।। हरे माधव दयाल की दया ।।

वाणी संत सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी

।। करो संग साधू पूरे का, उन सत्संग प्रेम बिठावो।।
।। सतसंगत में भ्रम सभ छूटै, आत्म मंज्जन नित जे करे।।
।। कहे माधवशाह सुनो भाई संतो, अगम वाट सतगुरु संग ते पावो।।
।। नाम जो आत्म नित्त-नित्त मंज्जन करो, कोई निर्मल अगम जाओ।।
।। करो संग साधू पूरे का, उन सतसंग प्रेम बिठावो।।

परम तत्व प्रगट, एकत्व की एकता और दिव्य सत्ता की सच्ची अवस्था को प्राप्त, हरिरया रूप प्यारे सतगुरु के निर्मल दरस पा रही, पवित्र संगति पनाह में बैठी संगतो, आप सभी को हरे माधव। हरे माधव सच्चपातशाह पुरनूर सतगुरु के चरण कमलों में सच्चा प्यार सच्ची नीह प्रीत को दिल में बैठा, हम सबका अकीदा नमस्कार दण्डवत हो।
आज के शबद वाणी का फरमान, कुल मालिक सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी की सत्य संगत, मंजन ओत-प्रोत से भरी यह रब्बी वाणी है। आप हुजूर जी फरमाते हैं, कि आज दुनिया तमाम में जन साधारण लोग साधारणतः सच्चे सतगुरु पूरे सतगुरु के सत्संग जलसे में यथार्थ भाव असल उद्देश्य को कम समझते हैं, दुनिया तमाम के जीवों ने, कथा व कहानियां कहने, सुनने, कीर्तन, गायन को ही पूरा सत्संग या साचा सस्ता समझ रखा है, लेकिन यह उनकी भूल है, कथा कहानियां सत्संग नहीं है, वे तो कथाऐं हैं, सत्संग का गुणगान तो सच्चे सतगुरु करते हैं और हमें सच्चे पूरण सत्संग से जुड़ने को कहते हैं, क्योंकि प्यारे सतगुरु का सत्संग किसी वस्तु जो पदार्थ चीज का नाम नहीं है, सत् का अर्थ सत्य वस्तु, शाश्वत वस्तु, जो विनाश रहित स्थाई है एवं संग का अर्थ है, सच्ची संगति।

संगति का प्रभाव बंदे जीव के मन पर, बड़ा असर डाल देता है, जुआरी शराब की संगति कर, हम भी उसके आदि हो जाते हैं संगति का प्रभाव, असर होना अनिवार्य है, इससे बचा नहीं जा सकता, जहाँ बड़े कारखाने फैक्ट्रियाँ लगी हैं, वहाँ प्रदूषण तो अवश्य फैलता है, हम शुद्ध हवा के लिए बागों में, जंगलों में, एकांत में जाते हैं, जो हमारे शरीर को स्वस्थ करती है, पुष्ट करती है, और हमारे अंदर तो तीनों तापों की प्रदूषणता, मैलता भरी है, वह केवल और केवल साधसंगति में आने से ही दूर होती है। मैले से मैला, पापी से पापी इंसान भी अगर सतपुरखों की संगति में आसरा निवास बना ले, तो वह भी एक न एक दिन मलीन बुराई से हट, अंधेरे भ्रम से रहित होकर मृदु एवं सज्जनवान बन जाता है, संगत का प्रभाव तो जीव जगत पर पड़ना अनिवार्य है, इसीलिए समझाया गया, की साधसंगत सेवा में नियम रखें, आप देखें, जिस नगर, जिस थांव में ,सच्चे सतगुरु सतपुरुखाें का वास-निवास होता है, वहाँ के वातावरण, आबोहवा भी, सत्य, सदाचार, पाक पवित्रता के भावों से परिपूर्ण रहती है, जो जन लोग, जाने अनजा उस अनूठे वायुमण्डल, आभामण्डल में प्रवेश या दाखिल होते हैं, तो ऐसी सत्संगति, ऐसे वातावरण के संपर्क में, वे बार-बार आते ही रहते हैं और संत सतगुरु की शरण दीवान सत्संगति प्रसाद से उनकी अवस्था पलटे बिना नहीं रह सकती। साधसंगत से जीव को हृदय में निर्मलता व शीतलता मिलती है, साधसंगत में जो हम जो भोजन ग्रहण करते हैं, वह भोजन भी संगतों को आत्मिक शीतलता देता है, साध संगत में बनने वाला भोजन, प्रसाद हो जाता है, क्योंकि इस भोजन में पूरे सतगुरुओं की रहमत भरी नज़र होती है, सेवा में भोजन प्रसाद बनाने वाले सेवक भी सिमरन भजन करते, अंतर में सतगुरु को याद कर भोजन बनाते हैं, जिससे वह अमृत तुल्य हो जाता है और भण्डारे प्रसाद की सेवा कर जीव भी आतम सुख पाता है, सेवक सेवा में आनंद में रहता है, यह पूरण साधसंगति का ही प्रताप है। रामायण में भी ऐसी संगति की भूरि-भूरि प्रशंसा गाई गई-

