड़ने लगता है, मंडल गगन की विस्माद अद्भुत अलौकिक ज्योति श्रुति याने ज्योत प्रकाश का दर्शन कर, वह श्रुति अनहद नाद को सुनने में मग्न हो जाते हैं, दुनिया की आशा, तृष्णा, मोह, ममता, पुण्य, पाप भारी कर्म जल जाते हैं। सतगुरु रहमान है, वह दयाल सतगुरु है, संवरना हमें है, वे आतम को संवारने के लिए मेहर किरपा को बरसा रहे हैं, अर्श की निशानियां दात लुटा रहे हैं, मन के भारी चंगुल से आतम मुक्त होकर अपने अंदर गुरुप्रसादी शबद एवं ज्योति प्रकाश में मग्न हो, सहज भाव में रमकर ऊपर रूहानी मंडल याने हरे माधव अविनाशी रूप् साहिब में मिल जाती है।
सतगुरु बाबाजी ने सिन्धी में प्यारे वचन कहे-

सुहणों सुहणों सतगुरु डिसी नेण प्या ठरी।
दुख दर्द गम फिक्र सब वया टरी।

आपजी कहते हैं, गुरुमुख की सुरत रूह! भजन सिमरन की कमाई वाले समरथ सतगुरु से नाम सिमरन का बल मांगो और साटिक आँखों के ऊपर टिको, सुरति को समेट कर, देही को खाली कर, रूह को वहाँ पर ले जा, जहाँ पर सतगुरु विराजमान हैं।

पहले अभ्यासी को ऐसा भान होता है, मन की दलीलों से कि दयालु सतगुरु आता है और फिर चला जाता है, लेकिन यह दशा हमारी है, मन अक्सर नीचे की ओर आता है, ऊपर कम टिकता है, दयाल सतगुरु अडोल थिर बैठा है, वह अडोल तखत पर मौजूद है, हिलता नहीं, हमारे मन की दशा ऊपर-नीचे होती है, अभ्यास करते-करते प्यारे सतगुरु का न्यारा स्वरूप् चित्त में स्थिर हो जाता है, अभ्यासी के अंदर जब ऐसे स्वरूप् को वह गुरुमुख बड़े प्रेम चाह से निहारते रहते हैं, फिर अंदर उस स्तर में, गुरु उन्हें अपने में मिलाकर, अपने रूप् की शान, शिष्य में भर देता है, वह एकत्व की भाषा जान लेता है, यह फनां ऊँचाई नहीं है, क्योंकि सतगुरु, उस अभ्यासी रूह को, जो बेपनाह प्रेम रखते हैं, उन्हें न्यारे शबद का गीत सुना, सतलोक सतरूप् में एक कर देते हैं, हरे माधव अडोल नूर में बड़ी प्यारी पुकार है-

सुहणों सुहणों सतगुरु डिसी नेण प्या ठरी।
दुख दर्द गम फिक्र सब वया टरी।

ऐ रब के अंश! सतगुरु के बीज शबद से किस तरह रूह को ताकत मिल रही है, यह अभ्यास कर, निज अनुभव से अंतरमुखता की ओर रुख करो। प्यारे सत्संगियों! गुरु महाराज की अनन्त करुणा लीला कैसे लेखनी के द्वारा लिखी जा सकेगी, अनगिनत रूहों को उबारने हेतु आपजी अपने नूरी कलाओं के द्वारा, शिष्य गणों को हरिराया हरे माधव निजघर का अनुभव इकरस बक्शते हैं। जो कि देही का अंतरमुखी पथ है, जोकि वाणी में आया-

अंतर सुख है बाहर दुख है, अंतर साच है बाहर झूठ है

आप मालिकां जी हरे माधव गुरु दरबार में सुशोभित आसन पर विराजमान, संगत दूर शहरों एवं अन्य नगरों के भी सेवकगण आप हुजूर महाराज जी के श्री चरणों में नतमस्तक कर रहे, कोई परमार्थ के अभिलाषी, आप बाबाजी अमृत श्री वचनों की ज्ञान गंगा उनपर बरसा रहे थे, चरण कमलों में अकीदा, दिल प्रेम से भरा, आंखे सतगुरु प्रेम में तर, दीनता प्रीत से एक शिष्य अर्ज कर कहने लगा, मेरे सतगुरु! ळमारे घर को पवित्र कीजिए, जब तक आपजी श्री चरण नहीं धरेंगे, हम नहीं बैठेंगे।

आप बाबाजी ने मुस्कुराकर कहा, जब घर का काम पूरा हो जाएगा, तब आऐंगे, वह हर बार दूर शहर से आता, अर्जियां विनय पुकार करता, शहंशाह जी! आपका घर तैयार हो चुका है, हम खादिम गुलाम हैं, तब आपजी कहते, 2-3 साल रुकोगे? वह कहता, सच्चेपातशाह! हम गुलाम हैं, मालिक आप हैं, आपने ही सब किया है, आपका हुकुम सिर माथे।

रिश्तेदार, मित्रगण सब ताना देते रहे, एक दो साल गुजर गए, क्योंकि पहले का मकान कच्चा बना था, बारिश पड़ती तो पानी अंदर गिरता, लू में गरम हवा के थपेड़े सहते, ठण्ड में भारी ठण्ड को भी सहते, दिल में प्रीत का मौसम बना रहता, वह गुरु का प्यारा हर बार, अर्ज करता और आपजी फरमाते जाओ बैठो, अभी नहीं। भगत कहता, सच्चे पातशाह! घर में आपजी का आसन बनाया है, आपजी विराजे फिर सुबह शाम आपजी आज्ञा करें तो पूरा परिवार नाम सिमरन वहीं बैठकर करें।