छठ सुधरहिं सत्संगति पाई, पारस परसि कुधातु सुहाई।  पारस की संगति से लोहा कंचन के रूप में पलट जाता है इत्र, गंधी की हाट दुकान के निकट से अगर हम गुजरते हैं, तो हमें इत्र फुलेल की महक तो, बिना मूल्य चुकाए मिलती है, फूलों खुशबू से लदे बने बगीचे में हम जाते हैं, तो हमें सुगंधित समीर का आनंद मिलता है। इसी प्रकार पूर्ण सतपुरखों की संगति सेवा के मीठे प्रभाव से, मनमुख जीव, पापी से पापी, शंका शक शुभा वाले लोग, भी सतगुरु शरण में संवर सुधर जाते हैं, जो आप हाजिरां हुजुर सतगुरु पुरुख की शरण छांव में हम सभी से अनुभव किए हैं, कि हमारा जीवन पहले कैसा था, अब कैसा है, सतगुरु मेहर दया से हम सभी हमारे बाल-गोपाल सच्ची संगति से जुड़ अथाह रहमतें पा रहे हैं।

पूर्ण संतपुरुख, अनन्य करुणा के पुन्ज ,शरण में आए जीवों को कर्मों का भान करा सेवा सिमरन से आन्तरिक भेद बक्श सच्ची राह पर चलाते हैं।

सतगुरु बाबाजी समझा रहे हैं कि हमारे ही किए गए कर्मों के अनुसार हमें यह देह मिली है, इस देह में आकर पूर्व जन्मों में जो बोया है वो इस जन्म में काट रहे हैं और आगे भी जो बोयेंगे वही काटेंगे। कर्मों का भुगतान जीव को करना ही है, कर्म का सिद्धांत अटल है, हमारे हमारे द्वारा किए गए कर्मों का खाता हमारे संग साथ चलता है, उसका भुगतान देना ही है।

दद्दै देष ना देउ किसै, दोष करमां आपणिआ
जो मैं कीआ सो मैं पाया, दोष न दीजै अवर जनां

इस संसार मैं रहते हुए हम सभी लोग, दुख-सुख अपने ही कीते कर्मों के कारण भोग रहे हैं, किसी भी दूसरे का इसमें दोष नहीं है और कर्मों को भोगने के सिवाय कोई उपाय भी नहीं है। न जाने कितने वंशों और कुलो के साथ हमारा लेन-देन का संबंध बना हुआ है जो किसी न किसी रूप में भोगना ही है। इसी वास्ते प्रत्येक मनुष्य के जीवन काल में कभी सुख तो कभी दुख आते ही रहते हैं। पूर्व जन्मों में जिसके साथ जैसा कर्म किया, उसी अनुसार वह इस जन्म में उसे हिसाब देना है, कर्मों के भोज का भाणे में रह भोगने का बल सतगुरु दया मेहर कर बख्शते हैं।

कुल मालिक सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी फरमाते हैं, कि नित्त भजन, सिमरन के द्वारा मन निर्मल और शान्त होता है, वक्त के हाजिर प्रगट सतगुरु की शरण में मन निर्मल होता है, अगम वाट सतगुरु संग ते ही प्राप्त होती है, फरमाया आपजी ने-

नाम भजो आतम नित्त- नित्त मंज्जन करो, होए निर्मल अगम जाओ
करो संग साधू पूरे का, उन सतसंग प्रेम बिठावो 

गुरु महाराज जी ने फरमाया, जीवों का यह स्वभाव है कि वह हर समय किसी न किसी वस्तु का सिमरन अथवा चिंतन करता ही रहता है। एक पल के लिये भी वह खाली नहीं रहता। संत सतगुरु समझाते हैं कि ऐ प्राणी! तुझे सिमरन चिंतन तो अवश्य करना है, लेकिन ऐसा शाशवत वस्तु का सिमरन कर, जिससे तेरा यह लौकिक जीवन सुख आनंद से व्यतीत तो और परलोक भी संवर जाये, वह शाश्वत वस्तु कौन सी है, वह है सतगुरु नाम। इसलिये नाम का सिमरन हर घड़ी, हर पल, स्वांस-स्वांस में करना है, क्योंकि जीवन की घड़ियाँ तो निरंतर बीती जा रही है, यदि इस अवसर से चूक गये, तो जन्म-जन्मांतरों तक पश्चाताप करना पड़ेगा, गुरुवाणी में भी सख्त हिदायत दी गई है-

समझाया गया, कि ऐ जीव! अब भी समय है, चेत जा और सतगुरु सेवा, चरणों की भगति से जुड़ जाओ क्योंकि ऐ बंदिया! तेरा यह शरीर फूटे हुए घड़े के समान है, जैसे फूटे हुए घडे़ से एक-एक बूंद पानी टपक समाप्त हो जाता है, वैसे ही तेरी आयु भी एक-एक क्षण में घटती जा रही है। ऐ नासमझ प्राणी! तू क्यों नहीं पूरण साध-संगत शरण में नित्त आ सेवा कर लाभ उठाता, मन माया के झूठे लालच लोभ में फंस, अपनी मृत्यु को भी भूल बैठा है, ऐ मूर्ख प्राणी। अब भी जाग-

जो समय प्रमाद, आलस्य में बीत गया, सो गया, अभी भी समय है चेत जाओ। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा। सतगुरु भगति, सिमरन ध्यान कर निर्भय पद प्राप्त कर लो, निर्भय पद प्राप्त करना अर्थात हर प्रकार के भय से मुक्त होना क्योंकि दुनिया में जितनी भी रचना है, फनां है। कोई भी पदार्थ स्थायी एवं नित्य नहीं है। इसलिए हर समय जीव को इनके बिछुड़ जाने या धन, पद, रिश्ते-नातों के छिन जाने का भय लगा रहता है, जो वस्तु सार सत्य है, स्थायी है, नित्य है उसे प्राप्त कर लें, और वह है, सतगुरु प्रेम एवं उनके द्वारा बक्शा अमृत नाम, हृदय में सतगुरु श्रीचरणों का अटूट प्रेम रख, नाम सिमरन करने से ही निर्भय पद को प्राप्त किया जाता है।
साधसंगत जी! लेकिन हम क्या कर रहे हैं? अमोलक मानुष तन पाकर भी इस ओर ध्यान ही नहीं देते, केवल और केवल खाने- पीने व सोने-कमाने, रिश्ते-नातों, इंद्रिय भोगों में पशु समान जीवन व्यतीत करते हैं। कहा-
अर्थात उच्च कोटि का मानुष तन जन्म परन्तु काम सभी पशुओं वाले हैं। पूरन सतगुरु दया मेहर से चेताते हैं, उपदेश देते हैं कि यह मानुष जन्म बार-बार नहीं मिलना इस मानुष दही से फायदा उठाओ। लेकिन जीव मन के कहे आकर सदा यही कहता है, कि संसार के काम- व्यापार, परिवार की जिम्मेदारी से जरा अवकाश मिल जाए, फिर सिमरन करूंगा, साध-संगत में आने का नियम बनाऊँगा, ऐ रब के अंश! क्या कभी कार्य व्यापार से, रिश्ते-नातों से किसी को अवकाश मिला है? कदापि नहीं! "हाँ, देह से अवकाश जरूर मिलेगा।"  देह समाप्त हो जाएगी, स्वांसे साथ छोड़ घट रही हैं, ऐसे जीवन क्षण-क्षण बीतता जा रहा है, परन्तु फिर भी मन के कहे में आ, सत्संग सेवा के लिए समय नहीं निकालते, वरन् अपने आप को दुनिया माया में और उलझा रहे हैं। सच ही कहा है-

इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि आप अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ न निभाऐं, कार्य व्यापार न करें, जी करें पर सजग रहें, जीवन निर्वाह करते करते, कर्तव्य निभाते हुए भी सतगुरु चरणों से प्रेम प्रीत करें, सेवा, सत्संग से जुड़े, सिमरन, ध्यान स्वासों को लगाए रखें।