आपजी ने वचन फरमाए, तैयारी करो, इस बार आऐंगे, आपजी भगत वत्सल साथ में संगतें, उस प्यारे के घर को पवित्र किया, आप साहिबानों ने दया मेहर कर सतगुरु नाम की महिमा के वचन फरमाए, नाम की कमाई से आत्मा निजघर का सुख पाती है, सतगुरु के नाम प्रताप से, हम उसे जपकर, सिमरन कर निर्मल सुख के अधिकारी बनते हैं, संसार की कोई वस्तु हमारे साथ नहीं जाती, केवल और केवल सतगुरु नाम ही सुरति का सच्चा साथी है।

जब आप मालिकां श्री वचन फरमा रहे थे, आपजी के मुख मण्डल को निहार-निहार कर, उस प्रेमी शिष्य की माताजी बड़े प्रेम प्रीत से, सतगुरु में गाढ़ा प्रेम कर, अमृत वचन श्रवण कर रही थी, माताजी की सुरति चरण कमलों के ध्यान में मगन हो गई, उत्तम प्रेम, संस्कारी आत्मा, जब सतगुरु नाम से सुरति जुड़ी, तो धुरधाम सचखण्ड के अलौकिक नजारों में डूब गई, बस वाह-वाह, शुक्र-शुक्र का भाव चेहरे से झलक रहा था, जब पिण्ड देश में याने स्थूल शरीर में उन माता की रूह वापिस आई, तो भावुक हो उठी, आप बाबाजी के श्री चरणों में आकर जो दीद दरस कर अंतरमुखी नज़ारे अनुभव किए, वह माता बोल उठीं, हृदय से सदके के भाव, ‘‘सदके वंड्या’’ कि हम सौभाग्यशाली हैं, कि खण्ड ब्रम्हाण्डों के मालिक-ऐ-कुल के चरणों में बैठे हैं, रिद्धि-सिद्धि चंवरे झुला रही हैं, देव देवा देव सेवा भाव से इर्द-गिर्द हाथ जोड़ खड़े हैं, वहाँ बैठी संगते कुछ समझ नहीं पा रही थीं, आपजी ने हाथ से इशारा कर कहा, बस अब ज्यादा कुछ मत कहें अम्मांजी। पूरे परिवार ने अर्ज किया, सच्चेपातशाह! नमदान की मौज जब शुरू हुई थी, तब से हमारा नाम लिखा हुआ है, लेकिन नामदान आजतक हमें नहीं मिला, रहमत मेहर कर आपजी ने पूरे परिवार को अमृत नाम की बक्शीश की एवं परिवार को वचन फरमाए, इसी जगह बैठकर रोज सिमरन किया करें।

कुछ दिनों के बाद उस अम्मा ने शरीर छोड़ दिया, परिवार के दिलों में भिन्न-भिन्न कच्चे विचारभाव, कुछ संकीर्ण भाव उमड़ने लगे, फिर एक दिन जब घर के बड़े ने सोते समय यह दृश्य देखा, कि रात्रि नींद में सतगुरु सच्चे पातशाह बाबा ईश्वरशाह साहिब जी बहुमूल्य माणिक रत्नों के आसन पर सुशोभित हैं, उस वक्त सूर्य देव का प्रकाश भी लज्जित दिखाई दे रहा था, श्री चरणों में वही माता अम्मां बैठी आनन्द दायक आभा के चक्र घूम रहे हैं, तभी उस प्यारे की नींद खुल गई, वह झटके से उठ खड़ा हुआ और घर में तथा मित्र इष्टों को नींद वाली अलौकिक दृश्य की बात कहने लगा, सभी के दिलों में साधुवाद मीठी प्रेम की लहरें, चरण कमलों में गाढ़ा प्रेम, सभी जयकारों के बोल कहने लगे।

प्यारे सत्संगियों! पूरन संत सतगुरु तो विराट रूप् में हैं, जबकि हमारी बुद्धि तुच्छ है, वे तो सदैव हम सबका कल्याण करते हैं, उनकी हर एक लीला में केवल और केवल जीव का हित छिपा है। इसी प्रकार मेहरबान जी ने अम्माजी की रूह को निर्मल पाक कर हरे माधव अगम लोक में सद्गति बक्शी। जो भगत प्रेमी सतगुरु के मीठे अमृत नाम का सिमरन श्रद्धा अटूट विश्वास के निःस्वार्थ भाव से करता है, उसकी मेहरबान सतगुरु पल-पल सार संभाल करते हैं।

सतगुरु शरण संगत में बैठे स्नेहीजनों! सत्संग के परम प्यारे वचन हमें अंदरूनी अमृत रस से जुड़ने की ओर इशारा कर रहे हैं। प्यारे मालिकां जी वचन मेहर के बक्श रहे हैं, हमें उठाने हैं। सतगुरु नाम का सिमरन निशदिन करें, गुरु शरण सत्संगत में नित नियम रखें और सेवा की महत्वता महानता में घुलमिल जाऐं, प्यारे सतगुरु के परम प्यारे वचनों के अंदर सुमत का भण्डार छिपा है, मन, वचन, कर्म से भंवरे बनने की ओर अपना रुख करें। सो विनती है, महारस के सच्चे पातशाह सतगुरां के श्री चरणों में कि हमें अपना गोला बनाऐं, मेहर करें, दया करें, हम सतगुरु नाम का सिमरन एवं सतगुरुमत के सारे कायदे पुख्ते अंतरमुखी होकर कमाऐं, रहम करो, मेहर करो मेरे सतगुरु जी, हरे माधव बाबाजी।

।। अंतर साच है बाहर झूठ है, अंतर जुगति पाओ गुरु से साधो।।
।। दास ईश्वर पर कृपा करो, देवो साचे नाम का ध्याना।।

हरे माधव   हरे माधव   हरे माधव