मन की झूठी दलीलों, मन की चालाकी, कि मेरे पास समय नहीं या नित्त नए तन के दुख, मन के दुख के बहाने मत बनाओ, जागो, समझो! ज़रा इस क्षण-भंगुर जीवन को। एक पल का भी भरोसा नहीं, कि कब बिनस जाए, कब देहि साथ छोड़ दे, कभी रूह इस तन के पिंजरे से उड़ जाए।
समझाया गया, कि सचेत हो जाओ ऐ प्राणी! जिन रिश्ते-नातों के लिये तू अपना जीवन लगा रहा है, प्रेम मोह में उलझ गया है, जब तेरी यह देही छूट जायेगी, इक दिन को भी यही रिश्ते-नाते तुझे घर में न रखेंगे-
ऐ बंदिया! पूरन सतगुरु चरणों में तन-मन-धन से सेवा बंदगी करो, आज के स्वांस-स्वांस में नाम जपो, व्यर्थ ना गंवाओ, चेत ऐ बंदे, चेत!

जो समय स्वासें गफलत और मन के कहे आलस्य में बीत गयीं, वह तो बीत गयी, वह स्वांसे अब नहीं मिलनी, परन्तु जीवन का जो समय स्वांस शेष बची है, उसे लेखे लगा। सेवा, सत्संग, सिमरन, ध्यान में वक्त बिता। क्योंकि जो जीवन भर किया है, अंत वेले में वही याद आएगा, "समझाइश आती है जरा गौर करने साध-संगत जी" एक बन्दा वृद्धावस्था में उसकी स्वांसों का आखिरी वेला था, मरणशय्या पर है। उसने अपनी धर्म पत्नी जो कि सत्संगी थी, उससे पूछा कि बड़ा बेटा कहाँ है? पत्नी ने कहा, वह पास ही खड़ा है, आप चिंता न करें, अच्छा और मंझला बेटा? वह भी पास है, उसने कहा और छोटा बेटा? वह पैरों के पास खड़ा है, आप बिलकुल चिंता न करें, आप शांति से ध्यान करें सतगुरु चरणों का और विश्राम करें लेकिन वह बुजुर्ग क्रोध से बोल उठा, ध्यान करूं, सो जाऊं क्या मतलब? जब सभी यहाँ हैं तो दुकान कौन चला रहा है ?साधसंगतजी यही स्थिति है हमारी। मृत्यु के आखिरी क्षण तक भी तुम्हारे मन में दुकान ही चलती रहती है, चलेगी भी क्योंकि जो जीवन भर चला है, जिसको कमाया है वही साथ तो चलेगा, वही तो अंत में याद रहेगा, तुम अंत में अचानक अपने को बदल न पाओगे। तुम उन झूठी कथाओं में मत पडना कि किसी बन्दे का अंतिम समय था और उसके बेटे का नाम कृष्णा था और अंत समय में अपने बेटे को कृष्णा-कृष्णा बुलाया तो अंत में उसे मोक्ष मुक्ति मिली, नहीं कदापि नहीं! भाई! इस धोखे में न पड़ना, इतनी सस्ती रहा नहीं है, "जीवन भर का निचोड़ अंत में फलित होता है।" तुमने जो जीवन भर गिना है, तो मौत भी वही गिनते हुए जाओगे, अगर रुपये गिने हैं तो अंत वेले वही संख्या चलेगी, क्योंकि अंत वेला तुम्हारे जीवन का सार, निचोड़ है। रिश्ते नातों में मोह रखा तो उनमें ही मोह फंसेगा, अशांत जिये हो तो अशांति ही विदा जाओगे, अगर शांत जीये हो तो महाशांति होगी। तुम ऐसे लोगों की बातों में मत पड़ना जो कहते हैं, अंत समय में जब मृत्युशैय्या के करीब होंगे, तब याद कर लेंगे तो काम हो जायेगा, ऐसा नहीं होगा, क्योंकि उस वक्त वह तन और तुम्हारा मन, दोनों साथ नहीं देंगे, तन तुम्हारा कुम्हला जाएगा, पीड़ा में, दर्द में कराहता रहेगा और मन ने जो जिंदगी पर किया, वही अंत में दोहरायेगा।
ऐ सयाने बुद्धिजनों! जो संग साथ चलना है उस धन को कमा ही नहीं रहे, असल धन, सतगुरु चरणों की भक्ति का ध्यान, नाम धन कमाने की ओर जीव का रुख ही नहीं। ऐ रब के अंश! जीते जी नेक परमार्थी जीवन न जिया तो शरीर छूटने के बाद प्यारे! फिर तो चौरासी में जाना है, आवागमन में आना है, चौरासी लाख योनियं तय है भोगना, इस वास्ते माता सहजो बाई जी ने कहा-

देह छूटै मन में रहे, सहजो जैसी आस
देह जनम तैसे मिलै, तैसी ही घर वास

अर्थात् फिर जैसी अंत समय में तुम्हारी मोह की आस रहेगी, वैसा ही जन्म मिलेगा यानि जहाँ आस तहाँ वास, पशु योनियां मिले या भूत, प्रेतों की योनियां, उन चालीस लाख योनियों में कितने भी कष्ट पीड़ा हो, यातनायें मिलें पर वहाँ कोई न सुनेगा हमारी पीड़ा, इन चौरासी के फेरों में तुम्हारे दुख कष्ट की पुकार कोई नहीं सुनेगा। सो जागो ऐ रब के अंश! चौरासी के फेरों से आवागमन से मुक्ति के लिए सतगुरु चरणों में आकर स्व को जानों, निज को पहचानो,  "कुछ कर अपनी आत्मा के लिए-2" सिर्फ शरीर के लिए नहीं, जीते जी मरना सीखो, स्वांसों की जमा पूंजी को सतगुरु चरणों में लगाना जाना क्योंकि पूरण सतगुरु की ओट हो तो जीवन में न कभी चोट हो। असल अगम की राह पर चलें, साधसंगत में आकर सतगुरु दर्शन कर सतगुरु भक्ति करें। गुरुवाणी में वचन आए-
परमेसर की वासना, अन्त समय मन माहि
तन छूटै हरि कू मिलै उपजे बिनसै नाहि
अर्थात् जीवन पर्यंत साध संगत शरण में रह जिस गुरु भगत ने सतगुरु बंदगी की, सतगुरु भक्ति की, फिर सतगुरु प्यारल की मेहर किरपा से अंत समय सतगुरु चरणों का ध्यान होगा और उनका सदा के लिए आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है-
तन छूटै हरि कू मिलै उपजे बिनसै नाहि

साधसंगत जी! नाशवान जगत के वस्तु पदार्थों से मोह को हटा, सतगुरु चरणों में आकर, थिर शांति, थिर आनन्द की बक्शीश मांगे, सतगुरु भक्ति कर आतम पूंजी बढ़ायें, दीनदयाल हरे माधव सतगुरु की शरण में स्व भी आये एवं बाल-गोपालों को भी इस सार सत्य की संस्कारों की पाठशाला से जोड़, उन्हें भी सतगुरु भगति की राह में लगाएं।

पूरण सतगुरु की भक्ति की तुलना, किसी भी दुनिया भी सुख आनंद से नहीं की जा सकती और यह अनुपम भक्ति मिलती है, वक्त के देहधारी सतगुरु की कृपा व मौज से, फिर जिन शिष्यों भगतों को पूरण भक्ति मिली उन्हें स्वप्न में भी दुख, चिंता नहीं मिलते, प्रारब्ध कर्मों के अनुसार जीवन में दुःख सुख आते हैं तो गुरु भगत सदा भाणे में रहकर दुख सुख को सतगुरु रजा मान परम आनंद में मस्त रहते हैं। सच्चा गुरुभगत मृत्यु से भी भय नहीं खाता, वह तो मौत से भी कहता है, तू उस वक्त आना जब मेरे हृदय विच मेरे सतगुरु बाबा का तसव्वुर हो, तन गुरु चरणों की सेवा में लीन हो, नैनों में सुहिणे बाबल की छवि हो, ऐ मौत! तू उस वक्त आना जब मेरी रूह सतगुरु नाम में मग्न हो तब तुझे ले जाने में आनंद आए और मुझे जाने में परम आनंद आए। जब गुरु भगत ऐसी कमाई की अवस्था बना लेता है, हरीराया की सफल मूरत पूरण सतगुरु के सत्तलोक में फिर तो वह आतम पहुँच ही जाती है।

साधसंगत जी! हम सभी वडभागी हैं कि हमें हाजिरं हुजुर हरे माधव बाबल हरी रूप पूरन सतगुरु की शरण संगत मिली है। सतगुरु चरणों में सदा यही पुकार झोली फैलाकर करें, ऐ मेरे हरे माधव बाबा! अपने चरणों की भगति दे।

हरे माधव    हरे माधव    हरे माधव